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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 74
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (16)
प्रार्थना व्यावहारिक मसीही जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण और अभिन्न अँग है। प्रेरितों 2:42 में दी गई व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित चार बातों में से एक प्रार्थना भी है। हमने देखा है कि प्रथम कलीसिया के आरम्भिक मसीही विश्वासी इन चारों बातों में लौलीन रहा करता थे। इसी कारण वे अपने आत्मिक जीवन और मसीही विश्वास में उन्नत होते चले गए, हर परिस्थिति का सामना करते हुए विश्वास में दृढ़ बने रहे, और कलीसियाएं बढ़ती चली गईं। पिछले लेखों में हमने देखा है कि इन चारों बातों का, मसीहियों द्वारा उनके प्राथमिक स्वरूप में, लौलीन होकर पालन न करने; बल्कि एक औपचारिकता के समान उनका निर्वाह करने के कारण मसीही समाज में इन चारों के प्रति न केवल उदासीनता आ गई है, बल्कि बहुत सी गलतफहमियाँ और गलत शिक्षाएं भी घर कर चुकी हैं। हमारे वर्तमान विषय प्रार्थना से सम्बन्धित इन गलतफहमियों और गलत शिक्षाओं में से कुछ को हमने पिछले लेखों में देखा है।
इन गलत धारणाओं और गलत शिक्षाओं में से दो प्रमुख हैं, जिनके आधार पर अन्य गलत शिक्षाओं और धारणाओं का प्रचार और प्रसार किया जाता है। इन दो में से पहली यह है कि प्रार्थना करना केवल परमेश्वर से माँगना, कुछ करने के लिए कहना, उससे कुछ-न-कुछ लेते रहना, और परमेश्वर को अपनी सुविधाओं एवं इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयोग करना है। जबकि परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षा है कि प्रार्थना परमेश्वर से बातचीत करना है; उससे अपनी कहना, और उसकी सुनना है। साथ ही परमेश्वर का निर्देश है कि उसके लोग हर समय, हर बात के लिए उसके साथ प्रार्थना, अर्थात बातचीत में लगे रहें, ताकि शैतान द्वारा बहकाए और पाप में न गिराए जाएं। इस पहली गलत धारणा को समर्थन देने के लिए दूसरी मुख्य गलत धारणा मसीहियों में व्याप्त कर दी गई है, कि “विश्वास से” और “यीशु के नाम से” परमेश्वर से जो भी माँगा जाएगा, परमेश्वर की प्रतिज्ञा है कि वह उस प्रार्थना को अवश्य ही पूरा करेगा। हमने परमेश्वर के वचन के आधार पर देखा है कि यह गलत शिक्षा बाइबल की कुछ बातों को उनके सन्दर्भ से बाहर लेकर, उनकी गलत व्याख्या करने, उन्हें अनुचित अर्थ देने के कारण है। सत्य तो यह है कि परमेश्वर ने अपने वचन में बहुत स्पष्ट लिखा है कि वह किन लोगों की, और किन बातों के बारे में प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देगा। संक्षेप में, परमेश्वर ने यह आश्वासन अपने सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों की उन प्रार्थनाओं के लिए दिया है जो उसके वचन से सुसंगत और उसकी इच्छा के अनुसार प्रार्थनाएं माँगते हैं। यह सभी लोगों के लिए, और उनकी हर एक बात के पूरे किए जाने के लिए दिया गया आश्वासन नहीं है। अर्थात, प्रभु परमेश्वर के सच्चे, समर्पित, और आज्ञाकारी शिष्य, जब प्रभु की इच्छा जानकर, प्रभु की इच्छा में, अपने अथवा किसी और के लिए वचन की शिक्षाओं से सुसंगत प्रार्थनाएं माँगते हैं, तब परमेश्वर उन्हें पूरा करता है।
इन बातों को बाइबल के आधार पर भली-भाँति समझना, सीखना और पालन करना अनिवार्य है। अन्यथा, मसीही समाज में व्याप्त “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” माँगी गई प्रार्थनाओं से सम्बन्धित गलत व्याख्याओं और गलत शिक्षाओं के चंगुल से निकल पाना, तथा अन्य सम्बन्धित उदाहरणों और शिक्षाओं को समझना बहुत कठिन होगा। इसी सन्दर्भ में, प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में शिष्यों द्वारा किए गए कार्यों, और अपने स्वर्ग पर उठाए जाने के समय प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को दिए गए निर्देशों को देखते और समझते हैं। सुसमाचारों में