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रविवार, 30 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 116

 

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आरम्भिक बातें – 77

मरे हुओं का जी उठना – 12


विश्वासियों के लिए पुनरुत्थान के निहितार्थ – 4

 

इब्रानियों 6:1-2 में दी गई पाँचवीं आरम्भिक बात, “मरे हुओं का जी उठना” पर हमारे इस अध्ययन को ज़ारी रखते हुए, हम उस से आगे देखेंगे जो हम ने पिछले लेख में देखा है। पिछले लेख में हम ने देखा था कि क्यों प्रभु यीशु को मनुष्य रूप में पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा; हम ने प्रत्येक मनुष्य में स्वाभाविक रीति से विद्यमान आदम के स्वभाव और उस के उद्धार पाने के बाद उस में आ जाने वाले ईश्वरीय स्वभाव के बारे में देखा; फिर हम ने “प्रथम फल” के तात्पर्य और मसीहियों के लिए उस के महत्व को समझा; और फिर अन्त में देखा था कि पुनरुत्थान का निहितार्थ है कि शैतान की सामर्थ्य, शासन, और अधिकार का अन्त तथा परमेश्वर के राज्य का सदा काल के लिए स्थापित हो जाना। फिर हमने देखा कि परमेश्वर के राज्य में उस की सभी सन्तान प्रभु के सामने खड़े हो कर उस से अपने-अपने प्रतिफल प्राप्त करेंगे, जो कि मसीही विश्वासी होने पर उन के द्वारा जीए गए जीवन और किए गए या नहीं किए गए कामों के अनुसार होगा। इसलिए इस तथ्य से कि पुनरुत्थान निश्चित है, प्रत्येक मसीही विश्वासी प्रोत्साहित होना चाहिए कि इस सँसार में ऐसा जीवन जीए जिस से उसे आने वाले जीवन में उत्तम प्रतिफल मिलें। आज हम 1 कुरिन्थियों 15 से एक और खण्ड को देखेंगे, जो जिलाए जाने का उल्लेख करता है।

इस अध्याय का अगला खण्ड जिस में मरे हुओं के जिलाए जाने का उल्लेख आया है वह है 1 कुरिन्थियों 15:29-34। इस खण्ड में, पद 29, जिस में लोगों द्वारा मरे हुओं के लिए बपतिस्मा लेने का उल्लेख है, उस की व्याख्या बहुत कठिन है, और कहा जाता है कि इस पद की तीस से भी अधिक व्याख्या हैं, किन्तु उन में से कोई भी पूर्णतः सन्तुष्ट करने वाली और सभी को स्वीकार्य नहीं है। इस पद का वास्तविक अर्थ और व्याख्या, कि लोग मरे हुओं के लिए बपतिस्मा क्यों लेते थे, जो भी हो, वह हमारे वर्तमान चर्चा का विषय नहीं है। हमारी वर्तमान चर्चा कि लिए जो महत्वपूर्ण है, वह यह तथ्य है कि पौलुस ने पवित्र आत्मा की प्रेरणा में हो कर, कुरिन्थुस की मण्डली के लिए परिचित इस बात को पुनरुत्थान के निश्चित होने की पुष्टि करने के लिए उपयोग किया है। दूसरे शब्दों में, क्योंकि कुरिन्थुस की मण्डली इस बात से परिचित थी, इसी लिए पौलुस इस का उपयोग उन से यह कहने के लिए करता है कि वे लोग इस प्रथा के निर्वाह के द्वारा यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि मरे हुए किसी जन के लिए यदि कोई बपतिस्मा लेता है, तो इस से उस मृतक को कुछ लाभ मिल जाता है। ऐसा नहीं है कि पौलुस इस प्रथा को सही ठहरा रहा था, या उस से सहमत था, या उसे सिद्धान्त के रूप में कोई स्वीकृति प्रदान कर रहा था। पौलुस बस इतना कर रहा था कि जिस बात से कुरिन्थुस के लोग परिचित थे, उस में होकर उन से कह रहा था कि वे भी तो मृतकों के जी उठने और प्रतिफल प्राप्त करने की मान्यता रखते हैं; तो फिर अभी इस समय, इस पृथ्वी पर रहते हुए अपने आप को पुनरुत्थान के लिए तैयार क्यों न कर लें?

इस से आगे, 1 कुरिन्थियों 15:30-32 में, पौलुस बहुत संक्षेप में कुरिन्थुस के लोगों को याद करवाता है कि उसे अपनी सेवकाई के दौरान कितने कष्ट सहने पड़े हैं, विशेषकर, उस के साथ जो कुछ इफिसुस में हुआ था, और फिर वह कहता है “…यदि मुर्दे जिलाए नहीं जाएंगे, तो आओ, खाए-पीए, क्योंकि कल तो मर ही जाएंगे” (1 कुरिन्थियों 15:32)। दूसरे शब्दों में, यदि पुनरुत्थान नहीं है, यदि इस सँसार के बाद कुछ नहीं है, तो फिर कोई भी कष्ट क्यों उठाना, किसी भी बात की परवाह क्यों करना? फिर तो सभी को, जो भी उन्हें अच्छा लगता है, सही लगता है, पसन्द आता है, जिस से उन्हें आनन्द मिलता है, वही करना चाहिए, क्योंकि मृत्यु के बाद कुछ नहीं है, और मृत्यु के साथ उन के लिए सब समाप्त हो जाएगा। यदि यह सही है तो फिर यह कल्पना करना बिल्कुल भी कठिन नहीं है कि इस विचारधारा का पालन करने से समाज और सँसार का क्या हाल होगा, सभी स्थानों पर कैसी अराजकता, अव्यवस्था, और गड़बड़ी फैल जाएगी, यदि हर कोई वही करने लगे जो उन्हें अच्छा लगता है, सही लगता है, पसन्द आता है, जिस से उन्हें आनन्द मिलता है। पुनरुत्थान का तथ्य इस गलत विचारधारा और मान्यता को दबा देता है, क्योंकि उस से व्यक्ति को एक उच्च अधिकार को जवाबदेह होने का, किसी को अपने जीवन और व्यवहार का हिसाब देने का, और परिणाम प्राप्त करने का एहसास होता है।

