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आरम्भिक बातें – 105
परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 11
क्षमा किए और भुलाए गए पापों का स्मरण – 3
परमेश्वर के वचन बाइबल से “अन्तिम न्याय,” जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरंभिक बातों में से छठी बात है, के बारे में अध्ययन करते हुए हमने देखा है कि यह अन्तिम न्याय मसीही विश्वासियों का होगा, उन्हें उनके प्रतिफल और परिणाम देने के लिए। ये प्रतिफल और परिणाम उनके द्वारा उद्धार पाने के बाद से जिए गए मसीही जीवन, और उनके द्वारा अपने मन में रखी गई बातों के आधार पर होगा। हमने बाइबल से यह भी देखा है कि इस न्याय के लिए, प्रत्येक मसीही विश्वासी के बारे में प्रत्येक बात प्रकट कर दी जाएगी, वे पाप भी जो परमेश्वर ने क्षमा करके भुला दिए हैं, जिससे कि किसी के भी मन में प्रभु द्वारा किए जाने वाले इस न्याय के बिल्कुल सही और खरा होने, और हर किसी को उचित एवं उपयुक्त प्रतिफल और परिणाम दिए जाने को लेकर कोई भी सन्देह या प्रश्न न रह जाए। पिछले लेख से हमने इस अंतिम न्याय के लिए प्रत्येक विश्वासी के बारे में सब कुछ प्रकट किये जाने से सम्बन्धित दो प्रश्नों पर विचार करना आरम्भ किया था। पहला प्रश्न था कि यदि अन्ततः प्रत्येक विश्वासी के बारे में सभी कुछ प्रकट किया ही जाना था, वे पाप भी जिन्हें परमेश्वर ने क्षमा करके भुला दिया है, तो फिर परमेश्वर ने यह बात छिपा कर क्यों रखी, और इस पहले से क्यों नहीं बताया? हमने इस प्रश्न के बारे में विचार किया था और देखा था कि ऐसा नहीं है कि परमेश्वर ने कुछ छिपा के रखा है; उसने तो इन बातों को अपने वचन में स्पष्ट और खुला लिखा हुआ है। यह तो नया-जन्म पाए हुए मसीहियों की गलती है, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन का अध्ययन नहीं करते हैं, वचन को परमेश्वर पवित्र आत्मा से नहीं सीखते हैं, वरन अधिकतर विश्वासी अन्य मनुष्यों पर निर्भर रहते हैं कि वे उन्हें परमेश्वर का वचन सिखाएँ, उसके बारे में बताएँ। इसी प्रवृत्ति के कारण, वे परमेश्वर के वचन में दी गई बातों की गलत व्याख्याओं और झूठी शिक्षाओं द्वारा बहकाए और भरमाए जाते हैं। आज से हम दूसरे प्रश्न पर विचार करना आरम्भ करेंगे, कि यदि हर बात को न्याय करने के लिए प्रकट करना ही था, तो फिर परमेश्वर पापों को क्षमा करके उन्हें भुला क्यों देता है?