प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को सामर्थ्य देकर सेवकाई के लिए भेजने का उल्लेख है। पहला है मत्ती 10 अध्याय में, जो उसके द्वारा चुने गए बारह चेलों के लिए है “फिर उसने अपने बारह चेलों को पास बुलाकर, उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया, कि उन्हें निकालें और सब प्रकार की बीमारियों और सब प्रकार की दुर्बलताओं को दूर करें” (मत्ती 10:1)। बारह चेलों के भेजे जाने और काम करने का वर्णन मरकुस 6:7-13 में भी मिलता है, जो सम्भवतः मत्ती 10 वाला भेजा जाना ही है। इसी प्रकार से एक अन्य समय पर प्रभु ने अपने सत्तर शिष्यों को भी भेजा था (लूका 10:1)। इन सभी वृतान्तों में हम देखते हैं कि प्रभु ने अपने शिष्यों को सुसमाचार प्रचार करने, दुष्टात्माओं को निकालने, बीमारियों को चंगा करने की सामर्थ्य देकर भेजा। और फिर हम पाते हैं कि उन शिष्यों ने प्रभु को बताया कि वे ये सभी कार्य कर सके (मरकुस 6:30; लूका 10:17)।
हमारे वर्तमान विषय के सन्दर्भ में और उसे समझने के लिए, अब, यहाँ पर दो बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली बात, प्रभु द्वारा सेवकाई के लिए शिष्यों को यह विशेष निर्देश और सामर्थ्य देने के अतिरिक्त, प्रभु के पृथ्वी पर रहने के दौरान, उसके शिष्यों ने अन्य कोई भी आश्चर्यकर्म, चंगाई, दुष्टात्माओं को निकालना कभी नहीं किया। एक बार और उन्होंने प्रभु से अनुमति माँगी कि वे कुछ विरोधियों को दण्ड दें, लेकिन प्रभु ने यह कहते हुए मना कर दिया कि उन्हें पता नहीं है कि वे किस आत्मा के हैं (लूका 9:52-55)। दूसरी बात, मरकुस 9:14-27 में हम एक दुष्टात्मा से पीड़ित लड़के के चंगा किए जाने का वृतान्त देखते हैं। यहाँ पर प्रभु, पतरस, याकूब, और यूहन्ना के साथ पर्वत पर गया हुआ था, जहाँ उसका रूपान्तरण हुआ था। शेष शिष्य नीचे थे, जब एक पिता अपने दुष्टात्मा से पीड़ित बेटे को उनके पास लाया, कि वे उसमें से दुष्टात्मा को निकाल दें। किन्तु वे शिष्य यह नहीं कर सके (मरकुस 9:18)। ये वही शिष्य थे जिन्होंने मरकुस 6 में प्रभु से निर्देश और दुष्टात्माओं को निकालने की सामर्थ्य और अधिकार पाया था, और यह किया भी था। किन्तु अब, प्रभु की अनुपस्थिति में, प्रभु की अनुमति और आज्ञा के बिना, वे इस कार्य को नहीं कर पाए; स्वयं प्रभु ने ही आकर इस कार्य को किया। अभिप्राय प्रकट है, प्रभु के शिष्य भी, प्रभु की अनुमति, आज्ञा, और इच्छा के बाहर, अपनी मन-मर्ज़ी से वह नहीं कर सकते थे, जो वे प्रभु की इच्छा और आज्ञा में होकर कर सके थे।
अब, इसी सन्दर्भ में, स्वर्ग पर उठाए जाने से पहले, प्रभु द्वारा शिष्यों को एक और निर्देश दिया गया था। उसे और उसके अभिप्रायों को हम अगले लेख में देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 74
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (16)
Prayer is a very important and inseparable part of practical Christian living. Of the four things related to practical Christian living given in Acts 2:42, prayer is one of them. We have seen that the initial Christian Believers of the first Church, steadfastly observed these four things. Therefore, despite facing all kinds of situations, they continued to grow in their Christian faith and spiritual lives, and the churches continued to grow. We have seen in the earlier articles that because the Christian Believers have stopped observing these four things in their original form and steadfastly; instead, have started to do them as a ritual merely to fulfill a formality. Therefore, amongst the Christians, not only an indifference towards them has come in and settled, but many false notions and wrong teachings have also taken root. We have seen some of these false notions and wrong teachings related to our present topic i.e., prayer in the previous articles.
