Click Here for the English Translation
मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 48
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (23)
केवल विधिवत निर्धारित पादरी के द्वारा ही? (2)
प्रभु भोज के बारे में हमारे इस बाइबल अध्ययन में अब हम प्रभु भोज में सम्मिलित होने से संबंधित कुछ बातों को देख रहे हैं, क्योंकि उनके बारे में भिन्न डिनॉमिनेशन, समुदायों, और गुटों में भिन्न धारणाएं और दृष्टिकोण हैं। हम इन बातों के बारे में केवल परमेश्वर के वचन बाइबल ही से देख रहे हैं, किसी भी डिनॉमिनेशन, समुदाय, या गुट के लेखों या शिक्षाओं के आधार पर नहीं। हमने सबसे पहले देखा था कि प्रभु भोज को कितनी बार या कितने समय-अवधि से लेना चाहिए। पिछले लेख में हमने बाइबल में से इस बहुत आम धारणा और मान्यता के बारे में देखना आरंभ किया था कि मसीही विश्वास के संस्कार, जिनमें से एक प्रभु भोज भी है, क्या उन्हें केवल औपचारिक शिक्षा लेकर विधिवत निर्धारित किए गए पादरी ही मण्डली के लोगों को दे सकते हैं। हमने देखा था कि बाइबल में इस आम विचारधारा के समर्थन या पुष्टि के लिए कुछ भी नहीं है, और इसलिए यह परमेश्वर के द्वारा दिया गया विधान नहीं, परन्तु मनुष्यों के द्वारा बनाया गया नियम है। आज हम इसी के बारे में और आगे देखेंगे, तथा परमेश्वर के वचन से प्रभु की मेज़ में भाग लेने के लिए विधिवत निर्धारित पादरी की तथाकथित अनिवार्यता के बारे में सीखेंगे।
जब मसीह यीशु के अनुयायी, अन्य-जातियों में भी फैलने लगे, और मण्डलियाँ संख्या और आकार में बढ़ने लगीं, तब उन लोगों में से, जो प्रभु यीशु का अनुसरण करने और उसकी आज्ञाकारिता में चलने के लिए प्रतिबद्ध थे, स्वयं प्रभु ने ही ऐसे लोगों को खड़ा किया और नियुक्त किया जो उसकी कलीसिया की देखभाल करें, उसमें सेवकाई तथा उसकी उन्नति के लिए (इफिसियों 4:11-13)। यद्यपि कलीसिया की जिम्मेदारियों के निर्वाह के लिए यह नियुक्ति मनुष्यों की सहायता से करवाई गई (प्रेरितों 6:1-7; 14:23; तीतुस 1:5), किन्तु उन लोगों का चुनाव करना मानवीय बुद्धि, समझ, और पसन्द पर नहीं छोड़ दिया गया। इस चुनाव को करने के लिए परमेश्वर ने कुछ गुण और मानक निर्धारित कर के दे दिए जिनके आधार पर कलीसिया की देखभाल करने वाले ज़िम्मेदार भाइयों की नियुक्ति की जानी थी (प्रेरितों 6:3; 1 तिमुथियुस 3:1-7; तीतुस 1:5-9)। यहाँ, कृपया इस बात पर अवश्य ध्यान दीजिए कि ये सभी गुण व्यक्ति के विश्वास, चरित्र, परिवार की देखभाल करने की क्षमता, तथा प्रभु के प्रति प्रतिबद्धता पर आधारित थे। किसी के भी शैक्षिक स्तर, या धार्मिक ज्ञान का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। न ही उनके किसी प्रकार से औपचारिक शिक्षा प्राप्त होने और विधिवत पद पर निर्धारित किए जाने का कोई उल्लेख है। और, न ही उनकी यह नियुक्ति उनकी आयु या कलीसिया में वरीयता के स्तर के अनुसार की गई।
एक बार जब कलीसियाओं में कलीसिया की ज़िम्मेदारियाँ निभाने की बागडोर औपचारिक रीति से बाइबल की शिक्षा पाए हुए पादरियों के हाथों में चली गई, जो एक निर्धारित समय तक शिक्षण संस्थानों में समय बिताने और उनकी परीक्षाएं उत्तीर्ण करने के आधार पर विधिवत नियुक्त किए गए थे, तो उसके बाद सामान्यतः, मण्डली के लोगों ने भी परमेश्वर के वचन को सीखने और उसका पालन करने की अपनी जिम्मेदारी को छोड़ दिया, और इसे भी इन्हीं शिक्षा प्राप्त और ज्ञानी लोगों को सौंप दिया, इस धारणा के अन्तर्गत कि वे इसे बेहतर कर सकेंगे। लेकिन यह, अर्थात, विश्वासी के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित शिक्षक पवित्र आत्मा के स्थान पर मनुष्यों को, मनुष्यों के मार्गों और तरीकों को, मनुष्यों के विचारों को ले आना, और फिर पवित्र आत्मा पर नहीं अपितु पूर्णतः मनुष्यों पर ही पर निर्भर हो जाना कि मनुष्य अपनी शैक्षिक योग्यताओं के आधार पर परमेश्वर के वचन को सिखाएगा और परमेश्वर के लोगों की अगुवाई करेगा, एक बहुत गम्भीर गलती थी और है, जिससे विश्वासियों और कलीसियाओं में उन्नति नहीं गिरावट ही आई है।
