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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 60
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (2)
हम व्यावहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित बातों के बारे में, परमेश्वर के वचन बाइबल में से प्रेरितों 2:42 में दी गई चौथी बात, प्रार्थना करना के बारे में देख रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रार्थना करना केवल परमेश्वर से कुछ माँगना, या उससे कुछ करने के लिए कहना नहीं है। वरन यह परमेश्वर से हर बात के बारे में दिल खोल कर वार्तालाप करना है। साथ ही प्रार्थना करना, परमेश्वर के साथ एक-पक्षीय वार्तालाप करना भी नहीं है। अर्थात परमेश्वर को अपनी माँगो, इच्छाओं, आवश्यकताओं, भावनाओं, आदि, के बारे में केवल सुनाना ही नहीं है; वरन परमेश्वर की बात को, उसके प्रत्युत्तर, उसके मार्गदर्शन को सुनना, उसकी इच्छा को जानना भी है। प्रभु यीशु ने यूहन्ना 10 अध्याय में कहा है कि उसकी भेड़ें उसका शब्द सुनती और समझती हैं। अर्थात, परमेश्वर की सुनने के लिए हमें न केवल उसकी भेड़ बनना पड़ेगा, वरन उसके शब्द के प्रति संवेदनशील भी बनना पड़ेगा। पिछले लेख का अन्त हमने इस बात के साथ किया था कि परमेश्वर चाहता है कि हम निरन्तर प्रार्थना में, अर्थात उससे वार्तालाप में बने रहें। आज हम यहीं से आगे देखेंगे।
प्रभु चाहता है कि उसके लोग, उसके साथ हर बात के लिए, निरन्तर प्रार्थना में लगे रहें। इस सन्दर्भ में बाइबल से तीन पदों को देखिए:
लूका 21:36 - “इसलिये जागते रहो और हर समय प्रार्थना करते रहो कि तुम इन सब आने वाली घटनाओं से बचने, और मनुष्य के पुत्र के सामने खड़े होने के योग्य बनो।”
इफिसियों 6:18 - “और हर समय और हर प्रकार से आत्मा में प्रार्थना, और बिनती करते रहो, और इसी लिये जागते रहो, कि सब पवित्र लोगों के लिये लगातार बिनती किया करो।”
1 थिस्सलुनीकियों 5:17 - “निरन्तर प्रार्थना में लगे रहो।”
हम जितना अधिक परमेश्वर के साथ वार्तालाप में रहेंगे, अर्थात प्रार्थना में रहेंगे, हम उतना अधिक उसके निकट बने रहेंगे, और हमारे जीवन उतने अधिक आशीषित रहेंगे। इसका यह अर्थ नहीं है कि मसीही विश्वासियों को हर समय हाथ जोड़कर, घुटने टेक कर, आँखें बन्द करके प्रार्थना के शारीरिक भाव में ही बने रहना चाहिए। वरन तात्पर्य यह है कि मसीही विश्वासियों को हर बात के लिए परमेश्वर के साथ निरन्तर वार्तालाप के भाव में, वार्तालाप की मनसा में बने रहना चाहिए। अर्थात हर बात के लिए, हर समय परमेश्वर से बातचीत करते रहना चाहिए, हर निर्णय से पहले परमेश्वर से पूछना, उसकी इच्छा जान लेना चाहिए, बात या परिस्थिति को परमेश्वर के हाथों में सौंपते रहना चाहिए।
इसका एक उत्तम उदाहरण राजा के सामने नहेम्याह की निःशब्द प्रार्थना है; नहेम्याह 1 और 2 अध्याय देखिए। यरूशलेम की दुर्दशा के बारे में सुनकर नहेम्याह बहुत दुखी था, वहाँ के बारे में कुछ करना चाहता था। वह प्रार्थना कर रहा था कि परमेश्वर राजा को, जिसका नहेम्याह प्याऊ था, नम्र करे (नहेम्याह 1:11)। नहेम्याह के मुख की उदासी देखकर राजा ने उससे उसकी उदासी का कारण पूछा, और डरते हुए, नहेम्याह ने यरूशलेम की दुर्दशा के बारे में बताया (नहेम्याह 2:3)। नहेम्याह की बात सुनकर, राजा ने अचानक और नहेम्याह के लिए पूर्णतः अप्रत्याशित रीति से, नहेम्याह से प्रश्न किया और जानना चाहा कि नहेम्याह क्या चाहता है? इस अप्रत्याशित परिस्थिति में, नहेम्याह ने तुरन्त ही मन में ही परमेश्वर से प्रार्थना की, और परमेश्वर द्वारा दी गई सद्बुद्धि के अनुसार, राजा को उत्तर दे दिया (नहेम्याह 2:4)। राजा ने नहेम्याह की बात मान ली, नहेम्याह को यरूशलेम की दीवार के पुनःनिर्माण का अधिकारी बनाकर, यह करने के लिए सभी सुविधाओं और आवश्यकताओं के लिए उपयुक्त अधिकार और प्रावधान प्रदान कर के नहेम्याह को यरूशलेम भेज दिया। कई समस्याओं और विपरीत परिस्थितियों तथा विरोध का सामना करते हुए, नहेम्याह ने कीर्तिमान स्थापित करते हुए न केवल यरूशलेम की दीवार का पुनःनिर्माण करवाया (नहेम्याह 6:15), बल्कि उसके इस कार्य के लिए उसे यहूदा का अधिपति भी बना दिया गया (नहेम्याह 5:14); और नहेम्याह का नाम तथा काम अनन्तकाल के लिए परमेश्वर के वचन में आदर के साथ दर्ज हो गया। परमेश्वर के साथ निरन्तर प्रार्थना के, अर्थात हर बात के लिए वार्तालाप करने, मार्गदर्शन माँगने के भाव में बने रहने, और ऐसा करने के परिणामों का यह एक अति उत्तम उदाहरण है।
