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आरम्भिक बातें – 77
मरे हुओं का जी उठना – 12
विश्वासियों के लिए पुनरुत्थान के निहितार्थ – 4
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई पाँचवीं आरम्भिक बात, “मरे हुओं का जी उठना” पर हमारे इस अध्ययन को ज़ारी रखते हुए, हम उस से आगे देखेंगे जो हम ने पिछले लेख में देखा है। पिछले लेख में हम ने देखा था कि क्यों प्रभु यीशु को मनुष्य रूप में पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा; हम ने प्रत्येक मनुष्य में स्वाभाविक रीति से विद्यमान आदम के स्वभाव और उस के उद्धार पाने के बाद उस में आ जाने वाले ईश्वरीय स्वभाव के बारे में देखा; फिर हम ने “प्रथम फल” के तात्पर्य और मसीहियों के लिए उस के महत्व को समझा; और फिर अन्त में देखा था कि पुनरुत्थान का निहितार्थ है कि शैतान की सामर्थ्य, शासन, और अधिकार का अन्त तथा परमेश्वर के राज्य का सदा काल के लिए स्थापित हो जाना। फिर हमने देखा कि परमेश्वर के राज्य में उस की सभी सन्तान प्रभु के सामने खड़े हो कर उस से अपने-अपने प्रतिफल प्राप्त करेंगे, जो कि मसीही विश्वासी होने पर उन के द्वारा जीए गए जीवन और किए गए या नहीं किए गए कामों के अनुसार होगा। इसलिए इस तथ्य से कि पुनरुत्थान निश्चित है, प्रत्येक मसीही विश्वासी प्रोत्साहित होना चाहिए कि इस सँसार में ऐसा जीवन जीए जिस से उसे आने वाले जीवन में उत्तम प्रतिफल मिलें। आज हम 1 कुरिन्थियों 15 से एक और खण्ड को देखेंगे, जो जिलाए जाने का उल्लेख करता है।
इस अध्याय का अगला खण्ड जिस में मरे हुओं के जिलाए जाने का उल्लेख आया है वह है 1 कुरिन्थियों 15:29-34। इस खण्ड में, पद 29, जिस में लोगों द्वारा मरे हुओं के लिए बपतिस्मा लेने का उल्लेख है, उस की व्याख्या बहुत कठिन है, और कहा जाता है कि इस पद की तीस से भी अधिक व्याख्या हैं, किन्तु उन में से कोई भी पूर्णतः सन्तुष्ट करने वाली और सभी को स्वीकार्य नहीं है। इस पद का वास्तविक अर्थ और व्याख्या, कि लोग मरे हुओं के लिए बपतिस्मा क्यों लेते थे, जो भी हो, वह हमारे वर्तमान चर्चा का विषय नहीं है। हमारी वर्तमान चर्चा कि लिए जो महत्वपूर्ण है, वह यह तथ्य है कि पौलुस ने पवित्र आत्मा की प्रेरणा में हो कर, कुरिन्थुस की मण्डली के लिए परिचित इस बात को पुनरुत्थान के निश्चित होने की पुष्टि करने के लिए उपयोग किया है। दूसरे शब्दों में, क्योंकि कुरिन्थुस की मण्डली इस बात से परिचित थी, इसी लिए पौलुस इस का उपयोग उन से यह कहने के लिए करता है कि वे लोग इस प्रथा के निर्वाह के द्वारा यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि मरे हुए किसी जन के लिए यदि कोई बपतिस्मा लेता है, तो इस से उस मृतक को कुछ लाभ मिल जाता है। ऐसा नहीं है कि पौलुस इस प्रथा को सही ठहरा रहा था, या उस से सहमत था, या उसे सिद्धान्त के रूप में कोई स्वीकृति प्रदान कर रहा था। पौलुस बस इतना कर रहा था कि जिस बात से कुरिन्थुस के लोग परिचित थे, उस में होकर उन से कह रहा था कि वे भी तो मृतकों के जी उठने और प्रतिफल प्राप्त करने की मान्यता रखते हैं; तो फिर अभी इस समय, इस पृथ्वी पर रहते हुए अपने आप को पुनरुत्थान के लिए तैयार क्यों न कर लें?
