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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 64
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (6)
व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित चार बातें प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर उनका पालन किया करते थे। इसीलिए वे हर परिस्थिति का सामना करते हुए, अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ खड़े रहे, आत्मिक जीवन में उन्नति करते रहे, और कलीसियाएं भी बढ़ती चली गईं। इन चार में से हम तीन बातों को देख चुके हैं, और अब चौथी बात, प्रार्थना करने, को देख रहे हैं। अभी तक हमने देखा है कि प्रार्थना करना, केवल परमेश्वर से माँगना, या उससे कुछ करने के लिए कहना नहीं है। वरन, उससे हर बात के बारे में वार्तालाप करना, उससे सहायता, मार्गदर्शन, और निर्देश प्राप्त करना भी है। यह परमेश्वर का निर्देश है कि उसके लोग उसके साथ निरन्तर प्रार्थना के भाव में बने रहें; और हमने इसके कारण और लाभ भी देखे हैं। साथ ही पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रार्थना में परमेश्वर के साथ जुड़े रहना उसकी शान्ति को प्राप्त करने का स्त्रोत, परमेश्वर की सेवा और उपासना का एक स्वरूप भी है, तथा प्रार्थना न करना, परमेश्वर के विरुद्ध पाप करना है। आज से हम प्रार्थना का उत्तर प्राप्त करने के बारे में देखना आरम्भ करेंगे।
क्योंकि अधिकाँश मसीही यही समझते हैं कि परमेश्वर से प्रार्थना करने का अर्थ, परमेश्वर से कुछ माँगना है, या उससे कुछ करने के लिए निवेदन करना है, चाहे वह अपने लिए हो अथवा किसी और के लिए; इसलिए उनकी परमेश्वर से आशा भी यही रहती है कि वह उन प्रार्थनाओं का उत्तर “हाँ” में दे, और तुरन्त या शीघ्रता से दे। क्योंकि बहुधा ऐसा नहीं होता है, इसलिए लोग प्रार्थना को महत्व नहीं देते हैं, उसे केवल एक औपचारिकता पूरी करने के समान देखते हैं। लोगों में प्रार्थना के विषय व्याप्त इस भ्रांति की बहुत बड़ी जिम्मेदारी उनके धार्मिक अगुवों की है, जो उन्हें परमेश्वर के वचन बाइबल से सुसंगत शिक्षाएं नहीं देते हैं, वरन अपने ही विचार अथवा अपने मत या डिनॉमिनेशंस की धारणाओं को बताते और सिखाते रहते हैं। हमने पिछले लेखों में इसका एक समाधान देखा है - प्रार्थना के वास्तविक स्वरूप को समझना; वह परमेश्वर से माँगना ही नहीं, उससे वार्तालाप में रहना, उसके साथ हर बात साझा करना है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि जब हम परमेश्वर के आदर, महिमा, ओहदे आदि को, और उसके सामने हमारे अपने स्तर, बुद्धि, और समझ को ध्यान में रखते हुए उससे वार्तालाप करते हैं, तो स्वतः ही हम ऐसी बहुत सी बातों को, जो उसकी गरिमा के आगे अनुचित और गलत प्रतीत होती हैं, सोचते, बोलते या माँगते नहीं हैं, उनकी इच्छा नहीं करते हैं। अर्थात, परमेश्वर के साथ वार्तालाप में, संगति में बने रहने से हम स्वतः ही अपने शब्दों, इच्छाओं, व्यवहार आदि का आँकलन करके, सही और उचित को ही कहने वाले, और गलत तथा अनुचित को अपने से दूर रखने वाले बनते चले जाते हैं; अर्थात हम 2 कुरिन्थियों 3:18 को पूरा करने वाले, अंश-अंश करके प्रभु के स्वरूप में ढलते चले जाने वाले बनते जाते हैं।