इस खण्ड के पद 33 और 34 “धोखा न खाना, बुरी संगति अच्छे चरित्र को बिगाड़ देती है। धर्म के लिये जाग उठो और पाप न करो; क्योंकि कितने ऐसे हैं जो परमेश्वर को नहीं जानते, मैं तुम्हें लज्जित करते के लिये यह कहता हूं” पुनरुत्थान के एक और निहितार्थ को उजागर करते हैं – पुनरुत्थान मनुष्य में भले और बुरे के विचार को, परमेश्वर को जानने या न जानने की ओर प्रेरित करता है, जो परमेश्वर की दृष्ट में भला है, उसे करने के लिए उभारता है। जो पुनरुत्थान का इनकार करते हैं, वे परमेश्वर का, भले और बुरे के होने का, और अपने जीवन तथा व्यवहार के लिए जवाब देह होने का भी इनकार करते हैं। किन्तु जो पुनरुत्थान में विश्वास रखते हैं, वे इस बात पर भी विश्वास रखेंगे कि चाहे इस सँसार में उन्हें प्रभु के लिए दुःख उठाने पड़ें, परन्तु आने वाले सँसार में उन्हें प्रभु से बड़े प्रतिफल मिलेंगे, जैसा कि पौलुस ने मसीही सेवकाई में अपने कष्ट उठाने के सन्दर्भ में कहा है “क्योंकि हमारा पल भर का हल्का सा क्लेश हमारे लिये बहुत ही महत्वपूर्ण और अनन्त महिमा उत्पन्न करता जाता है” (2 कुरिन्थियों 4:17)।

अगले लेख में हम पुनरुत्थान के एक और निहितार्थ को देखेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 77

Resurrection of the Dead – 12


Resurrection’s Implications for the Believers – 4

 

Carrying on with our study on the “resurrection of the dead,” the fifth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, from 1 Corinthians chapter 15, in the last article we have seen about why the Lord Jesus had to come down to be born on earth as a man; we then saw about the Adamic nature, naturally present in every human and the godly nature that comes in with salvation; then we considered the meaning “first-fruits” and its application for the Christian Believers; and lastly that the resurrection implies the end of Satan’s power, rule, and authority and God’s rule being established forever. Then we saw that the resurrection implies that in God’s Kingdom, all His children, i.e., all the Christian Believers will stand before the Lord for receiving their rewards, which will be on the basis of the kind of life they have lived and the things they have done or not done, as Christian Believers. Therefore, the fact that the resurrection is certain, should motivate every Believer to live a life in this world, that will fetch him great rewards in the next. Today we will see another passage from1 Corinthians 15 that mentions resurrection, or rising of the dead.

The next passage in this chapter that refers to resurrection, or the rising of the dead is 1 Corinthians 15:29-34. In this section, verse 29 which speaks of people being baptized for the dead. This verse is very difficult for interpretations, and it is said that around thirty different interpretations of this verse have been given, but none is entirely satisfactory or acceptable to all. Whatever be the actual interpretation and meaning of this verse; i.e., why were people being baptized for the dead in Corinth, that is not the subject of our study. What is relevant to our discussion and learning here is the fact that Paul, through the inspiration of the Holy Spirit, uses that practice known to the Corinthians, to affirm the fact of the resurrection being a certainty. In other words, Paul is using a practice with which the Corinthians were familiar, to point out to them that they were doing this, so that the dead person, on whose behalf another is being baptized, should benefit in some manner even after his death. This means that the Corinthians did realize that at some time in the future there will be a resurrection, and with the resurrection there will be an accounting. So, when that accounting happens, the person now already deceased should in some way be in a state of getting better benefits. It is not that Paul is justifying this practice or agreeing with it, or giving it a doctrinal sanction. All that Paul is doing is to bring to the notice of the Corinthians, from something they were familiar with, the fact of resurrection of the dead and an accounting for rewards being inevitable, so they might as well prepare themselves for it now, on earth, while they have time for it.

Then in 1 Corinthians 15:30-32 Paul very briefly reminds the Corinthians of his painful experiences during his ministry, particularly, what happened with him in Ephesus, and then he says “…If the dead do not rise, "Let us eat and drink, for tomorrow we die!"” (1 Corinthians 15:32). In other words, if there is no resurrection, if there is nothing beyond this world, then why suffer any problems, why bother about anything? In that case, let everyone do what seems right to them, what makes them happy, because there is nothing beyond death, everything for them will come to an end with death. It is not at all difficult to imagine the utter lawlessness, chaos, and confusion, the immorality, crimes, and the state of the society and the world that will happen if everyone did that which pleased them, that which was right or correct in their thinking, that which made them happy. The fact of the resurrection suppresses such wrong thinking and belief, since it makes one realize his accountability to a higher authority, and his having to give an account of his life and behavior being inevitable.

Verses 33 and 34 of this passage, “Do not be deceived: "Evil company corrupts good habits." Awake to righteousness, and do not sin; for some do not have the knowledge of God. I speak this to your shame” raise another implication of the resurrection – resurrection appeals to the sense of good and evil; of knowing God and not knowing Him, and motivates to do that which is good in God’s eyes. Those who reject resurrection, reject God, reject there being good and evil, and reject their being accountable and receiving the results of their life and behavior. But those who believe in the resurrection, will also believe that though they suffer in this world for the sake of the Lord, they will be richly rewarded for all their sufferings in the next world, as Paul says in context of his afflictions and sufferings for his ministry “For our light affliction, which is but for a moment, is working for us a far more exceeding and eternal weight of glory” (2 Corinthians 4:17).

In the next article, we will consider another implication of the resurrection.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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शनिवार, 29 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 115

 

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आरम्भिक बातें – 76

मरे हुओं का जी उठना – 11


विश्वासियों के लिए पुनरुत्थान के निहितार्थ – 3

 

इब्रानियों 6:1-2 में दी गई पाँचवीं आरंभिक बात, “मरे हुओं का जी उठना” के हमारे इस अध्ययन में, हम ने पिछले लेख में 1 कुरिन्थियों 15:12-20 से देखा था कि प्रभु यीशु का मृतकों में से जिलाया जाना, प्रभु के विश्वासियों के भी जिलाए जाने की गारंटी है। साथ ही हम ने यह भी देखा था कि पुनरुत्थान की तथा सुसमाचार की सामर्थ्य शारीरिक और नश्वर लाभ, समृद्धि, और साँसारिक बातें प्राप्त करने के लिए नहीं हैं। बल्कि जो प्रभु यीशु के बारे में प्रचार करते और सिखाते हैं, और उस के नाम से आश्चर्यकर्म तथा चंगाइयाँ करते हैं, पुनरुत्थान उन के लिए अनिवार्य कर देता है कि वे मनुष्य के स्वभाव से ही पापी होने, उन के लिए पापों की क्षमा और उद्धार पाने की अनिवार्यता, और इस उद्धार के सभी के लिए सेंत-मेंत ही प्रभु यीशु में उपलब्ध होने, उन के पापों से पश्चाताप करने, अपना जीवन उसे समर्पित करने, और प्रभु तथा उस के वचन की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने के निर्णय के द्वारा उपलब्ध है। यीशु के नाम में किया गया कोई भी प्रचार, शिक्षा, आश्चर्यकर्म, या चंगाई, जिस में साथ ही उन लोगों को बल देकर स्पष्ट रीति से सुसमाचार नहीं दिया जाए, वह शैतानी है, शैतान के लिए काम करना है, यीशु का अनाम लेकर लोगों को नरक भेजना है, उन्हें केवल शारीरिक और नश्वर के लिए विश्वास करने को कहने और उन के साथ अनन्त के बारे में विश्वास करने की बात न करने के कारण। आज हम यहीं से आगे चलेंगे, और 1 कुरिन्थियों 15:21-24 को देखेंगे।

