गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 209

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 54


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (29) 

भाग लेने से ज़िम्मेदारी (2) 


प्रभु की मेज़ में भाग लेने से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बातों का अध्ययन करते समय, हम 1 कुरिन्थियों 10:16-22 से देख रहे हैं कि भाग लेने वाले पर दो अभिप्राय और एक ज़िम्मेदारी लागू हो जाते हैं। अभिप्राय हैं कि वह दो बातों की पुष्टि करता तथा दोहराता है कि वह, पहला, प्रभु के साथ निकट संबंध में रहता है, और, दूसरा, वह अन्य मसीही विश्वासियों के साथ एकता में बना रहता है। उस पर लागू ज़िम्मेदारी है कि उसे संसार और संसार के तौर-तरीकों से, विशेषकर परमेश्वर की उपासना से संबंधित बातों को लेकर, एक अलगाव का जीवन जीना है। पिछले लेख में हमने 1 कुरिन्थियों 10:19-20 से, मसीही विश्वासियों की इस अलगाव के जीवन की ज़िम्मेदारी से संबंधित कुछ बातों को देखा था। आज हम कुछ और बातों को देखेंगे, जो संसार से उसके इस अनिवार्य अलगाव से संबंधित हैं और परमेश्वर के लोगों की ज़िम्मेदारी हैं।

 

प्रेरितों 2 में, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा पतरस के प्रचार के बाद, जब यरूशलेम में एकत्रित उन भक्त यहूदियों में से 3000 ने पश्चाताप किया, और शिष्यों से पूछा कि उन्हें अब आगे क्या करना होगा, तब पतरस उन्हें आगे उठाए जाने वाले कदमों के बारे में बताता है (प्रेरितों 2:37-40)। यहाँ, पद 40 में पतरस उनसे कहता है, “उसने बहुत और बातों में भी गवाही दे देकर समझाया कि अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ” - उसने बहुत सारी बातों के द्वारा उन्हें समझाया कि वे अपने आप को उनसे बचाएं, अर्थात जिस टेढ़ी जाति में वे रहते थे, उससे अपने आप को निकालें। ध्यान कीजिए कि यह तथ्य कि इसके लिए उन्हें समझाने और बताने के लिए पतरस ने “बहुत सी बातों” का प्रयोग किया और उन्हें “समझाया” दिखाता है कि मसीही विश्वास और जीवन में, इस अलगाव का कितना महत्व है, और यह उसी पल से लागू हो जाता है, जब व्यक्ति मसीह यीशु में विश्वास करता है और अपना जीवन उसे समर्पित करता है। यहाँ ध्यान देने के योग्य एक और बात भी है, पतरस उनसे यह नहीं कहता है कि आने वाले दिनों में परमेश्वर उनसे यह करवाएगा या उनके लिए कर के देगा। वरन, वह इसका दायित्व उन्हीं पर डालता है, उन्हें स्वयं ही यह करना है, यह कदम उठाना है। यह मसीही विश्वासियों के लिए 2 कुरिन्थियों 5:15 को जीने का एक व्यावहारिक उदाहरण है।

 