लेकिन परमेश्वर यह क्यों चाहता है कि हम उसके साथ निरन्तर प्रार्थना के, या वार्तालाप के भाव में बने रहें? हम इसके बारे में अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 60
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (2)
We are looking into the fourth thing given in Acts 2:42 regarding the practical Christian living, i.e., praying. We had seen in the previous article that praying is not just asking something from God, or asking Him to do something. Rather, it is having an open-hearted conversation with God about everything. Moreover, prayer is not a one-sided conversation, a monologue with God. In other words, it is not telling God about our demands, desires, necessities, feelings etc.; but it is also listening to what God has to say, His response, His guidance, and His will. The Lord Jesus said in John chapter 10 that His sheep hear and understand His voice. Therefore, to be able to listen to God, not only will we have to become His sheep, but also become sensitive to His voice. We had ended the last article by saying that God wants that we should continually be in prayer, i.e., in conversation with Him. Today we will see ahead from here.
The Lord wants His people to always be in prayer with Him about everything. In this context consider three verses from the Bible:
Luke 21:36 - “Watch therefore, and pray always that you may be counted worthy to escape all these things that will come to pass, and to stand before the Son of Man."
Ephesians 6:18 - “praying always with all prayer and supplication in the Spirit, being watchful to this end with all perseverance and supplication for all the saints”
1 Thessalonians 5:17 - “pray without ceasing”
The more we stay in conversation with God, i.e., in prayer, the nearer we will remain to Him, and the more blessed our lives will be. This does not mean that the Christian Believers have to always be on their knees, with folded hands and closed eyes in the praying posture. But the meaning is that the Christian Believers should always be in an attitude of conversing with God about all things or in a mentality of praying to God for all things. In other words, at all times, for all things keep conversing with God, ask God for His will before taking any decision, always keep placing every situation into God’s hands.
An excellent example of a silent prayer is Nehemiah’s prayer before the King; see Nehemiah chapters 1 and 2. Nehemiah was very saddened on learning the plight of Jerusalem, and he wanted to do something about it. He was praying that God would humble the King, whose cup-bearer Nehemiah was (Nehemiah 1:11). The King asked Nehemiah the reason for the sad expression on his face; Nehemiah was dreadfully afraid, but told the King about the plight of Jerusalem (Nehemiah 2:2-3). On listening to what Nehemiah had to say, the King suddenly and quite unexpectedly asked Nehemiah what he wanted done? Nehemiah, surprised by the unexpected turn of events, prayed to God silently in his heart, and by the wisdom given to him by God, gave the answer to the King (Nehemiah 2:4). The King agreed to Nehemiah’s request, made him in-charge of rebuilding the wall of Jerusalem, sanctioned all the requirements and necessities for rebuilding the wall, and sent him to Jerusalem. Nehemiah had to face many problems, oppositions, and difficulties, but he rebuilt the wall of Jerusalem in record time (Nehemiah 6:15). For this accomplishment, he was made the Governor of Judah, and his name and feat were honorably recorded in God's Word forever. This is an excellent example of continually praying to God, i.e., continually conversing with Him for everything, asking His guidance, and the resulting accomplishments because of this attitude.
But why does God want that we should be continually in prayer i.e., conversation with Him? We will look at this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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