Of these false notions and wrong teachings, two are main ones, and based upon them the other wrong teachings and false notions are preached and taught. Of these two, the first one is that to pray is to only ask something from God, to ask Him to do something, to keep receiving things from Him, and to keep using God to provide for our conveniences and desires. Whereas, God’s Word, the Bible teaches that to pray is to converse with God; to share with Him about ourselves, and listen to what He has to say. Moreover, it is God’s instruction that His people should continually be joined with Him in prayer, about everything, and at all times, so Satan would not be able to mislead us and make us fall in sin. To complement this first wrong main concept, a second wrong main concept has been widely spread and strongly rooted amongst the Christians, that it is God’s promise that He will fulfill all prayers made to Him “in faith” and in “the name of Jesus.” We have seen from God’s Word that this wrong teaching is based on taking somethings from the Bible out of their context, then misinterpreting them, and applying incorrect meanings to them. The truth is that it is very clearly written by God in His Word, whose prayers and what kind of prayers He will answer in the affirmative. In brief, God has given this assurance only for the prayers of His true, surrendered, and committed disciples, who ask prayers consistent with His Word, and in His will. This assurance has not been given for whatever prayers anyone might ask of God, expecting God to fulfill all that they ask for. In other words, if the true, surrendered, and obedient disciples of the Lord, knowing the will of God, when they ask for things that are in accordance with the Word of God for themselves or others, then God fulfills them.
It is very essential to Biblically understand, learn, and follow these things. Else, it will be very difficult to come out of the clutches of the misinterpretations and wrong teachings widely prevalent amongst the Christians about asking “in faith” and “in the name of Jesus.” in this context, let us look at the works done by the Lord’s disciples during His time of ministry of earth, and the instructions the Lord gave at the time of His ascension to heaven. The Gospels mention the Lord sending His disciples for ministry. One account is in Matthew chapter 10, which is about His sending the twelve disciples “And when He had called His twelve disciples to Him, He gave them power over unclean spirits, to cast them out, and to heal all kinds of sickness and all kinds of disease” (Matthew 10:1). An account of the twelve disciples being sent for ministry is also given in Mark 6:7-13, which quite likely is the same as given in Matthew 10. Similarly, at another time the Lord had also sent seventy of His disciples for ministry (Luke 10:1) in all these accounts we see that the Lord gave the power to preach the gospel, cast out evil spirits, heal the sick. Then we see that the disciples came back and told the Lord that they could do all these things (Mark 6:30; Luke 10:17).
In context of our current topic and to understand it, now there are two things to be noted in this. The first thing is that other than the disciples working under these special instructions and power, during the time the Lord was on the earth, the Lord’s disciples never did any miracles, healings, or casting out evil spirits. Once, they asked the Lord’s permission to punish some opponents, but were rebuked by the Lord for it, and the Lord said that they did not understand the Spirit they were of (Luke 9:52-55). The second thing, in Mark 9:14-27 we have an account of a father bringing his demon-possessed child being healed. Here, the Lord, Peter, James, and John had gone up on a mountain, where He was transfigured. The remaining disciples were below, and a father brought his demon-possessed son to them, that they should cast out the evil spirit from him. But the disciples could not do it (Mark 9:18). These were the same disciples, who in Mark 6 had received the instructions, power, and authority from the Lord to cast out evil spirits and had cast them out too. But now, in the absence of the Lord, without the permission and order from the Lord, they were unable to do it; it was the Lord who did it after coming down from the mountain. The implication is evident, even the disciples of the Lord, without the permission, order, and knowing the will of the Lord, on their own accord, could not do, what they had done in the will of the Lord, under His orders.
Now, in this context, before His ascension to heaven, the Lord had given another instruction. We will see and consider it and its implications in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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