इसी प्रकार से पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखते हुए 2 कुरिन्थियों 6:14-18 में मसीही विश्वासी के अविश्वासियों से अलग रहने पर बहुत ज़ोर दिया है; और यहाँ पद 17-18 में वह बल देकर कहता है कि विश्वासियों के अविश्वासियों में से निकल आने और अलग होकर रहने से ही परमेश्वर उन्हें स्वीकार करेगा, उनके लिए पिता समान होगा, और उनसे अपने पुत्र और पुत्रियों के समान व्यवहार करेगा। यह खण्ड दिखाता है कि पौलुस, बल्कि पवित्र आत्मा, मसीही विश्वासियों से कह रहा है कि जब तक मसीही विश्वासी अपने आप को संसार और उसकी बातों से अलग नहीं कर लेता है, तब तक वह कभी भी अपने स्वर्गीय पिता की देखभाल, उनके लिए तैयार विशेषाधिकारों, और आशीषों को अनुभव नहीं कर सकता है। उड़ाऊ पुत्र को अपने आप को बाहर की गंदगी से अलग करके पिता के पास आना ही था, तब ही वह पिता के प्रेम के आनन्द को अनुभव करने पाया। परमेश्वर पिता इस प्रतीक्षा में है कि मसीही विश्वासी इस बात को समझें, इसका एहसास करें, और अपने मसीही जीवन के लिए इस अनिवार्यता पर कार्यवाही करें। सामान्य प्रवृत्ति यही होती है कि विश्वासी यही चाहता है कि परमेश्वर उसे हर प्रकार से आशीषित करे, परंतु उस विश्वासी को इन स्वर्गीय आशीषों और विशेषाधिकारों के लिए कोई कीमत न चुकानी पड़े। लोग दोनों ओर से मुफ़्त में सभी बातों का आनंद लेना चाहते हैं, अर्थात, संसार और उसकी बातों का आनन्द भी लेते रहें, और उन्हें परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा भी उपलब्ध रहे। सामान्यतः लोग इस बात को समझने और मानने के लिए तैयार नहीं होते हैं कि उन्हें संसार अथवा परमेश्वर में से किसी एक को चुनना ही होगा; उन्हें दोनों ही नहीं मिल सकते हैं, जैसा कि अगले दो उदाहरणों से भी प्रकट है।


संसार के साथ मिलकर रहना, मसीही विश्वासी के लिए कितना हानिकारक हो सकता है, इसका अंदाजा हम पवित्र आत्मा द्वारा याकूब से लिखवाई बात से पता चलता है। मसीही विश्वासियों को लिखी अपनी पत्री में याकूब 4:1-4 को देखिए, और विशेषकर पद 4 पर ध्यान कीजिए, जहाँ लिखा है, “हे व्यभिचारिणयों, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है।” यहाँ जिस शब्द का अनुवाद “बैरी” किया गया है, मूल यूनानी भाषा में उसका अर्थ है घिनौना, अर्थात, अरुचिकर। दूसरे शब्दों में, जो विश्वासी संसार के साथ मित्रता चाहता है और उससे संबंध में बना रहता है, यह करने के द्वारा वह अपने लिए इस बात को निश्चित कर लेता है कि परमेश्वर उसमें रुचि न ले।

 

प्रेरित यूहन्ना के द्वारा, पवित्र आत्मा संसार से प्रेम करने और उसके साथ बने रहने के एक और पहलू को दिखाता है, “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है” (1 यूहन्ना 2:15)। यह वही बात है जिसे प्रभु यीशु मसीह ने अपने पहाड़ी संदेश में, मत्ती 6:24 में कहा था, “कोई मनुष्य दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर ओर दूसरे से प्रेम रखेगा, वा एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा; तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते।” जो संसार और सांसारिक बातों के प्रेम में बने ही रहते हैं, वे अप्रत्यक्ष रीति से इस बात का अंगीकार कर रहे हैं और दर्शा रहे हैं कि वे प्रभु परमेश्वर से प्रेम नहीं करते हैं।

 

इनके अतिरिक्त भी नए नियम के अन्य उदाहरण हैं, तथा पुराने नियम में भी और बहुत से उदाहरण हैं जो दिखाते हैं कि परमेश्वर हमेशा ही यही चाहता रहा है कि उसके लोग संसार से अलगाव का जीवन जीएं; और यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो उनके जीवनों में कैसे हानिकारक प्रभाव आ जाते हैं। कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि संसार से अलगाव का जीवन जीना मसीही विश्वासी का एक महत्वपूर्ण गुण है। प्रभु भोज में भाग लेने के द्वारा वह इस ज़िम्मेदारी को अपने ऊपर ले लेता है कि वह प्रभु से तो जुड़ा हुआ परंतु संसार से अलग होकर रहेगा। यह मसीही विश्वासी के हित की बात है कि वह ऐसा करे; क्योंकि परमेश्वर के निर्देशों की अनदेखी करना, अनाज्ञाकारिता करना, मुसीबत को दावत देना है (व्यवस्थाविवरण 5:29; 30:15-20)।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 54


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (29)

Responsibility Because of Participation (2)

