गुरुवार, 25 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 141

 

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आरम्भिक बातें – 102


परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 8


पाप के प्रभाव, प्रतिफल, और परिणाम – 5

 

पिछले लेख में, यह समझने का प्रयास करते हुए कि यह क्यों अनिवार्य है कि प्रत्येक मसीही विश्वासी के बारे में सब कुछ – उसके क्षमा कर के भुला दिए गए पाप भी, प्रकट किए जाएँ और उनका आँकलन हो, जिस से कि सभी को बिल्कुल सही और उचित स्वर्गीय प्रतिफल एवं परिणाम मिलें, हम इस बिन्दु पर आकर रुके थे कि बहुत से विश्वासियों ने परमेश्वर की पापों को क्षमा करके उन्हें भुला देने की प्रतिज्ञा का दुरुपयोग किया है और उसे पाप करते रहने के लिए एक लाइसेंस बना लिया है। अपनी इस गलत धारणा के अन्तर्गत, वे सँसार की बातों के मज़े और पाप के शारीरिक लाभ भी लेते हैं, तथा सोचते हैं कि उनके स्वर्गीय प्रतिफल भी सुरक्षित हैं। किसी समझ में न आने वाले कारण से, वे यह सोचते हैं कि वे परमेश्वर से अधिक चतुर हो गए हैं; और क्योंकि उनके पाप क्षमा करके भुला दिए गए हैं, इसलिए उन्हें अब उनके बारे में चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है, और वे परमेश्वर से अधिक बुद्धिमान हो गए हैं। दूसरी ओर ऐसे सत्यनिष्ठ और प्रतिबद्ध विश्वासी भी हैं जो पाप न करने, पाप के द्वारा सँसार की बातों से बच कर रहने, और पाप से शारीरिक लालसाओं के लाभ न उठाने का यथा-सम्भव प्रयत्न करते हैं, चाहे इस के कारण उन्हें कठिनाइयों से भरा हुआ जीवन ही क्यों न जीना पड़े। क्या ऐसे लोग मूर्ख हैं? क्या उनकी प्रतिबद्धता और लगन को मान और उचित परिणाम नहीं मिलने चाहिएँ? सामान्य विचार हमें बता देता है कि जो परमेश्वर के प्रावधान का दुरुपयोग करते हैं, उन्हें उनके किए हुए के लिए जवाबदेह किया जाना ही चाहिए, अन्यथा “अन्तिम न्याय” के समय विश्वासियों को दिए जाने वाले स्वर्गीय प्रतिफल और परिणाम कभी भी सही, उचित, और न्यायपूर्ण नहीं होंगे। आज हम अंतिम न्याय के इसी पक्ष पर विचार करेंगे।

अब ज़रा गंभीरता से विचार करें, प्रतिफल देने के लिए किए जाने वाले अन्तिम न्याय में, क्या यह उचित और न्यायपूर्ण होगा कि ऐसे विश्वासियों की इस बार-बार पाप करने और क्षमा माँग लेने की प्रवृत्ति का कोई ध्यान न रखा जाए? क्या उन्हें जानते-बूझते हुए पाप करने, उसके लाभ उठाने, और फिर क्षमा माँग कर बहाल हो जाने के प्रावधान का अनुचित लाभ उठाने दिया जाए, उनसे कोई जवाब न लिया जाए? जब इस बात पर विचार करते हैं, और यदि उन विश्वासियों की मान्यता बाइबल के अनुसार सही है, तब तो फिर उनके द्वारा बारम्बार पाप करते रहने और परमेश्वर के प्रावधान का दुरुपयोग करके बहाल होते रहने के कारण, उन्हें प्रतिफल देने के लिए उनके नाम पर केवल भली बातें ही जमा होती रहेंगी और वे अपनी जीवन शैली के कारण पृथ्वी पर पाप का लाभ भी उठाते रहेंगे और स्वर्ग में बहुतायत से आशीषें भी प्राप्त कर लेंगे। ऐसे में फिर इन वचनों का क्या होगा, “हे व्यभिचारणियों, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है” (याकूब 4:4), और “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है” (1 यूहन्ना 2:15)? क्या फिर इस प्रकार का व्यवहार जिसे अनेकों विश्वासी नियमित करते रहते हैं, परमेश्वर के वचनों में कोई विरोधाभास नहीं ले आते हैं? क्या ऐसे मसीही जीवनों का हिसाब नहीं लिया जाना चाहिए और उनके द्वारा परमेश्वर के प्रावधान के दुरुपयोग और परमेश्वर का मज़ाक बना देने के लिए जवाब नहीं लिया जाना चाहिए? परमेश्वर मूर्ख नहीं है, और हम देख चुके हैं कि ऐसा मसीही जीवन, 1 कुरिन्थियों 3:13-15 के अनुसार बारीकी से जाँचा भी जाएगा और उपयुक्त प्रतिफल भी पाएगा।

साथ ही, उन विश्वासियों का क्या जो सत्यनिष्ठ होकर पाप और सँसार के साथ समझौता न करने के प्रयासों के साथ जीवन जीते रहे, और इस कारण से पृथ्वी पर बहुत सी समस्याओं का सामना करते रहे? यदि वे लोग जो जानबूझकर पाप करते हैं और फिर क्षमा माँग लेते हैं, ऐसे ही, बिना हिसाब दिए, सस्ते में छूट जाएँगे, तो फिर क्या ये सत्यनिष्ठ विश्वासी अपने आप को ठगा हुआ और मूर्ख नहीं समझेंगे, कि उन्होंने औरों के समान सँसार का मज़ा नहीं लिया? जबकि जिन्होंने सँसार का भी मज़ा लिया वे अब परमेश्वर के प्रावधान के दुरुपयोग करने का कोई हिसाब दिए बिना ही भरपूरी से स्वर्गीय आशीषों को भी ले रहे हैं। क्या इन सत्यनिष्ठ विश्वासियों के लिए इस प्रकार से किया गया कोई भी न्याय सही और उचित हो सकता है? क्या ऐसा न्याय परमेश्वर के चरित्र और गुणों से मेल खा सकता है?

