शनिवार, 31 अगस्त 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 176

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 21


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (3) 



हम देखते आ रहे हैं कि परमेश्वर के वचन के अनुसार, मसीही विश्वास का व्यावहारिक जीवन जीने के लिए मसीही विश्वासी को परमेश्वर की किन बातों का पालन करते रहने का ध्यान रखना चाहिए। हमने देखा है कि प्रेरितों 2 अध्याय में सात बातें दी गई हैं, जिन में से अन्तिम चार, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, जिन्हें “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। इन चार “स्तम्भ” में से पहले, वचन का अध्ययन करना, को देखने के बाद अब हम दूसरे “स्तम्भ,” संगति रखना पर विचार कर रहे हैं। हमने देखा है कि संगति रखना आरम्भ से ही परमेश्वर की इच्छा रही है, और संगति के लिए ही उसने मनुष्य को अपने स्वरूप में सृजा। साथ ही, मनुष्य को भी परमेश्वर से तथा अन्य मनुष्यों से संगति रखनी थी। लेकिन संसार में पाप के प्रवेश ने इस संगति में परेशानियाँ खड़ी कर दीं; परमेश्वर के साथ मनुष्य की संगति टूट गई, और अन्य मनुष्यों के साथ उसकी संगति में अन्य बातों के आ जाने से उस संगति की मनोहरता एवं सामंजस्य समाप्त हो गया। पिछले लेख में हमने देखा था कि जहाँ पाप है वहाँ मनुष्य न तो परमेश्वर के साथ संगति रखने पाता है, और न ही अन्य मनुष्यों के साथ। किन्तु पाप का निवारण होते ही, मनुष्य की परमेश्वर तथा अन्य मनुष्यों के साथ संगति बहाल हो जाती है। संगति के बारे में हमारे सामने एक और बात भी आई है कि संगति का आधार और अभिव्यक्ति, चाहे संगति परमेश्वर के साथ हो, अथवा मनुष्यों के, परिवार और पारिवारिक सम्बन्ध हैं। आज हम इसी बात पर विचार करेंगे कि कैसे बाइबल के वचनों के आधार पर संगति में रहने से हम परमेश्वर के एक सार्वभौमिक, विश्वव्यापी परिवार के सदस्य बन जाते हैं; मानवीय विचारों और धारणाओं के आधार परस्पर विभाजन, असहमति, वर्चस्व, और शत्रुता की सारी दीवारें मिट जाती हैं।


हम देख चुके हैं कि पापों के लिए पश्चाताप करने, और प्रभु यीशु में विश्वास करने, उसे अपना जीवन समर्पित करने के द्वारा हमारा परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप हो जाता है, उसके साथ हमारी संगति बहाल हो जाती है (रोमियों 5:1, 11)। लेकिन बात केवल मेल-मिलाप की बहाली तक ही सीमित नहीं है, वरन परमेश्वर मनुष्य के साथ पुनःस्थापित हुए इस सम्बन्ध और संगति को और भी आगे, और भी घनिष्ठता में, एक अकल्पनीय स्तर तक लेकर जाता है। ऐसे बहु-आयामी स्तर तक जो मनुष्यों के सोचने, समझने, कल्पनाओं, और उसकी किसी भी क्षमता से बिल्कुल परे है; और संसार में कहीं पर भी, अन्य किसी भी धर्म, विश्वास, ईश-मान्यता में जिसके समान कोई भी बात देखने को नहीं मिलती है। 


