गुरुवार, 18 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 134

 

Click Here for the English Translation


आरम्भिक बातें – 95


परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 1

 

हमारे “अन्तिम न्याय” के अध्ययन में, जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक बातों में से छठी बात है, आज से हम एक नई बात पर विचार आरम्भ कर रहे हैं कि हमने इस विषय पर अभी तक जो सीखा है, क्या उसमें और परमेश्वर के वचन के कुछ अन्य भागों में, कुछ बहुत जाने-पहचाने भागों के साथ विरोधाभास है, या नहीं है? इस बात पर विचार आरम्भ करने से पहले, एक अन्य बात को स्पष्ट कर देना आवश्यक है, कि यह छठी आरम्भिक बात, परमेश्वर द्वारा पृथ्वी पर अन्यजातियों और उसके अपने लोगों – इस्राएलियों तथा मसीही विश्वासियों पर लाए गए उसके न्याय से, जिनके बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल में लिखा हुआ है, भिन्न है; यह वह न्याय नहीं है। जैसा कि इस छठी आरम्भिक बात के नाम से प्रकट है, यह न्याय अन्तिम है, इसके बाद फिर कोई और न्याय नहीं है। और हम इसी अन्तिम न्याय के बारे में सीख रहे हैं, न कि परमेश्वर द्वारा अभी तक इस पृथ्वी पर किए गए लोगों के न्याय के बारे में, जिन्हें परमेश्वर ने अन्यजातियों या अपने लोगों पर किया है; यह बाइबल में लिखे गए और  अभी तक के किए गए न्यायों के बारे में नहीं है।

बात को ठीक से समझने के लिए हमें परमेश्वर के वचन की व्याख्या करने से सम्बन्धित कुछ बहुत महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का भी यहाँ पर ध्यान रखना होगा। पहला यह कि परमेश्वर के वचन में कोई विरोधाभास नहीं है। परमेश्वर के वचन का कोई भी भाग, किसी अन्य भाग को न तो काटता है, और न किसी सम्बन्धित भाग में उस से भिन्न अर्थ में जाता है; न तो लेख में, न उसके अर्थ में, न उसके तात्पर्यों में, और न उसका पालन किए जाने में। यदि व्याख्या, या तात्पर्यों, या पालन किए जाने में वचन का एक भाग का किसी दूसरे भागे के साथ कहीं कोई विरोधाभास मिलता है, तो वह व्याख्या की गलती अथवा कमी के कारण है, न कि वचन में किसी गलती के कारण। इसलिए, ऐसा होने पर वचन की उस समझ को, उस व्याख्या को फिर से देखना चाहिए, जाँचना चाहिए कि कहीं कोई गलत समझ या गलत व्याख्या तो नहीं आ गई है, और उसे सुधार लेना चाहिए। दूसरा यह कि परमेश्वर के वचन के प्रत्येक अंश को हमेशा उसके सन्दर्भ में समझना और उसकी व्याख्या करनी चाहिए। सन्दर्भ दो प्रकार के होते हैं – स्थानीय तथा दूर के; स्थानीय वे जो उस पद या खण्ड से पहले और बाद के पदों और लेखों के द्वारा होते हैं; और दूर के वे जो उस विषय पर बाइबल के अन्य अध्यायों या पुस्तकों के सम्बन्धित लेखों या पदों से बनते हैं। प्रत्येक व्याख्या को सभी सन्दर्भों, स्थानीय तथा दूर के, को पूर्णतः सन्तुष्ट करना चाहिए; यदि ऐसा नहीं होने पाता है तो फिर उस व्याख्या की फिर से जाँच की जानी चाहिए, और उसमें आवश्यक सुधार किए जाने चाहिएँ। हमेशा ध्यान में रखने के लिए तीसरी महत्वपूर्ण बात है कि कोई भी व्यक्ति सिद्ध नहीं है, सभी गलतियाँ कर सकने वाले मनुष्य हैं, और समय-समय पर गलतियाँ करते भी रहते हैं। इसलिए परमेश्वर के वचन की किसी के भी द्वारा की गई व्याख्या, विशेषकर तब, जब वह स्थानीय अथवा दूर के सन्दर्भ को सन्तुष्ट नहीं कर पा रही है, उसे कभी भी अन्तिम या सदा मानी जाने वाला, त्रुटि विहीन नहीं समझना चाहिए। इस से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि वह व्याख्या या शिक्षा देने वाला कितना लोकप्रिय है और उसकी शिक्षाएँ तथा प्रचार और शिक्षाएँ कितना आदर पाती हैं या मानी जाती हैं। यदि उनमें कोई गलती है तो उसे तुरन्त स्वीकार करने और बिना किसी झिझक के उसे सुधारने की आवश्यकता है। परमेश्वर का वचन हमेशा ही मनुष्य के वचन के ऊपर और उस से बढ़कर है; मनुष्य के वचन को सही करके उसे परमेश्वर के वचन के अनुरूप बनाना चाहिए, न कि प्रचलित प्रवृत्ति के अनुसार परमेश्वर के वचन को तोड़-मरोड़ कर मनुष्य के वचन और उसकी समझ तथा व्याख्या के अनुरूप लाने का प्रयास करना चाहिए।

