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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 78
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (20)
व्यावहारिक मसीही जीवन के लिए अनिवार्य चार बातें प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, जिनका पालन आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर करते थे। इसी कारण वे हर प्रकार की परिस्थितियों का सामना करते हुए भी अपने विश्वास में दृढ़ बने रहे, आत्मिक जीवनों में उन्नति करते गए, और कलीसियाएं भी बढ़ती चली गईं। क्योंकि आज के मसीही इन बातों को एक परम्परा के समान लेते हैं और औपचारिकता के समान उन्हें पूरा करते हैं, इसलिए न तो वे अपने आत्मिक जीवनों में बढ़ रहे हैं, और न ही कलीसियाएँ बढ़ रही हैं। इन चार में से पहली बात है परमेश्वर के वचन का अध्ययन करना, उसे सीखना; और क्योंकि सामान्यतः यह मसीहियों के जीवनों में नहीं हो रहा है, इसीलिए शैतान ने अवसर पाकर अनेकों गलत शिक्षाएं और अनुचित धारणाएं मसीहियों में घुसा और बैठा दी हैं। हम इस अध्ययन में इन चारों बातों के परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए सही स्वरूप और उनके सही निर्वाह के बारे में सीखते आ रहे हैं। पहली तीन बातों पर विचार करने के बाद, अब हम चौथी बात, प्रार्थना करने के बारे में बाइबल से सीख रहे हैं। अभी तक हम सीख चुके हैं कि प्रार्थना करना परमेश्वर से कुछ माँगना या पूरा करने के लिए कहना ही नहीं है, वरन परमेश्वर से वार्तालाप करना है। परमेश्वर को अपनी बात बताना, और उससे उसकी बात सुनना है। शैतान की युक्तियों से सुरक्षित रहने के लिए, परमेश्वर चाहता है कि मसीही विश्वासी, निरन्तर, हर बात के लिए, उसके साथ प्रार्थना में जुड़े रहें। हमने यह भी देखा है कि एक आम किन्तु गलत धारणा के विपरीत, परमेश्वर ने हर किसी से यह प्रतिज्ञा नहीं की है कि वह सभी की और हर तरह की प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देगा। परमेश्वर ने अपने वचन में लिखवा रखा है कि वह किन लोगों की और कैसी प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देगा। इसी से सम्बन्धित एक अन्य गलत धारणा मसीहियों में प्रचलित है कि परमेश्वर “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” माँगी गई प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देगा। पिछले कुछ लेखों से हम इसके बारे में वचन के हवालों और उदाहरणों से सीखते आ रहे हैं कि प्रभु यीशु ने यह बात किन लोगों की और कैसी प्रार्थनाओं के बारे में कही है। पिछले लेख में हमने प्रेरितों 3:1-16 से “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” माँगने के उदाहरण को देखा और समझा था। आज हम इसी विषय से सम्बन्धित वचन की कुछ और बातों को देखेंगे।
क्योंकि पुराने नियम के काल में यह “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” प्रार्थनाओं को माँगने का कोई औचित्य, कोई सम्भावना नहीं थी, इसलिए हम इस बात के लिए पुराने नियम की प्रार्थनाओं पर विचार नहीं करेंगे। जब हम नए नियम में लिखी हुई लोगों की प्रार्थनाओं को देखते हैं, तो चाहे प्रार्थनाएं माँगने वाले सामान्य लोग थे, अथवा प्रभु के सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी विश्वासी, हमें शायद ही कोई प्रार्थना मिलती है जिसमें प्रार्थना करने वाले ने इनमें से किसी भी वाक्यांश के आधार पर अपनी प्रार्थना माँगी हो। एक उदाहरण को हम पिछले लेख में अवश्य देख चुके हैं, लेकिन वास्तव में यह भी स्वयं के लिए की गई प्रार्थना नहीं, बल्कि किसी अन्य को चंगाई देने के लिए कही गई बात है। ऐसे ही “यीशु के नाम में” प्रेरितों 9:33-34 में पतरस द्वारा ऐनियास नामक एक झोले के मारे हुए को चंगा करने और प्रेरितों 16:18 में भावी कहने वाली लड़की में से दुष्टात्मा को निकालने का उल्लेख है। प्रेरितों के काम पुस्तक में अन्य कई चंगाइयों का, दुष्टात्माओं को निकालने का, मृतकों को जीवित करने का, यहाँ तक कि पतरस की परछाई (प्रेरितों 5:15-16) और पौलुस की देह को छूए हुए रुमाल और अँगोछो (प्रेरितों 19:11-12) के द्वारा चंगाई का भी उल्लेख है। किन्तु उपरोक्त तीन चंगाइयों के “यीशु के नाम में” किए जाने के अतिरिक्त, अन्य किसी भी आश्चर्यकर्म में वाक्यांश “यीशु के नाम में” का कोई उल्लेख नहीं है। प्रेरितों और प्रभु के लोगों की किसी भी प्रकार की प्रार्थनाओं में भी इस वाक्यांश का प्रयोग किया जाना नहीं मिलता है। यह, आज मसीहियों द्वारा इस वाक्यांश के लगभग हर बात, हर प्रार्थना के लिए उपयोग करने और प्रार्थना को प्रभावी बनाने, परमेश्वर को माँगे के अनुसार करने के लिए बाध्य करने की प्रवृत्ति के प्रतिकूल है। इससे यह बात विचार योग्य है कि यदि उन आरम्भिक मसीही विश्वासियों और प्रभु के सच्चे समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों को अपनी प्रार्थनाओं में इस वाक्यांश “यीशु के नाम में” को उपयोग करने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी, उनकी प्रार्थनाएं वैसे ही प्रभावी और क्रियाशील थीं, तो आज के मसीही विश्वासियों के इस वाक्यांश के इतना प्रयोग करने के बावजूद, उनकी प्रार्थनाएं उसी तरह से प्रभावी और क्रियाशील क्यों नहीं हैं? क्या आज के मसीहियों के द्वारा इस वाक्यांश का इस तरह से प्रयोग करना परमेश्वर के वचन के व्यावहारिक उपयोग के उदाहरणों से सुसंगत और उचित है?