फिर धीरे से, बाइबल में दिए गए गुणों और तरीके के अनुसार कलीसिया के अगुवों की नियुक्ति भी हट गई, तथा कलीसिया की देखभाल और संचालन भी मनुष्यों द्वारा बनाई गई विधियों और उन्हीं के द्वारा निर्धारित गुणों के अनुसार की जाने लगी। अब यह सब उस औपचारिक शिक्षा के अनुसार होने लगा, न कि व्यक्ति के परमेश्वर और उसके वचन के प्रति प्रतिबद्ध और आज्ञाकारी होने के आधार पर। यह एक भली-भांति जाना और माना हुआ तथ्य है कि प्रत्येक वह व्यक्ति जो इस प्रकार की शिक्षा और प्रशिक्षण से होकर निकलता है, आवश्यक नहीं है कि वह वास्तव में नया-जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी भी हो। बहुत से ऐसे भी होते हैं जो इस प्रशिक्षण को केवल इसलिए करते हैं जिससे उन्हें कोई नौकरी मिल सके, किसी कलीसिया में किसी काम पर रखा जा सके, या कहीं पर पादरी की नियुक्ति हो जाए। इसके कारण शैतान को कलीसियाओं में अपनी विनाशकारी गलत शिक्षाओं को घुसा देने का सुनहरा अवसर मिल गया, और वह मंडली के लोगों में मत्ती 15:13-14 की स्थिति को भी ले आया। लेकिन भोलेपन में बहकावे पड़ने की प्रवृत्ति रखने वाले मण्डली के लोग अपनी मूर्खता में यही समझ और मान कर चलते हैं कि जो कोई भी पुल्पिट पर खड़ा होगा, वह परमेश्वर के प्रतिनिधि के समान परमेश्वर के वचन से परमेश्वर की बात ही बोलेगा। उनको इसका ध्यान नहीं रहता है कि ऐसे लोगों की कोई कमी नहीं है जो पुल्पिट पर खड़े होकर, परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग के द्वारा, शैतान के प्रतिनिधि होकर बोलते हैं। क्योंकि शैतान तो झूठा है (यूहन्ना 8:44) और धोखेबाज़ भी; वह और उसके दूत मसीह के प्रेरित, ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों और धार्मिकता के सेवकों का भेस धर कर लोगों को बहकाते और भरमाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15), और उन्हें बहुत हानि या विनाश में ले जाते हैं। इसलिए ऐसे पादरियों और धार्मिक अगुवों के प्रति सचेत रहकर उन्हें जाँचते- परखते रहने की बहुत आवश्यकता है। और यह करना केवल पवित्र आत्मा की अधीनता में उस से ही परमेश्वर के वचन को सीखने और पालन करने के द्वारा ही सम्भव है। केवल तब ही सही और गलत शिक्षा में अन्तर कर पाना सम्भव होगा।
हमने 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में से प्रभु की मेज़ में भाग लेने से संबंधित गलतियों के अध्ययन के दौरान, कोरिन्थ के मसीही विश्वासियों में पाई जाने वाली विभिन्न समस्याओं और गलतियों के बारे में देखा था, जिनके लिए पौलुस ने उन्हें फटकार भी लगाई थी। वे सभी लोग, कलीसिया में भी अपनी ही इच्छा और समझ के अनुसार व्यवहार करने लगे थे, जिसको भी जैसा अच्छा लगता, सहज लगता, वे कर लेते थे। लेकिन हमारे प्रश्न के संदर्भ में हमें जिस बात पर ध्यान देना है वह यह है कि पौलुस ने उनमें कभी प्रभु भोज के बारे में किसी पादरी या कलीसिया के अगुवे के द्वारा उसे लोगों में दिए जाने या नहीं दिए जाने की कोई बात नहीं की; इस विषय के सही अथवा गलत, उचित अथवा अनुचित होने को उठाया ही नहीं। इसलिए हम यह समझ सकते हैं कि प्रभु भोज के किसी कलीसिया के अगुवे ही के द्वारा दिए जाने या न दिए जाने की कोई अनिवार्यता नहीं है, यह व्यर्थ विवाद की बात है।
