सोमवार, 24 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 110

 

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आरम्भिक बातें – 71

मरे हुओं का जी उठना – 6


प्रभु यीशु का पुनरुत्थान – प्रमाणित (4)

 

हम इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः में से पाँचवीं आरम्भिक बात, “मरे हुओं के जी उठने” के बारे में सीख रहे हैं। हम देख चुके हैं कि किसी भी वास्तव में नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी के लिए प्रभु यीशु का पुनरुत्थान ही इस आश्वासन का आधार है कि वह भी मरे हुओं में से जिलाया जाएगा और अनन्तकाल तक स्वर्ग में परमेश्वर के साथ रहेगा। इसी लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए प्रभु यीशु के जिलाए जाने के बारे में सीखना अनिवार्य है, न केवल अपने अनन्तकालीन भविष्य के बारे में सीखने के दृष्टिकोण से, बल्कि प्रभु के पुनरुत्थान से सम्बन्धित शैतान द्वारा फैलाई गई झूठी कहानियों का खण्डन करने के लिए भी। हम प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के बारे में तीन शीर्षकों के अन्तर्गत सीख रहे हैं: पवित्र शास्त्र में इसकी भविष्यवाणी की गई है; यह एक प्रमाणित घटना है; यह परमेश्वर की सामर्थ्य है। हम इन में से पहले शीर्षक को देख चुके हैं, और अभी दूसरे शीर्षक को देख रहे हैं। इस बात की पुष्टि करने के लिए कि प्रभु यीशु का पुनरुत्थान एक प्रमाणित घटना है, हमने पुनरुत्थान के विरुद्ध शैतान द्वारा फैलाई गई विभिन्न झूठी कहानियों को देखा है, और साथ ही यह भी देखा कि उन में से कोई भी बाइबल के तथ्यों के सामने टिक नहीं सकती है। फिर, हम ने पिछले लेख में बाइबल से बाहर के कुछ ऐतिहासिक लेखों के बारे में देखा था, जिन में प्रभु यीशु के पुनरुत्थान से सम्बन्धित उल्लेख आया है। आज हम कुछ अन्य तथ्यों को देखेंगे, बाइबल के और बाइबल से बाहर के, जो प्रभु यीशु के पुनरुत्थान की पुष्टि करते हैं।

परमेश्वर के वचन बाइबल के नए नियम खण्ड के मुख्य और प्रमुख पात्रों में से एक है प्रेरित पौलुस, जो प्रभु यीशु का अनुयायी बनने से पहले, शाऊल के नाम से जाना जाता था। पौलुस, जो तब शाऊल कहलाता था, एक फरीसी था, अर्थात, पौलुस पुराने नियम – जो उस समय के यहूदियों का पवित्र शास्त्र था और जिस का सन्दर्भ तथा हवाला प्रभु यीशु ने भी कई बार दिया है, का एक प्रशिक्षित विद्वान था। फरीसियों को बहुत गहन और कड़े प्रशिक्षण से होकर निकलना पड़ता था, और पौलुस को उस समय के सर्वोत्तम शिक्षकों में से एक, गमलिएल से शिक्षा मिली थी (प्रेरितों 5:34; 22:3)। पौलुस परमेश्वर की सेवा के लिए बहुत उत्साही और प्रतिबद्ध था, और प्रभु यीशु तथा उस के अनुयायियों को विधर्मी तथा परमेश्वर का विरोधी मानता था, और इसलिए प्रभु यीशु के अनुयायियों को सताने और मरवा भी डालने के प्रयासों में लगा रहता था (प्रेरितों 26:9-11)। प्रभु यीशु के अनुयायियों को पकड़ कर लाने के लिए, दमिश्क जाते समय पौलुस का सामना प्रभु यीशु मसीह से हुआ, और प्रभु से उस मुलाकात के बाद, पौलुस का जीवन पूर्णतः बदल गया, और वह प्रभु का कट्टर समर्थक बन गया, प्रभु के, तथा उसके सुसमाचार – जिस में प्रभु यीशु का पुनरुत्थान भी सम्मिलित है, के प्रचार के लिए कुछ भी और सब कुछ सहने के लिए तैयार हो गया (प्रेरितों 26:12-23)। पौलुस ने अपने मसीही विश्वास के लिए बहुत कुछ सहा (2 कुरिन्थियों 11:23-28), परन्तु प्रभु का अनुसरण और आज्ञाकारिता करने से कभी पीछे नहीं हटा, और अन्ततः अपने विश्वास के लिए जान भी दे दी। हमारे विषय से सम्बन्धित महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि, यदि प्रभु यीशु, प्रभु का जीवन, प्रभु की शिक्षाएँ, प्रभु के कार्य, प्रभु की मृत्यु, और प्रभु का जिलाया जाना, आदि, यदि झूठ था, तो फिर प्रभु के घोर विरोधी से प्रभु के कट्टर अनुयायी, पौलुस के परिवर्तन को कैसे समझा जा सकता है? कैसे, दमिश्क के मार्ग पर, प्रभु यीशु से हुई एक ही मुलाकात में, पौलुस का जीवन तुरन्त ही ऐसा बदल गया कि वह प्रभु के लिए कुछ भी और सभी कुछ सहने, और मरने तक के लिए तैयार हो गया? यह कैसे हुआ कि उत्साही पौलुस, पवित्र शास्त्र का एक प्रख्यात विद्वान, अब उसी पवित्र शास्त्र से प्रभु यीशु मसीह का समर्थन देखने, जानने, और सिखाने वाला बन गया, यह प्रचार करने वाला कि पवित्र शास्त्र में प्रतिज्ञा किया हुआ वह मसीहा यीशु ही है (प्रेरितों 9:22; 17:2-3; 18:5)? पौलुस का जीवन-परिवर्तन मसीही विश्वास, सुसमाचार, तथा प्रभु यीशु के पुनरुत्थान की पुष्टि के लिए एक बहुत बड़ा, अकाट्य, और इनकार न किया जा सकने वाला प्रमाण है।

