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आरम्भिक बातें – 53
हाथ रखना – 1
तीन महीने से भी अधिक पहले, हमने परमेश्वर के वचन के अध्ययन और पालन करने के द्वारा मसीही विश्वासी और कलीसिया की बढ़ोतरी और उन्नति से सम्बन्धित इस बाइबल अध्ययन को आरम्भ किया था। हमने देखा था कि प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए यह अनिवार्य है कि वह सम्पूर्ण बाइबल का अध्ययन करे, उसे सीखे, और उसकी शिक्षाओं का पालन करे; कोई भी व्यक्ति, बाइबल के केवल कुछ अंशों को चुन कर केवल उनका ही अध्ययन करना और शेष को छोड़ देना नहीं कर सकता है। किन्तु फिर भी, बाइबल की तीन प्रकार की शिक्षाएँ हैं, जिन्हें प्रत्येक मसीही को जानना चाहिए और उनके अनुसार चलना चाहिए; क्योंकि वे मसीही विश्वास के लिए आधारभूत और अनिवार्य हैं। जब तक कि विश्वासी इन तीन प्रकार की शिक्षाओं से भली-भाँति परिचित, और उन में स्थिर और दृढ़ नहीं होता है, वह शैतान द्वारा फैलाई जाने वाली गलत शिक्षाओं और प्रचार का, जो सारे सँसार भर में इतनी प्रचलित हैं, सामना नहीं करने पाएगा। शैतान झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों का विभिन्न स्वरूपों और अनेकों तरह से प्रचार और प्रसार करता रहता है, ताकि लोगों को भरमा कर उन्हें अनन्त विनाश में ले जाए; जब कि लोग इसी भ्रम में रहें कि वे प्रभु और उसके वचन का पालन कर रहे हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। ये तीन प्रकार की शिक्षाएँ हैं: पहली, प्रभु द्वारा पृथ्वी की उसकी सेवकाई आरम्भ करने के समय दी गई मन फिराने और सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएँ; दूसरी, इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों से सम्बन्धित शिक्षाएँ; और तीसरी, व्यावहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित शिक्षाएँ। इन तीन प्रकार की शिक्षाओं में से हम मन फिराने और सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं को देख चुके हैं। वर्तमान में हम दूसरी प्रकार की शिक्षाओं, अर्थात इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों से सम्बन्धित शिक्षाओं को देख रहे हैं, और इनमें से हम पहली तीन प्रकार की शिक्षाओं को देख चुके हैं। आज से हम आरम्भिक बातों में से चौथी, हाथ रखने, के बारे में देखना आरम्भ करेंगे। इस अध्ययन के लिए हम वाक्यांश “हाथ रखने” को, अंग्रेजी की NKJV बाइबल में प्रयुक्त वाक्यांशों “laying of hands,” और “laying on of hands” के उपयोग के अनुसार देखेंगे, क्योंकि हिन्दी अनुवाद में कहीं-कहीं, उसी अभिप्राय के लिए कुछ भिन्न शब्द भी उपयोग किए गए हैं। इसलिए पाठकों से निवेदन है कि यदि हिन्दी बाइबल में तथा इस लेख में यदि शब्द कुछ भिन्न दिखें तो कृपया अंग्रेजी की NKJV बाइबल से, तथा इस लेख के अंग्रेजी अनुवाद के साथ मिला कर देख लें।
हाथ रखने का उल्लेख, दोनों पुराने और नए नियमों में, विभिन्न संदर्भों तथा भिन्न कारणों के लिए किया गया है। जैसा कि बाइबल की प्रत्येक व्याख्या किए जाने के लिए सही है, इस वाक्यांश का भी सन्दर्भ और उपयोग उसके सही अर्थ एवं तात्पर्य को निर्धारित करता है। वाक्यांश “हाथ रखने” के प्रत्येक उपयोग का हमेशा ही एक ही, या समान अर्थ नहीं है। इसलिए हम यह मान कर नहीं चल सकते हैं कि हर बात के लिए, हमेशा ही एक ही अर्थ सही और मान्य होगा, और इस धारणा के अन्तर्गत अन्य अर्थों एवं अभिप्रायों की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। इस बात को जानना और इसका ध्यान रखना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कुछ मसीही समुदाय और डिनॉमिनेशन सामान्यतः “हाथ रखने” को बपतिस्मे के साथ जोड़ कर देखते हैं, और उनके लिए बपतिस्मे की प्रक्रिया कलीसिया या मण्डली के अगुवों या प्राचीनों के द्वारा बपतिस्मा लेने वालों पर हाथ रख कर प्रार्थना करने के साथ ही पूरी होती है। इसलिए इन समुदायों या डिनॉमिनेशनों के सदस्यों के लिए सामान्यतः वाक्यांश “हाथ रखने” का यही एक अभिप्राय होता है। किन्तु बाइबल के अनुसार, यद्यपि यह भी एक अभिप्राय है, और सही अभिप्राय भी है, किन्तु यही एकमात्र सही और सर्वथा लागू अभिप्राय नहीं है।