जब हम लौट कर पुराने नियम में प्रभु भोज के प्ररूप, फसह पर जाते हैं, हम देख चुके हैं कि यह परमेश्वर की ओर से बाध्य किया गया था कि उसे प्रत्येक परिवार में परमेश्वर के द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार ही तैयार किया और दिया जाए; किन्तु परमेश्वर ने ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया कि परिवार में से कौन उसे अन्य सदस्यों को देगा। क्योंकि उस समय तक हारून और उसके घराने को तथा लेवियों को याजक होने के लिए नियुक्त नहीं किया गया था, इसलिए बाद में जब उसे सप्ताह भर मनाए जाने वाले वार्षिक पर्व का रूप दिया गया, तब भी उसके मनाने के लिए कोई विधिवत निर्धारित याजक नहीं थे - प्रत्येक परिवार को ही स्वयं ही इस पर्व को मनाना होता था; और याजक नियुक्त हो जाने के बाद भी इसमें कोई संशोधन अथवा परिवर्तन नहीं किया गया। इसलिए पुराने नियम के इस प्ररूप, फसह से भी प्रभु की मेज़ के केवल एक विधिवत निर्धारित पादरी के द्वारा ही दिए जाने का कोई समर्थन नहीं मिलता है।
इन सभी बातों के बाद, यदि फिर भी कोई यही मान कर चलता है कि यह अनिवार्य है कि इसे कोई विधिवत निर्धारित पादरी ही दे, तो फिर स्वयं प्रभु परमेश्वर द्वारा याजक नियुक्त किए जाने से बढ़कर किसी की विधिवत नियुक्ति और पहचान क्या होगी? निश्चय ही परमेश्वर की नियुक्ति से बढ़कर या उच्च तो और कोई नियुक्ति हो ही नहीं सकती है। परमेश्वर का वचन कहता है कि परमेश्वर की प्रत्येक संतान, नया-जन्म पाए हुए उसके मसीही विश्वासी उसके याजक हैं (1 पतरस 2:9; प्रकाशितवाक्य 1:6; 5:10)। इसलिए किसी को भी प्रभु भोज को किसी भी प्रतिबद्ध मसीही विश्वासी से लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए, चाहे उस विश्वासी ने किसी बाइबल कॉलेज या सेमनरी से कोई औपचारिक शिक्षा, डिग्री, और विधिवत नियुक्ति ली हो अथवा नहीं ली हो। यदि स्वयं परमेश्वर ने प्रतिबद्ध मसीही विश्वासियों को अपने याजक स्वीकार कर लिया है, तो क्या किसी मनुष्य को उन्हें अस्वीकार करने का अधिकार है? और यदि वे अस्वीकार करते हैं, तो क्या यह परमेश्वर को तुच्छ जानना नहीं है; क्या उनकी इस धृष्टता के लिए वे परमेश्वर को जवाबदेह नहीं होंगे?
अगले लेख में हम देखेंगे कि मसीही विश्वास में आने के कितने समय बाद प्रभु की मेज़ में भाग लेना उचित है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
******************************************************************
English Translation
Things Related to Christian Living – 48
The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (23)
Administered Only By An Ordained Pastor? (2)
In our study on the Holy Communion, we are now looking into some issues related to participation in it, because there are different view-points in different denominations, sects, and groups about them. We are looking into these issues only from God’s Word the Bible, and not from the texts or teachings of any denominations, sect or group. We had first seen about the frequency and time interval between successive participations of the Lord’s Table. In the previous article we had considered from the Bible, some aspects about the very common understanding and belief that the sacraments, including the Lord’s Table can only be administered by an ordained Pastor. We had seen that there is nothing in the Bible to support or affirm this commonly held contention, and therefore, it is not a God given, but a man-made regulation. Today we will see further about this, and learn some more from God’s Word about the alleged necessity of the Holy Communion being administered only by an ordained Pastor.
