बुधवार, 13 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 250

 

Click Here for the English Translation


मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 95


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (37) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के इस अध्ययन में, हमने देखा है कि प्रेरितों 2 अध्याय में से सात बातें दी गई हैं। पहली तीन बातें पतरस द्वारा भक्त यहूदियों को किए गए प्रचार के अन्त की ओर, प्रेरितों 2:38-41 में हैं, और मसीही विश्वास में आने से सम्बन्धित हैं। शेष चार, आरम्भिक मसीही विश्वासियों द्वारा लौलीन होकर पालन की जाने वाली बातें, जिन्हें “मसीही विश्वास के स्तम्भ” भी कहा जाता है, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं। इस समय हम इन चार में से चौथी बात, प्रार्थना करने, के बारे में सीखते आ रहे हैं। इस विषय के आरम्भिक लेखों में हमने देखा था कि प्रार्थना परमेश्वर से बातचीत करना है; अर्थात अपनी हर बात उससे कहना, और साथ ही उसकी बात को भी सुनना। हमें शैतान द्वारा बहकाए और भरमाए जाने से बचाने के लिए, परमेश्वर ने अपने वचन में कहा है कि उसके लोग हर बात के लिए उसके साथ निरन्तर प्रार्थना, या वार्तालाप करते रहें। फिर हमने प्रार्थना से सम्बन्धित कुछ आम गलतफहमियों के बारे में विचार किया था; और वचन के हवालों से देखा था कि परमेश्वर ने किन के द्वारा की गई, और किन बातों के बारे में की गई प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देने की प्रतिज्ञा की है। एक बहुत आम गलतफहमी के सम्बन्ध में हमने देखा था कि परमेश्वर ने ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की है कि कोई भी व्यक्ति, किसी भी बात के लिए यदि “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” कुछ भी माँगेगा, तो परमेश्वर उसे पूरा कर देगा। इस सन्दर्भ में हमने “विश्वास से” माँगने, तथा “यीशु के नाम” में माँगने के बारे में वचन की बातों से समझा था। हमने यह भी देखा था कि ये गलतफहमियाँ वचन की गलत व्याख्या और समझ के कारण हैं, जो इन बातों से सम्बन्धित वचन के हवालों की, उनके सन्दर्भ का ध्यान रखे बिना, कर दी जाती हैं।

 

इसी प्रकार से मसीहियों में बहुत प्रचलित एक और गलतफहमी भी है, तथा-कथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में। पिछले कुछ लेखों से हम इसी पर विचार करते आ रहे हैं। हमने देखा है कि पूरे नए नियम में, इस “प्रार्थना” का केवल दो बार उल्लेख है, दोनों ही तब, जब प्रभु ने इसे अपने शिष्यों को सिखाया (मत्ती 6:9-13; लूका 11:1-4)। इन दो हवालों के अतिरिक्त, न तो प्रभु के शिष्यों ने, और न ही मसीही विश्वास में आने वाले आरम्भिक मसीही विश्वासियों ने कभी इसे कहीं पर भी, किसी भी बात के लिए बोला या उपयोग किया। न ही कभी किसी भी पत्री में, प्रभु के लोगों से इस “प्रार्थना” को बोलने, उपयोग करने की कोई शिक्षा दी, और न कभी किसी से पूछा कि उन्होंने यह “प्रभु की प्रार्थना” का प्रयोग क्यों नहीं किया, अथवा क्यों किया। अपने विश्लेषण में हमने देखा है कि यह प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई कोई “प्रार्थना” नहीं है; वरन यह एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके अनुसार उन्हें अपनी व्यक्तिगत प्रार्थनाएं बनानी हैं, ताकि वे परमेश्वर को स्वीकार्य हों, और उनके सकारात्मक उत्तर मिलें। यह रट कर, हर अवसर पर, हर बात के लिए, बिना उसके बारे में जाने, या सोचे-समझे, औपचारिकता पूरी करने के लिए यूँ ही बोल देने वाली बात नहीं है। साथ ही हमने देखा है कि प्रभु द्वारा सिखाई गई इस रूपरेखा में परमेश्वर से माँगने के लिए तीन महत्वपूर्ण बातें दी गई हैं। ये तीन बातें हैं, परमेश्वर पर निर्भर रहना, क्षमाशील और धीरजवन्त बनना, और परमेश्वर द्वारा परीक्षाओं में डाले जाने से बचाए रखना तथा बुराई में न जाने देना। आज शायद ही कोई मसीही होगा जो सच्चे मन से, वास्तविकता में, अपने लिए परमेश्वर से इन तीनों बातों को माँगता होगा। किन्तु इसके विपरीत, लगभग सभी, परमेश्वर से मत्ती 6:19-34 में दी गई उन बातों को प्रार्थना में माँगते हैं, जिनके लिए परमेश्वर ने कहा है कि वह उन्हें उन लोगों को स्वतः ही प्रदान कर देगा जो उसे और उसके राज्य की खोज करने को अपने जीवनों में प्राथमिकता देते हैं। अर्थात, जो माँगना चाहिए, जिसे माँगने के लिए कहा है, वह नहीं माँगते हैं; और जिसे नहीं माँगना है, जो माँगने से नहीं आज्ञाकारिता के परिणामस्वरूप स्वतः ही मिलेगा, उसे माँगते रहते हैं, और फिर अपनी प्रार्थनाओं के निष्फल रहने के लिए निराश होते हैं।

 

प्रेरितों 15 अध्याय में व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित कुछ और बातें दी गई हैं, जिन पर हम विचार करेंगे। वहाँ जाने से पहले, एक स्पष्टीकरण शेष है, विश्वास से माँगी गई प्रार्थनाओं के सन्दर्भ में। इस बारे में सीखते हुए हमने देखा था कि परमेश्वर के वचन की यह शिक्षा है कि उसके सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों की वे प्रार्थनाएं, जो परमेश्वर के वचन से सुसंगत, तथा उसकी इच्छा के अनुसार होती हैं, परमेश्वर ने केवल उन्हीं का सकारात्मक रीति से उत्तर देने की प्रतिज्ञा की है। किन्तु वचन में हम यह भी देखते हैं कि प्रभु यीशु ने अनेकों बार ऐसे लोगों को चंगा किया, ऐसे लोगों की प्रार्थनाओं का उत्तर दिया, जो उसके शिष्य नहीं थे, केवल अपनी आवश्यकता के लिए उसके पास आए थे, और प्रभु द्वारा आवश्यकता पूरी करने के बाद वे अपने स्थानों को लौट गए, और उनकी प्रभु के शिष्य होने का कोई उल्लेख वचन में नहीं है। और उन्हें चंगा करते समय या उनकी आवश्यकता को पूरा करते समय, प्रभु ने उनसे यही कहा कि उनके विश्वास ने उन्हें चंगा, या उनकी बात को सार्थक किया है। तो फिर क्या ये घटनाएं और उदाहरण प्रार्थनाओं का उत्तर दिए जाने से सम्बन्धित उपरोक्त बात को असत्य प्रमाणित नहीं करती हैं? तर्क और उदाहरण बिलकुल सही हैं, किन्तु एक बार फिर, हमें सन्दर्भ का ध्यान करना चाहिए - तात्कालिक और दूरस्थ, दोनों संदर्भों का, बात तभी स्पष्ट होगी।