हमें साथ ही एक अन्य बात का भी ध्यान रखना चाहिए, प्रत्येक वास्तव में नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी परमेश्वर के परिवार का एक सदस्य है। परमेश्वर प्रत्येक मसीही विश्वासी का प्रेमी स्वर्गीय पिता है। इस रिश्ते और पारिवारिक स्थिति को ध्यान में रखने, और हमारे साँसारिक परिवार में सामान्यतः होने वाले व्यवहार के साथ मिला कर बातों को देखने से भी बहुत सी बातें स्वतः ही स्पष्ट हो जाती हैं। उदाहरण के लिए, हमारे साँसारिक परिवारों में, जब बच्चे अपने पिता से कुछ मांगते हैं, या करने के लिए कहते हैं, तो आवश्यक नहीं कि पिता उनकी हर बात के लिए उत्तर “हाँ” में ही दे, या उसे तुरन्त ही पूरा करे। पिता का उत्तर “हाँ,” “नहीं,” “अभी नहीं, वरन उपयुक्त समय आने पर,” या “कुछ समय प्रतीक्षा करो,” आदि कुछ भी हो सकता है। ये सभी सही और उचित उत्तर हैं; और इनमें से कोई भी यह नहीं दिखाता है कि पिता बच्चे से प्रेम नहीं करता है, या उसके प्रति उदासीन है, या उसकी उपेक्षा करना चाहता है। पिता कोई मशीन नहीं है कि बच्चे ने कहा, और उसने तुरन्त वैसा ही करके दे दिया। पिता को बहुत सी बातों के बारे में सोच-विचार करके, जिनमें उस माँगी हुई बात के सन्दर्भ में बच्चे की भलाई, तथा उस बात के दूरगामी प्रभाव भी सम्मिलित हैं, निर्णय लेना होता है। पिता का “हाँ” न कहना, या तुरन्त उसे पूरा न करना बच्चे को बुरा लग सकता है, लेकिन पिता जो निर्णय ले रहा है वह ऐसी अन्य कई बातों को ध्यान में रखते हुए ले रहा है, जिनके बारे में बच्चे ने सोचा ही नहीं है, या वह जानता ही नहीं है। ठीक यही बात, ऐसे ही परमेश्वर से माँगी गई बातों के लिए भी मान्य है। परमेश्वर भी हमें “हाँ,” “नहीं,” “अभी नहीं, वरन उपयुक्त समय आने पर,” या “कुछ समय प्रतीक्षा करो,” आदि कोई भी उत्तर दे सकता है, और वे सभी सही और उचित उत्तर हैं। परमेश्वर भी, हमारा सर्वज्ञानी प्रेमी पिता होने के नाते, तथा ऐसी और कई बातों को जानते और समझते हुए, जिनके बारे में हम अभी कुछ नहीं जानते या समझते हैं, हमें उत्तर देता है। उसका तुरन्त और हमारे कहे के अनुसार न करने को हमें गलत नहीं समझना चाहिए।
कुछ मत और डिनॉमिनेशंस, यदि परमेश्वर द्वारा दिया जाने वाले उत्तर हाँ और तुरन्त नहीं है, तो उसे लेकर, प्रार्थना में परमेश्वर से माँगने वाले के विश्वास की गुणवत्ता पर प्रश्न उठाते हैं, कि उसका विश्वास पर्याप्त या सही नहीं है, इसलिए उसे सकारात्मक उत्तर नहीं मिला। इस सन्दर्भ में वे ये कहते हैं कि प्रभु ने कहा है कि यदि हम विश्वास से माँगेंगे, तो जो हम माँगेंगे वह अवश्य मिलेगा। यह प्रार्थना में परमेश्वर से कुछ माँगने और प्राप्त करने की गलत समझ, तथा विश्वास से माँगने की गलत समझ और शिक्षा है। अगले लेख से हम इसी विषय पर बाइबल से इस अध्ययन को आगे बढ़ाएंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 64
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (6)
In Acts 2:42 are given four things related to practical Christian living, and the initial Christian Believers used to observe them steadfastly. Therefore, they could stand firm and unwavering in their faith in all circumstances, were edified in their spiritual lives, and the churches also continued to grow. Of these four, we have already seen the first three, and are now studying about the fourth one, i.e., about praying. So far we have seen that praying is not only asking for things from God, or asking Him to do something. Rather, it is conversing with Him about everything, receiving help, guidance, and instructions from Him. God has said that His people should continually remain in an attitude or prayer with Him; and we have seen the reasons for this, as well as the benefits of doing so. In the last article we also saw that continually being in fellowship with God through prayer is the source of divine peace, it is a form of serving and worshiping God; and not praying is to sin against God. From today we will start considering about receiving answers to prayers.
