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शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

उपलब्ध?

   परमेश्वर के वचन बाइबल में प्रभु यीशु के पृथ्वी पर रहने के काल की एक घटना काफी प्रसिद्ध और चर्चित रही है - 5000 की भीड़ को भोजन कराना। मरकुस द्वारा लिखित इस घटना के वृतान्त में हम एक विचित्र बात पाते हैं। घटना संक्षेप में इस प्रकार से है: एक बहुत बड़ी भीड़ प्रभु यीशु और उसके चेलों को देखकर उनके पीछे हो ली और प्रभु दिन भर उन्हें सिखाता रहा, उन से बातचीत करता रहा। जब सन्ध्या होने लगी तो चेले चिन्तित होने लगे कि इतने लोग भोजन कैसे करेंगे, और उन्होंने प्रभु यीशु को सुझाव दिया कि वे भीड़ को विदा करें जिससे वे घर जाकर भोजन कर लें (मरकुस 6:35-36)। परन्तु प्रभु यीशु के उत्तर ने उन्हें चकित कर दिया; क्योंकि प्रभु यीशु ने अपने चेलों से कहा, "तुम ही उन्हें खाने को दो" (मरकुस 6:37)।

   प्रभु यीशु का चेलों से ऐसा कहने का क्या अभिप्राय था? यूहन्ना रचित सुसमाचार में लिखित इसी घटना के वर्णन में हम उत्तर पाते हैं - प्रभु यीशु उन्हें परखना चाहता था, परन्तु वह स्वयं पहले से ही जानता था कि उसे क्या करना है (यूहन्ना 6:6)। प्रभु चेलों में क्या परखना चाहता था? क्या यह कि वे चेले समाधान के लिए उस पर आश्चर्यकर्म करने की सामर्थ रखने का विश्वास रखते हैं कि नहीं? हो सकता है, लेकिन इस से भी अधिक संभावना इस बात की है कि प्रभु यीशु चेलों को लोगों की चिन्ता करना और उनकी समस्याओं के समाधान में भागी होना सिखाना चाहता था। वह नहीं चाहता था कि उसके चेले आम लोगों से दूर रहें और दूर ही से उन्हें निर्देश और उपदेश देते रहें; वरन जैसे परमेश्वर होने के बावजूद वह स्वयं लोगों के साथ घुल-मिल कर उनकी देखभाल कर रहा था, चेले भी लोगों की आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशील और उनके समाधान में भागीदार बनें। प्रभु की चुनौती के उत्तर में चेले एक बालक को प्रभु के पास लाए जो अपने साथ अपने भोजन के लिए पाँच रोटी और दो मछली लेकर आया था। प्रभु यीशु ने इस थोड़े से भोजन को लिया, परमेश्वर को धन्यवाद करके उसे तोड़ा और चेलों से उसे लोगों में बाँट देने को कहा; और देखते ही देखते पाँच हज़ार पुरुषों से भी अधिक की भीड़ खा कर तृप्त हो गई और बारह टोकरी भर भोजन बचा रहा।

   मेरे विचार में प्रभु यीशु आज भी हम मसीही विश्वासियों से यही आशा रखता है - जब हमारे आस-पास लोगों में कोई आवश्यकता खड़ी हो जाए तो उसके समाधान में हम प्रार्थना और परमेश्वर पर निर्भरता के साथ व्यक्तिगत रीति से सम्मिलित हो जाएं ना कि केवल बाहर ही से बातें बनाते रहें। जब हम प्रार्थना में प्रभु यीशु के पास कोई समस्या लेकर आते हैं, तो प्रभु की हम से आशा रहती है, "तुम इस बारे में कुछ करो।" लेकिन, उन चेलों ही के समान, अधिकांशतः हमारे भी उत्तर होते हैं "यह मेरे बस की बात नहीं", या फिर "मेरे पास इतना समय/साधन/सामर्थ कहाँ है" आदि; लेकिन उन चेलों के प्रथम प्रत्युत्तर के समान हमारे ये सब उत्तर भी गलत हैं। यदि प्रभु हमें समाधान का भाग होने के लिए कहता है तो यह निश्चित है कि वह जानता है कि उसे क्या करना है और यह भी जानता है कि हम उस समाधान में कैसे कार्यकारी हो सकते हैं। उसे हम से केवल समस्या का विवरण ही नहीं चाहिए वरन साथ ही समस्या का समाधान बनने के लिए पहले हमारी सहमति और फिर हमारा प्रयास चाहिए - चाहे वह कितना भी छोटा अथवा साधारण हो। हमारी छोटी या साधारण सी क्षमता को भी वह बहुत बड़ी आवश्यकता के समाधान के लिए उपयोग करने की सामर्थ रखता है, बस हमें केवल उस पर विश्वास रखना है - विश्वास कि हम चाहे जैसे भी हैं, हम परमेश्वर के लिए उपयोगी हैं और हम में होकर ही वह अपनी सामर्थ संसार पर प्रगट करता है।