मसीह यीशु पर विश्वास करने से पापों की क्षमा प्राप्त करने और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल हो जाने वालों को परमेश्वर अपनी सन्तान, अपने निज परिवार का एक सदस्य बना लेता है “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं।” (यूहन्ना 1:12-13)। वे अब मसीह के भाई-बँधु, उसके संगी वारिस बन जाते हैं “आत्मा आप ही हमारी आत्मा के साथ गवाही देता है, कि हम परमेश्वर की सन्तान हैं। और यदि सन्तान हैं, तो वारिस भी, वरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैं, जब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं।” (रोमियों 8:16-17)। और हम पिछले लेख में, रोमियों 10:12; 1 कुरिन्थियों 12:13; कुलुस्सियों 3:10-11 से देख चुके हैं कि इस प्रकार परमेश्वर के साथ सम्बन्ध में बहाल होते ही, परमेश्वर के परिवार का सदस्य बनते ही, सांसारिक बातों के कारण विभाजन और मतभेदों के सारे आधार समाप्त हो जाते हैं; मसीही विश्वासी एक परिवार के एक समान स्तर के सदस्य बन जाते हैं। जिन बातों और धारणाओं के आधार पर आज संसार के विभिन्न धर्म, विश्वास, मत, मान्यताओं, आदि को मानने वाले एक दूसरे के दुश्मन बने हुए हैं, दूसरों पर अधिकार रखने के लिए लड़-मर रहे हैं। किन्तु मसीही विश्वास में आते ही, उन सभी मतभेदों, विभाजनों, शत्रुता के अस्तित्व का आधार ही मिट जाता है; वे सभी जन एक ही संगति, और परमेश्वर की दृष्टि में एक ही समानता में आ जाते हैं।


प्रभु यीशु ने अपने अनुयायियों के साथ उसके इस पारिवारिक सम्बन्ध के बारे में, और इस सम्बन्ध के उसके शारीरिक जन्म के परिवार के साथ सम्बन्ध से भी बढ़कर होने के बारे में, पृथ्वी पर उसकी सेवकाई के दिनों में ही संसार के लोगों को बताया दिया था “और उस की माता और उसके भाई आए, और बाहर खड़े हो कर उसे बुलवा भेजा। और भीड़ उसके आसपास बैठी थी, और उन्होंने उस से कहा; देख, तेरी माता और तेरे भाई बाहर तुझे ढूंढते हैं। उसने उन्हें उत्तर दिया, कि मेरी माता और मेरे भाई कौन हैं? और उन पर जो उसके आस पास बैठे थे, दृष्टि कर के कहा, देखो, मेरी माता और मेरे भाई यह हैं। क्योंकि जो कोई परमेश्वर की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और बहिन और माता है।” (मरकुस 3:31-35)। साथ ही प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को आश्वस्त किया था कि उसके पीछे हो लेने से यदि अपने जन्म के परिवार से दूर भी होना पड़े, तो भी कोई हानि नहीं है, क्योंकि यहीं संसार में छोड़े हुए का सौ गुणा, और स्वर्ग में अनन्त जीवन उन्हें मिल जाएगा “पतरस उस से कहने लगा, कि देख, हम तो सब कुछ छोड़कर तेरे पीछे हो लिये हैं। यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन।” (मरकुस 10:28-30)। प्रभु की इन बातों को ध्यान में रखने पर, प्रभु के द्वारा मत्ती 10:37 और लूका 14:26 में जन्म के परिवार के साथ सम्बन्धों के विषय कही गई बात को भी समझना सहज हो जाता है।


ऊपर कहा गया है कि परमेश्वर के साथ संगति में बहाली, मसीही विश्वासियों को एक ऐसे बहु-आयामी स्तर तक पहुँचा देती है, जो मनुष्यों के सोचने, समझने, कल्पनाओं, और उसकी किसी भी क्षमता से कहीं बढ़कर है। यह ऐसा स्तर है जिसके समान कोई भी बात संसार में कहीं पर भी, अन्य किसी भी धर्म, विश्वास, ईश-मान्यता में देखने को नहीं मिलती है। अगले लेख में हम संगति की बहाली के साथ मिलने वाली अन्य अद्भुत, अभूतपूर्व और अनुपम बातों को देखेंगे, ताकि इस संगति के महत्व और मूल्य को समझ सकें, उसका आदर कर सकें। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 21


The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (3)