1 कुरिन्थियों 15:21 में लिखा है “क्योंकि जब मनुष्य के द्वारा मृत्यु आई; तो मनुष्य ही के द्वारा मरे हुओं का पुनरुत्थान भी आया।” यह पद बताता है कि क्यों प्रभु यीशु को अपनी स्वर्गीय महिमा और वैभव छोड़कर, मनुष्य रूप ले कर पृथ्वी पर आना पड़ा। इस सँसार का सबसे पहला पाप अदन की वाटिका में किया गया था, शैतान द्वारा आदम और हव्वा को बहका कर परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने के द्वारा, और पाप के साथ मृत्यु भी आई। क्योंकि पाप और मृत्यु को प्रवेश मनुष्य के द्वारा मिला (रोमियों 5:12), इसी लिए उस का निवारण भी मनुष्य ही के द्वारा होना था (रोमियों 5:15)।

फिर, पौलुस, 1 कुरिन्थियों 15:22 में कहता है “और जैसे आदम में सब मरते हैं, वैसा ही मसीह में सब जिलाए जाएंगे।” इस पद में शब्द “में” पर विशेष ध्यान दीजिए – “आदम में” और “मसीह में।” यहाँ पर, पवित्र आत्मा, पौलुस  में होकर मानवजाति के दो स्वभावों – आदम का, और परमेश्वर का, के बारे में बात कर रहा है। आदम का स्वभाव उसका स्वाभाविक, पापमय स्वभाव है, मनुष्य के परमेश्वर के विरुद्ध बलवाई और अनाज्ञाकारी होने की प्रवृत्ति रखने वाला, जिस के अन्तर्गत मनुष्य परमेश्वर को कभी प्रसन्न नहीं कर सकता है, जैसा रोमियों 8:7-8 में लिखा है, “क्योंकि शरीर पर मन लगाना तो परमेश्वर से बैर रखना है, क्योंकि न तो परमेश्वर की व्यवस्था के आधीन है, और न हो सकता है। और जो शारीरिक दशा में है, वे परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते।” इस लिए, आदम के स्वभाव में होते हुए, यह स्वाभाविक, अपरिवर्तित मनुष्य कुछ भी करे, और वह उसकी अपनी या अन्य मनुष्यों की दृष्टि में कितना भी अच्छा क्यों न हो, वह कभी भी परमेश्वर को स्वीकार्य और प्रसन्न करने वाला नहीं हो सकता है क्योंकि परमेश्वर को प्रसन्न करने का आधार, इस बात की सबसे पहली शर्त, परमेश्वर की आज्ञाकारिता और केवल उसी के कहे के अनुसार करना (1 शमूएल 15:22-23; यिर्मयाह 7:22-23), ही पूरी नहीं की गई है; यदि प्राथमिक शर्त ही पूरी नहीं हुई, तो फिर अन्य जो कुछ भी है, वह कैसे उचित और स्वीकार्य होगा? दूसरी ओर, वे जो “मसीह में” हैं, अर्थात वे जिन्होंने प्रभु यीशु में विश्वास किया है, उसे अपना उद्धारकर्ता ग्रहण किया है, अपना जीवन उसे समर्पित किया है, और उस की तथा उस के वचन की आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, वे परमेश्वर की सन्तान बन गए हैं (यूहन्ना 1:12-13), उन्होंने मसीह यीशु को पहन लिया है (रोमियों 13:14; गलतियों 3:27), पवित्र आत्मा उन में निवास करता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19), और “मसीह में” होने के कारण वे अब दण्ड की आज्ञा में नहीं हैं (रोमियों 8:1-2)। इस पद, 1 कुरिन्थियों 15:22 के बारे में एक और बात पर ध्यान कीजिए – मनुष्यों में आदम का स्वभाव होने के कारण उन की मृत्यु वर्तमान और ज़ारी है – “आदम में सब मरते हैं,” परन्तु इस पद में “मसीह में” होने के कारण जिलाए जाने वाला भाग भविष्य काल का है। वर्तमान में इस सँसार में, जैसा कि ऊपर कहा गया है, जो मसीह में हैं, वे परमेश्वर की सँतान हैं, उन्होंने प्रभु यीशु को पहन लिया है, पवित्र आत्मा का मंदिर हैं, और अब पाप के दण्ड की आज्ञा में नहीं हैं; किन्तु उन का जिलाया जाना एक भावी घटना है, जिस के बारे में अगले पद में लिखा है।

1 कुरिन्थियों 15:23 में लिखा है “परन्तु हर एक अपनी अपनी बारी से; पहिला फल मसीह; फिर मसीह के आने पर उसके लोग।” पिछले पद में “मसीह में” होने के संबंध में जिस बात का संकेत दिया गया था, उसे अब यहाँ स्पष्ट कहा गया है। पुनरुत्थान अवश्य होगा किन्तु परमेश्वर द्वारा निर्धारित एक क्रम में होगा। मसीह यीशु के पुनरुत्थान ने, “पहले फल” के रूप में यह आश्वासन दिया है कि इस प्रकार का और फल भी लगेगा; आते समय में विश्वासियों का पुनरुत्थान भी होगा। और यह मसीह के आगमन पर होगा, जब वह अपने लोगों को एकत्रित कर के इस सँसार से निकाल कर ले जाएगा। एक बार जब यह गेहूं और जंगली बीज का पृथक करना कर लिया जाएगा और गेहूं प्रभु के खत्ते में पहुँच जाएगा (मत्ती 13:30), तब, जैसा 1 कुरिन्थियों 15:24 में लिखा है, अन्त आ जाएगा “इस के बाद अन्त होगा; उस समय वह सारी प्रधानता और सारा अधिकार और सामर्थ्य का अन्त कर के राज्य को परमेश्वर पिता के हाथ में सौंप देगा।” वर्तमान में, जैसा कि 1 यूहन्ना 5:19 में लिखा है, सारा सँसार उस दुष्ट के, शैतान के वश में पड़ा है। किन्तु अन्त के समय, जो “मसीह में” हैं, उन के जिलाए जाने के बाद, प्रभु “सारा अधिकार और सामर्थ्य का अन्त कर के,” अर्थात शैतान के सारे अधिकार और सामर्थ्य का अन्त कर के, परमेश्वर के राज्य को सदा काल के लिए स्थापित कर देगा।