इस से आगे, 1 कुरिन्थियों 15:30-32 में, पौलुस बहुत संक्षेप में कुरिन्थुस के लोगों को याद करवाता है कि उसे अपनी सेवकाई के दौरान कितने कष्ट सहने पड़े हैं, विशेषकर, उस के साथ जो कुछ इफिसुस में हुआ था, और फिर वह कहता है “…यदि मुर्दे जिलाए नहीं जाएंगे, तो आओ, खाए-पीए, क्योंकि कल तो मर ही जाएंगे” (1 कुरिन्थियों 15:32)। दूसरे शब्दों में, यदि पुनरुत्थान नहीं है, यदि इस सँसार के बाद कुछ नहीं है, तो फिर कोई भी कष्ट क्यों उठाना, किसी भी बात की परवाह क्यों करना? फिर तो सभी को, जो भी उन्हें अच्छा लगता है, सही लगता है, पसन्द आता है, जिस से उन्हें आनन्द मिलता है, वही करना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद कुछ नहीं है, और मृत्यु के साथ उन के लिए सब समाप्त हो जाएगा। यदि यह सही है तो फिर यह कल्पना करना बिल्कुल भी कठिन नहीं है कि इस विचारधारा का पालन करने से समाज और सँसार का क्या हाल होगा, सभी स्थानों पर कैसी अराजकता, अव्यवस्था, और गड़बड़ी फैल जाएगी, यदि हर कोई वही करने लगे जो उन्हें अच्छा लगता है, सही लगता है, पसन्द आता है, जिस से उन्हें आनन्द मिलता है। पुनरुत्थान का तथ्य इस गलत विचारधारा और मान्यता को दबा देता है, क्योंकि उस से व्यक्ति को एक उच्च अधिकार को जवाबदेह होने का, किसी को अपने जीवन और व्यवहार का हिसाब देने का, और परिणाम प्राप्त करने का एहसास होता है।
इस खण्ड के पद 33 और 34 “धोखा न खाना, बुरी संगति अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है। धर्म के लिये जाग उठो और पाप न करो; क्योंकि कितने ऐसे हैं जो परमेश्वर को नहीं जानते, मैं तुम्हें लज्जित करते के लिये यह कहता हूं” पुनरुत्थान के एक और निहितार्थ को उजागर करते हैं – पुनरुत्थान मनुष्य में भले और बुरे के विचार को, परमेश्वर को जानने या न जानने की ओर प्रेरित करता है, जो परमेश्वर की दृष्ट में भला है, उसे करने के लिए उभारता है। जो पुनरुत्थान का इनकार करते हैं, वे परमेश्वर का, भले और बुरे के होने का, और अपने जीवन तथा व्यवहार के लिए जवाब देह होने का भी इनकार करते हैं। किन्तु जो पुनरुत्थान में विश्वास रखते हैं, वे इस बात पर भी विश्वास रखेंगे कि चाहे इस सँसार में उन्हें प्रभु के लिए दुःख उठाने पड़ें, परन्तु आने वाले सँसार में उन्हें प्रभु से बड़े प्रतिफल मिलेंगे, जैसा कि पौलुस ने मसीही सेवकाई में अपने कष्ट उठाने के सन्दर्भ में कहा है “क्योंकि हमारा पल भर का हल्का सा क्लेश हमारे लिये बहुत ही महत्वपूर्ण और अनन्त महिमा उत्पन्न करता जाता है” (2 कुरिन्थियों 4:17)।
अगले लेख में हम पुनरुत्थान के एक और निहितार्थ को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 77
Resurrection of the Dead – 12
Resurrection’s Implications for the Believers – 4
Carrying on with our study on the “resurrection of the dead,” the fifth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, from 1 Corinthians chapter 15, in the last article we have seen about why the Lord Jesus had to come down to be born on earth as a man; we then saw about the Adamic nature, naturally present in every human and the godly nature that comes in with salvation; then we considered the meaning “first-fruits” and its application for the Christian Believers; and lastly that the resurrection implies the end of Satan’s power, rule, and authority and God’s rule being established forever. Then we saw that the resurrection implies that in God’s Kingdom, all His children, i.e., all the Christian Believers will stand before the Lord for receiving their rewards, which will be on the basis of the kind of life they have lived and the things they have done or not done, as Christian Believers. Therefore, the fact that the resurrection is certain, should motivate every Believer to live a life in this world, that will fetch him great rewards in the next. Today we will see another passage from1 Corinthians 15 that mentions resurrection, or rising of the dead.