We have, from God's Word, been looking into the things a Christian Believer should keep in mind and follow, in order to live a practical life of Christian faith. We have seen that there are seven things given in Acts 2; the last four of which, given in Acts 2:42, are also known as the “Pillars of the Christian Living.” Having considered the first of these four “pillars,” i.e., studying the Word, we are now considering the second “pillar,” i.e., keeping fellowship. We have seen that having fellowship has been God's desire from the beginning, and it is for this fellowship that He has created man in His own image. But man, also had to maintain the fellowship with God and also with other human beings. But the entry of sin into the world caused problems in this fellowship; Man's fellowship with God was broken, and as other things entered into his having fellowship with other men, the beauty and harmony of that fellowship was lost. In the previous article we saw that when there is sin, man is unable to have fellowship either with God or with other men. But once sin is taken care of, man's fellowship with God and other humans is restored. Another thing we have come to see about fellowship is that the basis and expression of fellowship is family and family relationships, whether the fellowship is with God or with humans. Today we will consider how living in fellowship based on the teachings of the Bible, makes us members of the universal, worldwide family of God; and all the walls of mutual division, disagreement, domination, and hostility based on human thoughts and ideas are destroyed.


We have seen that by repenting of sins, and believing in the Lord Jesus, by surrendering our lives to Him, we are reconciled to God, restored to our fellowship with Him (Romans 5:1, 11). But it is not just about the restoration of fellowship, rather God takes this restored relationship and fellowship with man even further, to an even more intimate, to an unimaginable level. He elevates it to a multi-dimensional level that is completely beyond what humans can think, understand, imagine; and simply do not have the capacity for ever attaining to that level on their own. Nothing similar to this can be seen anywhere in the world, in any other religion, belief or any concept of divinity.


Those who have received forgiveness of sins and are restored to fellowship with God through faith in Christ Jesus, God makes them His children, members of His own family "But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God." (John 1:12-13). They now become Christ's brothers and sisters, His joint heirs "The Spirit Himself bears witness with our spirit that we are children of God, and if children, then heirs - heirs of God and joint heirs with Christ, if indeed we suffer with Him, that we may also be glorified together"  (Romans 8:16-17). And we have seen in the previous article, from Romans 10:12; 1 Corinthians 12:13; and Colossians 3:10-11 that once thus restored to relationship with God, having become a member of God's family, all grounds for divisions and differences due to worldly considerations get eliminated; all Born-Again Christians become co-equal members of one family. It is on the basis of these worldly considerations and notions, that people of different religions, beliefs, opinions, concepts, etc. in the world have become enemies of each other; they are fighting each other for dominion, they are killing and dying for those things. But as soon as they come into the Christian faith, the very basis of the existence of all these differences, divisions, enmities, etc. disappears; All the people become part of the same fellowship, all having an equal status before God.


The Lord Jesus, during the days of His ministry on earth, had told the people of the world about this family relationship that He has with His followers; and that this relationship was even greater than His relationship with His family of physical birth "Then His brothers and His mother came, and standing outside they sent to Him, calling Him. And a multitude was sitting around Him; and they said to Him, 'Look, Your mother and Your brothers are outside seeking You.’ But He answered them, saying, ‘Who is My mother, or My brothers?’ And He looked around in a circle at those who sat about Him, and said, ‘Here are My mother and My brothers! For whoever does the will of God is My brother and My sister and mother.’" (Mark 3:31-35). At the same time, Lord Jesus had assured his disciples that by following Him, even if they have to be away from their family of birth, they will not suffer any loss, because right here in this world, they will be rewarded a hundred times of whatever they have to leave behind, and they will get eternal life in heaven “Then Peter began to say to Him, ‘See, we have left all and followed You.’ So Jesus answered and said, ‘Assuredly, I say to you, there is no one who has left house or brothers or sisters or father or mother or wife or children or lands, for My sake and the gospel's, who shall not receive a hundredfold now in this time--houses and brothers and sisters and mothers and children and lands, with persecutions--and in the age to come, eternal life.’” (Mark 10:28-30). Keeping these things stated by the Lord in mind, it becomes easier to understand what the Lord meant when He said in Matthew 10:37 and Luke 14:26 about relationships with the family of birth.