   क्या आप आज उसके लिए उपलब्ध हैं? क्या आप उसके हाथों में समर्पित होकर लोगों की समस्याओं के समाधान का साधन बनने के लिए तैयार हैं? उसे आपकी आवश्यकता है! - रैन्डी किलगोर


जब परमेश्वर कहे इसे कर दो, तो समझ लीजिए कि वह उस कार्य के लिए आवश्यक संसाधन तैयार और उपलब्ध कर चुका है।

परन्तु उसने यह बात उसे परखने के लिये कही; क्योंकि वह आप जानता था कि मैं क्या करूंगा। - यूहन्ना 6:6

बाइबल पाठ: मरकुस 6:30-44
Mark 6:30 प्रेरितों ने यीशु के पास इकट्ठे हो कर, जो कुछ उन्होंने किया, और सिखाया था, सब उसको बता दिया।
Mark 6:31 उसने उन से कहा; तुम आप अलग किसी जंगली स्थान में आकर थोड़ा विश्राम करो; क्योंकि बहुत लोग आते जाते थे, और उन्हें खाने का अवसर भी नहीं मिलता था।
Mark 6:32 इसलिये वे नाव पर चढ़कर, सुनसान जगह में अलग चले गए।
Mark 6:33 और बहुतों ने उन्हें जाते देखकर पहिचान लिया, और सब नगरों से इकट्ठे हो कर वहां पैदल दौड़े और उन से पहिले जा पहुंचे।
Mark 6:34 उसने निकलकर बड़ी भीड़ देखी, और उन पर तरस खाया, क्योंकि वे उन भेड़ों के समान थे, जिन का कोई रखवाला न हो; और वह उन्हें बहुत सी बातें सिखाने लगा।
Mark 6:35 जब दिन बहुत ढल गया, तो उसके चेले उसके पास आकर कहने लगे; यह सुनसान जगह है, और दिन बहुत ढल गया है।
Mark 6:36 उन्हें विदा कर, कि चारों ओर के गांवों और बस्‍तियों में जा कर, अपने लिये कुछ खाने को मोल लें।
Mark 6:37 उसने उन्हें उत्तर दिया; कि तुम ही उन्हें खाने को दो: उन्हों ने उस से कहा; क्या हम सौ दीनार की रोटियां मोल लें, और उन्हें खिलाएं?
Mark 6:38 उसने उन से कहा; जा कर देखो तुम्हारे पास कितनी रोटियां हैं? उन्होंने मालूम कर के कहा; पांच और दो मछली भी।
Mark 6:39 तब उसने उन्हें आज्ञा दी, कि सब को हरी घास पर पांति पांति से बैठा दो।
Mark 6:40 वे सौ सौ और पचास पचास कर के पांति पांति बैठ गए।
Mark 6:41 और उसने उन पांच रोटियों को और दो मछिलयों को लिया, और स्वर्ग की ओर देखकर धन्यवाद किया और रोटियां तोड़ तोड़ कर चेलों को देता गया, कि वे लोगों को परोसें, और वे दो मछिलयां भी उन सब में बांट दीं।
Mark 6:42 और सब खाकर तृप्‍त हो गए।
Mark 6:43 और उन्होंने टुकडों से बारह टोकिरयां भर कर उठाई, और कुछ मछिलयों से भी।
Mark 6:44 जिन्हों ने रोटियां खाईं, वे पांच हजार पुरूष थे।

एक साल में बाइबल: 
  • भजन 94-96 
  • रोमियों 15:14-33


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