मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 28

 

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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 25


    पिछले लेख में हमने प्रभु के नाम,”यीशु मसीह” के अर्थ को देखा था और यह भी देखा था कि किस प्रकार से सुसमाचार में विश्वास करना और प्रभु यीशु में विश्वास करना एक ही बात हैं। पहले, जब हमने 1 कुरिन्थियों 15:1-4 में दिए गए सुसमाचार के मर्म या सार के अर्थ और तात्पर्यों को देखा था, तो इस बात पर भी ध्यान किया था कि वहाँ पर पद 3 और 4 में पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा लिखवाया है कि प्रभु यीशु का मनुष्यों के पापों के लिए मारा जाना, गाड़ा जाना, और जी उठना, पवित्र शास्त्र के अनुसार था; अर्थात, सुसमाचार, पवित्र शास्त्र – जिसे हम आज पुराना नियम कहते हैं, के अनुसार है। दूसरे शब्दों में, सुसमाचार और उस पर विश्वास करना, अर्थात प्रभु यीशु पर विश्वास करना परमेश्वर के वचन में बाद में जोड़ी गई बातें नहीं हैं; वरन इन्हें प्रभु यीशु के जन्म से भी पहले बता दिया गया था, और अब, प्रभु के जन्म और सेवकाई के साथ और बाद में उनकी पूर्ति हो रही थी।

    हमने देखा है कि प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के समय में, लोगों में एक प्रत्याशा थी कि प्रतिज्ञा किया हुआ मसीहा कभी भी प्रकट हो सकता है (मत्ती 12:23; लूका 3:15; यूहन्ना 1:45; 4:25, 29; 7:41); वे उसकी उम्मीद तो लगाए हुए थे, किन्तु उन्हें यह नहीं पता था कि उसे पहचाने कैसे। यह प्रत्याशा उन्हें केवल पवित्र शास्त्र से ही मिल सकती थी, क्योंकि पुराने नियम की अंतिम पुस्तक, मलाकी, के बाद से, लगभग 400 वर्ष से परमेश्वर ने अपना कोई नबी उनके पास नहीं भेजा था; और जो उससे पहले के नबियों ने कहा था, वह पवित्र शास्त्र में लिखा गया था।

    पाप से छुड़ाने वाले मसीहा, “स्त्री के वंश” की प्रतिज्ञा और भविष्यवाणी, परमेश्वर ने अदन की वाटिका में ही, पहले पाप के होने समय ही उत्पत्ति 3:15 में कर दी थी। मूसा ने व्यवस्थाविवरण 18:15 में उसके समान एक भविष्यद्वक्ता की भविष्यवाणी की थी, इस्राएलियों को जिसकी सुननी थी; और प्रेरितों 7:37 में स्तिफनुस ने प्रभु के लिए इस बात का हवाला दिया था।

    इब्रानियों 10:7 में लिखा है, “तब मैं ने कहा, देख, मैं आ गया हूं, (पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है) ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूं” जो प्रभु यीशु के स्वर्ग छोड़कर, पृथ्वी पर, परमेश्वर की इच्छा पूरी करने आने के बारे में है; और यह भजन 40:7 से लिया गया है। दोनों ही स्थानों पर यही कहा गया है कि परमेश्वर की पुस्तक में मसीहा, छुड़ाने वाले, के बारे में लिखा गया है।

    निकुदेमुस के साथ चर्चा में, जब निकुदेमुस परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए नया-जन्म पाने की अनिवार्यता को लेकर असमंजस में था, तब प्रभु ने एक बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी, “नीकुदेमुस ने उसको उत्तर दिया; कि ये बातें क्योंकर हो सकती हैं? यह सुनकर यीशु ने उस से कहा; तू इस्राएलियों का गुरु हो कर भी क्या इन बातों को नहीं समझता?” (यूहन्ना 3:9-10)। अर्थात, इस्राएलियों का गुरु, उन्हें पवित्र शास्त्र की शिक्षा देने वाला होने के नाते, निकुदेमुस से अपेक्षा थी कि वह न केवल पवित्र शास्त्र से भली-भान्ति परिचित होगा, वरन नया-जन्म पाने की अनिवार्यता से भी अवगत होगा – जिसके लिए पापों से पश्चाताप करना आरम्भिक कदम है। और हम पहले के लेखों में पश्चात्ताप या मन-फिराव के बारे में देख चुके हैं कि परमेश्वर ने अपने नबियों के द्वारा इस्राएल से बारंबार पश्चाताप करने के लिए कहा, उन्हें यह करने के सन्देश भेजे (यिर्मयाह 25:4-5)। इसी प्रकार से भजनों में यह भी लिखा गया है कि परमेश्वर के साथ संपर्क में रहने के लिए मन की शुद्धता या पवित्रता अनिवार्य है (भजन 15; 51:6, 10; 73:1); और निकुदेमुस से यह अपेक्षा थी कि वह इन बातों को जानता होगा।