As the followers of the Lord, even amongst the Gentiles, and the Churches grew in size and number, it was the Lord who appointed people to fulfil various responsibilities of managing His Church, for ministry and edification of the Church, from amongst the disciples who made a commitment to the Lord to obey and follow His Word and Him (Ephesians 4:11-13). Although this appointment to manage Church responsibilities was done through human agency (Acts 6:1-7; 14:23; Titus 1:5), but this selection was not to be done based on human wisdom, understanding, and preferences; there were certain God given criteria for selecting the responsible brethren to manage the affairs of the Church (Acts 6:3; 1 Timothy 3:1-7; Titus 1:5-9). Do notice that all these criteria were about the person's faith, character, managing his family, and commitment to the Lord. There was no mention of any educational qualifications, or of any religious knowledge, nor of any formal ordination being done for their appointment; nor was it based upon their age or seniority in the Church.
Once formal Bible education and training, awarding of degrees or qualifications based upon completing a certain time period in an institution, clearing of examinations, and ordination of such formally trained people as Pastors came about, to take over the responsibilities of managing the Church, the congregation too, generally speaking, started to neglect their personal responsibility of learning God’s Word and obeying it; and left it in the hands of these formally educated, learned people, assuming that they would do better job. But this, replacing the Believer’s God given teacher - the Holy Spirit, with man, man’s ways and methods, man’s ideas; and then totally trusting and fully depending, not on the Holy Spirit, but only upon man and his educational qualifications to teach God’s Word and lead God’s people, was and is a serious mistake, that caused and is still causing deterioration, not edification of the Christians and the Churches.
Gradually, the Biblical criteria and method of appointing Church elders and managers and managing the affairs of the Church was replaced by man-made criteria and methods, based on the formal educational status rather than the person’s commitment to the Lord and obedience to His Word. It is a well-known fact that not everyone who undergoes this training and education is actually a Born-Again committed Christian Believer. But many undergo this training just to get employment, so that by virtue of their educational qualifications, they get appointed to some work, or as Pastors in some Church. This has provided Satan a golden opportunity to bring in his destructive heresies, and precipitate the state of Matthew 15:13-14 for the congregation. But the gullible congregation naively expects and trusts that everyone standing on the pulpit will speak the Word of God as a spokesman for God, little realizing that there is no dearth of those who stand on the pulpit, as spokesmen of Satan, and misuse God’s Word to deceive. For Satan is a liar (John 8:44) and a deceiver; he and his angels present themselves as workers of Christ, angels of light, and ministers of righteousness to lead people away into harm and destruction (2 Corinthians 11:3, 13-15). Hence due discernment towards such religious leaders and Pastors is essential. And doing this is only possible by learning God’s Word through the Holy Spirit, by being surrendered to Him. Only then can the true teachings be discerned form the false.
In our study on the pitfalls in partaking of the Lord’s Table from 1 Corinthians 11:17-34, we have seen various problems and misconceptions prevalent amongst the Corinthian Believers, for which Paul even admonishes them. In the Church, they all were doing things on their own, according to their own understanding, and as suited their convenience and fancy. But the thing for us to note in context of our question is that Paul never mentioned the Lord’s Table being served, or not being served, by a Pastor or Church Elder as an issue of any impropriety in the Church that required rectification, as the other issues did. So, we can surmise from this that the Lord’s Table being served or not being served by a Church elder or leader is inconsequential, and cannot be considered a mandatory requirement in the Church.
When we go back to the Old Testament, to the Passover, the antecedent of the Lord’s Table, we had seen that it was to be prepared and served in the family in a particular manner, in the way instructed and ordained by God; but God did not specify who in the family was to do it. Since, till the time of the giving of the Passover regulations, the Levites and Aaron’s descendants had not been made the Priests, therefore, later when it was made into a week-long Passover festival, there were still no ‘ordained’ or designated priests to do this - every family had to do it on their own; even after the Priests had been appointed, there was no change in this observance. Therefore, from the Old Testament antecedent, the Passover, no support can be derived for this supposition of the Lord’s Table necessarily being served by an ordained priest.
In any case, if anyone still thinks it necessary for this to be done only by an ordained Priest or Pastor, then what greater or better ordination and recognition can be there, than the one given by the Lord God Himself. Surely, no other ordination and recognition can be over and above that. God’s Word declares each and every one of His children, all the Born-Again Christian Believers as His Priests (1 Peter 2:9; Revelation 1:6; 5:10). So, no one should have any hesitation in receiving the Holy Communion from a committed Christian Believer, whether or not he has received any formal education, degree, and ordination from a Bible College or Seminary. If God has accepted the actual committed Believers as His Priests, does any man have the authority to refuse it? And, if they do, are they not belittling God; and will they not be accountable for their folly?
In the next article we will consider how long after coming to the Christian Faith can one take part in the Lord’s Table.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.