क्योंकि सम्पूर्ण मसीही विश्वास इस एक पुनरुत्थान की घटना पर आधारित है, इस लिए यदि कोई पुनरुत्थान को गलत प्रमाणित कर दे तो वह मसीही विश्वास को झूठा प्रमाणित कर देगा। इसी लिए यह एक ऐसी चुनौती है जिसे बहुतों ने स्वीकार तो किया है, किन्तु पूरा कोई नहीं कर पाया है। प्रभु यीशु मसीह की खाली कब्र – समस्त सँसार के सम्पूर्ण इतिहास की एकमात्र कब्र जो खाली है, इस बात का प्रमाण है कि पवित्र शास्त्र और उस के दावे सच्चे हैं। प्रयास करने वाले अनेकों में से, सर विलियम रैमसे और ‘बेन हुर’ के लेखक ल्यू वौलेस ऐसे दो विख्यात व्यक्तियों के नाम हैं जिन्होंने, अलग-अलग समयों पर, मसीह तथा उस के पुनरुत्थान को झूठा प्रमाणित करने की चुनौती स्वीकार की। उन्होंने अपनी-अपनी खोज-बीन की, तथ्य एकत्रित किए, और जो उन्होंने पाया उस का विश्लेषण किया, और फिर इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि प्रभु यीशु मसीह, प्रभु की मृत्यु, प्रभु का पुनरुत्थान, ऐसी ऐतिहासिक बातें हैं जिन का इनकार नहीं किया जा सकता है, बाइबल के बाहर भी जिन के बारे में ठोस और अकाट्य प्रमाण विद्यमान हैं। इस के बाद सर विलियम रैमसे बाइबल के एक विख्यात और महान विद्वान बने, और उनकी लिखी पुस्तकें आज, लगभग सौ वर्ष बाद भी, सँसार भर के बाइबल प्रशिक्षण संस्थानों में उपयोग की जाती हैं। ल्यू वौलेस ने अपने शोध के आधार पर एक प्रसिद्ध उपन्यास ‘बेन हुर’ लिखा, जिस में प्रभु यीशु मसीह और उस के पृथ्वी के समय के जीवन, तथा प्रभु में लाए गए विश्वास की सामर्थ्य को एक कहानी के रूप में सँसार के सामने प्रस्तुत किया गया है। मसीहियत के इतिहास में, इन दोनों के समान, असंख्य लोगों ने प्रभु यीशु, प्रभु की मृत्यु, और पुनरुत्थान को झूठा प्रमाणित करने के प्रयास किए हैं, किन्तु उन्हें जो प्रमाण मिले वे प्रभु के पक्ष के ही थे, उस के विरुद्ध नहीं, अकाट्य थे, और यह दिखाते थे कि मसीही विश्वास का इनकार नहीं किया जा सकता है। इस लिए उन्होंने अपने विरोध को त्याग दिया, और प्रभु यीशु मसीह तथा मसीही विश्वास के अनुयायी बन गए।

