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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 59
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (1)
परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी की इस श्रृंखला के आरम्भ में हमने देखा था कि मसीही विश्वास के जीवन में उन्नति और कलीसियाओं की बढ़ोतरी के लिए मसीही विश्वासियों को व्यक्तिगत रीति से परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को जानना और उसमें दृढ़ता से स्थापित होना आवश्यक है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि वचन में तीन प्रकार की शिक्षाएं हैं जो मसीही विश्वास की उन्नति और कलीसियाओं की बढ़ोतरी के साथ सम्बन्धित रही हैं। ये तीन प्रकार की शिक्षाएं हैं - पहली, सुसमाचार से सम्बन्धित; दूसरी मसीही विश्वास की आरम्भिक बातों (इब्रानियों 6:1-2) से सम्बन्धित; और तीसरी, व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित। हम इन तीन में से पहली दो बातों के बारे में देख चुके हैं, और तीसरी के बारे में देख रहे हैं। व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के लिए हमने देखा था कि प्रेरितों 2 और 15 अध्याय में ये बातें दी गई हैं। प्रेरितों 2 अध्याय में सात बातें दी गई हैं, जिनमें से पहली तीन, जो मसीही विश्वास में जुड़ने से सम्बन्धित हैं, पतरस द्वारा किए गए प्रचार के अन्त की ओर हैं। और अगली चार, जिनका पालन आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर किया करते थे, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं। प्रेरितों 2:42 की इन चार बातों को मसीही विश्वास के स्तम्भ भी कहा जाता है। हमने इन चार में से पहली तीन बातों को देखा है, और आज से चौथी बात, प्रार्थना करने के बारे में देखना आरम्भ करेंगे।
सामान्यतः प्रार्थना करने से यही तात्पर्य समझा जाता है कि यह परमेश्वर से कुछ माँगना या कुछ करने के लिए कहना है - अपने लिए, अथवा किसी और के लिए। लेकिन वास्तव में परमेश्वर से कुछ माँगना या कुछ करने के लिए कहना, प्रार्थना करने का एक छोटा भाग है। परमेश्वर से प्रार्थना करना, परमेश्वर से वार्तालाप करना है। यह वार्तालाप किसी भी बात के बारे में हो सकता है। जैसे छोटे बच्चे अपने माता-पिता से खुले दिल से, निःसंकोच अपने मन की बात करते हैं, अपनी आवश्यकताएं और इच्छाएं ही नहीं, वरन हर वह बात जो उनके मन में होती है, बताते हैं, उनसे उसके बारे में बात करते हैं; वैसे ही प्रार्थना करना, परमेश्वर के साथ ऐसे ही खुले दिल और मन से बात करना है; अपने मन की हर बात को परमेश्वर के साथ बाँटना है। प्रार्थना में परमेश्वर पिता के बच्चे उससे अपनी सारी चिन्ताएँ, आवश्यकताएँ, भावनाएं, इच्छाएं, डर, समस्याएं, आनन्द, अपेक्षाएं, योजनाएं, आदि - सभी बातें, अपने जीवन से सम्बन्धित हर बात को उसे बताते हैं, और उस सर्वसिद्ध, सर्वज्ञानी पिता परमेश्वर से उन बातों के बारे में मार्गदर्शन लेते हैं, पिता की इच्छा जानते हैं, पिता की इच्छा को पूरा करने के बारे में निर्देश प्राप्त करते हैं। प्रार्थना करना एक-तरफा वार्तालाप नहीं है, कि हम अपनी ही बात परमेश्वर को सुनाते रहें। वरन प्रार्थना में हम न केवल अपनी बात परमेश्वर से कहते हैं, बल्कि परमेश्वर से उसकी कही हुई बात को, उसके निर्देशों और मार्गदर्शन को भी सुनते हैं।
परमेश्वर की बात सुनने के लिए उसकी आवाज़ के प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है। प्रभु यीशु ने यूहन्ना 10:2, 27 पदों में कहा कि प्रभु की भेड़ें उसका शब्द सुनती हैं, पहचानती हैं, और उसके पीछे-पीछे चलती हैं। अर्थात, प्रभु की आवाज़ को, प्रभु की भेड़ें ही सुन और समझ सकतीं हैं। प्रभु ने यह भी कहा कि उसकी अन्य भेड़ें भी हैं, जो अभी तो उसके झुण्ड में नहीं हैं, किन्तु प्रभु उन्हें भी लेकर आएगा; और तब वे भी, उसके झुण्ड की अन्य भेड़ों के समान ही, प्रभु की आवाज़ को सुनेंगी (यूहन्ना 10:16)। यह कहकर प्रभु ने भविष्य में उस पर विश्वास करने और उसके शिष्य बनने वालों के बारे में संकेत दिया। और साथ ही यह कहकर कि तब एक ही झुण्ड और एक ही चरवाहा होगा, यह भी बताया कि वे भावी शिष्य उसके वर्तमान शिष्यों से किसी प्रकार से भिन्न नहीं होंगे। प्रभु की इस बात से हम, अपने विषय, प्रार्थना से सम्बन्धित दो बातों को सीखते हैं। पहली बात, प्रार्थना में प्रभु की बात सुनने और समझने के लिए प्रभु की भेड़ होना, अर्थात उसके जन, उसके परिवार के लोग होना, अनिवार्य है; जो यूहन्ना 1:12-13 के पालन के द्वारा ही सम्भव है। दूसरी बात, प्रभु अपनी सभी भेड़ों से समान रीति से बात करता है, कोई भिन्नता नहीं करता है। उसकी सभी भेड़ें, उसकी आवाज़ को समान रूप से सुनने और समझने की क्षमता रखती हैं। इसलिए यह कहना कि प्रभु की आवाज़ सुनने और समझने के लिए, प्रभु का जन बनने, अर्थात उद्धार पाने के अतिरिक्त और भी कुछ करने की आवश्यकता है, गलत है, वचन से संगत नहीं है, और प्रभु की कही बात के विरुद्ध जाना है।
प्रभु चाहता है कि उसके लोग, उसके साथ हर बात के लिए, निरन्तर प्रार्थना में लगे रहें। इसका यह अर्थ नहीं है कि मसीही विश्वासियों को हर समय हाथ जोड़कर, घुटने टेक कर, आँखें बन्द करके प्रार्थना के भाव में ही बने रहना चाहिए। प्रभु ऐसा क्यों चाहता है, यह कैसे किया जा सकता है, और मसीही विश्वासियों के लिए यह करना क्यों आवश्यक है, हम इसके बारे में अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 59