इसी प्रकार से बहुतायत से प्रयोग किया जाने वाला दूसरा वाक्यांश है “विश्वास से” माँगना। जब प्रभु के शिष्यों ने प्रभु से प्रार्थना करना सिखाने के लिए कहा, तब प्रभु ने उन्हें जो प्रार्थना सिखाई (लूका 11:1-4), और प्रार्थना करने का जैसा स्वरूप और शिक्षा प्रभु ने अपने पहाड़ी सन्देश में अपने शिष्यों को दिया था (मत्ती 6:5-13), उन प्रार्थनाओं में कहीं भी इन दोनों वाक्यांशों, “यीशु के नाम में” माँगने और “विश्वास से” माँगने में से किसी का कोई उल्लेख नहीं है। सम्पूर्ण नए नियम में, प्रभु के लोगों की ऐसी कोई भी प्रार्थना नहीं है जिसे प्रभावी और क्रियाशील बनाने के लिए उन्होंने उसे “विश्वास से” कहकर माँगा हो। किसी को भी, किसी भी बात के लिए, यह वाक्यांश कहने की कभी आवश्यकता ही नहीं हुई। सुसमाचारों में प्रभु द्वारा “विश्वास से” उससे कुछ माँगने, या करवाने के कई उदाहरण हैं। किन्तु सुसमाचारों के इन उदाहरणों के अतिरिक्त पूरे नए नियम में, केवल याकूब 1:6 में, केवल एक बार “विश्वास से” कुछ माँगने के लिए कहा गया है; और वह भी जिसे बुद्धि की घटी है, उसे परमेश्वर से, बिना सन्देह किए, “विश्वास से” बुद्धि माँगने के लिए कहा गया है। सुसमाचारों में भी प्रभु यीशु ने जब लोगों को चंगा किया, उनकी प्रार्थना या इच्छा के अनुसार उनके लिए किया, तब उनके द्वारा उससे “विश्वास से” चंगाई माँगने, या प्रभु पर विश्वास रखने के लिए उनकी सराहना के रूप में इस बात को कहा है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से अवश्य यह कहा है कि वे “विश्वास से” जो भी माँगेंगे, वह परमेश्वर द्वारा पूरा किया जाएगा; और हम इसे पहले के एक लेख में समझ चुके हैं कि वचन के अनुसार इसका क्या अर्थ और तात्पर्य है।
इन दोनों वाक्यांशों के बारे में बाइबल की बातों और हवालों को देखने से जो बात हमारे सामने आती है, वह यही प्रकट करती है कि आज जिस तरह से इन दोनों वाक्यांशों को प्रयोग करना कहा और सिखाया जाता है, वह बाइबल के अनुसार उनका सही स्वरूप और प्रयोग नहीं है। प्रभु ने ये दोनों बातें जन साधारण के द्वारा किसी भी प्रार्थना को उचित और मान्य बनाने, परमेश्वर को माँगी गई बात को पूरा करने के लिए बाध्य करने के लिए नहीं कहीं थीं। बल्कि ये दोनों बातें प्रभु ने अपने सच्चे, समर्पित, और आज्ञाकारी शिष्यों के उपयोग के लिए कहीं थीं। परमेश्वर उन शिष्यों की भी उन प्रार्थनाओं को ही पूरा करता है जो उसकी इच्छा के अनुसार और वचन से सुसंगत बातों के लिए होती हैं। अगले लेख से हम यहाँ से आगे देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 78
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (20)
In Acts 2:42, four things related to practical Christian living have been given, which the initial Christian Believers observed steadfastly. Therefore, they remained strong and firm in their faith while facing all circumstances, they were continually edified in their spiritual lives, and the churches also continued to grow. But because the Christian Believers today, take these things as a ritual, a formality to be fulfilled, therefore neither are they growing in their faith, nor are the churches growing. The first of these four things is studying God’s Word, learning it; and generally speaking, since this is not being done in the lives of the Christians, therefore Satan has made use of the opportunity to bring in and establish many wrong teachings and false concepts in the lives of the Christians. In this study we have been considering the Biblically correct form and observance of these four things, from God’s Word. Having considered the first four things, presently we are learning about the fourth thing, praying. So far, we have learnt that praying is not just asking for something from God or asking Him to do something. Rather, it is conversing with God; sharing our concerns with Him and listening to what He has to say to us. God wants that Christian Believers to always be in contact with Him in prayer for everything, to stay safe from the devices of the devil. We have also seen that contrary to a popular but wrong concept, God has not promised everyone that He will always answer all prayers made by anyone in the affirmative. In His Word, God has written whose and which prayers He will answer in the affirmative. There is another false concept related to this, that is very prevalent amongst the Christians, that God will answer in the affirmative, all prayers made to Him “in faith” and “in the name of Jesus.” For the past few articles, we have been learning about this from the examples and references from God’s Word, and seeing to whom did the Lord say this and in context of what prayers. In the last article we have seen and understood from an example, Acts 3:1-16, about asking “in faith” and “in the name of Jesus.” Today, we will see some more things about this topic from God’s Word.