इसे समझने के लिए, पहले हम उन तीन बातों को याद कर लेते हैं जो अदन की वाटिका में पहले पाप के साथ हुई थीं। हमने कुछ दिन पहले के लेखों में देखा है कि मानव जाति के लिए पहले पाप के साथ मुख्यतः तीन बातें साथ में आईं – सबसे पहली – मृत्यु, दो प्रकार से – आत्मिक (मनुष्य का परमेश्वर से अलग हो जाना) और शारीरिक (मनुष्य का मनुष्य से अलग हो जाना); और जैसा हम देख चुके हैं, कलवरी के क्रूस पर प्रभु यीशु द्वारा दिए गए बलिदान में विश्वास करने के द्वारा उद्धार प्राप्त करना, मृत्यु की इस दशा को अनन्त जीवन की बहाली के लिए पलट दिया जाना, और मनुष्य का परमेश्वर के, तथा मनुष्य का मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप हो जाना है। दूसरी बात, पाप आजीवन दुःख, परिश्रम, और तकलीफें सहने का श्राप भी लेकर आया; यह ऐसा श्राप है जो इस पापमय देह के साथ जुड़ा हुआ है। इसी लिए ये बातें परमेश्वर द्वारा प्रत्येक जन की देखभाल करने से भी जाती नहीं हैं, और न ही उद्धार पाने और पापों की क्षमा प्राप्त होने, तथा परमेश्वर की सन्तान बन जाने से हट जाती हैं। तीसरी बात है, परमेश्वर से मिला आश्वासन कि जो सच में उसके पास लौट आते हैं, उसे अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, उसने उनके लिए, उनके स्वर्गीय निवास-स्थान में, कुछ अत्यन्त अद्भुत तैयार कर के रखा हुआ है; वह इतना विलक्षण है कि मानवीय समझ की क्षमताओं से बिल्कुल परे है; और उनके द्वारा उद्धार पाने के बाद जीए गए मसीही जीवन और मनों में रखी गई बातों की गुणवत्ता के अनुपात में उन्हें दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में परमेश्वर अपने प्रत्येक विश्वासी को उसके लिए सर्वथा उचित और उपयुक्त प्रतिफल देगा। जो परमेश्वर के लिए जीते और उसकी तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में कार्य करते हैं, उनके लिए स्वर्गीय प्रतिफलों वाला अनन्तकाल प्रतीक्षा कर रहा है।
तो इस प्रकार से पाप के प्रभाव के तीन पक्ष हैं: पहला – मृत्यु – शारीरिक और आत्मिक, अर्थात शरीर का अन्य मनुष्यों और सँसार की वस्तुओं से पलटा न जा सकने वाला पृथक हो जाना; और परमेश्वर के साथ आत्मिक संगति का टूट जाना। दूसरा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए, वह चाहे उद्धार पाया हुआ हो अथवा न हो, जीवन भर शारीरिक दुःख और परेशानियाँ। तीसरा, परमेश्वर की अनन्तकालीन स्वर्गीय प्रतिफलों के बारे में प्रतिज्ञा, जो प्रतिफल इतने अद्भुत होंगे कि हम उनके बारे में अभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। पाप के प्रभाव को पूर्णतः पलटने और मिटाने के लिए इन तीनों बातों के साथ व्यवहार किया जाना अनिवार्य है।
वास्तव में, अभी तक के लेखों में, हम इन तीनों बातों को उनके उलटे क्रम में लेकर चलते आ रहे हैं। अभी तक हमने तीसरे पक्ष, स्वर्गीय प्रतिफलों के दिए और लिए जाने के “कैसे और क्यों” के बारे में देखा है। हम वह सीखते आ रहे हैं जो प्रत्येक का न्याय किये जाने और प्रतिफलों तथा परिणामों के दिए और लिए जाने के बारे में परमेश्वर ने अपने वचन में दिया और सिखाया है, ताकि मानवजाति, विशेषकर प्रभु के लोग, अपने आप को इस न्याय के लिए तैयार कर लें। जिन्होंने अभी तक प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा नया-जन्म नहीं पाया है, वे यीशु को अपना उद्धारकर्ता और प्रभु ग्रहण कर के बच जाएँ; और जो बचे हुए, या उद्धार पाए हुए हैं, वे अभी तक जो मसीही जीवन उन्होंने जिया है और जो बातें अपने मनों में रखी हुई हैं, उनके बारे में गम्भीरता से विचार कर लें, क्योंकि इन सभी बातों का प्रभाव उनके अनन्तकालीन स्वर्गीय प्रतिफलों और परिणामों पर पड़ेगा।
अगले लेख में हम दूसरे पक्ष – जीवन भर का दुःख और परेशानियाँ, मसीही विश्वासियों के जीवनों में भी, के बारे में विचार करेंगे; और फिर उस के बाद हम पहले पक्ष, अर्थात शारीरिक और आत्मिक मृत्यु, तथा विश्वासी के उससे बहाल किए जाने के बारे में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 105
God’s Forgiveness and Justice – 11
Remembrance of Sin Forgiven and Forgotten - 3
In our study from God’s Word the Bible about the “Eternal Judgment,” the sixth of the elementary principles given in Hebrews 6:1-2 we have seen that this final judgment will be of the Christian Believers, to give them their eternal rewards and the consequences of the lives they have lived, and the things they have kept in in their hearts, since after being Born-Again. We have also seen from the Bible that for this judgment, everything about every Christian Believer, even the sins forgiven and forgotten by God, will be laid open and then judged, so that no one will have any questions or doubts about the fairness of the Lord’s judgments and the eternal rewards He gives to each one. Since the last article we began considering two