परमेश्वर के वचन बाइबल में इस वाक्यांश के उपयोग को देखने के साथ हम इस अध्ययन को आरंभ करते हैं, कि यह वाक्यांश, कब, कहाँ, और कैसे उपयोग किया गया है। बाइबल के अंग्रजी अनुवाद में, इस वाक्यांश के पहले दो उपयोग उत्पत्ति की पुस्तक में, और फिर उसके साथ ही, उसी अभिप्राय के साथ एक बार निर्गमन की पुस्तक में हुए हैं। इन तीनों आरम्भिक उपयोगों में इस वाक्यांश का उपयोग उस अर्थ से भिन्न हुआ है जिस अर्थ को इसे बपतिस्मे के साथ उपयोग किए जाने में देखा जाता है। बाइबल के उन तीनों पदों को देखते हैं जहाँ पर यह आरंभिक उपयोग किया गया है: उत्पत्ति 22:12 में लिखा है “उसने कहा, उस लड़के पर हाथ मत बढ़ा, और न उस से कुछ कर: क्योंकि तू ने जो मुझ से अपने पुत्र, वरन अपने एकलौते पुत्र को भी, नहीं रख छोड़ा; इस से मैं अब जान गया कि तू परमेश्वर का भय मानता है” फिर उत्पत्ति 37:22 में लिखा है “फिर रूबेन ने उन से कहा, लहू मत बहाओ, उसको जंगल के इस गड़हे में डाल दो, और उस पर हाथ मत उठाओ। वह उसको उनके हाथ से छुड़ाकर पिता के पास फिर पहुंचाना चाहता था;” तीसरा, निर्गमन 7:4 में लिखा है “तौभी फिरौन तुम्हारी न सुनेगा; और मैं मिस्र देश पर अपना हाथ बढ़ाकर मिस्रियों को भारी दण्ड देकर अपनी सेना अर्थात अपनी इस्राएली प्रजा को मिस्र देश से निकाल लूंगा;” और फिर चौथा है निर्गमन 24:11 “और उसने इस्राएलियों के प्रधानों पर हाथ न बढ़ाया; तब उन्होंने परमेश्वर का दर्शन किया, और खाया पिया।”
हम देखते हैं कि इन चारों स्थानों पर इस वाक्यांश का उपयोग हानि करने के अभिप्राय के साथ किया गया है। पहले उदाहरण में, परमेश्वर अब्राहम को मना कर रहा है कि इसहाक की कोई हानि न करे, क्योंकि अब्राहम इसहाक को बलि करने के लिए अपने हाथ में छुरा उठा चुका था; दूसरे उदाहरण में याकूब का पुत्र रूबेन, अपने अन्य भाइयों को यूसुफ को मार डालने की बजाए गड़हे में डालने के लिए कहता है, ताकि बाद में रूबेन यूसुफ को गड़हे में से निकाल कर बचा ले; तीसरे उदाहरण में परमेश्वर फिरौन और मिस्र के द्वारा जो उसके लोगों इस्राएल के साथ उन्होंने किया है, उसके लिए उन को दण्ड देने की अपनी मनसा को बता रहा है; और चौथे का सन्दर्भ है परमेश्वर द्वारा मूसा, हारून, नादाब, अबीहू, और इस्राएल के सत्तर पुरनियों को पहाड़ पर जाना था; केवल मूसा को ही परमेश्वर के निकट जाना था, शेष को दूर रहना था; और इस्राएलियों में से किसी भी अन्य को वहाँ आने की अनुमति नहीं थी (निर्गमन 24:1-2)। परमेश्वर की आज्ञाकारिता में मूसा, हारून, नादाब, अबीहू, और इस्राएल के सत्तर पुरनिये ऊपर गए, और परमेश्वर का दर्शन किया और उस की उपस्थिति में खाया-पिया (निर्गमन 24:9-11), किन्तु परमेश्वर ने उनकी कोई हानि नहीं होने दी। तो, इस वाक्यांश के बाइबल में किए गए इस आरम्भिक उपयोग से हम देखते हैं कि यह परमेश्वर के वचन में हानि करने के अभिप्राय के साथ भी उपयोग किया गया है।
हम इस वाक्यांश के विभिन्न अभिप्रायों के साथ उपयोग किए जाने के अपने इस अध्ययन को परमेश्वर के वचन बाइबल के अंग्रेजी के NKJV अनुवाद में से देखने को अगले लेख में ज़ारी रखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 53
Laying on of Hands - 1
Over three months ago, we had started this Bible Study on a Christian’s and the Church’s growth through learning and obeying God’s Word the Bible. We had seen that it is essential for every Christian Believer to study, learn, and follow the teachings of the whole of God’s Word; no one can pick and choose certain portions and ignore the others. Yet, there are three categories of Bible teachings that every Christian should know, and abide by; because they are foundational and essential for the Christian Faith. Unless one is well versed and firmly established in these three categories of Bible teachings, he will not be able to stand up to the satanic onslaught of false teachings and preaching, so rampant all over the world. Satan keeps spreading false teachings and wrong doctrines in various forms and ways to mislead people into eternal destruction while they falsely believe that they are following the Lord and His Word (2 Corinthians 11:3, 13-15). These three categories of teachings are: first, the teachings that the Lord began His earthly ministry with i.e., those related to repentance and the gospel (Matthew 4:17; Mark 1:15); second, teachings about the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2; and third, the teachings about practical Christian living. Of these three categories, we have considered the first category – teachings related to repentance and the gospel. Presently, we are considering the second category of teachings, i.e., about the six elementary principles given in Hebrew 6:1-2; of these six we have seen the first three, and from today we will be starting on the fourth elementary principle – laying on of hands. For this study, we will be following the use of this phrase in the English Bible – the NKJV translation.