ध्यान कीजिए, यह बात केवल प्रभु यीशु मसीह ने सुसमाचारों में कही है। पूरे नए नियम में किसी को भी चंगाई देते समय प्रभु के शिष्यों ने कभी यह नहीं कहा। जैसे हमने प्रेरितों 3 में, पतरस और यूहन्ना के द्वारा जन्म के लँगड़े के चंगे किए जाने के बारे में देखा था, शिष्य हमेशा उनके द्वारा होने वाले आश्चर्यकर्मों का, उन्हें करने की उनमें विद्यमान सामर्थ्य का श्रेय, हमेशा ही परमेश्वर को देते थे; अपनी इस योग्यता का स्त्रोत वे परमेश्वर को ही बताते थे। हमने यूहन्ना 2:24-25 से देखा है, तथा सुसमाचारों की अन्य घटनाओं से भी जानते हैं कि प्रभु यीशु हर एक के मन की बात को जानते थे, किस के मन में क्या है, और क्यों है, उनसे कुछ छिपा नहीं था। साथ ही प्रभु द्वारा इस तरह से जितने भी आश्चर्यकर्म हुए, वे व्यक्ति के प्रभु द्वारा कही गई बात का पालन करने के कारण हुए। व्यक्ति का प्रभु के पास अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आना, प्रभु के प्रति उसके समर्पण का सूचक है; व्यक्ति द्वारा प्रभु के कहे को करने के कारण मिली चंगाई, उसकी प्रभु के प्रति आज्ञाकारिता का सूचक है, और प्रभु का उसे चंगाई देना, उसके विश्वास की सराहना करना, उसे वह चंगाई देना प्रभु की इच्छा में होने का सूचक है। और यही शिष्यों के साथ भी था; जो भी शिष्यों के पास आया, वह विश्वास से आया, शिष्यों ने उसकी चंगाई या आश्चर्यकर्म होने को परमेश्वर के हाथों में सौंपा, और जो किया वह परमेश्वर ने किया, उस व्यक्ति के विश्वास और आज्ञाकारिता कि दशा को जानते हुए किया। अर्थात, व्यक्ति का विश्वास और परमेश्वर की इच्छा दोनों कार्यकारी थे; किसी को भी अपने विश्वास को प्रमाणित करने या उसका दावा करने की आवश्यकता नहीं थी, परमेश्वर स्वतः ही उनके मन की, उनके विश्वास की दशा को जानता था। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि न तो प्रभु द्वारा और न ही शिष्यों द्वारा कभी कोई ऐसा आश्चर्यकर्म किया गया या किसी ऐसी प्रार्थना का उत्तर दिया गया जो अनुचित या ओछी हो, अर्थात परमेश्वर के वचन और शिक्षाओं से असंगत हो। इसलिए, जब सन्दर्भ से सम्बन्धित बातों के साथ देखते हैं, तो कहीं को विरोधाभास नहीं मिलता है, बल्कि वचन की सच्चाई और खराई ही प्रमाणित होती है।


अगले लेख से हम प्रेरितों 15 में दी गई व्यावहारिक मसीही जीवन की बातों पर विचार करना आरम्भ करेंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु  के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************


English Translation


Things Related to Christian Living – 95


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (37)


In this study on things related to practical Christian living, we have seen that there are seven things given in Acts chapter 2. The first three are given towards the end of Peter’s sermon to the devout Jews, in Acts 2:38-41, and are related to coming into Christian Faith. The remaining four, the things that the initial Christian Believers observed steadfastly, which are also known as the “Pillars of Christian Faith,” are given in Acts 2:42. Presently, we have been learning about the fourth of these four, i.e., praying. In the initial articles on this topic, we had seen that to pray is to converse with God; i.e., to share with Him about ourselves, and to listen to what He has to say to us. To keep us safe from being misled and deceived by Satan, God has had it written in His Word that His people should continually be praying to Him, i.e., be conversing with Him about everything. Then we had considered about some common misunderstandings related to prayer; and through the references in God's Word, we had seen whose prayers, and prayers about what, God has promised to answer affirmatively. We had considered about a very common misunderstanding about answers to prayers. We saw tthat God has not made any such promise that if anyone prays to Him and asks for anything “in faith” and “in the name of Jesus” then He will fulfill it. In this context we had seen from the Word what it means to ask “in faith” and “in the name of Jesus.” We had also seen that these misunderstandings are because of misinterpreting and misunderstanding the Word, done without keeping the context in mind.


There is another very popular and prevalent misunderstanding amongst Christians, about the so-called “Lord’s Prayer.” For the past few articles, we have been considering about it. We have seen that in the whole of the New Testament, the “prayer” has been mentioned only twice, and both times, it was when the Lord was teaching the disciples about prayer (Matthew 6:9-13; Luke 11:1-4). Except for these two references, there is no mention of either the Lord’s disciples, or the initial Christian Believers ever using it or speaking it. Nor did the people of the Lord, in their letters ever teach the initial Believers this prayer, or to use it, to speak it; neither did anyone ask someone why they did not use or speak this prayer, nor, why did they use or speak it. In our analysis we have seen that this is not a “prayer” that has been given by the Lord to His disciples; rather, it is an outline, a framework, on which they have to build their individual prayers, for them to be acceptable to God and be answered in the affirmative. It is not something meant to be memorized, and then spoken by rote to fulfill a formality on every occasion, for everything, without knowing anything about it or understanding it. We have also seen that in this outline, there are three important things that the Lord has said should be asked from God. These three things are, to be dependent upon God, to be forgiving and patient, to ask that God not lead them into temptation and keep them from evil. Today, hardly any Christian Believer asks God these three things for themselves. But on the contrary, practically everyone asks God for the things given in Matthew 6:19-34; things about which God has said that He will automatically give to those who make seeking Him and His Kingdom the priority in their lives. In other words, that which has been instructed to be asked, is never asked; and that which is not to be asked, for it is meant to be given by God not as an answer to prayer, but automatically as an answer to obedience, is asked for in prayer. And then people become discouraged because of not receiving answers to their prayers.