questions about this laying open everything about every Believer for this Eternal Judgment. The first question was that if everything about every Believer eventually had to be laid open, even after forgiving and forgetting their sins, then why did God keep it hidden, and not tell about it beforehand? We considered this question in the last article, and saw that it is not God who has kept anything hidden; He has stated it openly in His Word. It is the Born-Again Christians who are at fault, because they do not study God’s Word, do not learn it from God the Holy Spirit, but mostly rely upon some other men to teach and speak God’s Word to them. Because of this tendency, they are usually misled by many misinterpretations and wrong teachings about the things God has given in His Word. From today we will begin with the second question, if things have to be brought out in the open for judgment, then why does God forget sins after forgiving them?
To understand this, let us recapitulate the three things that happened in the Garden of Eden, with the committing of the first sin. We have seen in earlier articles, a few days ago, that essentially, the first sin brought in three things for mankind – firstly death – both spiritual (man’s separation from God) and physical (man’s separation from man); and as we have seen, salvation, through faith in the sacrifice of the Lord Jesus on the cross of Calvary, is the reversal of this state of death to eternal life, restoration of fellowship between man and God, and also man and man. Secondly sin brought the curse of lifelong toil, pain, and misery; and this curse is tied to this sinful body for a person’s lifetime. Therefore, these are not eliminated despite the care given by God to every person, nor even with salvation, forgiveness of sins, and becoming children of God. Thirdly, God has given the assurance that those who return back to Him and submit to Him, for them in their eternal heavenly abode, He has kept ready something so marvelous, that it is beyond human capacity and capabilities of understanding. These heavenly rewards will be given in proportion to the quality of the Christian lives His people have lived and the things they have kept in heart while here on earth after, since after their salvation. In other words, God will give every Believer his fair and just rewards, and an eternity of heavenly rewards awaits those who live and work for God, in obedience to Him and His Word.
So, the effects of first sin has three aspects to it: firstly death – physical and spiritual, i.e., physical irreversible separation from other persons and the things of this world; and spiritual separation from fellowship with God. Secondly lifelong physical sufferings and problems for every person, whether a saved, Born-Again Believer, or an unsaved unbeliever. Thirdly God’s promise of eternal heavenly rewards, which we cannot even think and imagine. Each of these three has to be managed, to completely and fully reverse, or undo the effect of sin.
Actually speaking, so far, we have been considering these three things in the reverse order, since as yet we have been considering the “how and why” of the third aspect – the giving and receiving of the heavenly rewards. We have been learning what God has given and taught in His Word about everyone being judged for their eternal rewards and consequences, so that mankind, especially His people prepare themselves for it. Those not yet saved or Born-Again through faith in the Lord Jesus, should accept Him as their Lord and Savior, and be saved; whereas those saved or Born-Again, should seriously start considering the kind of Christian life they have been living so far, the kind of things they have kept in themselves, since all of these will affect their eternal heavenly rewards and consequences.
In the next article, we will consider the second aspect – the lifelong physical sufferings and problems, even in the life of the Christian Believers; and after that we will consider the first aspect, i.e., death physical and spiritual, and the Believer’s restoration from it.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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