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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 69
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (11)
प्रेरितों 2:42 में दी गई व्यावहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित चार बातों में से चौथी बात है प्रार्थना करना, जिसके बारे में हम वर्तमान में अध्ययन कर रहे हैं। पिछले लेखों में हम देख चुके हैं कि प्रार्थना करना, केवल परमेश्वर से कुछ माँगना, या उससे कुछ करने के लिए कहना नहीं है। वरन यह उसके साथ बातचीत करना है, उससे अपनी बात कहना, और उसकी बात को सुनना है। यह परमेश्वर का निर्देश है कि उसके लोग निरन्तर उसके साथ प्रार्थना में, अर्थात हर बात के बारे में हमेशा उससे बातचीत में लगे रहें, जिससे वे शैतान द्वारा बहकाए जाने, पाप में गिराए जाने से बचे रहें। प्रार्थना से सम्बन्धित एक बहुत प्रचलित, किन्तु गलत धारणा और शिक्षा है कि परमेश्वर की प्रतिज्ञा है कि “विश्वास से” माँगी गई सभी प्रार्थनाओं का वह सकारात्मक उत्तर देगा। पिछले कुछ लेखों से हम परमेश्वर के वचन बाइबल में से इस धारणा के बारे में सीख रहे हैं। हम देखते आ रहे हैं कि परमेश्वर ने अपने वचन में किन लोगों की, और किन बातों के विषय प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देने की प्रतिज्ञा की है। इससे हमने समझा है कि प्रचलित किन्तु अनुचित धारणा के विपरीत, परमेश्वर ने ऐसी कोई सार्वजनिक प्रतिज्ञा नहीं दी है, कि कोई भी “विश्वास से” कुछ भी माँगेगा, तो परमेश्वर उसकी प्रार्थना का माँगे के अनुसार उत्तर देने के लिए बाध्य हो जाएगा। पिछले लेख में हमने समझा था कि “विश्वास से” प्रार्थना माँगने का अर्थ है परमेश्वर और उसके वचन को जानते और समझते हुए, वचन में लिखी बातों तथा परमेश्वर की इच्छा से सुसंगत बातों को परमेश्वर से माँगना। ऐसी कोई भी प्रार्थना जो परमेश्वर की इच्छा और उसके वचन में दी गई बातों के अनुसार नहीं है, परमेश्वर उन बातों का सकारात्मक उत्तर नहीं देगा; हम चाहे कितने भी “विश्वास से” या लालसा से क्यों न माँगे। आज हम इसी विषय को और आगे बढ़ाएंगे, और प्रार्थना का उत्तर न पाने के बारे में कुछ देखेंगे।
“विश्वास से प्रार्थना माँगने” का एक अन्य पक्ष भी है। हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर से कुछ छिपा नहीं। वह सर्वज्ञानी, अन्तर्यामी परमेश्वर है। इसलिए हमारा उससे यह कहना कि हम पूरे विश्वास से, या सच्चे विश्वास से उससे कुछ माँग रहे हैं, उसे प्रभावित नहीं कर सकता है, क्योंकि उसे हमारी वास्तविकता, हमारी मनोदशा, भली भाँति पता है। उसे पता है कि हमने क्यों और किस लिए, किस उद्देश्य से प्रार्थना माँगी है। वह यह भी जानता है कि अपनी आवश्यकता या समस्या का समाधान ढूँढ़ने के लिए, प्रार्थना में उसके पास आने और माँगने से पहले, हमने अन्य क्या-क्या यत्न करे हैं। वह यह भी जानता है कि विकल्प के रूप में हमने अन्य क्या योजनाएं बना रखी हैं, कि यदि उससे प्रार्थना करने से काम नहीं बना, तो फिर और किस रीति से उस आवश्यकता को पूरा किया जाए या काम को किया जाए। परमेश्वर से प्रार्थना माँगने वालों द्वारा सामान्यतः कही जाने वाली यह सारी बातें, और किए जाने वाले यह सभी वैकल्पिक काम, विश्वास की दृढ़ता को नहीं, उसके खोखलेपन को, अविश्वास को दिखाते हैं। बाइबल में लिखी गई परमेश्वर के लोगों की प्रार्थनाओं पर ध्यान कीजिए। क्या परमेश्वर के किसी भी जन को, उसके किसी भी नबी को, या प्रेरित को, या अनुयायी को कभी भी यह कहने की आवश्यकता पड़ी कि वह “विश्वास से” प्रार्थना माँग रहा है, ताकि परमेश्वर उनके पक्ष में काम करे? जो परमेश्वर के लोग हैं, वे जानते हैं कि परमेश्वर उनके बारे में, उनकी आवश्यकताओं के बारे में, सब कुछ जानता है, और प्रावधान करता है। उन्हें किसी भी रीति से परमेश्वर को प्रभावित या बाध्य करने का कोई भी प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमेश्वर के लोगों की प्रार्थनाओं से हमें सीखना चाहिए, और उनके समान प्रार्थनाएं माँगनी चाहिएं।