As stated above, restoration into fellowship with God elevates Christians to a multi-dimensional level that is far beyond what man can think, understand, imagine, and be able to accomplish on his own. This is such a level that nothing like it can be seen anywhere in the world, in any other religion, belief or concept of divinity. In the next article we will look at other marvelous, unprecedented, and unique things that come with the restoration of fellowship, so that we can understand and respect the importance and value of this fellowship.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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शुक्रवार, 30 अगस्त 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 175

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 20


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (2) 



परमेश्वर के वचन के द्वारा मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं की बढ़ोतरी पर ज़ारी इस अध्ययन में, हम अब व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित प्रेरितों 2 तथा 15 अध्याय में दी गई शिक्षाओं पर विचार कर रहे हैं; और इसके कारण को हम देख चुके हैं। पिछले कुछ लेखों में हम प्रेरितों 2 अध्याय में इस विषय पर दी गई सात शिक्षाओं को क्रमवार देखते चले आ रहे हैं। इन सात में से अन्तिम चार शिक्षाएँ प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं; और इन चारों को “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। हम इन सात में से पाँच शिक्षाओं को देख चुके हैं, और अब, पिछले लेख से हमने छठी शिक्षा, मसीही जीवन के दूसरे स्तम्भ, “संगति रखना” पर विचार आरम्भ किया है। पिछले लेख में हमने देखा था कि संगति रखना, नए नियम में दी गई कोई नई शिक्षा नहीं है; वरन सृष्टि के आरम्भ से ही परमेश्वर की मंशा रही है। परमेश्वर ने मनुष्य को अपने स्वरूप में, उससे संगति रखने के लिए ही सृजा; और मनुष्य को भी, परमेश्वर के साथ, तथा अन्य मनुष्यों के साथ संगति रखनी थी। किन्तु पाप ने इस संगति रखने में बाधा डाल दी, मनुष्य की परमेश्वर के साथ संगति टूट गई, तथा अन्य मनुष्यों के साथ उसकी संगति में कुछ और बातें भी आ गईं (उत्पत्ति 3:8-20), तथा औरों के साथ मनुष्य के सम्बन्ध पहले के समान मनोहर और सामंजस्य पूर्ण नहीं रहे। साथ ही हमने यह भी देखा था कि संगति चाहे परमेश्वर के साथ हो, या अन्य मनुष्यों के साथ, संगति आधार पारिवारिक सम्बन्ध हैं। आज हम संगति के बारे में यहाँ से आगे देखना आरम्भ करेंगे।


पाप ने मनुष्य की दोनों स्तर की संगति - परमेश्वर के साथ, तथा अन्य मनुष्यों के साथ, में बाधा डाली। जहाँ पाप है, वहाँ संगति नहीं है - न परमेश्वर के साथ: 

  • जब तुम मेरी ओर हाथ फैलाओ, तब मैं तुम से मुंह फेर लूंगा; तुम कितनी ही प्रार्थना क्यों न करो, तौभी मैं तुम्हारी न सुनूंगा; क्योंकि तुम्हारे हाथ खून से भरे हैं।” (यशायाह 1:15)

  • परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया है, और तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता” (यशायाह 59:2)।  


- और न मनुष्यों के साथ: 

  • इसलिये कि जहां डाह और विरोध होता है, वहां बखेड़ा और हर प्रकार का दुष्‍कर्म भी होता है।” (याकूब 3:16) 

  • तुम में लड़ाइयां और झगड़े कहां से आ गए? क्या उन सुख-विलासों से नहीं जो तुम्हारे अंगों में लड़ते-भिड़ते हैं? तुम लालसा रखते हो, और तुम्हें मिलता नहीं; तुम हत्या और डाह करते हो, ओर कुछ प्राप्त नहीं कर सकते; तुम झगड़ते और लड़ते हो; तुम्हें इसलिये नहीं मिलता, कि मांगते नहीं। तुम मांगते हो और पाते नहीं, इसलिये कि बुरी इच्छा से मांगते हो, ताकि अपने भोग विलास में उड़ा दो।” (याकूब 4:1-3)।


जैसे ही पापों की क्षमा मिल जाती है, समस्या का भी निवारण हो जाता है, और संगति तथा सहभागिता भी बहाल हो जाती है - परमेश्वर के साथ भी: 

  • सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें।” (रोमियों 5:1) 

  • क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे? और केवल यही नहीं, परन्तु हम अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा जिस के द्वारा हमारा मेल हुआ है, परमेश्वर के विषय में घमण्ड भी करते हैं” (रोमियों 5:10-11)।  