विश्वासियों के भावी पुनरुत्थान के लिए इन पदों के क्या निहितार्थ हैं, क्या शिक्षा है? हम इस बात को पतरस से सीख सकते हैं, “तो जब कि ये सब वस्तुएं, इस रीति से पिघलने वाली हैं, तो तुम्हें पवित्र चाल चलन और भक्ति में कैसे मनुष्य होना चाहिए। और परमेश्वर के उस दिन की बाट किस रीति से जोहना चाहिए और उसके जल्द आने के लिये कैसा यत्न करना चाहिए; जिस के कारण आकाश आग से पिघल जाएंगे, और आकाश के गण बहुत ही तप्त हो कर गल जाएंगे।” (2 पतरस 3:11-12)। पुनरुत्थान विश्वासियों को इस जीवन में रहते हुए, आने वाले जीवन के लिए तैयारी करने के लिए उभारता है। मसीही विश्वासी को इस जीवन में मसीह के एक गवाह और परमेश्वर की सन्तान होने का उदाहरण बन कर जीना चाहिए, और ऐसा कर के इस जीवन और व्यवहार के आधार पर प्रभु से प्रतिफल पाने के लिए तैयारी करनी चाहिए (2 कुरिन्थियों 5:10)। अगले लेख में हम यहाँ से आगे बढ़ेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 76

Resurrection of the Dead – 11


Resurrection’s Implications for the Believers – 3

 

   In our study on the fifth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, i.e., “resurrection of the dead,” in the last article we have seen from 1 Corinthians 15:12-20, that the resurrection of the Lord Jesus guarantees the resurrection of the Lord’s Believers. We also saw that the power of resurrection and of the gospel is not for just gaining physical and temporal benefits, prosperity, and worldly things. Rather, the resurrection makes it necessary for those who preach and teach about Jesus, and call upon His name to do miracles and healings, that they should also preach and teach about man’s sinful nature, the necessity of forgiveness of sins and salvation, and that this is salvation freely available to everyone in the Lord Jesus, by repenting of their sins, asking the Lord to forgive their sins, and submitting their lives to Him, to live in obedience to Him and His Word. Any preaching, teaching, healing, and miracles done in Jesus’s name, but without simultaneously, emphatically, and clearly giving the gospel to those people, is satanic, is working for Satan, and is using the name of Jesus to send people to hell by having them place their faith in the physical and temporal, while not sharing with them about the eternal. Today we will carry on from where we left, and will look at 1 Corinthians 15:21-24.

    It says in 1 Corinthians 15:21 “For since by man came death, by Man also came the resurrection of the dead.” This verse sets out for us, why the Lord Jesus had to empty Himself of His heavenly glory and majesty, and come down to earth as a man. The first sin in the world was committed in the Garden of Eden, by Satan enticing Adam and Eve to disobey God, and with sin came death. Since man was the agency of giving entry to sin and death (Romans 5:12), its reversal also had to come, and to come through man (Romans 5:15).

Then, Paul says in 1 Corinthians 15:22 “For as in Adam all die, even so in Christ all shall be made alive.” In this verse take particular note of the word “in” – “in Adam” and “in Christ.” Here, the Holy Spirit through Paul is talking about the two natures in mankind – Adamic and Godly. The Adamic nature is the natural sinful nature of man, in a state of rebellion against God, with a natural tendency of disobeying God, because of which man can never please God, as it says in Romans 8:7-8 “Because the carnal mind is enmity against God; for it is not subject to the law of God, nor indeed can be. So then, those who are in the flesh cannot please God.” So, no matter what this natural, unregenerate man having an Adamic nature does, howsoever good it may be in their own and other’s eyes, he/she can never please God, because the very basis, the first and primary condition of pleasing God, i.e. obedience to God and only doing His will (1 Samuel 15:22-23; Jeremiah 7:22-23) has not been met. If the very basis, the primary condition is not met, then how can anything else be justified and acceptable? On the other hand, those who are “in Christ,” i.e., those who have believed in the Lord Jesus, have accepted Him as their savior, have submitted themselves to the Lord Jesus, and have decided to live in obedience to the Lord and His Word, they have become the children of God (John 1:12-13), have “put on the Lord Jesus” (Romans 13:14; Galatians 3:27), the Holy Spirit resides in them (1 Corinthians 3:16; 6:19), and by virtue of being “in Christ” they are no longer under the condemnation because of sin (Romans 8:1-2). Notice another thing about this verse, i.e. 1 Corinthians 15:22 – because of the Adamic nature being present and continuous in mankind, therefore, death is present and keeps happening in them – “in Adam all die;” but in this verse the resurrection part of being “in Christ” is a future event. Presently, in this world, as stated above, those who are in Christ are the children of God, have put on the Lord Jesus, are the Temple of the Holy Spirit, and are no longer under the condemnation of sin; but the resurrection aspect is a future blessing, which is mentioned in the next verse.

It is written in 1 Corinthians 15:23, “But each one in his own order: Christ the first-fruits, afterward those who are Christ's at His coming.” What was alluded to about being “in Christ” in the preceding verse, is expressed here in this verse. The resurrection will surely happen, but it will happen in a certain God ordained order. The resurrection of Christ Jesus, as the “first-fruit” has assured us that similar fruits will come later, has assured the resurrection of the Believers, which will happen at Christ’s coming, when He will come to gather His people and take them out of this world. Once this separation of the wheat and tares has taken place and the wheat has been gathered into the Lord’s barn (Matthew 13:30), then, as it says in 1 Corinthians 15:24, the end will come “Then comes the end, when He delivers the kingdom to God the Father, when He puts an end to all rule and all authority and power.” Presently, as it says in 1 John 5:19, the whole world lies under the sway or control of Satan. But at the end, after the resurrection of those who are in Christ, the Lord will “puts an end to all rule and all authority and power” i.e., Satan’s rule, authority, and power will be broken and brought to an end, and God’s Kingdom will be established forever and ever.