इन बातों को ध्यान में रखते हुए हम छठी आरम्भिक बात - अन्तिम न्याय के एक अन्य पक्ष पर विचार करना आरम्भ करेंगे, परमेश्वर द्वारा यह आश्वासन देना कि वह पाप को क्षमा करता और भुला देता है, और फिर भी यह कहता है कि विश्वासी की प्रत्येक बात, भली हो या बुरी, खोल कर रख दी जाएगी और उसका न्याय किया जाएगा। प्रकट है कि इस बात से मसीही विश्वासियों के मनों में बहुत दुविधा उत्पन्न होती है, और हमने जो अभी तक अन्तिम न्याय के बारे में सीखा है, उसके साथ एक विरोधाभास दिखाई देता है। परमेश्वर ने अपने वचन में यह आश्वासन दिया है कि वह हमारे पापों और अपराधों को काली घटा और बादलों के समान मिटा देता है (यशायाह 44:22), उन्हें अपनी पीठ के पीछे फेंक देता है (यशायाह 38:17), वह उन्हें कभी याद नहीं करेगा (यशायाह 43:25), और यदि हम अपने पापों को मान लें और उनके लिए क्षमा माँग लें तो वह हमें क्षमा करके बहाल कर देगा (1 यूहन्ना 1:9)। यदि ये सभी बाते सच हैं, तो फिर यह कैसे सम्भव है कि परमेश्वर विश्वासियों से उनकी बुरी बातों का हिसाब लेगा, जैसे कि पिछले लेखों में हमने देखा है कि होगा? परमेश्वर द्वारा क्षमा करना और भुला देना, ये सभी बातें बिल्कुल सही हैं; किन्तु उतनी ही सही उसके न्याय की बातें भी हैं, और हम देखेंगे कि ये विरोधाभास में प्रतीत होने वाली बातें, वास्तव में परस्पर विरोधाभास में नहीं है, वरन एक-दूसरे की पूरक हैं, और इनमें परस्पर सामंजस्य बैठाया जा सकता है, यदि सन्दर्भ को ध्यान में रखा जाए तो।

एक दुर्भाग्य पूर्ण बात यह है कि बहुत से मसीही विश्वासी, यहाँ तक कि परिपक्व भी, अर्थात मसीही अगुवे, प्रचारक, और शिक्षक, परमेश्वर की पापों को क्षमा करने और भुलाने की इन प्रतिज्ञाओं को लेकर उनका दुरुपयोग करते हैं, और उन्होंने इन प्रतिज्ञाओं को पाप करने की अनुमति बना लिया है। वे पाप करते हैं, कभी तो जानते-बूझते हुए भी, जानबूझकर भी; और फिर उस पाप का आनन्द लेने के बाद, या उससे मिलने वाले भौतिक अथवा शारीरिक लाभ उठा लेने के बाद, उस पाप को परमेश्वर के सामने, अकसर बड़े नाटकीय रूप में मान लेते हैं, उसके लिए क्षमा माँगते हैं। वे इन्हीं सम्बन्धित पदों के आधार पर प्रार्थनाएं करते और उन पदों को माँगते हैं, वे “प्रभु यीशु के लहू में पापों को ढाँप देने” का दावा करते हैं, और सोचते हैं कि यह सब करने से अब वे शुद्ध और ठीक हो गए हैं। और फिर, कुछ समय के बाद, वे फिर से वही, या फिर वैसी ही कोई बात कर देते हैं, या कोई अन्य पाप कर देते हैं, और फिर से पाप को मानने, उसके लिए क्षमा माँगने को उसी प्रकार से दोहराते हैं। ऐसे विश्वासियों ने परमेश्वर की क्षमा करने के गुण को वास्तव में पाप करते रहने का लाइसेंस, उसकी अनुमति बना लिया है। उनके द्वारा, उनके अनुयायी भी, वे लोग जो उनसे परमेश्वर के वचन की शिक्षा प्राप्त करते हैं, वे भी इन्हीं बातों को सीखकर उन्हीं के समान परमेश्वर की क्षमा और पाप को भुला देने को पाप करते रहने का लाइसेंस, उसकी अनुमति बना लेते हैं और वही व्यवहार करते हैं। लेकिन जैसा पहले कहा जा चुका है, परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता कर के उसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है, उसे ठट्ठे में नहीं उड़ाया जा सकता है; ऐसा करने की भारी कीमत चुकानी होगी।

यह समझने के लिए कि परमेश्वर की पापों की क्षमा और भुलाना, और उसके द्वारा, मसीही विश्वासियों द्वारा की गई भली या बुरी बात का न्याय करना, इनमें परस्पर कोई विरोधाभास नहीं है, हमें अदन की वाटिका में जाना होगा, और उसे समझना होगा जो पाप के सृष्टि में प्रवेश करने के साथ हुआ था, और फिर उसे देखना और समझना होगा कि परमेश्वर ने हमारे लिए पापों के साथ क्या व्यवहार किया है, उनका क्या समाधान दिया है। अगले लेख में हम एक अन्य सम्बन्धित बात को देखने के बाद, फिर इस बात को देखना आरम्भ करेंगे।     

