रविवार, 10 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 247

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 92


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (34) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के वास्तविक मूल स्वरूप और निर्वाह के बारे में हम परमेश्वर के वचन बाइबल में उनके बारे में दिए गए उदाहरणों और हवालों से सीखते आ रहे हैं। प्रेरितों 2:42 में ऐसी चार बातें दी गई हैं, जिनमें से पहली तीन हम देख चुके हैं, और अब चौथी बात, प्रार्थना करने, पर विचार कर रहा हैं। मसीहियों में एक बहुत आम रीति है ‘प्रभु की प्रार्थना’ बोलना; इस तथा-कथित प्रार्थना को बचपन से ही रट लिया जाता है, और फिर हर अवसर पर, हर बात के लिए, बिना उसके बारे में सीखे अथवा जाने हुए, उसे बोल दिया जाता है। वर्तमान में हम इसी ‘प्रभु की प्रार्थना’ पर मत्ती 6:5-15 के आधार पर विचार कर रहे हैं। हमने देखा है कि यह वास्तव में प्रभु द्वारा दी गई कोई प्रार्थना नहीं है, वरन परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाओं को बनाने के लिए दी गई एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके अनुसार प्रत्येक मसीही को अपनी व्यक्तिगत प्रार्थनाएं बनानी चाहिएं। यहाँ पर, मत्ती 6:11-13 में, प्रभु ने अपने शिष्यों को पिता परमेश्वर से तीन बातों को माँगने के लिए कहा है - परमेश्वर पर पूर्ण निर्भरता, क्षमाशील होना, और परीक्षा बचे हुए तथा बुराई से सुरक्षित रहना। इन तीन में से पहली दो बातों के बारे में सीखने के बाद, पिछले लेख से हमने परीक्षा और बुराई से बचने के बारे में सीखना आरम्भ किया है। हमने पिछले लेख में बाइबल के उदाहरणों से देखा है कि उन्हें उनकी वास्तविक आत्मिक दशा से अवगत करवाने के लिए, परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा लेता है। बाइबल के हवालों के आधार पर हमने देखा है कि परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा, परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास, आज्ञाकारिता, और मनसा की दशा को प्रकट करने के लिए लेता है। इसी सन्दर्भ में, याकूब 1:13 से हमने देखा था कि बुराई या दुष्टता से न तो परमेश्वर किसी की परीक्षा लेता है, और न ही उसकी परीक्षा ली जा सकती है। आज हम यहाँ से आगे बढ़कर, मत्ती 6:13a “हमें परीक्षा में न ला, परन्तु बुराई से बचा” को समझने का प्रयास करेंगे। 


इस पद को पढ़ने पर मन में यही विचार आता है कि परमेश्वर अपने लोगों को किसी ऐसी परीक्षा में क्यों डालेगा, जिसमें शिष्यों के पड़ने से बचे रहने के लिए प्रभु ने कहा है? एक विरोधाभास सा प्रतीत होता है कि पिता परमेश्वर परीक्षा में डालता है जबकि परमेश्वर पुत्र परीक्षा से बचाने की प्रार्थना करने को कहता है। साथ ही यह भी स्वाभाविक है कि जिस परीक्षा से प्रभु बच के रहने के लिए कह रहा है, वह किसी भली बात से सम्बन्धित तो नहीं होगी। पिछले लेख में हमने परमेश्वर द्वारा अपने लोगों की परीक्षा लेने से सम्बन्धित कुछ हवालों को देखा था। जब हम उन, तथा उनके समान अन्य हवालों को पढ़ते हैं, तो हमारे सामने यह बात उभर कर आती है कि परमेश्वर अपने लोगों की परीक्षा तब लेता है जब या तो उसे उन्हें कोई बड़ी आशीष देनी होती है, जैसे अब्राहम के साथ हुआ (उत्पत्ति 22:1, 15-19);; और उसके लिए एक बड़ी भलाई की बात थी। या फिर जब उसके लोग, उसके प्रति अपने विश्वास में दुर्बल पड़ने लगते हैं, उस पर सन्देह करते हैं, उसके विरुद्ध कुड़कुड़ाते हैं, जैसा जंगल की यात्रा के दौरान इस्राएलियों ने किया, (निर्गमन 15:25; 16:4; व्यवस्थाविवरण 8:2, 16); या जब वे परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्धों और उसके प्रति अपने व्यवहार में निश्चिंत और लापरवाह होने लगते हैं, जैसा कनान में बस जाने के बाद इस्राएलियों के साथ हुआ (न्यायियों 3:4), तथा मृत्यु की कगार से लौटने और जीवन के पन्द्रह अतिरिक्त वर्ष प्राप्त करने के बाद राजा हिजकिय्याह ने किया (2 इतिहास 32:31 तथा यशायाह 39)। इन  आधार पर प्रभु अपने शिष्यों को अब्राहम के समान परीक्षा में पड़ने से तो नहीं रोकेगा, क्योंकि वह तो आशीष के लिए है, भली है। परमेश्वर के लोगों में बुराई आ जाने के साथ जुड़ी हुई दो बातें हैं - जंगल की यात्रा में इस्राएलियों के समान परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में दुर्बल पड़ना, उस पर सन्देह करना, उसके विरुद्ध कुड़कुड़ाना, तथा राजा हिजकिय्याह का और कनान में बसने के बाद इस्राएलियों का परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्धों और उसके प्रति अपने व्यवहार में निश्चिंत और लापरवाह हो जाना।

