सोमवार, 30 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 206

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 51


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (26) 


भाग लेने के अभिप्राय (1)


पिछले कुछ लेखों में हम प्रभु भोज से संबंधित कुछ प्रश्नों को देखते आ रहे हैं, जिनके बारे में परमेश्वर के लोगों में असमंजस है। यह असमंजस, बल्कि ये प्रश्न ही, परमेश्वर के वचन के अनुरूप शिक्षाएं देने के स्थान पर, वचन को तोड़-मरोड़ कर डिनॉमिनेशन या मत की शिक्षाओं और व्याख्याओं के अनुरूप करने के प्रयासों के कारण उत्पन्न होते हैं। हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में से देखा है कि जब उन विषयों और प्रश्नों को बिना किसी भी डिनॉमिनेशन की बातों को आधार बनाए, यदि सीधे बाइबल से देखा जाए, तो उत्तर स्पष्ट और सीधे होते हैं। इन लेखों में इस बात पर भी बारंबार जोर दिया गया है कि प्रभु की मेज़ में भाग लेना कोई रीति नहीं है, इसे औपचारिकता निभाने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है। इस बात की पुष्टि हमारे आज के प्रश्न के उत्तर से भी हो जाएगी; हमारा प्रश्न है, क्या मसीही विश्वासी अपनी ही इच्छा के अनुसार जीवन जी सकता है; या प्रभु भोज में भाग लेना उस पर, उसके जीवन तथा व्यवहार के विषय कुछ ज़िम्मेदारी लाता है?


उत्तर के लिए हम परमेश्वर के वचन बाइबल में से 1 कुरिन्थियों 10:16-22 को लेंगे। परमेश्वर के वचन के इस खण्ड में, पौलुस, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, कुछ ऐसी बातों की ओर संकेत कर रहा है, जो बहुत बुनियादी और महत्वपूर्ण हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश, इन बातों को कलीसियाओं में शायद ही कभी सिखाया जाता है या उनपर ज़ोर दिया जाता है, नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों की मण्डलियों में भी। पौलुस यह भी दिखाता है कि वह जिस बात को कह रहा है वह कोई नई शिक्षा या सिद्धांत नहीं हैं, वरन पुराने नियम की उपासना में भी वे देखने को मिलती हैं। यहाँ, इस खण्ड में, पौलुस दो महत्वपूर्ण और बुनियादी बातों के बारे में बात करता है - पहली, भाग लेने के अभिप्राय, और दूसरी, भाग लेने वाले की ज़िम्मेदारी; और हम इन दोनों को ही आने वाले लेखों में देखेंगे। यहाँ पर दो अभिप्रायों का उल्लेख किया गया है - प्रभु के साथ संगति या सहभागिता का जीवन जीना, और भाग लेने वालों के मध्य एकता होना; जबकि ज़िम्मेदारी है संसार से अलगाव का जीवन जीना।

 

यहाँ, 1 कुरिन्थियों 10:16 में स्पष्ट लिखा है कि कटोरे और रोटी में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाला मसीह के लहू और देह की सहभागिता में आ जाता है, अपने आप को उनसे जोड़ लेता है। इस सृष्टि का सृष्टिकर्ता तथा पालनहार, मसीही विश्वासी को विशेषाधिकार प्रदान करता है कि वह प्रभु के साथ संगति रखे, उसके साथ सहभागी हो; यह ऐसा विशेषाधिकार है जो उसने अपने आज्ञाकारी स्‍वर्गदूतों को भी प्रदान नहीं किया है। इसलिए, भाग लेने वाले के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह ऐसा जीवन व्यतीत न करे, ऐसा व्यवहार रखे जिससे प्रभु की गरिमा और प्रतिष्ठा पर आंच न आए, या कोई प्रभु पर उँगली न उठाने पाए। प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा, भाग लेने वाले इस बात की पुष्टि करते हैं कि वे प्रभु यीशु के साथ एक घनिष्ठ संबंध रखते हैं, वैसा जैसा कि प्रभु ने अपने क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले, यूहन्ना 17:21-23 में अपनी प्रार्थना में कहा था।