Since during the time-period of the Old Testament, there was no rationale and possibility of asking “in faith” and “in the name of Jesus,” therefore, we will not consider this from any prayers of the Old Testament. When we see the prayers written in the New Testament, whether made by the common people, or by the true, surrendered, obedient disciples of the Lord, there is hardly any prayer which has been asked using these phrases, by the person making the prayer. One example is the one which we have seen in the previous article, but in fact it is an example not of asking any prayer for self but for miraculous healing of someone else. Similarly, in Acts 9:33-34 we have an example of Peter healing the bedridden and paralyzed Aeneas, and in Acts 16:18 Paul casts out the evil spirit from the demon possessed girl who used to foretell, in the name of Jesus. In the book of Acts there are many other instances of healings, casting out demons, bringing the dead back to life, and even of healing through the shadow of Peter (Acts 5:15-16) and through handkerchiefs and aprons touched by the body of Paul (Acts 19:11-12). But except for the aforementioned three healings, in none other has the phrase “in the name of Jesus” been used. We never see this phrase being used in the prayers of any of the Apostles or of any other Believer. This is quite contrary to the tendency and practice of the Christians using this phrase for all prayers to make them effective and to compel God to answer them, today. This makes it something worth pondering over that if those initial Believers and the true, surrendered, obedient disciples of the Lord did not need to use the phrase “in the name of Jesus” in their prayers, their prayers were effective and functional without its use, then despite the Christians using this phrase so often, for practically every prayer to make it effective and functional, why is it that their prayers are not similarly effective and functional? Is the use of this phrase by the Christians so frequently, appropriate and consistent with the practical utilization of the Biblical examples?
Similarly, the second phrase “in faith” is also used very frequently. When the disciples of the Lord asked Him to teach them to pray, then the prayer that the Lord taught them (Luke 11:1-4), and the form of prayer that the Lord had taught His disciples in His Sermon on the Mount (Matthew 6:5-13), we find that neither of these two phrases asking in “in faith” and asking “in the name of Jesus” has been used. In the whole of the New Testament, there is no prayer made by the people of the Lord, which required the use of these phrases to make them effective and functional. Nobody ever had felt the necessity to use these phrases. There are many examples in the Gospels of the people asking the Lord “in faith” or the Lord mentioning their having asked or done something “in faith.” But apart from the Gospels, in the whole of the New Testament, only in James 1:6, only once has asking “in faith” been mentioned, and that too for those who lack wisdom to not doubt but ask God for it in faith. In the Gospels also, when the Lord healed people, or did something according to what they had desired or asked, then the Lord had used this phrase “in faith” only to commend them for having the faith in the Lord about doing something. Surely, the Lord has said to His disciples, that if they ask anything “in faith,” then it will be done for them by God; and we have seen and understood about this in an earlier article, what it means and implies.
Having seen about these phrases from the Bible examples and references, what emerges before us is that, the way these phrases are being used and being taught to be used today, is not their correct Biblical form or utilization. The Lord had not said these for anyone to say and use them for any prayer, to make the prayer appropriate and acceptable, and to compel God to fulfill it. Rather, the Lord had said both these things to His true, surrendered, obedient disciples. And even the prayers of those disciples were only fulfilled, if they were in accordance with God’s will and consistent with His Word. In the next article we will see further from here.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.