न केवल सर विलियम रैमसे और ल्यू वौलेस, बल्कि सँसार भर में असंख्य अन्य लोगों ने, पिछले 2000 वर्षों से अधिक समय से, अर्थात, प्रभु यीशु के द्वारा इस पृथ्वी पर अपनी सेवकाई आरम्भ करने से लेकर अभी तक, प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार और पुनरुत्थान के जीवन बदल देने वाले इसी प्रभाव को अनुभव किया है, जीवित प्रभु की उपस्थिति को अपने जीवन में महसूस किया है। प्रभु यीशु मसीह का पुनरुत्थान और मसीही विश्वास का प्रचार कोई आरम्भिक रोमांचक कहानी नहीं थी, जो समय के साथ और उस के विरुद्ध उठे घोर प्रतिरोध के सामने ठन्डे पड़ गए और विलुप्त हो गए। बल्कि यह आज तक न केवल दृढ़ बनी हुई बात है, वरन और बढ़ती जा रही है, स्थापित होती चली जा रही है, सारे सँसार भर में इस के विरुद्ध बढ़ते हुए प्रतिरोध और सताव के बावजूद, यह और भी अधिक अनुयायियों को एकत्रित करती चली जा रही है, और जो भी इसे स्वीकार करते हैं, उन के जीवनों को बदल रही है। यदि बाइबल में वर्णित वास्तविक मसीही विश्वास, किसी की कल्पना की गढ़ी हुई कहानी होता तो जितना घोर और विभिन्न प्रकार का प्रतिरोध और सताव उसे सहना पड़ा है, उस के सामने टिक नहीं पाता, समाप्त हो जाता। आज भी मसीही विश्वास का प्रतिरोध और सताव सारे सँसार भर में ज़ारी है, यहाँ तक कि “ईसाई” कहलाए जाने वाले देशों में भी, किन्तु मसीही विश्वास और पुनरुत्थान का समर्थन कम नहीं हुआ है, अभी भी लोग उस में जुड़ते जा रहे हैं। सभी प्रकार के विरोध और सताव के बावजूद अपने समस्त इतिहास में इस की निरन्तर बढ़ोतरी और उन्नति इस के सत्यों और तथ्यों का एक ठोस प्रमाण है।

अगले लेख में हम तीसरे शीर्षक – प्रभु यीशु का पुनरुत्थान परमेश्वर की सामर्थ्य है, पर विचार करना आरंभ करेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


The Elementary Principles – 71

Resurrection of the Dead – 6


Lord Jesus’s Resurrection – Proven (4)

 

We are learning about “Resurrection of the Dead,” the fifth of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2. We have seen that the resurrection of the Lord Jesus Christ is the basis of the truly Born-Again Christian Believer’s assurance that he too will be resurrected from the dead, and will be with the Lord God forever in heaven. Therefore, it is necessary for every Christian Believer to learn about the Lord Jesus’s resurrection, not only to learn about their own eternal future, but to also be able to counter the false stories spread by Satan against the Lord’s resurrection. We are studying about the Lord’s resurrection under three headings: it is prophesied in the Scriptures; it is a proven event; it is the power of God. We have seen the first one, and are presently considering the second heading. To affirm that the Lord’s resurrection is a proven event, we have seen the various satanic false stories that have been spread against resurrection, and seen how none of them stand up to the Biblical facts about the resurrection. Then, in the last article, we saw about some extra-Biblical historical accounts that mention the resurrection of the Lord Jesus. Today we will consider some other facts, Biblical and extra-Biblical, that affirm the resurrection of the Lord Jesus.