In Acts chapter 15, there are some other things given that are related to practical Christian living and we will consider them also. But before going there, there is one clarification that remains to be given, regarding the prayers made “in faith.” While learning about this we had seen that God’s Word teaches us that He will answer in affirmative those prayers that are made to Him by His true, surrendered, obedient disciples, and which are in His will and consistent with His Word. But we also see in the Word that the Lord Jesus on many occasions has healed many people, and has answered the prayers of many people who were not His disciples. They had come to Him for their needs, and once the Lord fulfilled their needs, they returned to their places, and there is no mention of them ever having become the disciples of the Lord in the Word. And while healing them or fulfilling their requests, the Lord said to them that their faith had healed them or fulfilled their desire. So, don’t these incidents disprove the above-mentioned statement about God’s answering prayers in the affirmative? The logic and argument, and the examples are very correct, but once again, we should interpret the matter in context - immediate as well the remote, both contexts, only then will we be able to correctly understand the matter.


Take note, it is only the Lord Jesus who has said this thing in the Gospels. In the whole of the New Testament, while healing anyone, none of the Lord’s disciples have ever said this. As we have seen from the incidence of the healing of the man lame since birth by Peter and John, in Acts chapter 3, the disciples always ascribed the power in them and the miracles done through them to God, they always said that the source of their power was God. We have seen from John 2:24-25, and other places in the gospels that the Lord Jesus knew everything about everyone, whatever was in anyone’s heart, and there was nothing that was ever hidden from Him. Moreover, the miracles that happened through the Lord, happened because the concerned person obeyed what the Lord told him to do. The person’s coming to the Lord for his need, shows his surrender to the Lord, the person doing what the Lord said and receiving the healing shows his obedience to the Lord, and the Lord healing him, appreciating, and commending his faith shows that the miracle was done in the will of the Lord. And the same was applicable to the disciples as well; whoever came to the disciples, came in faith, the disciples placed his healing or required miracle into the hands of God, and whatever God did, He did it knowing the state of that person’s faith and obedience. In other words, the person’s faith as well God’s willingness, both were simultaneously at work; and no one had to make any claims about their faith, or prove their faith in any manner; God automatically knew about what was in their hearts and the state of their faith. We also see that in the healings and miracles done by the Lord and by the disciples, there was nothing that was done in answer to any inappropriate or frivolous prayer, i.e., a prayer that was inconsistent with the teachings of God’s Word. Therefore, when the matters are considered in their context, along with the related things, then we do not see any contradiction; rather the truth and integrity of God’s Word is proven and affirmed.


From the next article we will start considering the things related to practical Christian living in Acts chapter 15.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

मंगलवार, 12 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 249

 

Click Here for the English Translation


मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 94


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (36) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से संबंधित बातों के वर्तमान अध्ययन में हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों के बारे में देखते आ रहे हैं। यहाँ पर दी गई पहली तीन बातों को देखने के बाद, अब हम चौथी बात, प्रार्थना करने, के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए उदाहरणों और सम्बन्धित पदों से देख और सीख रहे हैं। सीधे बाइबल से देखने और सीखने से हम देख पा रहे हैं कि आरम्भिक मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं में इनका पालन किया जाने वाला मूल स्वरूप और तरीका क्या था। पिछले कुछ लेखों में प्रार्थना से सम्बन्धित आधारभूत बातों की वास्तविकता, मसीहियों में व्याप्त कुछ प्रार्थना और उसके उत्तर पाने से सम्बन्धित भ्रांतियों आदि को देखने के बाद हम तथा-कथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में मत्ती 6:5-15 से देख और सीख रहे हैं। हमने देखा है कि वास्तव में यह प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके अनुसार उन्हें अपनी व्यक्तिगत प्रार्थनाएं बनानी हैं, ताकि वे परमेश्वर को स्वीकार्य हों। मत्ती के इस खण्ड में प्रभु ने अपने शिष्यों को सिखाया कि वे अपने लिए तीन बातें परमेश्वर पिता से माँगें, जो पद 11-13a में दी गई हैं। इन तीनों बातों को समझने के बाद अब हम देख रहे हैं कि परमेश्वर कैसे इन तीन बातों के विषय अपने लोगों को प्रशिक्षित करता है। पिछले लेख में हमने पहली बात, परमेश्वर पर निर्भर रहने के प्रशिक्षण के बारे में देखा था। आज हम दूसरी और तीसरी बात के बारे में, और फिर इस खण्ड के समापन के बारे में देखेंगे।

 

मत्ती 6:12 में प्रभु द्वारा सिखाया गया प्रार्थना का दूसरा विषय है क्षमाशील होना। हमारे प्रति परमेश्वर की क्षमाशीलता ही हमारे लिए सुसमाचार, उद्धार, परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप में बने रहने का आधार है (1 यूहन्ना 1:8-10)। इस गुण के प्रशिक्षण के लिए परमेश्वर हमें 1 पतरस 2:23 के अनुभवों से होकर जाने देता है। इन परिस्थितियों में होकर निकलते हुए हमें सही होते हुए भी, किसी का कुछ बिगाड़े बिना भी, किसी के विरोध में कुछ भी कहे या करे बिना भी, ऐसे लोगों, उनके दुर्व्यवहार, और ऐसी कठिन तथा विपरीत परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा जिनमें हमारे धैर्य और संयम की, हमारे तुरन्त ही बातों की प्रतिक्रिया देने की परीक्षा होगी; हमारे सही होते हुए भी हमें गलत बनाया, बताया, दिखाया और समझा जाएगा। जैसे परमेश्वर ने मूसा को 40 वर्ष तक मूर्ख भेड़ों की रखवाली के द्वारा प्रशिक्षित किया; और तब उसे अपने बलवई, ढीठ, और हर बात के लिए कुड़कुड़ाते रहने वाले लोगों की अगुवाई सौंपी, उसी प्रकार वह हमें भी धैर्य और संयम रखते हुए संसार के नासमझ और अपश्चातापी लोगों के साथ व्यवहार करना सिखाएगा। तथा यूसुफ, मूसा, पौलुस आदि के समान अपने सताने वालों के विरोध में कुछ कहने या करने की बजाए, उन्हें वैसे ही क्षमा करना सिखाएगा, जैसे प्रभु ने क्रूस पर अपने पहले वचन में, और स्तिफनुस ने उसे पत्थरवाह करने वालों के लिए कहा “हे पिता इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या करते हैं” (लूका 23:34; प्रेरितों 7:60)। जो परमेश्वर से क्षमाशील होने का पाठ सीखना चाहते हैं, उन्हें बहुत सी अनपेक्षित, अनुचित, और दुखदायी परिस्थितियों का सामना करने पर भी अपने सताने वालों के विरुद्ध कुछ भी कहने या सोचने से बचकर रहने के लिए तैयार रहना चाहिए।