What are the lessons and implications of these verses about the coming resurrection of the Believers. We can learn this from Peter, “Therefore, since all these things will be dissolved, what manner of persons ought you to be in holy conduct and godliness, looking for and hastening the coming of the day of God, because of which the heavens will be dissolved, being on fire, and the elements will melt with fervent heat?” (2 Peter 3:11-12). The resurrection exhorts the Believers to prepare themselves for the next life, while living this life. In this life the Christian Believers should live as a living witness and example of being a child of God, and thereby prepare to receive the rewards for our life and behavior from the Lord (2 Corinthians 5:10). We will carry on from here in the next article.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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शुक्रवार, 28 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 114

 

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आरम्भिक बातें – 75

मरे हुओं का जी उठना – 10


विश्वासियों के लिए पुनरुत्थान के निहितार्थ – 2

 

इब्रानियों 6:1-2 में दी गई पाँचवीं आरम्भिक बात, “मरे हुओं का जी उठना” पर ज़ारी हमारे अध्ययन में, पिछले लेख से हम ने 1 कुरिन्थियों 15, जो बाइबल का “पुनरुत्थान का अध्याय” है, में पुनरुत्थान के बारे में दी गई शिक्षाओं पर विचार करना आरम्भ किया है। हम ने देखा है कि प्रभु के पुनरुत्थान पर विश्वास करने, या, न करने के तात्पर्य क्या हैं। पौलुस पवित्र आत्मा में हो कर पद 19 में, मसीही विश्वासी के लिए उस का निष्कर्ष रखता है, “यदि हम केवल इसी जीवन में मसीह से आशा रखते हैं तो हम सब मनुष्यों से अधिक अभागे हैं” जो ऐसा अभिप्राय है जिस के निहितार्थ मसीही विश्वासियों के व्यवहारिक जीवन को प्रभावित करते हैं, अर्थात, प्रभु यीशु का पुनरुत्थान, केवल पार्थिव, शारीरिक, और नश्वर लाभ की आशा देने के लिए नहीं है। हम आज इसे थोड़ा विस्तार से देखेंगे।

पौलुस, पवित्र आत्मा में हो कर इस पद में कहता है कि प्रभु यीशु के पुनरुत्थान, और उस के परिणामस्वरूप मसीही विश्वासियों के निश्चित पुनरुत्थान के कारण, मसीही विश्वासियों का ध्यान सांसारिक से स्वर्गीय की और हो जाना चाहिए; केवल इस जीवन की बातों पर लगे रहने से हट कर उन के अनन्त जीवन पर लग जाना चाहिए। पौलुस ने यही बात कुलुस्से की मंडली को लिखी अपनी पत्री में भी दोहराई, “सो जब तुम मसीह के साथ जिलाए गए, तो स्वर्गीय वस्तुओं की खोज में रहो, जहां मसीह वर्तमान है और परमेश्वर के दाहिनी ओर बैठा है। पृथ्वी पर की नहीं परन्तु स्वर्गीय वस्तुओं पर ध्यान लगाओ” (कुलुस्सियों 3:1-2)। पुनरुत्थान की, सुसमाचार की, सामर्थ्य केवल इसी जीवन के लिए और उस सामर्थ्य के द्वारा शारीरिक तथा नाशमान बातों को प्राप्त करने के लिए नहीं है। वे, जिनकी पुनरुत्थान और सुसमाचार से आशा केवल इस सँसार की बातों और लाभ तक ही सीमित है, पवित्र आत्मा ने उन्हें पौलुस में होकर सबसे अधिक अभागे कहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि वे नाशमान साँसारिक बातों के पीछे भाग रहे हैं, जो देर-सवेर, जब वे इस पृथ्वी से कूच करेंगे, सब यहीं पीछे छूट जाएंगी। और जब वे अनन्तकाल में प्रवेश करेंगे, तो वे खाली हाथ होंगे, संभवतः उद्धार पाए हुए भी नहीं होंगे, और तब फिर वे अनन्त विनाश में चले जाएँगे।

यही वह भ्रम जिस का उन लोगों को कोई एहसास नहीं है, वह विनाशकारी परिणाम है जिस पर उन लोगों ने कभी विचार नहीं किया है; उन्होंने जो प्रभु के पुनरुत्थान और उस में विश्वास करने के प्रचार और शिक्षा को केवल लोगों को यीशु के नाम में पार्थिव, शारीरिक, और नश्वर बातों को प्राप्त करवाने, जैसे कि शारीरिक चंगाइयाँ, साँसारिक समृद्धि, भौतिक लाभ, नौकरी लगना, विवाह होना, या किसी अन्य साँसारिक अथवा शारीरिक समस्या से छूट जाना आदि के लिए उपयोग करते हैं। किन्तु वे कभी सुसमाचार को, अर्थात, लोगों के पापी होने, प्रभु यीशु में विश्वास के द्वारा सेंत-मेंत पापों से छुटकारा मिलने, प्रत्येक व्यक्ति के अवश्यंभावी न्याय के होने, स्वर्ग या नरक में जाने आदि के बारे में कोई प्रचार नहीं करते हैं, कोई शिक्षा नहीं देते हैं, इस पर कोई ज़ोर नहीं देते हैं। जो लोग यीशु के नाम में साँसारिक और शारीरिक लाभ प्राप्त करने की तो बात करते हैं, किन्तु उद्धार के सुसमाचार को नहीं बताते हैं, जिन के विश्वास, प्रचार, शिक्षा, और व्यवहार का आधार ये शारीरिक, साँसारिक, भौतिक, और नश्वर बातें प्राप्त कर लेना है, वे वास्तव में शैतान के लिए काम कर रहे हैं और यीशु के नाम में लोगों को अनन्त विनाश में भेज रहे हैं। क्योंकि जो उन के प्रचार और शिक्षाओं के द्वारा प्रभु में ‘विश्वास’ केवल इस लिए कर लेते हैं कि इस से उन्हें ये शारीरिक और नश्वर वस्तुएँ मिल जाएंगी, वे “सब मनुष्यों से अधिक अभागे” बन जाते हैं। क्योंकि एक बार जब उन का, जिन्होंने प्रभु यीशु के पुनरुत्थान और प्रभु के नाम को लेने से केवल शारीरिक और नश्वर लाभ ही प्राप्त किया है, जीवन समाप्त हो जाता है, जैसा कि वह निश्चय ही कभी न कभी तो होगा, वे फिर अनन्त विनाश में चले जाएँगे। ऐसा इस लिए होगा क्योंकि उद्धार का सुसमाचार उन्हें कभी सुनाया और सिखाया ही नहीं गया; उन्हें कभी पापों से पश्चाताप करने और प्रभु को अपना जीवन समर्पित कर देने के बारे में प्रचार ही नहीं किया गया। उन्हें तो केवल यही प्रचार किया और सिखाया गया कि उन्हें अपनी शारीरिक समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए प्रभु पर ‘विश्वास’ या ‘भरोसा रखना’ है, और उन्होंने यही विश्वास किया, यही भरोसा रखा, इसी का पालन किया। प्रभु के पुनरुत्थान की सामर्थ्य का स्वाद चख लेने के बाद, उन के फिर भी विनाश में चले जाने के लिए कौन जवाबदेह होगा? प्रचारकों ने उन्हें शारीरिक चँगाई दे दी, और यह करने के लिए उन प्रचारकों का बहुत नाम, प्रशंसा, और प्रसिद्धि भी हो गई; परन्तु उन्होंने उन लोगों की आत्मिक चँगाई के लिए कुछ नहीं किया और उन्हें नरक में भेज दिया! केवल एक ही है जो यह कतई नहीं चाहता है कि लोगों को उन के पापों के बारे में, और प्रभु यीशु में हो कर पापों की क्षमा और उद्धार के बारे में पता चले; और वह शैतान है। इस लिए यीशु के नाम में किया गया कोई भी प्रचार और व्यवहार, जो लोगों को उनके केवल शारीरिक लाभ के बारे में बताता है, किन्तु और भी अधिक आवश्यक, आत्मिक समस्याओं से छूटने के बारे में नहीं बताता है, वह शैतान की ओर से है, वह चाहे यीशु के नाम में किया जाए, किन्तु प्रभु से हो ही नहीं सकता है (मत्ती 7:21-23)।