- और मनुष्यों के साथ भी: 

  • यहूदियों और यूनानियों में कुछ भेद नहीं, इसलिये कि वह सब का प्रभु है; और अपने सब नाम लेने वालों के लिये उदार है।” (रोमियों 10:12); 

  • क्योंकि हम सब ने क्या यहूदी हो, क्या युनानी, क्या दास, क्या स्‍वतंत्र एक ही आत्मा के द्वारा एक देह होने के लिये बपतिस्मा लिया, और हम सब को एक ही आत्मा पिलाया गया।” (1 कुरिन्थियों 12:13); 

  • और नए मनुष्यत्‍व को पहिन लिया है जो अपने सृजनहार के स्‍वरूप के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है। उस में न तो यूनानी रहा, न यहूदी, न खतना, न खतनारहित, न जंगली, न स्‍कूती, न दास और न स्‍वतंत्र: केवल मसीह सब कुछ और सब में है।” (कुलुस्सियों 3:10-11)।


पिछले लेख में हमने देखा था कि संगति का आधार पारिवारिक सम्बन्ध हैं - परमेश्वर के साथ भी, और मनुष्यों के साथ भी। अगले लेख में हम देखेंगे कि जब हमारे पाप क्षमा हो जाते हैं, परमेश्वर के साथ हमारा मेल-मिलाप हो जाता है, तो किस प्रकार से हम उसके साथ एक पारिवारिक सम्बन्ध में आ जाते हैं। साथ ही सच्चा पश्चाताप करने और पापों की क्षमा प्राप्त करने के द्वारा वास्तव में नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, किस प्रकार से परमेश्वर के एक ही विश्वव्यापी सार्वभौमिक परिवार के सदस्य बन जाते हैं। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 20


The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (2)



In our continuing study on the growth of Christian Believers and the Churches through God's Word, we are now considering the teachings given in Acts chapters 2 and 15 regarding practical Christian living; And earlier we have seen the reasons for this. Over the past few articles, we have serially been looking at the seven teachings on this topic given in Acts 2. The last four of these seven teachings are given in Acts 2:42; And these four are also called the “Pillars of the Christian Living.” We have looked at five of these seven teachings, and now, from the last article, we have begun to consider the sixth teaching, i.e., the second pillar of the Christian life, “Fellowship.” In the previous article we saw that being in fellowship is not a new teaching given in the New Testament; Rather, this has been God's intention since the beginning of creation. God created man in His image to have fellowship with Him; And man, too, was to have fellowship with God and with other men. But sin created problems in this fellowship, consequently, not only was man's fellowship with God broken, but other things also came into his fellowship with other men (Genesis 3:8-20), and therefore, man's relationships with others did not remain as pleasing and harmonious as before. We also saw that whether fellowship is with God or with other men, the basis of fellowship is family relationships. Today, we will continue our study on fellowship from here.


Sin hindered man's fellowship - both with God and with other men. Where there is sin, there cannot be any fellowship – neither with God:

  • When you spread out your hands, I will hide My eyes from you; Even though you make many prayers, I will not hear. Your hands are full of blood.” (Isaiah 1:15)

  • But your iniquities have separated you from your God; And your sins have hidden His face from you, So that He will not hear.” (Isaiah 59:2)


- Nor with men:

  • For where envy and self-seeking exist, confusion and every evil thing are there.” (James 3:16)

  • Where do wars and fights come from among you? Do they not come from your desires for pleasure that war in your members? You lust and do not have. You murder and covet and cannot obtain. You fight and war. Yet you do not have, because you do not ask. You ask and do not receive, because you ask amiss, that you may spend it on your pleasures.” (James 4:1-3)


As soon as sins are forgiven, the problem is resolved, fellowship and companionship are restored – With God:

  • Therefore, having been justified by faith, we have peace with God through our Lord Jesus Christ” (Romans 5:1)

  • For if when we were enemies we were reconciled to God through the death of His Son, much more, having been reconciled, we shall be saved by His life. And not only that, but we also rejoice in God through our Lord Jesus Christ, through whom we have now received the reconciliation.” (Romans 5:10-11)