The next passage in this chapter that refers to resurrection, or the rising of the dead is 1 Corinthians 15:29-34. In this section, verse 29 which speaks of people being baptized for the dead. This verse is very difficult for interpretations, and it is said that around thirty different interpretations of this verse have been given, but none is entirely satisfactory or acceptable to all. Whatever be the actual interpretation and meaning of this verse; i.e., why were people being baptized for the dead in Corinth, that is not the subject of our study. What is relevant to our discussion and learning here is the fact that Paul, through the inspiration of the Holy Spirit, uses that practice known to the Corinthians, to affirm the fact of the resurrection being a certainty. In other words, Paul is using a practice with which the Corinthians were familiar, to point out to them that they were doing this, so that the dead person, on whose behalf another is being baptized, should benefit in some manner even after his death. This means that the Corinthians did realize that at some time in the future there will be a resurrection, and with the resurrection there will be an accounting. So, when that accounting happens, the person now already deceased should in some way be in a state of getting better benefits. It is not that Paul is justifying this practice or agreeing with it, or giving it a doctrinal sanction. All that Paul is doing is to bring to the notice of the Corinthians, from something they were familiar with, the fact of resurrection of the dead and an accounting for rewards being inevitable, so they might as well prepare themselves for it now, on earth, while they have time for it.
Then in 1 Corinthians 15:30-32 Paul very briefly reminds the Corinthians of his painful experiences during his ministry, particularly, what happened with him in Ephesus, and then he says “…If the dead do not rise, "Let us eat and drink, for tomorrow we die!"” (1 Corinthians 15:32). In other words, if there is no resurrection, if there is nothing beyond this world, then why suffer any problems, why bother about anything? In that case, let everyone do what seems right to them, what makes them happy, because there is nothing beyond death, everything for them will come to an end with death. It is not at all difficult to imagine the utter lawlessness, chaos, and confusion, the immorality, crimes, and the state of the society and the world that will happen if everyone did that which pleased them, that which was right or correct in their thinking, that which made them happy. The fact of the resurrection suppresses such wrong thinking and belief, since it makes one realize his accountability to a higher authority, and his having to give an account of his life and behavior being inevitable.
Verses 33 and 34 of this passage, “Do not be deceived: "Evil company corrupts good habits." Awake to righteousness, and do not sin; for some do not have the knowledge of God. I speak this to your shame” raise another implication of the resurrection – resurrection appeals to the sense of good and evil; of knowing God and not knowing Him, and motivates to do that which is good in God’s eyes. Those who reject resurrection, reject God, reject there being good and evil, and reject their being accountable and receiving the results of their life and behavior. But those who believe in the resurrection, will also believe that though they suffer in this world for the sake of the Lord, they will be richly rewarded for all their sufferings in the next world, as Paul says in context of his afflictions and sufferings for his ministry “For our light affliction, which is but for a moment, is working for us a far more exceeding and eternal weight of glory” (2 Corinthians 4:17).
In the next article, we will consider another implication of the resurrection.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.