शारीरिक चँगाई तथा भौतिक समस्याओं से छुटकारा पाने का अर्थ स्वतः ही आत्मिक चँगाई और पापों से मुक्ति पा लेना नहीं है। हम सुसमाचारों में देखते हैं कि प्रभु द्वारा दी गई चंगाइयों के साथ वह हमेशा फिर पाप न करने के लिए भी कहता था; अर्थात प्रभु हमेशा ही लोगों से उन के पापों के बारे में बात करता था, और लोगों को उन से बच कर रहने के लिए कहता था। लेकिन आज जो लोग प्रभु के नाम में चँगाई देने की बात करते हैं, उन के प्रचार में इस का कोई उल्लेख नहीं होता है। बैतहसदा के कुण्ड के पास एक 38 वर्ष से बीमार व्यक्ति अकेला और असहाय पड़ा था, प्रभु ने उसे चँगा किया (यूहन्ना 5:1-9), प्रभु उस के पास फिर से लौट कर आया, और पाप से बच कर रहने के लिए चेतावनी दी (यूहन्ना 5:14), लेकिन फिर भी उस व्यक्ति ने जा कर यहूदियों को बता दिया और प्रभु के लिए कठिनाई उत्पन्न कर दी (यूहन्ना 5:15-16)। प्रभु यीशु ने पृथ्वी पर अपनी सेवकाई के दिनों में बहुतेरे लोगों को चँगा किया, लेकिन जब उसे पकड़ कर पिलातुस के सामने क्रूस पर मृत्यु दण्ड के लिए लाया गया, तो उन में से एक भी प्रभु के पक्ष में बोलने नहीं आया; बल्कि जितने वहाँ जमा थे वे सभी चिल्ला रहे थे कि उसे क्रूस दिया जाए (मरकुस 15:11-15), कोई नहीं चाहता था कि उसे छोड़ दिया जाए। उन के मध्य किए गए प्रभु के आश्चर्यकर्म और चंगाइयों ने उन्हें प्रभु के अनुयायी या शिष्य नहीं बनाया था। यही बात आज भी उतनी ही सत्य है; यीशु के नाम में लोगों के लिए जो कुछ भी किया जाता है वह उन्हें यीशु का अनुयायी या शिष्य नहीं बना देता है; वे तो प्रभु के पास केवल शारीरिक या भौतिक लाभ के लिए आते हैं, और उन में से अधिकाँश फिर से सँसार में लौट जाते हैं।

यदि केवल इस जीवन में ही हमें मसीह से आशा है, तो वास्तव में, हम सब मनुष्यों से अधिक अभागे हैं; और उस से भी बुरी दशा में वे हैं जिन्होंने लोगों में यह आशा तो जगाई किन्तु उन के उद्धार के लिए कुछ नहीं किया; उनके लिए प्रभु को इस बात का हिसाब देना कितना कठिन होगा। अगले लेख में हम पुनरुत्थान के अभिप्रायों पर विचार ज़ारी रखेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 75

Resurrection of the Dead – 10


Resurrection’s Implications for the Believers – 2


In our continuing study of the fifth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, “the resurrection of the dead,” since the last article we have started considering the teachings related to resurrection given in 1 Corinthians 15, the resurrection chapter of the Bible. We had seen that having shown the respective implications of believing, and, not believing in the Lord’s resurrection. Paul through the Holy Spirit gives its implication for the Christian Believers in verse 19, which says, “If in this life only we have hope in Christ, we are of all men the most pitiable” an implication that has a bearing on practical Christian living of the Believers; i.e., the resurrection of the Lord Jesus, is not something meant to give hope and assurance only for earthly, or physical, or temporal benefits. We will consider this in some detail in today.

 Paul, through the Holy Spirit says in this verse that the resurrection of the Lord Jesus, and consequent to that, the assured resurrection of the Christian Believers is something that should shift focus from the worldly to the eternal; from only this life, to the eternal life of the Believers. Paul reiterates it in his letter to the Colossians, “If then you were raised with Christ, seek those things which are above, where Christ is, sitting at the right hand of God. Set your mind on things above, not on things on the earth” (Colossians 3:1-2). The power of the resurrection, of the gospel, is not meant for only this life and getting physical or temporal benefits through it. Those whose hope from the resurrection and gospel is limited only to things and benefits in this world, the Holy Spirit, through Paul calls them as those who are the most miserable (KJV) or most pitiable (NKJV, NASB, NIV). This is because they are running after the perishable worldly things, which sooner or later be all left behind when they depart from earth; but when they enter eternity, they will be empty handed, possibly not even be saved, and therefore will go into eternal destruction.

This is the unrealized travesty, the disastrous result of those who preach, teach, and use the Lord’s resurrection and faith in Him, only for people receiving earthly, physical, and temporal things in the name of Jesus, e.g., physical healings, worldly prosperity, material benefits, getting employment, or getting married, or being delivered from any other physical or worldly problem or situation, etc. But do not preach the gospel, i.e., about man’s sins, the freely available forgiveness of sins though faith in the Lord, the inevitable eternal judgement of mankind, going to heaven or hell, are never told, or taught or emphasized. Those preaching about physical benefits in the name of Jesus, but not sharing the gospel of salvation, those whose faith, preaching, teaching, and conduct is based upon receiving the physical, worldly, material, and temporal, are actually engaged in working for Satan and sending people into eternal destruction in the name of Jesus. Because those who, through their preaching and teaching, come to ‘believe’ in the Lord only for getting these physical and temporal things done, become “the most pitiable of all men.” Because once the life of those who have only physically and temporally benefitted from the Lord’s resurrection and calling upon His name, is over, as it most certainly will be at some time, they will still go into eternal destruction. This will be because the gospel of salvation was never preached and taught to them; they were never told about repenting from sins and submitting their lives to the Lord Jesus. All they were preached and taught was ‘believe’ or ‘have faith’ in the Lord to deliver them from their physical problem, and that is all that they ‘believed’ and ‘had faith’ about. They were never told and taught about the necessity of repentance from sins, about accepting the Lord Jesus as their savior and submitting to Him, about living a life obedient to the Lord and His Word. All they were told and taught was being delivered from their physical problems, and they followed that. Who will answer for their eternal destruction despite having tasted the power of the Lord’s resurrection? The preachers healed them physically, received a lot of name, fame, and appreciation for it, but never did anything for their spiritual healing, and sent them to hell! The only one who does not want people to learn of their sins and about salvation through forgiveness of sins by the Lord Jesus, is Satan. Therefore, any preaching and practice in the name of Jesus that does not tell the people about their need to be delivered not just from physical problems, but more importantly from their spiritual problems, is satanic; it cannot be from the Lord, though it may be in the name of the Lord (Matthew 7:21-23).