इसलिए, सही और उचित न्याय के लिए प्रत्येक को वही प्रतिफल मिलने चाहिएँ जो उनके लिए वैध और उपयुक्त हैं। यह होने के लिए हर एक व्यक्ति की हर एक बात खोली और प्रकट की जानी आवश्यक है, और हर बात का हिसाब करना अनिवार्य है; उन पापों का भी जिन्हें परमेश्वर के सामने मान लिया गया और परमेश्वर द्वारा क्षमा कर दिया और भुला दिया गया है। अब इस से परमेश्वर द्वारा प्रत्येक विश्वासी की प्रत्येक बात की जाँच करने, हिसाब लेने का कारण समझ में आ जाना चाहिए। लेकिन हमें अभी भी इस सब का बाइबल के उन लेखों के साथ ताल-मेल बैठाना बाकी है, जो यह कहते हैं कि परमेश्वर पाप को क्षमा करके भूल जाता है; और यह भी देखना बाकी है कि इससे क्यों परमेश्वर के वचन में कोई विरोधाभास नहीं है। और न ही परमेश्वर की इस बात में कोई गलती है कि वह पाप क्षमा करके भूल जाता है, लेकिन सभी की सभी बातों का न्याय करके उन्हें उनके उचित और उपयुक्त प्रतिफल ही देगा, न कि वे प्रतिफल जिनकी अपेक्षा लोग अपनी ही मान्यताओं और धारणाओं के आधार पर कर रहे हैं। अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे, और इन बातों को चित्रित करने वाले बाइबल के बहुत प्रमुख पात्र के जीवन को भी देखेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 102


God’s Forgiveness and Justice – 8


The Effects, Results and Rewards of Sin - 5

   

In the last article, while trying to understand why it is necessary that everything – including the sins forgiven and forgotten by God, about every Believer be laid open and judged so that every one gets fair and just rewards and consequences, we had stopped at the point that it is not uncommon for many Believers to misuse God’s promise of forgiving sins and forgetting them, as a license to sin. Under this misconception of theirs, they enjoy the earthly pleasures and physical benefits of deliberate sin, and think that their heavenly rewards are safe as well. For some inexplicable reason, such Believers think that they have outsmarted God; and since their sins are forgive and forgotten, therefore they need not worry about them anymore – as if God was a fool, and they are wiser than God. On the other hand, there are many very sincere and committed Believers who try not to sin and fall for earthly pleasures and physical benefits through sin, even though this means living a difficult life. Are they fools? Should not their diligence be acknowledged and rewarded? Common sense tells us that those who misuse God’s provision in this manner, should be made accountable for what they have done, else it will never be a fair and just giving of heavenly rewards to the Believers at the final “Eternal Judgment.” We will look into this aspect of Eternal Judgment today.

Now seriously think it over, in the final judgement for rewards, would it be fair not to take into account the tendency of such Believer’s to sin repeatedly, enjoy its pleasures and benefits, then misuse the provision of confessing and asking forgiveness, and be made clean? If one ponders over this scenario, then, if this line of thinking is correct and Biblical, then despite their continuing to sin over and over again, and misusing a provision made by God, such Believers, despite abundantly doing the bad, will only accumulate the good things for their rewards, and end up enjoying both sides – the world and its pleasures, as well as the heavenly rewards. So, how does one account this behavior with verses like James 4:4 “Adulterers and adulteresses! Do you not know that friendship with the world is enmity with God? Whoever therefore wants to be a friend of the world makes himself an enemy of God;” and 1 John 2:15 “Do not love the world or the things in the world. If anyone loves the world, the love of the Father is not in him.” Does this kind of a behavior, as is routinely done by many Believers, not bring in a contradiction in God’s Word? Should such a Christian life not be called to account, and dealt with for the misuse they do and mock God? God is not a fool, and we have seen that such a Christian life, in light of 1 Corinthians 3:13-15, actually will be judged and rewarded accordingly.

What of those Believers who have tried not to sin and compromise with the world, and have suffered problems in their lives because of that on earth? If those who deliberately sin and then ask forgiveness, are not taken to task and made to give an account of their misdeeds, would these sincere and committed Believers not end up thinking that they were fools to have not enjoyed the world like those others, who have enjoyed the world, and now are enjoying the heavenly rewards as well, without any accounting of their misuse of God’s provision. Would such a judgment and giving of rewards indeed be fair and just for the sincere Believers? Would it go with the character of God?

 Therefore, for a fair and just judgement, everyone must get what they actually deserve to get. This requires that everything about everyone gets exposed and taken into account, even the sins that they confessed and were forgiven by God. This should make clear the rationale behind God taking into account everything about every Believer, to give him his rewards.

But we still need to reconcile this logic, with Biblical texts of God forgiving sin and forgetting it, to see how there is no contradiction in God’s Word, and God has made no mistake in assuring that He forgives sin and forgets it, but at the same time will fairly and justly give to everyone what they actually deserve, and not what they have assumed they will get by misusing His provisions. We will carry on from here in the next article, and see about these things from the life of a very prominent character of the Bible.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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