    एक तथ्य, जिसे बहुत ही कम लोग जानते हैं, है कि सुसमाचार, अर्थात, प्रभु यीशु मसीह में और उसके द्वारा मानवजाति के पापों के लिए दिए गए उसके बलिदान में विश्वास करना, यह परमेश्वर द्वारा कोई बाद में सोची गई बात नहीं था। यह एक ऐसी बात है जिसे परमेश्वर ने सृष्टि के समय से ही स्थापित कर दिया था – परमेश्वर के मेमने के रूप में प्रभु यीशु मसीह का बलिदान, जगत की उत्पत्ति के समय ही कर दिया गया था (प्रकाशितवाक्य 13:8), अर्थात पाप के सृष्टि में प्रवेश करने से भी पहले। यह दिखाता है कि सुसमाचार हमेशा से ही मनुष्य के लिए परमेश्वर की योजना का एक भाग रहा है। परमेश्वर सर्वज्ञानी है, और मनुष्य का पाप करना, उसके लिए कोई आकस्मिक या अनायास होने वाली अप्रत्याशित बात नहीं थी; और क्योंकि वह प्रेमी परमेश्वर है, इसलिए उसने पहले से ही मनुष्य को बचा लेने के लिए प्रावधान तैयार कर दिया था, बजाए इसके कि आदम को नष्ट करके उसके स्थान पर किसी दूसरे के द्वारा पृथ्वी को आबाद करता।

    आने वाले लेखों में हम सुसमाचार से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों देखेंगे।   

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 25

 

    In the last article we have seen the meaning of the name of the Lord, “Jesus Christ” and have seen how believing in the Lord Jesus and believing in the gospel are the same. Earlier, when we had considered the implications and meanings of the gist of the gospel given in 1 Corinthians 15:1-4, one of the things we had seen was that here in verses 3 and 4 the Holy Spirit, through Paul, had it written that the death, burial, and resurrection of the Lord Jesus for the sins of mankind was according to the Scriptures; i.e., the gospel was according to the Scriptures – what we now know as the Old Testament. In other words, the gospel and believing in it, i.e., believing in the Lord Jesus were not later additions to God’s Word; but had been stated earlier even before the birth of the Lord Jesus, and were now being fulfilled with and after the Lord’s birth and ministry.

    We have seen that at the time of the Lord Jesus’s earthly ministry, there was an anticipation amongst the people of the appearance of the promised Messiah (Matthew 12:23; Luke 3:15; John 1:45; 4:25, 29; 7:41); they were expecting him, but did not how to identify him. This anticipation could only have come from the Scriptures, since there had been no prophet from God for about 400 years, since the time of Malachi, the last book of the Old Testament; and what the previous prophets had spoken had been recorded in the Scriptures.

    The promise and prophecy for a deliverer from sins, “the Seed of the woman” was given by God in the Garden of Eden itself, at the time of the first sin, in Genesis 3:15. Moses, in Deuteronomy 18:15 had prophesied of Prophet like him, whom the Israelites were to obey; and Stephen in his defence had referred to this, in Acts 7:37 about the Lord.

    Hebrews 10:7, “Then I said, 'Behold, I have come-- In the volume of the book it is written of Me-- To do Your will, O God” is about the Lord Jesus coming to earth from heaven, to do God’s will; and it is quoting Psalm 40:7. At both places it is said that in God’s book it is written about the Messiah, the deliverer.

    In the discussions with Nicodemus, when Nicodemus was perplexed about the necessity of being Born-Again to enter God’s Kingdom, the Lord Jesus made a very significant statement, “Nicodemus answered and said to Him, "How can these things be?" Jesus answered and said to him, "Are you the teacher of Israel, and do not know these things?” (John 3:9-10). As the teacher of Israel, i.e., as one who taught the Scriptures to the Israelites, it was expected that Nicodemus would not only be well versed in the Scriptures, but because of being well versed in the Scriptures, would also know about the necessity of being Born-Again – for which repentance from sins is the first step; implying that this was something already a part of the Scriptures. And we had seen in the earlier articles when learning about repentance, that God through His prophets had repeatedly given messages to repent to the Israelites (Jeremiah 25:4-5). Similarly, the purity of heart is a necessity to communing with God has been stated in the Psalms, in Psalm 15; 51:6, 10; 73:1; and Nicodemus was expected to be aware of this.

    A little realized fact is that the gospel, i.e., salvation through faith in the Lord Jesus and His sacrifice for the sins of mankind, was not an after-thought by God. It was something that God had put in place since the time of creation – the Lord Jesus, as the lamb of God had been sacrificed at the time of foundation of the world (Revelation 13:8), i.e., even before sin entered the world – thereby showing that the gospel was always a part of the plan of God for man. God being the omniscient God, had not been taken unawares by the sin of man, and being the loving God that He is, had already made the provisions for redeeming man, instead of destroying Adam and re-populating the earth with someone else.

    In the coming articles we will continue to look at some other aspects related to the gospel.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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