 

मत्ती 6:13a में दिया गया परमेश्वर से प्रार्थना का तीसरा विषय है, परमेश्वर द्वारा परीक्षा में ना डाले जाना और बुराई से बचाए रखना। हमने पिछले लेखों में देखा है कि परमेश्वर अपनी ओर से तब ही हमें परीक्षा में ले जाएगा, जब हम उसके प्रति विश्वास, आज्ञाकारिता, और मनसा में उसके मार्गों से भटक कर उससे दूर जाने लगेंगे; ताकि हमें हमारी वास्तविक दशा से हमको अवगत करवा सके। इसके प्रशिक्षण के लिए, परमेश्वर हमारे सामने संसार और शैतान की ऐसी बातों को आने देगा, जो हमें उसपर तथा उसके वचन पर सन्देह करने के लिए उकसाएंगी, उसकी अनाज्ञाकारिता करने के लिए उभारेंगी, और मसीही विश्वासी होते हुए भी सांसारिकता कि बातों का आनन्द लेने के लिए आकर्षित करेंगी, सांसारिकता का जीवन जीने का प्रलोभन देंगी। ऐसी परिस्थितियों में, यह हमारा निर्णय होगा कि परमेश्वर और उसके वचन के सत्य को जानते हुए भी, हम उन बातों और परिस्थितियों के प्रति क्या निर्णय लेते हैं;  जैसा हव्वा के साथ हुआ था (उत्पत्ति 3:1-6), न्यायियों की पुस्तक में शिमशोन का, और नए नियम में कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों, आदि, का जीवन दिखाता है। यदि हम उनके समान परमेश्वर के मार्गों से भटकेंगे, चेतावनी मिलने पर भी सही मार्ग पर नहीं लौटेंगे, तो फिर परमेश्वर हमें सुधारने के लिए परीक्षाओं और परेशानियों में ले जाएगा; और आवश्यक हुआ तो हमारी ताड़ना भी करेगा (इब्रानियों 12:5-11), कि हम सुधार जाएं और उसके पास लौट आएं।


तात्पर्य यह कि हमारे मसीही विश्वास की वास्तविक दशा को हम पर प्रमाणित करने के लिए, परमेश्वर हमें हर तरह से परखे और आँकलन किए जाने की परिस्थिति से होकर निकालेगा। लेकिन इन सभी बातों में हमें 1 कुरिन्थियों 10:13 और रोमियों 8:28 को ध्यान में बनाए रखना, और यह विश्वास रखना है कि परमेश्वर हमें परीक्षाओं में कभी भी अकेला और असहाय नहीं छोड़ेगा (इब्रानियों 13:5)। इसीलिए प्रेरित पतरस ने इसे 1 पतरस 1:7 में “परखा हुआ विश्वास” जो आग में ताए हुए सोने से भी कहीं अधिक मूल्यवान है, कहा है। लेकिन विडम्बना यह है कि मसीही परमेश्वर से जो माँगते हैं, वह इन तीन बातों के अतिरिक्त होता है; ये तीन बातें तो शायद ही कोई पिता परमेश्वर से माँगता है। और जिन बातों को मसीही प्रार्थना में माँगते हैं, जैसा हमने पहले भी मत्ती 6:19-34 से देखा है, वे बातें वो हैं जिन्हें परमेश्वर ने प्रार्थना के उत्तर में नहीं बल्कि अपने सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी लोगों को, जो अपने जीवनों में उसके तथा उसके राज्य की खोज करने को प्राथमिकता देते हैं, उन्हें स्वतः ही दे देने की प्रतिज्ञा की है। अर्थात, मसीहियों द्वारा सामान्यतः माँगी जाने वाली बातें, परमेश्वर से प्रार्थना के द्वारा नहीं, वरन उसकी आज्ञाकारिता के, उसे प्राथमिकता देने के द्वारा ही मिलती हैं।


प्रभु द्वारा शिष्यों को प्रार्थना में परमेश्वर पिता से माँगने के लिए दिए गए इन तीन विषयों के बाद, पद 13 की समाप्ति, पद 13b एक बार फिर परमेश्वर की आराधना, उसके गुणानुवाद, उसे आदर और महिमा देने के साथ होती है। संक्षेप में, परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थना के लिए, मसीहियों को एक तैयारी (पद 5-8) के साथ परमेश्वर के सम्मुख अना चाहिए; और उनकी प्रार्थना के विषयों का आरम्भ आराधना के साथ (पद 9-10) और अन्त भी आराधना के साथ (पद 13b) होना चाहिए। मत्ती 6:14-15 को हम पहले क्षमाशील होने के साथ देख चुके हैं।

 

अगले लेख में प्रार्थना के विषय हम यहाँ से आगे देखेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************


English Translation


Things Related to Christian Living – 94


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (36)


In our current study on practical Christian living, we have been looking at the four things given in Acts 2:42. Having considered the first three things, now we are considering the fourth thing, prayer, from the examples and related verses in God’s Word the Bible. By learning about them directly from the Bible, we can see how the initial Christian Believers and the churches followed them in their original form. In the past few articles, having seen the reality of the fundamental things, and the misunderstandings amongst the Christians related to prayer and receiving answers to prayers we started to consider the so-called “Lord’s Prayer” from Matthew 6:5-15. We have seen that actually this is an outline, a framework given by the Lord Jesus to His disciples, on which they had to build their own personal prayers, so that their prayers would be acceptable to God. In this passage from Matthew, the Lord taught His disciples that they should ask for three things for themselves from Father God, which are given in verses 11-13a. Having understood about these three things, we are now learning how God trains His people about them. In the last article we had seen about the first thing, i.e., being trained to be dependent upon God. Today we will look about the second and third things, and then about the ending of this section.