Physical healing and relief from physical problems does not automatically mean spiritual healing and deliverance from sins. We see in the gospel accounts that the Lord’s physical healings were accompanied by the admonition “go and sin no more” i.e., the Lord always spoke to them about their sins and not falling back into them. But this is missing from those who appeal to people to come and be healed in the name of Lord Jesus today. The man having an infirmity for 38 years, lying alone and helpless by the pool of Bethesda, was healed by the Lord (John 5:1-9), the Lord came back to him and warned him about sinning (John 5:14), but he still went and told the Jews and made things difficult for the Lord’s ministry (John 5:15-16). The Lord Jesus had healed countless number of people during His earthly ministry, but none of them stood with Him, or spoke in favor of Him when He was brought before Pilate to be crucified; instead, all who were gathered before Pilate were yelling to have Him crucified (Mark 15:11-15), none wanted Him released. Jesus’s healings and miracles amongst them had not made them the followers or disciples of Christ. The same is true today; all that is done in the name of Jesus, does not make people the followers or disciples of the Lord; they only come for physical and temporal gain, and then most of them go back into the world.

If in this life only we have hope in Christ, then indeed, we are the most pitiable of all men; and far worse are the ones who raise this hope in people but do not do anything for their salvation; how difficult it will be for them to answer for this before the Lord. In the next article we will continue with the implications of resurrection.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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गुरुवार, 27 जून 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 113

 

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आरम्भिक बातें – 74

मरे हुओं का जी उठना – 9


विश्वासियों के लिए पुनरुत्थान के निहितार्थ – 1


इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों में से हम वर्तमान में पाँचवीं “मरे हुओं का जी उठना” का अध्ययन कर रहे हैं। पिछले कुछ लेखों में हम ने प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के बारे में विचार किया है, क्योंकि वह मसीही विश्वास का आधार है। क्योंकि प्रभु का पुनरुत्थान मसीही विश्वास की धुरी है, इसी लिए शैतान उस पर हमले करता रहता है, उस पर किसी-न-किसी तरह से अविश्वास लाने के प्रयास करता रहता है, ताकि लोग उस पर और उस से होने वाले लाभों पर विश्वास न करें, और उस के विषय बहकाए-भरमाए जा सकें। इसी लिए यह प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य है कि पुनरुत्थान के बारे में सीखे ताकि शैतान द्वारा फैलाई जाने वाली झूठी कहानियों का खण्डन कर सके; और इन पिछले लेखों में हम ने देखा है कि मसीही विश्वासी यह कैसे कर सकते है। पिछले लेख में हम ने देखा था प्रभु यीशु के मृतकों में से पुनरुत्थान के, समस्त सँसार के सभी लोगों के लिए, वे चाहे विश्वासी हों अथवा अविश्वासी, क्या निहितार्थ हैं; और क्यों प्रभु का पुनरुत्थान सभी के लिए “जाग उठने” की चेतावनी है कि अपने आप को आने वाले अन्तिम न्याय के लिए तैयार कर लें, जब उन्हें प्रभु का एक न्यायी के रूप में सामना करना होगा। पुनरुत्थान पर इस श्रृंखला के आरम्भ में हम ने कहा था कि परमेश्वर के वचन बाइबल में, 1 कुरिन्थियों 15 अध्याय, “पुनरुत्थान का अध्याय” है, और मसीही विश्वासी के लिए पुनरुत्थान से सम्बन्धित अधिकाँश शिक्षाएं वहीं पर दी गई हैं। आज से हम इसी अध्याय को देखना आरम्भ करेंगे, और देखेंगे कि परमेश्वर का वचन मसीही विश्वासियों को पुनरुत्थान और अनन्तकालीन सुरक्षा के बारे में क्या सिखाता है।

प्रेरित पौलुस ने पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन में, इस अध्याय का आरम्भ सुसमाचार को दोहराने के साथ किया है, कि सुसमाचार पवित्र शास्त्र से है (1 कुरिन्थियों 15:1-4)। फिर वह उन्हें प्रभु के पुनरुत्थान के प्रमाण बता कर उस की पुष्टि करता है (1 कुरिन्थियों 15:5-10) – उन्हीं बातों के द्वारा जिन्हें हम पिछले लेखों में देख चुके हैं – प्रत्यक्षदर्शी बयान, बदले हुए जीवन, और जिन्होंने प्रभु के पुनरुत्थान को स्वीकार किया और उस में विश्वास किया है उन के जीवनों में प्रकट होने वाली प्रभु की सामर्थ्य के प्रमाण। इस के बाद, 1 कुरिन्थियों 15:11 में पौलुस कहता है कि प्रभु के पुनरुत्थान की इन्हीं पुष्टियों के कारण, प्रभु यीशु के अनुयायी, उस का प्रचार करते हैं, जिस पर उन्होंने विश्वास किया है, अर्थात सुसमाचार और प्रभु यीशु के पुनरुत्थान पर। इस प्रकार, यहाँ पर हमारे सामने सुसमाचार तथा प्रभु के पुनरुत्थान के एक प्रमाणित तथ्य होने का एक व्यावहारिक निहितार्थ रखा गया है – कि वे जिन्होंने इन्हें स्वीकार किया है, जो इन पर विश्वास करते हैं उन की यह ज़िम्मेदारी भी है कि इन के बारे में औरों को बताएँ और इन का प्रचार करें। दूसरे शब्दों में, सुसमाचार तथा प्रभु के पुनरुत्थान का प्रचार करना, एक ऐसी अनिवार्यता है जिस में प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को संलग्न रहना है।

अगला निहितार्थ 1 कुरिन्थियों 15:12-20 में मिलता है। इस खण्ड में, पवित्र आत्मा के द्वारा, पौलुस पहले उस शिक्षा के निहितार्थों की एक रूपरेखा रखता है, जो शिक्षा यह कहती है कि प्रभु यीशु का पुनरुत्थान झूठा है। पौलुस प्रभु यीशु के पुनरुत्थान के पक्ष में अपने तर्क इस प्रकार से रखता है:

  • पद 12 – मसीह का पुनरुत्थान इस बात का प्रमाण है कि मृतकों का पुनरुत्थान है, और निश्चय ही वह होगा।