- As well as with men:

  • For there is no distinction between Jew and Greek, for the same Lord over all is rich to all who call upon Him.” (Romans 10:12)

  • For by one Spirit we were all baptized into one body--whether Jews or Greeks, whether slaves or free--and have all been made to drink into one Spirit.” (1 Corinthians 12:13)

  • and have put on the new man who is renewed in knowledge according to the image of Him who created him, where there is neither Greek nor Jew, circumcised nor uncircumcised, barbarian, Scythian, slave nor free, but Christ is all and in all.” (Colossians 3:10-11)


In the previous article we saw that the basis of fellowship are the family relationships – both with God and with men. In the next article we will see how when our sins are forgiven and we are reconciled to God, we then come into a family relationship with Him. Also, how by truly repenting and receiving the forgiveness of sins i.e., being Born-Again, the true Christian Believers become members of the one worldwide universal family of God.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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गुरुवार, 29 अगस्त 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 174

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 19


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 2 - संगति (1) 



मसीही विश्वासी के परमेश्वर के वचन के द्वारा बढ़ोतरी के हमारे इस अध्ययन में, वर्तमान में, हम व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बाइबल की शिक्षाओं का अध्ययन कर रहे हैं। हमने देखा है कि प्रेरितों 2 अध्याय में सात शिक्षाएं दी गई हैं, जिनमें से चार प्रेरितों 2:42 में दी गई है। आरम्भिक मसीही विश्वासी, इन चारों शिक्षाओं का लौलीन होकर पालन करते थे, और इन शिक्षाओं को “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। इन चार में से हमने पहली, अर्थात, परमेश्वर के वचन बाइबल का यत्न से और लौलीन होकर अध्ययन करने को देखा है। आज से हम दूसरे स्तम्भ अर्थात, संगति रखने के बारे में देखना आरम्भ करेंगे।


सृष्टि के आरंभ से ही, संगति रखना मनुष्य के जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग रहा है। यह संगति दो तरह की होनी है, पहली परमेश्वर के साथ संगति, जिसके लिए परमेश्वर अदन की वाटिका में मनुष्य के पास आया करता था; और दूसरी मनुष्य की मनुष्य के साथ संगति। आदम की रचना करने, और उसे समस्त पृथ्वी तथा प्रत्येक प्राणी पर अधिकार देने (उत्पत्ति 1:26), उसके लिए एक विशेष वाटिका लगाकर उसको उस में रखने, और उसे उसकी देखभाल की जिम्मेदारी देने (उत्पत्ति 2:8, 15) के बाद, परमेश्वर ने कहा “फिर यहोवा परमेश्वर ने कहा, आदम का अकेला रहना अच्छा नहीं; मैं उसके लिये एक ऐसा सहायक बनाऊंगा जो उस से मेल खाए।” (उत्पत्ति 2:18)। यहां पर हम देखते हैं कि आरम्भ से ही परमेश्वर का उद्देश्य रहा है कि न केवल मनुष्य उसके साथ संगति रखे, वरन उसकी संगति किसी ऐसे के साथ भी हो जो उसके समान है। हव्वा की सृष्टि से पहले परमेश्वर आदम के सामने सारे जीवों को लेकर के आया, और आदम ने उनको उनके नाम दिए (उत्पत्ति 2:19)। लेकिन परमेश्वर द्वारा सारे जीवों को आदम के पास लाने के पीछे एक उद्देश्य और भी था; वह उद्देश्य था कि आदम को भी जता दे, तथा अपने वचन में भी हमेशा के लिए लिखवा दे कि परमेश्वर के द्वारा रचे गए सभी प्राणियों में आदम के तुल्य और उसका सहायक या साथी होने के योग्य और कोई भी नहीं है (उत्पत्ति 2:20)। इसीलिए हम देखते हैं कि सामान्य स्वभाव से मानव जाति एक संगति में या समूह में रहने की प्रवृत्ति रखती है। मनुष्य विभिन्न प्रकार के पशुओं को पालतू बनाकर या उनसे अन्य लाभ पाने के लिए उन्हें अपने साथ रख सकता है, और उनसे बहुत निकटता का व्यवहार भी कर सकता है। किन्तु परिवार केवल अन्य मनुष्यों के साथ मिलकर रहने और संगति रखने से ही बनते हैं, ना कि पशुओं के साथ मिलकर रहने या संगति से।