In Matthew 6:12 is the second prayer point, i.e., being forgiving. God’s forgiveness towards us is the basis for the gospel, salvation, and our continuing in reconciliation with God (1 John 1:8-10). To train us for this attribute, God allows that we go through the experiences of 1 Peter 2:23. While passing through these circumstances and situations, despite our being correct, without having done or said anything wrong against anyone, or in any way opposed anyone, we will have to put up with people, with their bad and demeaning behavior, and face such difficult and adverse circumstances, where our patience, our tendency to immediately react to things, and our self-control will be tested; where we will be made, said, and shown to be wrong and at fault despite being correct and blameless. As God trained Moses for 40 years by making him look after dumb sheep; and only then allowed him to lead His rebellious, stiff-necked, ever grumbling people, similarly He will teach us to have patience and self-control towards the non-understanding and unrepentant people of the world. And, like Joseph, Moses, Paul, will train us to be those who do not say or do anything against their tormentors, rather forgive them; as the Lord Jesus said in His first word from the Cross and Stephan said about those who were stoning him to death “Father forgive them for they do not know what they are doing” (Luke 23:34, Acts 7:60). Those who want to learn the lessons of forgiveness from God, they should be prepared to face many unexpected, unfair, and painful circumstances, and yet not complain or say or think anything against their tormentors.


In Matthew 6:13a is the third topic for prayer to God, that God would not lead into temptation and keep safe from evil. We have seen in the previous articles that God will bring us into temptation, i.e., trials when we get misled and move away from Him in our faith, obedience, and mentality towards Him; so that He can make us aware of our true condition. For training us about this, God will let satanic things and such things of this world come before us, that will provoke us to doubt His Word, instigate us to disobey Him, attract us to enjoy the pleasures of the world and entice us to live a worldly life, despite being Christian Believers. In such situations, it will be our decision, that knowing the truth of God and God’s Word, what do we decide to do about those things, as happened with Eve (Genesis 3:1-6), with Samson in the book of Judges, and with the people of the Corinthian church in the New Testament. If, like them, we diverge from God’s ways, not return to the right way even on being warned, then to correct us, God will lead us into trials and problems, and if necessary, even chastise us (Hebrews 12:5-11), that we mend our ways and return to Him.


The implication is that to prove the actual condition of our faith, God will let us pass through situations in which we will be tested and evaluated. But in all these things we should always keep in mind the promises of 1 Corinthians 10:13 and Romans 8:28, and continue to believe that God will never leave us nor forsake us (Hebrews 13:5) even in all these circumstances. That is why the Apostle Peter in 1 Peter 1:7 has called it a “genuine faith” much more precious than gold tested by fire. But the irony is that the things that Christians ask from God are other than these three things; there would be hardly anyone who asks for these three things. And the things that Christians ask God for, as we have seen earlier from Matthew 6:19-34, are those which God has promised to give not as an answer to prayers, but automatically give to those of His true, surrendered, obedient people who give Him and seeking His Kingdom the priority in their lives. In other words, the things Christians usually ask in prayer, are those which God gives not as an answer to prayer, but automatically to those who give Him priority in their lives.


After the Lord taught the disciples these three things to ask from God in prayer, verse 13b once again ends in God’s worship, His praise, and by giving Him honor and glory. To summarize, to offer prayers acceptable to God, Christians should approach God with a preparation (verses 5-8), should begin their prayers to Him with worship (verses 9-10), and should also end with worship (verse 13b). We have seen Matthew 6:14-15 earlier while considering being forgiving.

 

In the next article, we will see more about prayer, from here.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

सोमवार, 11 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 248

 

Click Here for the English Translation


मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 93


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (35) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के मूल स्वरूप और आरम्भिक मसीही विश्वासियों तथा कलीसियाओं द्वारा उन बातों के पालन किए जाने के बारे में सीखने के लिए, हम इन बातों को परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए उदाहरणों तथा संबंधित हवालों से देखते और समझते आ रहे हैं। जैसा हम पहले के लेखों में देख चुके हैं, प्रेरितों 2 अध्याय में व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित सात बातें दी गई हैं। पहली तीन बातें, जो मसीही विश्वास में आने, मसीही जीवन आरम्भ करने से सम्बन्धित हैं, वे पतरस द्वारा भक्त यहूदियों को किए गए प्रचार के अन्त की ओर, प्रेरितों 2:38-41 में दी गई हैं। और शेष चार, जिनका आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर पालन करते थे, वे प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और मसीही जीवन पर उनके सकारात्मक प्रभाव के कारण उन्हें “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है। इन चार में से पहली तीन बातों पर विचार कर लेने के बाद, अब हम चौथी बात, प्रार्थना करने पर विचार कर रहे हैं। प्रार्थना से सम्बन्धित बुनियादी बातों को देखने और समझने के बाद, अब हम मसीहियों में बहुत आम प्रयोग की जाने वाली “प्रभु की प्रार्थना” पर मत्ती 6:5-15 के आधार पर देखना आरम्भ किया है। हमने देखा है कि यह हर अवसर और हर बात के लिए, बिना सोचे-समझे, यूँ ही दोहराई जाने वाली कोई प्रार्थना नहीं है। वरन प्रभु यीशु ने अपने सच्चे समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों को, परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाएं बनाने के लिए एक रूपरेखा, एक ढाँचा दिया है। मत्ती के इस खण्ड में, प्रभु ने पद 11-13a में तीन बातें कही हैं, जिन्हें प्रभु के शिष्यों को परमेश्वर से माँगना है। ये तीन बातें हैं, परमेश्वर पिता पर निर्भर रहना, क्षमाशील होना, और पिता परमेश्वर द्वारा परीक्षा में न लाए जाने और बुराई से बचाए रखने का निवेदन करना। पिछले दो लेखों में तीसरी बात को देखने और समझने के बाद, आज हम देखेंगे कि परमेश्वर अपने लोगों को, विशेषकर उन्हें जो इन बातों में उन्नत होना चाहते हैं, इनकी आशीषों को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें किस प्रकार प्रशिक्षित करता है।


हमने पिछले लेखों में देखा है कि परमेश्वर हमारे बारे में सब कुछ जानता है (यूहन्ना 2:24-25); किन्तु उसके प्रति हमारे विश्वास, आज्ञाकारिता, और मनसा की वास्तविक दशा को हम पर प्रकट करने के लिए, परमेश्वर हमें परीक्षाओं से होकर निकालता है, ताकि हम समय रहते अपने भटकने, अपनी गलतियों, और अपनी कमजोरियों को पहचान जाएं, और उन्हें सुधार लें। जैसा हम अपने प्रतिदिन के जीवन और व्यवहार से जानते और समझते हैं, किसी भी वस्तु की वास्तविकता, उसे उन परिस्थितियों में उपयोग करने के द्वारा ही पता चलती है, जिनके लिए उसे तैयार किया गया है। मसीही विश्वासियों को प्रशिक्षित, परिपक्व, एवं दृढ़ बनाने के लिए परमेश्वर इन दोनों व्यावहारिक और सैद्धांतिक बातों का उनके जीवन में प्रयोग करता है। 