प्रभु परमेश्वर के साथ इतनी घनिष्ठ संगति, स्वतः ही एक ज़िम्मेदारी, एक विशेष संयम और व्यवहार के साथ जीए गए जीवन की माँग करती है। इसीलिए पौलुस 2 कुरिन्थियों 5:15, 17 में कहता है कि जो लोग प्रभु यीशु के हो गए हैं, उनसे यह आशा रखी जाती है कि वे अब अपने लिए नहीं, परन्तु प्रभु के लिए जीवन व्यतीत करेंगे, और यह जानते तथा समझते हुए कि प्रभु ने उन्हें एक नई सृष्टि बना दिया है वे फिर लौटकर अपने पुराने जीवन और व्यवहार में नहीं जाएंगे। प्रभु भोज में भाग लेते समय, प्रत्येक भाग लेने वाला इस प्रतिबद्धता को दोहराता है और फिर से इसकी पुष्टि करता है कि वह उसे प्रदान किए गए इस विशेषाधिकार के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करेगा। जब वह भाग लेते समय प्रभु को याद करता है (1 कुरिन्थियों 11:24-25), साथ ही वह इस बात को भी याद करता है कि अब वह प्रभु परमेश्वर के साथ संगति और सहभागिता में है, और उसे अपने जीवन से सदा ही इस तथ्य को दिखाना है। जबकि रीति या औपचारिकता निभाने के लिए बिना किसी प्रतिबद्धता के प्रभु की मेज़ में भाग लेना, इस प्रकार से भाग लेने वालों को कभी भी इस अभिप्राय को याद नहीं दिलाएगा। लेकिन जिन्हें अपनी ज़िम्मेदारी और उनसे जो आशा की गई है उसका एहसास है और मेज़ में योग्य रीति से भाग लेते हैं, वे हमेशा ही यह प्रयास करते रहेंगे कि उनके जीवन से प्रभु द्वारा उन्हें प्रदान किए गए विशेषाधिकार का आदर ही हो।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 51


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (26)

Implications of Participation (1)

 

In the past few articles, we have been considering some questions related to the Holy Communion about which there are confusions among God’s people. The confusions, and even the questions themselves, are because of the common tendency of twisting God’ Word, so as to make it fit into different denominational teachings and interpretations, rather than correct those teachings and interpretations and bring them in line with God’s Word. We have seen from God’s Word the Bible, that when those issues and questions are seen directly from God’s Word, without any denominational bias or considerations, the answers are straightforward and clear. It has also been repeatedly emphasized in these articles that participation in the Lord’s Table is not a ritual, is not to be done perfunctorily. This will be affirmed further by the answer to our today’s question - Can a Christian Believer live his own life; or, does the Holy Communion place some responsibility on him about living his life and his behavior?


For the answer, let us turn to 1 Corinthians 10:16-22 from God’s Word the Bible. In this part of God’s Word, Paul, under the guidance of the Holy Spirit, is pointing out some things related to the Lord’s Table that are very important and fundamental. But unfortunately, these aspects are hardly ever, if at all, stated, emphasized, or taught about in the Churches, even in the gatherings of the Born-Again Christian Believers. Paul also points out that what he is saying are not some new teachings or doctrines, but ones that are seen even in the Old Testament worship. Here, in this section, Paul is talking about two fundamental and important things - firstly, the implications of the partaking, and secondly, the responsibility that the participant has; and we will be considering them in this and subsequent articles. There are two implications stated here - living a life of communion or fellowship with the Lord, and of unity amongst the participants; while the responsibility is of living a life of separation from the world.


In 1 Corinthians 10:16 it is clearly stated that by partaking of the cup and bread of the Holy Communion, the partaker is coming into communion or fellowship with the blood and body of Christ, i.e., joins himself to them. The Creator and Sustainer of the universe accords the Christian Believers the privilege of fellowshipping with Him, communing with Him; a privilege He has not accorded to even His obedient angels. Therefore, it is incumbent upon the participant that he should not be living and behaving in any such manner that will dishonor the reputation of the Lord and cause others to cast aspersions upon Him through the Believer’s life and living. Through participation in the Holy Communion the participants affirm their being in, and living in close fellowship with the Lord Jesus, as the Lord Jesus had said in His prayer before being caught for crucifixion, in John 17:21-23.


This privilege of such close communion with the Lord God, does require a certain decency and responsibility. For this reason, Paul says in 2 Corinthians 5:15,17 that those who have become people of the Lord Jesus are expected to no longer live for themselves but for the Lord, knowing that the Lord has made them into a new creation; they are not to revert back to their old life and behavior. The participant in the Holy Communion, renews and affirms his commitment to live in accordance with this privilege that has been granted to Him, every time he participates. As he remembers the Lord (1 Corinthians 11:24-25), he is also to remember that he is now in communion with the Lord God, and has to always demonstrate this through his life. While a ritualistic, non-committal participation will never make the participants realize this implication; those who realize what is expected of them and participate worthily, will also strive to live a life that honors the privilege granted by the Lord to them.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


 

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