परमेश्वर का वचन हमें दिखता है कि संगति में या सहभागिता में रहना क्यों अनिवार्य है, और कैसे परमेश्वर ने अपने वचन में इसके बारे में विभिन्न निर्देश और उदाहरण भी दिए हैं। हम “दस आज्ञाओं” (निर्गमन 20:1-17) में, जो परमेश्वर की व्यवस्था का निचोड़ या उनका केंद्रीय स्तम्भ हैं, देखते हैं कि पहली चार आज्ञाएँ मनुष्य और परमेश्वर के सम्बन्ध के बारे में हैं, और बताती हैं कि मनुष्य किस आधार पर परमेश्वर से सम्बन्ध बनाये रख सकता है। और अगली छः आज्ञाएँ, मनुष्य के मनुष्य के साथ एक मनोहर और सामंजस्य पूर्ण सम्बन्ध बनाए रखने के बारे में हैं; यह सम्बन्ध पारिवारिक, या समाज अथवा पड़ोसियों के साथ हो सकता है। राजा सुलैमान ने संगति के लाभ के बारे में लिखा कि किस प्रकार एक व्यक्ति दूसरे को उभार सकता है उसको बेहतर कर सकता है “जैसे लोहा लोहे को चमका देता है, वैसे ही मनुष्य का मुख अपने मित्र की संगति से चमकदार हो जाता है” (नीतिवचन 27:17)। राजा सुलैमान ने संगति रखने या सहभागिता में रहने के अन्य लाभों के बारे में भी लिखा “एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है।” “फिर यदि दो जन एक संग सोए तो वे गर्म रहेंगे, परन्तु कोई अकेला क्योंकर गर्म हो सकता है?” “यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका सामना कर सकेंगे। जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती।” (सभोपदेशक 4:9, 11, 12)। जब प्रभु यीशु मसीह ने अपने शिष्यों को उनकी पहली सेवकाई के लिए भेजा, तब दो-दो के जोड़ों में भेजा (मरकुस 6:7)। प्रभु ने अपने शिष्यों से यह प्रतिज्ञा भी की, कि उसके लोग जब भी संगति में जमा होंगे, तो न केवल वह उनके मध्य में होगा, बल्कि यदि वे एक मन होंगे, तो परमेश्वर उन्हें उनका माँगा हुआ भी दे देगा (मत्ती 18:19-20)।


इस संगति का, चाहे वह परमेश्वर से हो अथवा मनुष्य से, मूलभूत या मौलिक आधार परिवार है। परमेश्वर ने अपने लोगों, अपने अनुयायियों, अपने चुने हुओं को अपनी सन्तान, और स्वयं को उनका पिता कहा है (निर्गमन 4:22; व्यवस्थाविवरण 14:1; 2 शमूएल 7:14; यशायाह 43:6; यिर्मयाह 31:9; होशे 1:10; 2 कुरिन्थियों 6:18; आदि)। इसी प्रकार से, हम सारे विश्व में मानव जाति में देखते हैं कि मनुष्य अपने परिवार के साथ एक प्राथमिक और मुख्य संगति बनाए रखने के प्रयास में रहता है, उनके लिए प्रावधान करता है, और अपने परिवार को औरों से बचाए रखने के प्रयास करता है। साथ ही परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति के साथ कोई निकट सम्बन्ध या गहरे लगाव को व्यक्त करने के लिए, बहुधा पारिवारिक सम्बन्धों को व्यक्त किया जाता है, जैसे कि परिवार के बाहर के लोगों के लिए कहना “यह हमारे भाई/बहन के समान है,” या “यह हमारे पिता/माता के समान है,” या यह कहना कि “यह तो हमारे परिवार के सदस्य के समान है,” या यह कि “हम तो एक ही परिवार हैं” आदि। दूसरे शब्दों में, निकट की संगति को पारिवारिक भावनाओं के साथ जोड़ के रखना, उन्हें उसी तरह से व्यक्त करना, मानव जाति की मानसिकता में गहराई से बसा हुआ है।