मत्ती 6:11 में दी गई पहली बात है, अपनी रोज की रोटी के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहना। अर्थात दिन-प्रतिदिन के हिसाब से जीवन जीना; मत्ती 6:33-34 को मानते हुए उसका पालन करना, और अपने मन में निश्चित रहना कि जब कल आएगा, तब कल की आवश्यकताओं के अनुसार परमेश्वर उन आवश्यकताओं के लिए प्रावधान भी करके देगा; जैसे अब्राहम ने इसहाक को सिखाया (उत्पत्ति 22:7-8)। इस प्रशिक्षण के लिए, परमेश्वर हमें आवश्यकताओं में, कमी-घटी में, परेशानियों में जा लेने देगा (व्यवस्थाविवरण 8:3-6); और हमें हमारी मनसा, युक्तियों पर छोड़ देगा। उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए हमारे सामने सांसारिकता के अनुसार चलने का, संसार से समझौता करने का अवसर होगा। अब यह हम पर, परमेश्वर पर हमारे विश्वास की दृढ़ता पर, निर्भर होगा कि हम कुछ समय के दुःख और कुछ हानि सहते हुए भी अपने मसीही विश्वास, और परमेश्वर की योजनाओं पर अपने भरोसे को बनाए रखते हैं, और परीक्षा से पार हो जाते हैं, जैसा अय्यूब  ने किया; या दुःख, तकलीफ, असुविधाओं से बचने के लिए संसार के साथ समझौता कर लेते हैं, किन्तु परीक्षा में असफल रहते हैं; जो हमें हमारे विश्वास की वास्तविकता और दृढ़ता को प्रकट कर देता है। प्रतिदिन के प्रावधान के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहने का अर्थ है, बिना परमेश्वर पर, उसकी योजनाओं पर, उसके प्रावधानों पर सन्देह किए, बिना संसार के मार्गों को अपनाए, परमेश्वर के कहे के अनुसार चलते रहना, चाहे उसके लिए कुछ दुःख, हानि, असुविधा क्यों न उठानी पड़े। 


अगले लेख में हम प्रार्थना के दूसरे और तीसरे बिन्दु के लिए प्रशिक्षित किए जाने के बारे में देखेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************


English Translation


Things Related to Christian Living – 93


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (35)


 

To learn about the original form of the things related to practical Christian living, and how the initial Christian Believers and churches practiced them, we are considering and understanding these things through the examples and references about them in God’s Word the Bible. As we have seen in the earlier articles, there are seven things related to practical Christian living given in Acts 2. The first three things, that are related to coming into the Christian faith, are given towards the end of Peter’s sermon to the devout Jews, in Acts 2:38-41. The remaining four, those that the initial Christian Believers followed steadfastly, are given in Acts 2:42. Because of their positive effect on Christian living, they are also known as “Pillars of Christin Living.” Having considered the first three of these four, we are now considering the fourth one, praying. Having seen and understood the fundamental things related to prayer, now we are considering something that is very commonly used amongst the Christiana, the “Lord’s Prayer” on the basis of Matthew 6:5-15. We have seen that it is not something that has been given for being said as a formality by rote on every occasion and for all situations, without even knowing about it or understanding it. Rather, the Lord Jesus has given to His true, surrendered, and obedient disciples an outline, a framework, for saying prayers that would be acceptable to God. In this passage from Matthew, the Lord in verses 11-13a has said three things, which the disciples of the Lord should ask from God. These three things are, to be dependent upon Father God, to be forgiving, and to request God the Father that He would not lead them into temptation and also keep them safe from evil. Having seen about the third of these three in the previous two articles, today we will see how God trains His people, especially those who want to be edified in these things, and receive the blessings associated with them.


We have seen in the previous articles that that God knows everything about us (John 2:24-25); but to make us aware of the actual state of our faith, obedience, and mentality towards Him, God allows us to go through trials and temptations, so that we may know about our getting misled, realize our mistakes, and learn of our weaknesses and rectify them well in time. As we know and understand from our day-to-day lives and behavior, the actual state of anything is only known when it is put to use for the purpose it has been made. To make us Christian Believers trained, mature, and steadfast, God uses both of these practical and fundamental principles in our lives.


In Matthew 6:11 we have the first thing – depend upon God for our daily bread. In other words, to live life one day at a time, believing in and trusting Matthew 6:33-34, being confident in our hearts that when ‘tomorrow’ comes, then according to the needs of ‘tomorrow’ God will make the necessary provisions; as Abraham taught Isaac (Genesis 22:7-8). For this training, God allows us to go through needs, deficiencies, problems (Deuteronomy 8:3-6); and leaves us to our own thinking and devices. To fulfill those needs, we will have before us the opportunities to do things like the world does, to compromise with the world. Now, it is left to us to depend upon our faith in God, and be willing to go through times of pain and some loss, while continuing to trust our Christian faith and the plans that God has made for us, and successfully go through the trials, as Job did; or to escape pain, problems, and discomfort compromise with the world, but fail in our being evaluated; and that makes the actual state of our faith and its steadfastness evident to us. To remain dependent upon God for our daily needs means to trust God without doubting His plans, His provisions for us and without taking recourse to the ways of the world, continue to move on the path laid out for us by God, even if it means suffering pain, problems, and discomfort.