Since most of the Christians think that praying to God means asking God for things, or asking Him to do something - whether for self or for others; therefore, their expectation is that the answer to their prayers should always be “yes” and if not immediate then without much delay. Since, quite often this does not happen, therefore people do not give much importance to prayer, and consider it as a mere formality that needs to be fulfilled. For this very prevalent misconception about prayer amongst people, it is their religious leaders who largely are to be blamed, since they do not give teachings truly consistent with God’s Word the Bible, but usually either keep preaching and teaching their own concepts and understanding, or the concepts and teachings of their own sects and denominations. In the preceding articles we have seen one possible solution of this problem - to understand the actual form and meaning of prayer; that it is not just asking for things from God, but to continually be in conversation with Him about everything, be continually sharing everything in our hearts with Him. We had also seen that when we converse with God bearing in mind His majesty, glory, and stature, in contrast to our own status, mind, and understanding, then automatically we hold ourselves back from thinking, desiring, speaking, and asking for many things that are inappropriate in light of God’s dignity and honor. In other words, by being continually in conversation and fellowship with God, we automatically become people who learn to evaluate their words, desires, behavior, etc., then stay with what is correct and appropriate, and disassociate ourselves from all that is incorrect and inappropriate; i.e., start fulfilling 2 Corinthians 3:18 - being transformed into the Lord’s image from glory to glory, or, bit by bit.
We also need to keep another thing in mind, every truly Born-Again Christian Believer is a member of God’s family. God is the loving heavenly Father of every Christian Believer. When we keep this relationship and family situation with God in mind, and keep comparing it to what is commonly seen in our earthly families, then many things automatically become clear. For example, in our earthly families, when children ask their fathers to get them something or do something for them, then it is not necessary that the father always responds with a “yes,” or does it immediately. The fathers answer can be “yes,” “no,” “not now, but at an appropriate time,” or “wait for some time,” etc., or anything like these. All of these are valid and correct responses; and none of these answers in any way indicates that the father does not love the child, or is indifferent towards him, or wants to ignore him. The father is not a machine, that as soon as the child expresses a desire, he will immediately fulfill it, just as the child has asked to be done. The father has to take into consideration many related things, has to think of the pros and cons of fulfilling the desire, has to consider the benefits or potential harm, as well as the immediate and long-term effects of granting that wish, and then come to the conclusion about it. The child may not like the father’s not saying “yes,” or not immediately fulfilling what was asked for, but whatever decision the father is taking, he is doing so after taking into account many related things that the child may not have thought about, or even know about. This very thing is equally valid and applicable to things asked for from God. God too can respond to our requests with “yes,” “no,” “not now, but at an appropriate time,” or “wait for some time,” etc., and they will all be valid and appropriate answers. God too, being our loving omniscient i.e., all-knowing Father, and knowing and understanding many things that we do not know or understand about, answers our prayers accordingly. God’s not immediately fulfilling everything we have asked for or not answering every prayer in “yes” should not be misunderstood.
Some sects and denominations question the faith and the quality of faith of the persons praying to God, on the basis of their prayers not being immediately answered, or not being answered in affirmative. In this context they say that God has said that if we ask for something in faith, then He will surely grant it, so we will always get whatever we ask for in faith. But this is a very wrong understanding and teaching about asking from God in faith. From the next article, we will carry on this study on this topic on the basis of the Bible.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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