अगले लेख में हम यहीं से आगे बढ़ेंगे और संगति से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों को देखेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Things Related to Christian Living – 19


The Four Pillars of Christian Living - 2 - Fellowship (1)



As part of the study on the Christian Believer’s growth through God’s Word, we are now studying Biblical teachings related to practical Christian living. We have seen that in Acts chapter 2, seven teachings are given, four of them being in Acts 2:42. The initial Christian Believers continued steadfastly in these four teachings; and they are also known as the “Pillars of Christian Living.” Of these four, we have seen about the first one, i.e., diligently and steadfastly studying God’s Word the Bible. From today we will take up the second ‘Pillar’ i.e., “Fellowship.”


Since creation, Fellowship has been an important aspect of man’s life. This fellowship was meant to be two-fold - fellowship with God, for which God used to come down to man in the Garden of Eden; and fellowship of man with man. Having created Adam, given him dominion over every creature and all the earth (Genesis 1:26); having planted a special Garden for him and placed him in it to tend it (Genesis 2:8, 15), God said “And the Lord God said, ‘It is not good that man should be alone; I will make him a helper comparable to him’” (Genesis 2:18). Here we see that since the very beginning it has been God’s intention that not only should man fellowship with Him, but should also fellowship with one “comparable to him.” Before creating Eve, God brought all the creatures to Adam, and Adam gave them all their names (Genesis 2:19). But there was also another purpose in God’s bringing all the creatures to Adam; it was to show to Adam, and have it recorded for all times in His Word, that amongst all the creatures created by God, there is none comparable to Adam and worthy of being his helper or companion (Genesis 2:20). Therefore, we see that mankind in general tends to live and stay in fellowship, in groups with each other. Man may have various kinds of animals as pets or for other benefits, and may even be closely attached to them, but families are only built in companionship with other humans, not with animals.


God’s Word shows us the necessity of living in companionship or fellowship, and how God has given us the necessary instructions and various examples for this in His Word. We see in the Ten Commandments (Exodus 20:1-17), which are the core, or the gist of God’s Law, that the first four Commandments teach about the basis of man’s relationship with God - the basics of man fellowshipping with God. And the next six Commandments are about man’s having and maintaining a harmonious relationship with man; within the family, as well as in the society or neighborhood.  King Solomon spoke of the advantage of fellowship wherein one uplifts or improves the other “As iron sharpens iron, So a man sharpens the countenance of his friend.” (Proverbs 27:17). King Solomon also emphasized the benefits of fellowship or companionship “Two are better than one, Because they have a good reward for their labor.” “Again, if two lie down together, they will keep warm; But how can one be warm alone?”; “Though one may be overpowered by another, two can withstand him. And a threefold cord is not quickly broken.” (Ecclesiastes 4:9, 11, 12). The Lord Jesus sent out His disciples in pairs for their ministry (Mark 6:7). The Lord also promised that when His people gather together in fellowship, not only is He also there amongst them, but when they are of one mind, God will grant them their prayers “Again I say to you that if two of you agree on earth concerning anything that they ask, it will be done for them by My Father in heaven. For where two or three are gathered together in My name, I am there in the midst of them” (Matthew 18:19-20).


The basic unit of this fellowship, whether with God or with man, is the family. God has called His people, His followers, His chosen ones, His children, and called Himself as their Father (Exodus 4:22; Deuteronomy 14:1; 2 Samuel 7:14; Isaiah 43:6; Jeremiah 31:9; Hosea 1:10; 2 Corinthians 6:18; etc.). Similarly, we see in mankind all over the world, that man tries to maintain a primary fellowship within his family, amongst his family members; and tries to provide for and protect his own family from others. To express a close relationship or attachment to others outside of the family, the names of familial relationships are invoked, calling the non-familial members to be “like a brother/sister,” or, “like father/mother,” or saying “he/she is like a family member,” or, “we are one family.” In other words, close fellowship and family-feelings are inherently interlinked in the psyche of mankind.


We will carry on from here in the next article, and see some other aspects related to fellowship.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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