In the next article we will consider about being trained for the second and third prayer points.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well

रविवार, 10 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 247

 

Click Here for the English Translation


मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 92


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (34) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के वास्तविक मूल स्वरूप और निर्वाह के बारे में हम परमेश्वर के वचन बाइबल में उनके बारे में दिए गए उदाहरणों और हवालों से सीखते आ रहे हैं। प्रेरितों 2:42 में ऐसी चार बातें दी गई हैं, जिनमें से पहली तीन हम देख चुके हैं, और अब चौथी बात, प्रार्थना करने, पर विचार कर रहा हैं। मसीहियों में एक बहुत आम रीति है ‘प्रभु की प्रार्थना’ बोलना; इस तथा-कथित प्रार्थना को बचपन से ही रट लिया जाता है, और फिर हर अवसर पर, हर बात के लिए, बिना उसके बारे में सीखे अथवा जाने हुए, उसे बोल दिया जाता है। वर्तमान में हम इसी ‘प्रभु की प्रार्थना’ पर मत्ती 6:5-15 के आधार पर विचार कर रहे हैं। हमने देखा है कि यह वास्तव में प्रभु द्वारा दी गई कोई प्रार्थना नहीं है, वरन परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाओं को बनाने के लिए दी गई एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके अनुसार प्रत्येक मसीही को अपनी व्यक्तिगत प्रार्थनाएं बनानी चाहिएं। यहाँ पर, मत्ती 6:11-13 में, प्रभु ने अपने शिष्यों को पिता परमेश्वर से तीन बातों को माँगने के लिए कहा है - परमेश्वर पर पूर्ण निर्भरता, क्षमाशील होना, और परीक्षा बचे हुए तथा बुराई से सुरक्षित रहना। इन तीन में से पहली दो बातों के बारे में सीखने के बाद, पिछले लेख से हमने परीक्षा और बुराई से बचने के बारे में सीखना आरम्भ किया है। हमने पिछले लेख में बाइबल के उदाहरणों से देखा है कि उन्हें उनकी वास्तविक आत्मिक दशा से अवगत करवाने के लिए, परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा लेता है। बाइबल के हवालों के आधार पर हमने देखा है कि परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा, परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास, आज्ञाकारिता, और मनसा की दशा को प्रकट करने के लिए लेता है। इसी सन्दर्भ में, याकूब 1:13 से हमने देखा था कि बुराई या दुष्टता से न तो परमेश्वर किसी की परीक्षा लेता है, और न ही उसकी परीक्षा ली जा सकती है। आज हम यहाँ से आगे बढ़कर, मत्ती 6:13a “हमें परीक्षा में न ला, परन्तु बुराई से बचा” को समझने का प्रयास करेंगे। 


इस पद को पढ़ने पर मन में यही विचार आता है कि परमेश्वर अपने लोगों को किसी ऐसी परीक्षा में क्यों डालेगा, जिसमें शिष्यों के पड़ने से बचे रहने के लिए प्रभु ने कहा है? एक विरोधाभास सा प्रतीत होता है कि पिता परमेश्वर परीक्षा में डालता है जबकि परमेश्वर पुत्र परीक्षा से बचाने की प्रार्थना करने को कहता है। साथ ही यह भी स्वाभाविक है कि जिस परीक्षा से प्रभु बच के रहने के लिए कह रहा है, वह किसी भली बात से सम्बन्धित तो नहीं होगी। पिछले लेख में हमने परमेश्वर द्वारा अपने लोगों की परीक्षा लेने से सम्बन्धित कुछ हवालों को देखा था। जब हम उन, तथा उनके समान अन्य हवालों को पढ़ते हैं, तो हमारे सामने यह बात उभर कर आती है कि परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा तब लेता है जब या तो उसे उन्हें कोई बड़ी आशीष देनी होती है, जैसे अब्राहम के साथ हुआ (उत्पत्ति 22:1, 15-19);; और उसके लिए एक बड़ी भलाई की बात थी। या फिर जब उसके लोग, उसके प्रति अपने विश्वास में दुर्बल पड़ने लगते हैं, उस पर सन्देह करते हैं, उसके विरुद्ध कुड़कुड़ाते हैं, जैसा जंगल की यात्रा के दौरान इस्राएलियों ने किया, (निर्गमन 15:25; 16:4; व्यवस्थाविवरण 8:2, 16); या जब वे परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्धों और उसके प्रति अपने व्यवहार में निश्चिंत और लापरवाह होने लगते हैं, जैसा कनान में बस जाने के बाद इस्राएलियों के साथ हुआ (न्यायियों 3:4), तथा मृत्यु की कगार से लौटने और जीवन के पन्द्रह अतिरिक्त वर्ष प्राप्त करने के बाद राजा हिजकिय्याह ने किया (2 इतिहास 32:31 तथा यशायाह 39)। इन  आधार पर प्रभु अपने शिष्यों को अब्राहम के समान परीक्षा में पड़ने से तो नहीं रोकेगा, क्योंकि वह तो आशीष के लिए है, भली है। परमेश्वर के लोगों में बुराई आ जाने के साथ जुड़ी हुई दो बातें हैं - जंगल की यात्रा में इस्राएलियों के समान परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में दुर्बल पड़ना, उस पर सन्देह करना, उसके विरुद्ध कुड़कुड़ाना, तथा राजा हिजकिय्याह का और कनान में बसने के बाद इस्राएलियों का परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्धों और उसके प्रति अपने व्यवहार में निश्चिंत और लापरवाह हो जाना।

 

इन दोनों नकारात्मक उदाहरणों के लिए अवश्य ही प्रभु अपने शिष्यों को रोकेगा, कभी नहीं चाहेगा कि परमेश्वर के साथ उनके सम्बन्धों और व्यवहार में वे कभी इनमें से किसी भी स्थिति में आएं। इसलिए, इन बातों से तात्पर्य प्रकट है, प्रभु के शिष्य परमेश्वर से किसी ऐसी परीक्षा में पड़ने की स्थिति में तब ही जाएंगे जब या तो वे परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में दुर्बल पड़ने लगेंगे, उसपर सन्देह करने वाले, कुड़कुड़ाने वाले होने लग जाएंगे; या यदि वे परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्धों और व्यवहार में निश्चिंत और लापरवाह होने लग जाएंगे। शिष्यों के ऐसी स्थिति में आने पर परमेश्वर उन्हें, परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास, आज्ञाकारिता, और मनसा की वास्तविकता को दिखाने के लिए उन्हें ऐसी स्थितियों, अर्थात परीक्षाओं में लाएगा, जिस से वे अपनी वास्तविक दशा को पहचान लें, और फिर आवश्यक सुधार और पश्चाताप करके, परमेश्वर के साथ सही रीति से जुड़ जाएं। अब, इन बातों पर ध्यान करते हुए, हम यह समझ सकते हैं कि प्रभु द्वारा अपने शिष्यों से यह कहना कि वे प्रार्थना में परमेश्वर से माँगे कि उन्हें परीक्षा में ना आने दे का अर्थ हुआ, परमेश्वर से माँगें कि वह उन्हें कभी उसके प्रति विश्वास में दुर्बल न पड़ने दे, उस पर सन्देह करने और उसके विरुद्ध कुड़कुड़ाने वाला न होने दे, वरन विश्वास और आज्ञाकारिता में सुदृढ़ बनाए रखे; तथा कभी उन्हें परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्धों और व्यवहार में निश्चिंत और लापरवाह न होने दे, वरन हमेशा परमेश्वर को अपने जीवनों में सर्वोच्च आदर, स्थान, और महिमा देते रहने वाला बनाए रखे। क्योंकि जब प्रभु के लोग सही बने रहेंगे, तब ही वे परमेश्वर द्वारा परीक्षा में लाए जाने से बचे रहेंगे, अन्यथा नहीं। जब इस दृष्टिकोण से देखा और समझा जाता है तो प्रतीत होने वाला उपरोक्त विरोधाभास का भी समाधान हो जाता है। 