 

While studying some important things related to participating in the Lord’s Table, we have been seeing from 1 Corinthians 10:16-22, that there are two implications and one responsibility that become incumbent upon the participant. The two implications that he affirms and renews are, first, he is living in close fellowship with the Lord, and second, that he lives in unity with the Christian Believers. The responsibility binding upon him because of partaking of the Lord’s Table is that he has to live a life separated from the world, and the ways of the world, particularly about things related to God’s worship. We had seen some aspects about this responsibility of staying separated, in the previous article from 1 Corinthians 10:19-20. Today we will look at some other aspects of this essential separation from the world, that are the responsibility of the people of God.


In Acts 2, after Peter’s preaching with the power of the Holy Spirit, when of the devout Jews gathered in Jerusalem, 3000 repented and asked the disciples what they should do next, Peter tells them the steps they need to take (Acts 2:37-40). Here, in verse 40 Peter says to them, “And with many other words he testified and exhorted them, saying, Be saved from this perverse generation” - through many words he asked them to save themselves, i.e., to separate themselves from the perverse generation they were living amongst. The very fact that Peter used “many words” to explain and inform about this, and “exhorted” them about it, indicates the importance of this for Christian Faith and living, from the very moment of a person coming to faith in Christ Jesus and submitting his life to Him. Also note that Peter does not say to them that God will do this for them in the days to come. But he puts the responsibility upon them to take this step, and this serves as a practical lesson of living by 2 Corinthians 5:15 for the Christian Believers.


Similarly, Paul, writing under the guidance of the Holy Spirit, in 2 Corinthians 6:14-18 strongly emphasizes the necessity of this separation between the Believers and the unbelievers; and in verses 17-18 emphasizes that it will be through their coming out and being separate from the unbelievers that God will accept them, will be a Father to them, and treat them as His sons and daughters. This passage is equivalent to Paul, rather the Holy Spirit saying that unless the Christian Believer separates himself from the world and its ways, he can never experience the care, privileges, and blessings of his heavenly Father. The Prodigal Son had to separate himself from the filth outside and return to his father to be able to experience and enjoy the love of the father. God the Father is waiting for them to understand, realize, and act on this necessity for their Christian life. The normal tendency is to expect God to bless the Believer in every way possible, but without the Believer having to pay any price for the heavenly blessings and privileges. People want to have the best of both worlds freely, i.e., enjoy the pleasures and ways of the world, as well as have God’s care and protection. People are usually not willing to realize and accept that they will have to choose between the world and God; they cannot have them both, as is evident from the next two examples.


How damaging this living with the world can be for the Christian Believer can be gauged by what the Holy Spirit says through James. In his letter to the Believers from James 4:1-4, particularly take note of verse 4, “Adulterers and adulteresses! Do you not know that friendship with the world is enmity with God? Whoever therefore wants to be a friend of the world makes himself an enemy of God.” The word translated as “enemy” in English, in the original Greek language means being odious, i.e., repulsive to God. In other words, the Believer who desires and lives as a friend of the world, by doing so also ensures that God does not look towards him favorably.


Through the Apostle John, the Holy Spirit presents another aspect of loving the world, and living with it, “Do not love the world or the things in the world. If anyone loves the world, the love of the Father is not in him” (1 John 2:15). This is the same as what the Lord Jesus had said in His Sermon of the Mount, in Matthew 6:24, “No one can serve two masters; for either he will hate the one and love the other, or else he will be loyal to the one and despise the other. You cannot serve God and mammon.” Those who persist in the love of the world and of worldly things, are indirectly acknowledging and demonstrating that they do not love the Lord God.


Besides other examples in the New Testament, in the Old Testament too, there are many more instances and examples of God asking His people to stay away from the world, and of the harmful effects in their lives because of their not doing so. The net conclusion is that separation from the world is an important characteristic of the Christian Believer. By participating in the Holy Communion, he takes upon himself this responsibility of staying joined to the Lord and away from the world. It is to the Christian Believer’s advantage that he does so; because disregarding God’s instructions is an invitation to trouble (Deuteronomy 5:29; 30:15-20).


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

 

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