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शनिवार, 28 अगस्त 2021

परमेश्वर का वचन, बाइबल – पाप और उद्धार - 3

 

पाप क्या है? - 3

       परमेश्वर के वचन बाइबल में, परमेश्वर द्वारा पाप के विषय सिखाई गई बातों पर ध्यान करते हुए, पिछले दो लेखों में हम इस संबंध में कुछ बहुत महत्वपूर्ण और आधारभूत बातों को देख चुके हैं कि बाइबल के अनुसार पाप क्या है। हमने देखा है कि: 

  • बाइबल के अनुसार, पाप की परिभाषा और व्याख्या किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के अनुसार नहीं है; वरन इसे स्वयं परमेश्वर ने बताया है। परमेश्वर जो सत्य है, शाश्वत है, सार्वभौमिक है, अपरिवर्तनीय है, युगानुयुग एक सा है (मलाकी 3:6; इब्रानियों 13:8); उसकी कही बात में भी उसके यही सभी गुण विद्यमान हैं (भजन 89:34; यहेजकेल 12:28)। उसने जो कहा और निर्धारित किया है, अन्ततः वही माना जाएगा, और उसी के अनुसार ही सब को और सब कुछ को जाँचा-परखा जाएगा, हर निर्णय लिया जाएगा (यूहन्ना 12:48; 1 कुरिन्थियों 3:11-13) 
  • पाप केवल कुछ शारीरिक कार्य करना ही नहीं है, वरन, मूलतः, परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का उल्लंघन करना है (1 यूहन्ना 3:4)। किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है (1 यूहन्ना 5:17), वह चाहे किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत अथवा उद्देश्य से क्यों न किया गया हो। 
  • इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे सभी प्रकार के विचार, दृष्टिकोण, भावनाएं, मनसा, प्रवृत्ति, कार्य, व्यवहार, इत्यादि पाप हैं जो उसके द्वारा दिए गए धार्मिकता के नियमों और मानकों के अनुसार उचित नहीं हैं, उन मानकों के अनुरूप नहीं हैं।
  • पाप में होना एक मानसिक दशा है। हर प्रकार के पाप का आरंभ मन में होता है, और उचित परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रगट हो जाता है (याकूब 1:14-15; मरकुस 7:20-23)। इसीलिए परमेश्वर की दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही दण्डनीय हैं (मत्ती 5:22, 28) 

 

जो भी ढिठाई से मन में पाप को रखते हुए, बाहरी रीति से धर्मी बनने का ढोंग रखते हुए परमेश्वर के पास मन के इस दोगलेपन के साथ आते हैं, परमेश्वर उनसे उनके उस दोगलेपन के अनुसार व्यवहार करता है (यहेजकेल 14:3-7)     

       परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता के संदर्भ में कुछ और विस्तार से देखते हैं: इस्राएल को दी गई अपनी व्यवस्था के आरंभ में, परमेश्वर ने सभी के लिए परमेश्वर और अन्य मनुष्यों के साथ संबंधों एवँ व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए अपनी दस आज्ञाएं दीं। ये दस आज्ञाएँ मनुष्य जीवन के प्रत्येक आयाम – परमेश्वर, परिवार और समाज से उसके संबंध एवँ व्यवहार से संबंध रखतीं हैं, उन संबंधों के लिए मार्गदर्शन करती हैं, मनुष्यों के व्यवहार को निर्धारित करती हैं। यह एक रोचक तथ्य है कि सँसार के किसी भी देश के संविधान में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन दस आज्ञाओं की परिधि के बाहर हो। इन दस आज्ञाओं के आरंभिक भाग में परमेश्वर ने मनुष्य के जीवन में अपने स्थान, आदर और मान को किसी भी अन्य को देना, परमेश्वर को कोई या कैसा भी भौतिक स्वरूप देना, वर्जित किया है (निर्गमन 20:1-7)। इसलिए, किसी भी व्यक्ति के द्वारा

  • अपने जीवन में परमेश्वर को उसका वह सर्वोच्च आदर एवँ स्थान प्रदान नहीं करना, जिसका वह हकदार है
  • अपने जीवन में परमेश्वर के स्थान पर सँसार की बातों या लोगों को अधिक महत्व देना
  • और सच्चे जीवते सृजनहार प्रभु परमेश्वर को, जो आत्मा है (यूहन्ना 4:24), अपने मन के अनुसार बनाए हुए कोई भी भौतिक स्वरूप, मूर्तियों या सृजी गई वस्तुओं के रूप में उपासना करना, उन मन-गढ़न्त नाशमान भौतिक वस्तुओं को ईश्वरीय आदर अथवा महत्व देना, आदि

सभी परमेश्वर की आज्ञाओं का उल्लंघन है, इसलिए पाप है। 

इन्हीं दस आज्ञाओं का शेष भाग (निर्गमन 20:8-20), मनुष्य के पारिवारिक और सामाजिक संबंधों के विषय में है। इन आज्ञाओं का उल्लंघन करना भी, अर्थात पारिवारिक एवँ सामाजिक संबंधों में परमेश्वर के निर्देशों की अवहेलना करना भी पाप है।