यह भी स्वाभाविक बात है कि जब शिष्यों में कोई बुराई, कोई शैतानी बात आएगी, जब भी वे किसी भी कारण से शैतान की किसी चाल में फँसकर परमेश्वर से दूर होंगे, तब उनमें विद्यमान उस बुराई के कारण वे अवश्य ही इस तरह से परीक्षा में डाले जाने की स्थिति में आ जाएंगे। इसलिए प्रभु ने दोनों बातों को साथ मिलाकर, शिष्यों से परमेश्वर से माँगने के लिए कहा कि वे परमेश्वर से माँगें कि उन्हें न तो परीक्षा में पड़ने वाला बनने दे, और न किसी बुराई को उनमें आने दे, जिससे वे किसी भी पाप में गिराए जाकर परमेश्वर से दूर हों, उसपर सन्देह करें, या उसके आदर को कम करें; जिससे उन्हें फिर परीक्षा में पड़ने का सामना करना पड़े। 


अगले लेख में हम देखेंगे कि प्रभु द्वारा शिष्यों को सिखाए गए प्रार्थना के इन तीनों विषयों के लिए परमेश्वर प्रभु के शिष्यों को, उससे इन बातों को माँगने वाले को इनके लिए व्यावहारिक प्रशिक्षण किस तरह से देता है। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************


English Translation


Things Related to Christian Living – 92


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (34)


We have been learning about the original form and observance of things related to practical Christian living through the examples and references given about them in God’s Word the Bible. Four such things are given in Acts 2:42, and we have seen the first three of them, and are now considering the fourth one, praying. Amongst the Christians, there is a very common ritual, to say the ‘Lord’s Prayer;’ they memorize this so-called prayer from their childhood, and then on every occasion, for everything, it is just repeated by rote, without their understanding or learning anything about it. Presently, we are considering this ‘Lord’s Prayer’ through Matthew 6:5-15. We have seen that actually this is not a prayer that has been given by the Lord, rather, it is an outline, a framework on which prayers acceptable to God have to be built by every Christian. Here, in Matthew 6:11-13, the Lord taught the disciples to ask for three things from God - to be dependent upon God, to be a forgiving person, and to be saved from being tested and kept safe from evil. Having learnt about the first two of these three things, in the last article, we have begun to learn about not being led into temptations and kept safe from evil. We have seen from the Biblical references in the last article that God allows His people to be tested or tempted to make evident to them their actual spiritual condition regarding their faith, obedience, and mind or thought towards Him. In the same context, we have seen from James 1:13 that God neither tests or tempts anybody through any evil, nor can He be tested through evil. Today, we will proceed further from here, consider and understand Matthew 6:13a “And do not lead us into temptation, But deliver us from the evil one.


On reading this verse, the thought that comes to mind is that why would God put any of His people into any such testing or temptation, for which the Lord is asking the disciples to be kept safe? There seems to be a contradiction here, that God the Father is putting the disciples into a temptation, from which God the Son wants the disciples to pray to be kept safe. Moreover, it is only natural that the temptation from which the Lord wants His disciples to be kept safe, it cannot be something that will bring them some good. In the previous article, we had seen some examples of God testing or tempting His people. When we read them and other similar references, then the thing that becomes apparent is that God tests or tempts His people either when He has to give them some great blessing, as happened with Abraham (Genesis 22:1, 15-19); which was done for a great blessing for him. Or, when His people start becoming weak in their faith towards Him, start doubting Him, start grumbling against Him, as the Israelites did in their wilderness journey (Exodus 15:25; Deuteronomy 8:2, 16); or when they become complacent towards God in their relationship and behavior towards Him, and take Him for granted, as happened with the Israelites after they had settled in Canaan (Judges 3:4), and with King Hezekiah after he had been brought back from the brink of death and given fifteen additional years of life (2 Chronicles 32:31 & Isaiah 39). On the basis of these examples, we see that the Lord will never ask for His disciples to be kept from being tested like Abraham was, since that testing would be for their good, for their blessings. There are two things associated with some evil in the people of God - becoming weak in faith towards God, doubting Him, grumbling against Him, as the Israelites did in their wilderness journey; and like King Hezekiah and the Israelites settled in Canaan, becoming complacent in their relationship and behavior towards God and taking Him for granted.


For these two negative things, the Lord would surely stop His disciples, would never desire that, they ever come in a similar situation in their relationship and behavior towards God. Therefore, from the consideration of these things, the implication is evident that the disciples of the Lord will only come into a situation of being tested or tempted by God if they start becoming weak in their faith towards Him, start doubting Him, start grumbling against Him; or in their relationship and behavior towards Him, they become complacent and start taking Him for granted. If the disciples come into any such situation, to make evident to them the actual state of their faith, obedience, and mentality towards Him, God will bring them into situations, i.e., testing, so that they should realize their actual condition, repent, and rectify the situation, and be restored in their relationship with God. Through analyzing these things, now we can understand why the Lord asked His disciples to ask God not to lead them into temptations; it means to ask God to never let them become weak in their faith on Him, doubt Him, grumble against Him, but keep them strong and well established in their faith towards Him; and never let them become complacent in their relationship and behavior towards Him and take Him from granted, rather make them always give Him the highest honor, place, and glory in their lives. Because only when God’s people remain right, will they be kept from coming under any testing or temptation by God, else they will be brought into temptation or testing. When it is seen from this point of view, then the apparent contradiction mentioned above, gets resolved.


This also is only natural, that if something evil, something devious comes into the disciples, due to any reason whenever they fall for any satanic scheme and move away from God, then because of that evil that has come into them, they will surely land up in a situation where God will have to lead them into being tested or tempted. Therefore, the Lord combined both of these things, and asked the disciples to ask God in prayer to neither lead them into temptation nor let them fall for anything evil; so that they may never fall into any sin, move away from God, doubt Him, or demean Him in any way, and then have to face the testing.


In the next article we will see how God practically trains the disciples, those who ask Him for these three things. 


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well