 

इन दोनों नकारात्मक उदाहरणों के लिए अवश्य ही प्रभु अपने शिष्यों को रोकेगा, कभी नहीं चाहेगा कि परमेश्वर के साथ उनके सम्बन्धों और व्यवहार में वे कभी इनमें से किसी भी स्थिति में आएं। इसलिए, इन बातों से तात्पर्य प्रकट है, प्रभु के शिष्य परमेश्वर से किसी ऐसी परीक्षा में पड़ने की स्थिति में तब ही जाएंगे जब या तो वे परमेश्वर के प्रति अपने विश्वास में दुर्बल पड़ने लगेंगे, उसपर सन्देह करने वाले, कुड़कुड़ाने वाले होने लग जाएंगे; या यदि वे परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्धों और व्यवहार में निश्चिंत और लापरवाह होने लग जाएंगे। शिष्यों के ऐसी स्थिति में आने पर परमेश्वर उन्हें, परमेश्वर के प्रति उनके विश्वास, आज्ञाकारिता, और मनसा की वास्तविकता को दिखाने के लिए उन्हें ऐसी स्थितियों, अर्थात परीक्षाओं में लाएगा, जिस से वे अपनी वास्तविक दशा को पहचान लें, और फिर आवश्यक सुधार और पश्चाताप करके, परमेश्वर के साथ सही रीति से जुड़ जाएं। अब, इन बातों पर ध्यान करते हुए, हम यह समझ सकते हैं कि प्रभु द्वारा अपने शिष्यों से यह कहना कि वे प्रार्थना में परमेश्वर से माँगे कि उन्हें परीक्षा में ना आने दे का अर्थ हुआ, परमेश्वर से माँगें कि वह उन्हें कभी उसके प्रति विश्वास में दुर्बल न पड़ने दे, उस पर सन्देह करने और उसके विरुद्ध कुड़कुड़ाने वाला न होने दे, वरन विश्वास और आज्ञाकारिता में सुदृढ़ बनाए रखे; तथा कभी उन्हें परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्धों और व्यवहार में निश्चिंत और लापरवाह न होने दे, वरन हमेशा परमेश्वर को अपने जीवनों में सर्वोच्च आदर, स्थान, और महिमा देते रहने वाला बनाए रखे। क्योंकि जब प्रभु के लोग सही बने रहेंगे, तब ही वे परमेश्वर द्वारा परीक्षा में लाए जाने से बचे रहेंगे, अन्यथा नहीं। जब इस दृष्टिकोण से देखा और समझा जाता है तो प्रतीत होने वाला उपरोक्त विरोधाभास का भी समाधान हो जाता है। 


यह भी स्वाभाविक बात है कि जब शिष्यों में कोई बुराई, कोई शैतानी बात आएगी, जब भी वे किसी भी कारण से शैतान की किसी चाल में फँसकर परमेश्वर से दूर होंगे, तब उनमें विद्यमान उस बुराई के कारण वे अवश्य ही इस तरह से परीक्षा में डाले जाने की स्थिति में आ जाएंगे। इसलिए प्रभु ने दोनों बातों को साथ मिलाकर, शिष्यों से परमेश्वर से माँगने के लिए कहा कि वे परमेश्वर से माँगें कि उन्हें न तो परीक्षा में पड़ने वाला बनने दे, और न किसी बुराई को उनमें आने दे, जिससे वे किसी भी पाप में गिराए जाकर परमेश्वर से दूर हों, उसपर सन्देह करें, या उसके आदर को कम करें; जिससे उन्हें फिर परीक्षा में पड़ने का सामना करना पड़े। 


अगले लेख में हम देखेंगे कि प्रभु द्वारा शिष्यों को सिखाए गए प्रार्थना के इन तीनों विषयों के लिए परमेश्वर प्रभु के शिष्यों को, उससे इन बातों को माँगने वाले को इनके लिए व्यावहारिक प्रशिक्षण किस तरह से देता है। 