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (1)
At the beginning of this series on Growth Through God’s Word we had seen that for edification of Christian faith and growth of the churches, it is necessary for the Christian Believers to know all of God’s Word, and be firmly established in it. We had also seen that there are three kinds of teachings given in the Word that have been associated with edification of Christian faith and growth of the churches. These three kinds of teachings are - firstly, teachings related to the Gospel; secondly, teachings related to the Elementary Principles of Christian faith (Hebrews 6:1-2); and thirdly, teachings related to practical Christian living. Out of these three kinds of teachings, we have seen the first two, and are now considering the third kind, i.e., teachings related to practical Christian living. We have seen that in Acts chapters 2 and 15 some teachings related to practical Christian living have been given. Of these, in Acts 2, seven things are given. Of these seven the first three are related to coming into the Christian faith, and are found towards the end of Peter’s sermon. The next four are things that the initial Christian Believers used to do steadfastly, and are given in Acts 2:42. These four things of Acts 2:42 are also known as the “Four Pillars of Christian Living.” We have already considered the first three of the four, and from today we will begin considering the fourth one, i.e., praying.
Generally, by praying, it is commonly understood that it means asking God for something or to do something - for self, or for others. But in reality, asking God for something or to do something, is only a small part of praying. To pray to God, is to converse with God. This conversation can be about anything. Like little children talk to their parents with an open heart, without any hesitation share whatever they have on their hearts, speak it out to them; similarly, praying is having a similar open hearted unhesitant conversation with God. Prayer is nothing other than the children communing and conversing with their Father God; sharing with Him all their concerns, needs, feelings, desires, apprehensions, problems, joys, expectations, plans – anything and everything related to their lives, and seeking their absolutely perfect and all-knowing Heavenly Fathers guidance, will and instructions about everything. Prayer is not a monologue, a one-sided conversation, that only we keep telling God about our needs and wants. Rather, in prayer not only do we share our needs and wants with God, but also listen to God’s response, His guidance, and His instructions about what we have shared with Him.
To be able to listen to God, we have to be sensitive to God’s voice. The Lord has said in John 10:2, 27 that the Lord’s sheep listen to His voice, recognize it, and understand Him. The Lord also said that there were other sheep of His, that are not yet in the fold, and the Lord will be bringing them into the fold; and then they too will be like the other sheep already in the fold and similarly listen to the Lord’s voice (John 10:16). By saying this the Lord indicated about those who would come to faith in Him and become His disciples in the future. And, by saying that then there will be one-fold and one shepherd, He also told that those future disciples will be no different than the present ones. From this, we learn two important things about our present topic, prayer. The first thing is that to be able to listen and understand the Lord’s voice in prayer, one has to be His sheep, belong to Him, be a member of His family; and this is possible only by obeying John 1:12-13. The second thing is that the Lord converses with all His sheep in a uniform manner, He does not differentiate amongst them. And, all His sheep have the same capability of listening to Him and understanding Him. Therefore, to say that to be able to hear and understand the Lord’s voice requires something extra, something other than being saved is a wrong teaching, is inconsistent with God’s Word, and goes contrary to what the Lord has said.
The Lord wants His people to always be praying to Him for everything. This does not mean that the Christian Believers should always be in an attitude of prayer, on their knees, with folded hands and closed eyes. Why does God want this, and how this can be done, and why it is essential for the Christian Believers, we will see about this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.