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


The Elementary Principles – 95


God’s Forgiveness and Justice – 1

   

In our study on “Eternal Judgment,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, we are starting on a new consideration today – whether what we have learnt so far about this topic contradicts some other, and well-known portions of God’s Word, or not? Before we get into this consideration, it is important to point out here that this sixth elementary principle is not about the judgments of God on earth of the Gentiles as well as the people of God – Israelites or Christian Believers; judgments which we find given in God’s Word the Bible. As is evident from the name of this sixth elementary principle Judgment, it is the last and final, the Eternal judgment. It is the judgment that will happen at the end; that is what we are considering and learning about, not the judgments carried out by God on earth so far. Therefore, no one should confuse this with the other judgments that God has done for the people of this world, whether Gentiles or the people of God, judgments that have been recorded in the Bible.

We also need to remind ourselves about some very important principles of interpreting God’s Word: Firstly, that there are no contradictions in the Word of God. No portion of God’s Word ever contradicts or goes into a different meaning than any other related portion; neither in text, nor in meaning, nor in implications, nor in its application. If there are any contradictions or confusion in interpretation, implication, or applications of any portion of God’s Word with some other, then it is due to some fault or short-coming in the interpretation, and not because of any error or fault in the Word of God. Therefore, if this happens, we need to re-evaluate the interpretation and understanding, and check it out for any misinterpretation or misunderstanding that might have inadvertently crept in, that should be corrected. Secondly, while interpreting and understanding God’s Word, it should always be interpreted in its context – both, the immediate context, as well as the remote, i.e., the context through the other related portions of God’s Word, in other portions, books, and chapters of the Bible. Every interpretation should satisfy all the contexts, the immediate as well as the remote; if it does not then it needs to be re-evaluated and corrected accordingly. The third important point to keep in mind is that no person is perfect, we are all fallible human beings, prone to making errors, and we all do make errors from time-to-time. Therefore, no one’s opinion or interpretation of a portion of God’s Word, especially when it does not satisfy the immediate or the remote contexts, can ever be seen as the absolute and irrefutable interpretation or teaching. No matter how popular and acceptable that person, his teachings, and interpretations might be, if it needs to be corrected, it should be corrected without any hesitation. God’s Word is always over and above any person’s word; and it is man’s word that has to be corrected to bring it in line with God’s Word, instead of the usual tendency of trying to manipulate God’s Word to suit someone’s understanding and interpretation of it.

With the above in mind, we will begin considering the next aspect of eternal judgment, the sixth elementary principle – God’s assurance of forgiving and forgetting sin, and still saying that everything good and bad about the Believers will be laid open and judged. Quite understandably, this creates a lot of confusion in the hearts of Christian Believers, and seems to go against what we have seen and learnt about the eternal judgment so far. God in His Word has assured that He blots away our sins like a thick cloud (Isaiah 44:22), throws them behind His back (Isaiah 38:17), He will never remember them (Isaiah 43:25), and if we accept our sin and apologize to Him for them, He will freely forgive and restore us (1 John 1:9). If all this is true, then how can God be taking an account of the bad things from the Christian Believers, as has been shown in the preceding articles that He will do? All of this about God forgiving and forgetting is absolutely true; but equally true is what we have seen about the judgment above, and we will see how these seemingly contradictory aspects are not contradictory, but actually are complementary, and can be reconciled by keeping the contexts in mind.

The unfortunate part is that many Christian Believers, even the mature ones, i.e., the Christian leaders, preachers, and teachers, have taken and used these promises of God, of forgiving and forgetting sins, as a license to sin. They sin, at times knowingly and deliberately; and then having enjoyed the pleasure, and having gained the physical benefits of that sin, they then quite dramatically accept that sin before God and ask Him to forgive them for it. They claim the related Bible verses about it, they claim to “cover the sin in the blood of the Lord Jesus” and believe that by doing this all has become okay and clean. And then, after sometime, they go ahead do the same, or some similar, or some other sin, and then repeat the same process of acknowledging and apologizing for their sin. These Believers have literally made this attribute of God’s forgiveness, a license to sin. Through them, their followers, and those who learn teachings about God’s Word from them, they also pick-up, learn, and start practicing this tendency of taking God’s forgiveness and forgetting sin as a license to sin. But as has been said earlier, God cannot be disobeyed, taken lightly, or mocked; there will be a price to pay for doing this.

To understand how the forgiveness and forgetting of sins by God does not contradict His judging everything good or bad done by the Christian Believers, we will have to go back to the Garden of Eden and see about what happened with the entry of sin into the world, and then also consider how God has dealt with the sin for us, what He has done for us. In the next article we will first consider a related topic and then we will start considering this topic.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well