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सोमवार, 7 जून 2010

वचन और संख्या

मेरे पति, जे, संख्याओं में निपुण हैं और मैं शब्दों अर्थात "वचन" में। यदि संख्याओं में मेरी कमज़ोरी कभी मेरे अहम् को ठेस पहुंचाती है तो अपने आप को बड़ा जताने के लिये मैं जे से कहती हूं कि "वचन" के लोग श्रेष्ठ होते हैं क्योंकि यीशु ने अपने आप को "वचन" कहा न कि "संख्या"।

अपने पक्ष में तर्क देने कि बजाए जे मेरी बात सुनकर बस मुस्कुरा देते हैं और मेरे बचकाने तर्कों से अधिक महत्वपूर्ण अपने काम को जारी रखते हैं। क्योंकि जे अपना बचाव नहीं करते इसलिये मुझे ही यह बचाव भी करना पड़ता है। यद्यपि मैं इस बात में सही हूं कि यीशु "वचन" है; किंतु मैं इस बात में गलत हूं कि उन्होंने अपने लिये किसी संख्या का प्रयोग नहीं किया। परमेश्वर के वचन का एक मर्मस्पर्शी भाग है प्रभु यीशु की प्रार्थना जो उन्होंने अपने बंदी बनाकर क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले करी। मृत्यु उनके सामने थी, ऐसे में उन्होंने न केवल अपने वरन अपने चेलों के लिये और हमारे लिये भी प्रार्थना करी। हमारे लिये उनकी प्रार्थना का सबसे महत्वपूर्ण भाग एक संख्या से सम्बंधित है। उन्होंने कहा: "मैं केवल इन्‍हीं के लिये बिनती नहीं करता, परन्‍तु उन के लिये भी जो इन के वचन के द्वारा मुझ पर विश्वास करेंगे, कि वे सब एक हों। जैसा तू हे पिता मुझ में हैं, और मैं तुझ में हूं, वैसे ही वे भी हम में हों, इसलिये कि जगत प्रतीति करे, कि तू ही ने मुझे भेजा। और वह महिमा जो तू ने मुझे दी, मैं ने उन्‍हें दी है कि वे वैसे ही एक हों जैसे की हम एक हैं।" (यूहन्ना १७:२०-२२)

"वचन" के साथ जीवन जीने वाले लोग होने के कारण हमें स्मरण रखना है कि सही वचन भी संसार को निरर्थक लगेगा यदि मसीह में हम एक रहकर, एक मन और एक आवाज़ में परमेश्वर की महिमा न करें। - जूली ऐकैरमैन लिंक


परमेश्वर अपनी सन्तान को एकता में रहने के लिये बुलाता है।


बाइबल पाठ: यूहन्ना १७:२०-२६


मैं और पिता एक हैं। - यूहन्ना १०:३०


एक साल में बाइबल: २ इतिहास २८, २९ यूहन्ना १७