One of the main and very prominent characters of the New Testament section of God’s Word the Bible is the Apostle Paul, who was known as Saul before his becoming a disciple of Christ. Paul, then known as Saul, was a Pharisee, i.e., a trained scholar of the Old Testament – which is the Scripture of the Jews, one that even the Lord Jesus referred to and spoke about on numerous occasions. The Pharisees had to undergo a very rigorous training, and Paul had been trained under Gamaliel, one of the best teachers of that time (Acts 5:34; 22:3). Paul was very zealous for serving God, and considered the Christians and the Lord Jesus as blasphemers against God, he therefore set out to persecute the followers of Lord Jesus even to death (Acts 26:9-11). While going to Damascus, to catch and bring the followers of the Lord Jesus, the Lord Jesus appeared to Paul; after his encounter with the Lord, Paul’s life changed totally, and he became a staunch follower of the Lord, willing to suffer anything and everything for His sake and for preaching the gospel of the Lord, which included the resurrection of the Lord Jesus (Acts 26:12-23); Paul suffered greatly for his faith and preaching, but never ever turned away from following the Lord (2 Corinthians 11:23-28), and was eventually martyred for his faith. The question, relevant to our topic is, if the Lord Jesus, His life, His works, His teachings, His death, and His resurrection were false, then how does one account for the conversation of Paul from being a bitter opponent to being a staunch follower of the Lord, willing to suffer anything and everything for Him and even die for Him, after only one meeting with Him on the road to Damascus? How is it that the eminent scholar of the Scriptures, Paul the zealous Pharisee, could now, from those very Scriptures see, show, and preach that the Lord Jesus is the same promised Messiah of the Scriptures (Acts 9:22; 17:2-3; 18:5)? The conversion of Paul is a very strong undeniable, and incontrovertible proof of the veracity of the Christian Faith, the gospel, and the resurrection of the Lord Jesus.

Since the whole of the Christian Faith stands on this one event i.e., the Lord’s resurrection, therefore, if anyone can disprove the Resurrection, he can disprove Christianity. This is a challenge that many have taken but none has succeeded. The empty tomb of the Lord Jesus - the only tomb that is empty to date in the entire history of the entire world, is proof before the world of the truth of the Scriptures and its claims. Besides many others, Sir William Ramsey and Lew Wallace of "Ben Hur" fame are two notable persons who, at different times, went out taking the challenge to disprove Christ and His resurrection; they collected and then analyzed their evidences and facts, and then each came to the conclusion that the person, death, and resurrection of Christ Jesus are undeniable events that have incontrovertible proof even outside of the Bible. Sir William Ramsey went on to become a great Bible scholar whose works are still taught in Bible Seminaries all over the world for more than a hundred years now. Lew Wallace, on the basis of his research and then his conversion to Christianity wrote the famous classic “Ben Hur,” presenting as a story, the life and times of Lord Jesus and the power of faith in Him. Throughout the history of Christianity, many others like them have set out to disprove the person, death, and resurrection of the Lord Jesus, only to find that the evidence in favor of the Lord Jesus and the Christian Faith is undeniable and incontrovertible; they gave up their antagonism and changed to become followers of the Lord Jesus and the Christian Faith.

Not just Paul, Sir William Ramsey, and Lew Wallace, but countless others all over the world, over the past over 2000 years, i.e., since the time the Lord Jesus began His ministry on earth have experienced the same life-changing effect of the gospel and the resurrection of the Lord Jesus, and have experienced the presence of the Living Lord in their lives. The preaching of the Lord’s resurrection and the propagation of the Christian Faith was not an initial fad, that fizzled out with time and in the face of the bitter onslaught the world brought against it; rather, it has not only persisted, but has continued to grow and become stronger in the face of opposition and persecution, all over the world. It has continued to acquire followers despite severe persecution, and to change the lives of those who believe and accept it. Had true Biblical Christianity been a figment of someone’s imagination, it could never have survived the vehement opposition it has faced in so many forms, and still continues to face all over the world, even in the so called “christian" countries. Its survival and growth despite every possible kind of opposition and persecution throughout its history affirms its truth and claims.

In the next article we will consider the third heading – the resurrection of the Lord Jesus is the power of God.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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