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 92


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (34)


We have been learning about the original form and observance of things related to practical Christian living through the examples and references given about them in God’s Word the Bible. Four such things are given in Acts 2:42, and we have seen the first three of them, and are now considering the fourth one, praying. Amongst the Christians, there is a very common ritual, to say the ‘Lord’s Prayer;’ they memorize this so-called prayer from their childhood, and then on every occasion, for everything, it is just repeated by rote, without their understanding or learning anything about it. Presently, we are considering this ‘Lord’s Prayer’ through Matthew 6:5-15. We have seen that actually this is not a prayer that has been given by the Lord, rather, it is an outline, a framework on which prayers acceptable to God have to be built by every Christian. Here, in Matthew 6:11-13, the Lord taught the disciples to ask for three things from God - to be dependent upon God, to be a forgiving person, and to be saved from being tested and kept safe from evil. Having learnt about the first two of these three things, in the last article, we have begun to learn about not being led into temptations and kept safe from evil. We have seen from the Biblical references in the last article that God allows His people to be tested or tempted to make evident to them their actual spiritual condition regarding their faith, obedience, and mind or thought towards Him. In the same context, we have seen from James 1:13 that God neither tests or tempts anybody through any evil, nor can He be tested through evil. Today, we will proceed further from here, consider and understand Matthew 6:13a “And do not lead us into temptation, But deliver us from the evil one.


On reading this verse, the thought that comes to mind is that why would God put any of His people into any such testing or temptation, for which the Lord is asking the disciples to be kept safe? There seems to be a contradiction here, that God the Father is putting the disciples into a temptation, from which God the Son wants the disciples to pray to be kept safe. Moreover, it is only natural that the temptation from which the Lord wants His disciples to be kept safe, it cannot be something that will bring them some good. In the previous article, we had seen some examples of God testing or tempting His people. When we read them and other similar references, then the thing that becomes apparent is that God tests or tempts His people either when He has to give them some great blessing, as happened with Abraham (Genesis 22:1, 15-19); which was done for a great blessing for him. Or, when His people start becoming weak in their faith towards Him, start doubting Him, start grumbling against Him, as the Israelites did in their wilderness journey (Exodus 15:25; Deuteronomy 8:2, 16); or when they become complacent towards God in their relationship and behavior towards Him, and take Him for granted, as happened with the Israelites after they had settled in Canaan (Judges 3:4), and with King Hezekiah after he had been brought back from the brink of death and given fifteen additional years of life (2 Chronicles 32:31 & Isaiah 39). On the basis of these examples, we see that the Lord will never ask for His disciples to be kept from being tested like Abraham was, since that testing would be for their good, for their blessings. There are two things associated with some evil in the people of God - becoming weak in faith towards God, doubting Him, grumbling against Him, as the Israelites did in their wilderness journey; and like King Hezekiah and the Israelites settled in Canaan, becoming complacent in their relationship and behavior towards God and taking Him for granted.


For these two negative things, the Lord would surely stop His disciples, would never desire that, they ever come in a similar situation in their relationship and behavior towards God. Therefore, from the consideration of these things, the implication is evident that the disciples of the Lord will only come into a situation of being tested or tempted by God if they start becoming weak in their faith towards Him, start doubting Him, start grumbling against Him; or in their relationship and behavior towards Him, they become complacent and start taking Him for granted. If the disciples come into any such situation, to make evident to them the actual state of their faith, obedience, and mentality towards Him, God will bring them into situations, i.e., testing, so that they should realize their actual condition, repent, and rectify the situation, and be restored in their relationship with God. Through analyzing these things, now we can understand why the Lord asked His disciples to ask God not to lead them into temptations; it means to ask God to never let them become weak in their faith on Him, doubt Him, grumble against Him, but keep them strong and well established in their faith towards Him; and never let them become complacent in their relationship and behavior towards Him and take Him from granted, rather make them always give Him the highest honor, place, and glory in their lives. Because only when God’s people remain right, will they be kept from coming under any testing or temptation by God, else they will be brought into temptation or testing. When it is seen from this point of view, then the apparent contradiction mentioned above, gets resolved.


This also is only natural, that if something evil, something devious comes into the disciples, due to any reason whenever they fall for any satanic scheme and move away from God, then because of that evil that has come into them, they will surely land up in a situation where God will have to lead them into being tested or tempted. Therefore, the Lord combined both of these things, and asked the disciples to ask God in prayer to neither lead them into temptation nor let them fall for anything evil; so that they may never fall into any sin, move away from God, doubt Him, or demean Him in any way, and then have to face the testing.


In the next article we will see how God practically trains the disciples, those who ask Him for these three things. 


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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