Laying on of hands has been mentioned in both the Old as well as the New Testaments, in various contexts, and for different reasons. As is true for all Bible interpretations, it is the context, and the usage in the Bible passage that determines the meaning of this phrase. Every instance of use of the phrase “laying of hands,” or “laying on of hands” does not always mean the same thing. Therefore, we cannot assume and accept only one meaning of the phrase to always be applicable or always be the only meaning, ignore the rest, and insist that the phrase “laying of hands,” or “laying on of hands” only means one thing. This is important to know and realize, since some Christian sects and denominations usually associate the phrase “laying of hands,” or “laying on of hands” with baptism, and to them the process of baptizing someone is incomplete, until the Elders of the Church have laid hands upon the baptized and prayed over them. Therefore, for the followers of these sects and denominations, the phrase “laying of hands,” or “laying on of hands” means only this one thing But Biblically speaking, though this is one of the meanings, and is true; but it is not the only and always applicable meaning.
Let us begin by seeing when, where, and how this phrase has been used in God’s Word the Bible. The first two instances of the use of this phrase, “laying of hands,” or “laying on of hands,” occurs in Genesis in the English Bibles, and then, in the same sense, it is also used twice in the book of Exodus. In these four initial instances, it is used in an entirely different sense than the one we see associated with “laying of hands,” or “laying on of hands” after baptism. Let us look at the Bible verses where this phrase occurs: it says in Genesis 22:12 “And He said, "Do not lay your hand on the lad, or do anything to him; for now I know that you fear God, since you have not withheld your son, your only son, from Me"” then in Genesis 37:22 “And Reuben said to them, "Shed no blood, but cast him into this pit which is in the wilderness, and do not lay a hand on him"--that he might deliver him out of their hands, and bring him back to his father” thirdly in Exodus 7:4 “But Pharaoh will not heed you, so that I may lay My hand on Egypt and bring My armies and My people, the children of Israel, out of the land of Egypt by great judgments” and fourthly, in Exodus 24:11, where it says, “But on the nobles of the children of Israel He did not lay His hand. So they saw God, and they ate and drank.”
We see at all four places that the sense of the phrase is related to causing harm; in the first instance, God is forbidding Abraham from sacrificing Issac, as Abraham stretched out his hand with the knife to sacrifice Issac; whereas in the second instance, Jacob’s son Reuben, wanting to protect and save their brother Joseph, asks the other brother to not kill him, but just cast Joseph into a pit, from which Reuben intended to rescue Joseph later on; then in the third instance, God is mentioning His intention of punishing Pharaoh and Egypt for what they have done to God’s people, the Israelites; and for the fourth instance, the context of this verse is God inviting Moses, Aaron, Nadab, Abihu and seventy of the elders of Israel up on the mountain, and they were to worship God from afar, and only Moses was to go near the Lord, while the others were to stay afar; and none of the others from the congregation were to go up (Exodus 24:1-2). In obedience to God Moses, Aaron, Nadab, Abihu and the seventy elders of Israel went up on the mountain, saw God of Israel, and they ate and drank there in His presence (Exodus 24:9-11), but God did not bring them to harm in any way. So, from this initial use of this phrase, “laying of hands,” or “laying on of hands,” in the Bible, we learn the first use of this phrase is in the sense of causing harm to someone. Later too, at other places, this phrase has been used in this same sense in God’s Word.
We will continue our study on the use of this phrase, as it occurs in different senses in the English NKJV Bible.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.