प्रभु यीशु मसीह से, उनकी पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में यहूदियों के एक धार्मिक अगुवे ने उन्हें परखने के लिए एक प्रश्न किया था, और प्रभु के उत्तर से वह फिर निरुत्तर हो गया। यह वार्तालाप हमारे वर्तमान संदर्भ के लिए महत्वपूर्ण है:और उन में से एक व्यवस्थापक ने परखने के लिये, उस से पूछा। हे गुरु; व्यवस्था में कौन सी आज्ञा बड़ी है? उसने उस से कहा, तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख। बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है। और उसी के समान यह दूसरी भी है, कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएं सारी व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं का आधार है” (मत्ती 22:35-40)। प्रभु यीशु के इस उत्तर में मनुष्य के परमेश्वर तथा अन्य मनुष्यों के प्रति व्यवहार और संबंध का सार है; इसीलिए उन्होंने यह भी कहा कि परमेश्वर की सारी व्यवस्था, इन्हीं दो आज्ञाओं पर आधारित है। इसका स्पष्ट निष्कर्ष है कि मनुष्य के किसी भी विचार या व्यवहार में जहाँ भी इनमें से एक भी आज्ञा का उल्लंघन हुआ, वहीं मनुष्य पाप की दशा में आ गया; पाप का दोषी ठहराया गया।

परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, अदन की वाटिका में मनुष्य द्वारा किए गए उस प्रथम पाप के बाद से मनुष्य में पाप करने की प्रवृत्ति ने घर कर लिया, और तब से  सँसार का प्रत्येक मनुष्य पाप स्वभाव, तथा पाप करने की प्रवृत्ति के साथ जन्म लेता हैइसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)। इसका सर्व-विदित और प्रत्यक्ष प्रमाण है, जब हम मानवीय व्यवहार एवँ क्रियाओं का, पाप के प्रति बाइबल के इन उपरोक्त व्यापक दृष्टिकोणों के संदर्भ में, आँकलन करते हैं, तो यह प्रगट हो जाता है कि परमेश्वर की दृष्टि में कोई भी मनुष्य पाप से अछूता नहीं है, सभी मनुष्य किसी-न-किसी रीति से पापी होने की परिभाषा में आ जाते हैं। इस कारण अपनी स्वाभाविक दशा में, सभी मनुष्यों ने मन-ध्यान-विचार-मनसा-दृष्टिकोण, व्यवहार या कर्मों के द्वारा पाप किया है; वे चाहे किसी भी धर्म, जाति, देश, आदि के क्यों न हों, इसलिए सभी मनुष्य परमेश्वर की महिमा से रहित और परमेश्वर के साथ संगति रखने के अयोग्य हैं, “इसलिये कि सब ने पाप किया है और परमेश्वर की महिमा से रहित हैं” (रोमियों 3:23) और सृष्टि के आरंभ में पाप के विषय परमेश्वर द्वारा कहे गए दण्ड, मृत्यु (उत्पत्ति 2:17), के भागी हैं, “क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23)

पाप की इस अपरिहार्य प्रतीत होने वाली समस्या के ईश्वरीय समाधान, “... परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त जीवन है” (रोमियों 6:23), के बारे में हम अगले लेख में देखना आरंभ करेंगे।

यदि आप ने अभी भी अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा। 

 

बाइबल पाठ: रोमियों 3:10-19 

रोमियों 3:10 जैसा लिखा है, कि कोई धर्मी नहीं, एक भी नहीं।

रोमियों 3:11 कोई समझदार नहीं, कोई परमेश्वर का खोजने वाला नहीं।

रोमियों 3:12 सब भटक गए हैं, सब के सब निकम्मे बन गए, कोई भलाई करने वाला नहीं, एक भी नहीं।

रोमियों 3:13 उन का गला खुली हुई कब्र है: उन्होंने अपनी जीभों से छल किया है: उन के होंठों में साँपों का विष है।

रोमियों 3:14 और उन का मुंह श्राप और कड़वाहट से भरा है।

रोमियों 3:15 उन के पांव लहू बहाने को फुर्तीले हैं।

रोमियों 3:16 उन के मार्गों में नाश और क्लेश हैं।

रोमियों 3:17 उन्होंने कुशल का मार्ग नहीं जाना।

रोमियों 3:18 उन की आंखों के सामने परमेश्वर का भय नहीं।

रोमियों 3:19 हम जानते हैं, कि व्यवस्था जो कुछ कहती है उन्हीं से कहती है, जो व्यवस्था के आधीन हैं: इसलिये कि हर एक मुंह बन्द किया जाए, और सारा संसार परमेश्वर के दण्ड के योग्य ठहरे।

 

एक साल में बाइबल:

·      भजन 123; 124; 125

·      1 कुरिन्थियों 10:1-18