  • पद 13, 16 – यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं है, तो फिर मसीह का पुनरुत्थान भी नहीं हुआ – जो अस्वीकार्य है, क्योंकि इस से पहले के खण्ड में उस के प्रमाण दिए जा चुके हैं। इस लिए मृतकों के पुनरुत्थान को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है; उसे स्वीकार कर के उस के अनुसार कार्य करना ही होगा।

  • पद 14-15, 17 – मसीह का पुनरुत्थान मसीही विश्वास का आधार और उस की गारन्टी है। यदि पुनरुत्थान नहीं हुआ, तो फिर मसीही विश्वास व्यर्थ है, सुसमाचार और पुनरुत्थान का प्रचार व्यर्थ है, जो इस का प्रचार करते हैं फिर वे एक झूठे सिद्धान्त का प्रचार करते हैं, और जिन्होंने इस प्रचार को स्वीकार किया है उन के पाप क्षमा नहीं हुए हैं। तो फिर जिन्होंने सुसमाचार और प्रभु के पुनरुत्थान को स्वीकार किया है, वे अभी भी अपने पापों में हैं, इस लिए, उन का विश्वास करना व्यर्थ और निष्फल रहा है, तथा वे अभी भी सँसार के किसी भी अन्य व्यक्ति के समान ही हैं।

  • पद 18 – यदि मृतकों का पुनरुत्थान नहीं है, तो जिन्होंने प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार किया है, वे भी, सँसार के किसी भी अन्य ऐसे व्यक्ति के समान जिस ने प्रभु यीशु पर विश्वास नहीं किया है, विनाश में ही जाएँगे।

  • पद 20 – पौलुस निष्कर्ष देता है कि निश्चय ही मसीह मृतकों में से जी उठा है, जैसे कि पहले के खण्ड में दिए गए प्रमाणों से पुष्टि होती है; मसीह का पुनरुत्थान एक प्रकार से पहला फल है – जो आने वाली बातों के स्वाद और स्वरूप को दिखाता है, और जो उस में विश्वास रखते हुए मर गए हैं, जैसे प्रभु महिमित देह में जिलाया गया था, वे भी, एक महिमित देह में जिलाए जाएंगे, और अनन्तकाल तक उस के साथ स्वर्ग में रहेंगे।

प्रभु के पुनरुत्थान में विश्वास करने या नहीं करने के निहितार्थों को दिखाने के बाद, पौलुस, पवित्र आत्मा के द्वारा मसीही विश्वासियों के लिए इस का व्यवहारिक, दैनिक जीवन से सम्बन्धित निहितार्थ पद 19 में बताता है – प्रभु यीशु का पुनरुत्थान पृथ्वी के, या भौतिक, अथवा शारीरिक नश्वर लाभ प्राप्त करने के लिए नहीं है। हम इस पर अगले लेख में कुछ विस्तार से विचार करेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


The Elementary Principles – 74

Resurrection of the Dead – 9


Resurrection’s Implications for the Believers – 1

   

    In our study of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, we are now studying the fifth one, i.e., “the Resurrection of the Dead.” Over the past few articles, we have been considering the resurrection of the Lord Jesus, since it is the basis of the Christian Faith. Because the Lord’s resurrection is pivotal for the Christian Faith, therefore Satan keeps attacking it, and trying to discredit it in one way or another, so that people do not believe in it and its benefits, and get misled about it. That is why, it is essential that every Christian Believer learn about the resurrection, and be able to counter the false stories that Satan spreads about it; and in these previous articles we have seen how Christian Believers can do this. In the last article, we saw the implications of the Lord’s resurrection from the dead for all people of the world, whether Believers or non-Believers; and why the Lord’s resurrection should serve as a “wake-up call” for everyone to get ready to face the Lord as Judge of mankind, for their final judgment. We had said at the beginning of this series on resurrection that in God’s Word the Bible, 1 Corinthians 15 is the “Resurrection chapter” and most of the teachings related to the resurrection for the Believers are given there. From today, we will start looking at this chapter and see what God’s Word teaches the Christian Believers about their resurrection and eternal security, and the implications of the Believer’s resurrection.

    The Apostle Paul, under the guidance of the Holy Spirit, begins this chapter by reiterating the gospel and it’s being according to the Scriptures (1 Corinthians 15:1-4). He then goes on to provide them affirmation of the fact of the Lord’s resurrection (1 Corinthians 15:5-10) – stating the things we have seen in the previous articles about eye-witness accounts, changed lives, and the power of God working in the lives of those who accept and believe in the Lord’s resurrection. And then, in 1 Corinthians 15:11 Paul says that because of these affirmations of the Lord’s resurrection, the followers of the Lord preach what they have believed in, i.e., the gospel and the resurrection of the Lord Jesus. So, here we have a practical implication of the gospel and the Lord’s resurrection being a proven fact – that those who accept and believe in it, have the implied responsibility of preaching about it to others. In other words, preaching the gospel and the Lord’s resurrection is a necessity that every Born-Again Christian Believer should be involved in.

    The next implication is seen in 1 Corinthians 15:12-20. In this section, through the Holy Spirit, Paul first outlines the implications of the preaching that the claims of the resurrection of the Lord Jesus are false. Paul argues the case for the Lord’s resurrection as follows:

  • V. 12 – Christ’s resurrection is proof that there is a resurrection of the dead; and it will happen.

  • V. 13, 16 – If there is no resurrection of the dead, then Christ too has not been resurrected – which is unacceptable, in light of the proofs of the Lord’s resurrection outlined in the preceding section. Therefore, the resurrection of the dead cannot be denied; it has to be accepted and acted upon.

  • V. 14-15, 17 – Christ’s resurrection is the basis and guarantee of the Christian Faith; if the resurrection did not happen, then the Christian Faith is vain, the preaching of the gospel and resurrection is vain, those who preach this preach a false doctrine, and there has been no forgiveness of sins for those who accepted this preaching. Therefore, those who have accepted the gospel and believed in the Lord’s resurrection, since they are still in their sins, their faith is futile and fruitless therefore, they are like any other person of the world.

  • V. 18 – If there is no resurrection of the dead, then those who have accepted the Lord Jesus as their savior, have perished, just as any other person of the world, who has not believed in the Lord Jesus has perished.

  • V. 20 – Paul concludes that Christ has indeed risen from the dead, as has been affirmed by the aforementioned proofs; His resurrection is the first-fruit – a taste of things to come, and those who have died in faith in Him, will be gloriously resurrected just as the Lord Jesus was resurrected, to be with Him forever.

Having shown the implications of believing and not believing in the Lord’s resurrection, Paul through the Holy Spirit gives its practical, day-to-day life implication for the Christian Believers in verse 19 – the resurrection of the Lord Jesus, is not something meant for earthly or physical and temporal benefits. We will consider this in some detail in the next article.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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