इस से सम्बन्धित एक अन्य बात है कि यदि परमेश्वर पर हमारा विश्वास वास्तव में सच्चा और खरा है, दृढ़ है, तो फिर हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति और समस्याओं के समाधान के लिए उसके पास, हमारे अपने अन्य सभी तरीकों के विफल हो जाने के बाद नहीं जाएंगे। वरन किसी भी अन्य तरीके से प्रयास करने से पहले ही, सबसे पहले, उसी के पास जाएंगे, यह जानते और समझते हुए कि उसके पास हमारी हर आवश्यकता, हर समस्या कि न केवल जानकारी है, वरन समाधान भी पहले से मौजूद है। इसलिए हमें कहीं और जाने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। दूसरी बात, “विश्वास से” माँगने वालों को इस बात का भी ध्यान करना चाहिए कि यदि परमेश्वर उनकी इच्छा के अनुसार उत्तर नहीं दे रहा है, तो यह भी हमारी भलाई ही के लिए है। इसलिए “विश्वास से” माँगने वालों को उसकी बात मानने के लिए, अनुत्तरित प्रार्थना के कारण सम्भावित हानि उठाने को भी तैयार रहना चाहिए, न कि अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए परमेश्वर की अनसुनी करने वाला होने के। और तीसरी बात, परमेश्वर चाहे हमारी सुने अथवा न सुने, हमारी इच्छा के अनुसार उत्तर दे अथवा न दे, “विश्वास से” उससे माँगने वालों को, यदि परमेश्वर प्रार्थना को न सुने और अपेक्षित उत्तर न दे, तो उसे छोड़ कोई अन्य विकल्प तैयार करके नहीं रखना चाहिए; क्योंकि विकल्प रखना दिखाता है कि विश्वास खरा नहीं है। यदि हमारे द्वारा “विश्वास से माँगना” वास्तव में इन बातों को पूरा करता है, तब तो वह वास्तव में “विश्वास से माँगना” है; अन्यथा वह खोखले निरर्थक शब्दों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और परमेश्वर ऐसी व्यर्थ बातों से न तो प्रभावित होता है, और न ही उनका कोई उत्तर देता है।
परमेश्वर ने याकूब 4:1-4 में प्रार्थनाओं का उत्तर न मिलने का एक और कारण दिया है - बुरी लालसा से, अपने भोग विलास के लिए माँगना; तथा परमेश्वर के नहीं, वरन संसार के लोगों के सदृश्य जीवन जीना, और परमेश्वर के बैरी बनकर रहना। ध्यान कीजिए, यह फिर से इस विषय पर आरम्भ में कही बात की ओर ध्यान खींचता है कि परमेश्वर किन लोगों की, और कैसी प्रार्थनाओं को सुनता है। जिन लोगों में परमेश्वर के प्रति सच्चा प्रेम और समर्पण नहीं है, उसकी आज्ञाकारिता नहीं है, और जिनकी प्रार्थनाएं परमेश्वर की महिमा के लिए नहीं, केवल शारीरिक लालसाओं और साँसारिक बातों से ही सम्बन्धित हैं, वे परमेश्वर से प्रार्थनाओं के उत्तर पाने की आशा कैसे रख सकते हैं? ऐसे लोगों की स्वार्थी और शारीरिक भोग-विलास से, परस्पर डाह और झगड़ों से सम्बन्धित प्रार्थनाएं, चाहे वे विश्वास करने के कितने भी और कैसे भी दावों के साथ क्यों न माँगी गई हों, हमेशा ही अनुत्तरित ही रहेंगी।
अगले लेख से हम उन उदाहरणों को देखना आरम्भ करेंगे, जिनकी अधूरी समझ और गलत व्याख्या के आधार पर यह गलत धारणा और अनुचित शिक्षा दी जाती है कि प्रभु ने उसके नाम से या विश्वास से माँगी गई प्रार्थनाओं का अवश्य ही सकारात्मक उत्तर देने की प्रतिज्ञा दी है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 69
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (11)
For practical Christian living, four things have been given in Acts 2:42, the fourth of these is praying - the subject of our current study. We have seen in the previous articles that to pray is not just asking God for things or to do something. Rather, it is conversing with Him, sharing with Him, and listening to what He has to say. It is God’s instruction that His people should always be praying to Him, i.e., be conversing with Him about everything, so that they remain safe from being misled by Satan and committing sin. A very common and popular wrong concept and teaching about prayer is that God has promised to give a positive response to every prayer made to Him “in faith.” For the past few articles, we have been learning about this from God’s Word the Bible. We have been seeing about whose and what kind of prayers God has promised to answer positively. From this we have seen that contrary to the popular but incorrect notion, God has not made any universal promise that if anyone asks for something “in faith,” then God will be under compulsion to answer the prayer just as asked for. In the previous article we had understood that to ask “in faith” means to know God’s Word and will, and ask in accordance with what is written in God’s Word, and that which is consistent with His will. Any prayer that is not in accordance with what is written in God’s Word or His will, God will never give a positive response to it; no matter in however much faith and desire they may have been asked with. Today we will carry on with this topic, and will also see something about not receiving answers to prayers.
There is another aspect to “asking in faith.” We have seen in the earlier articles that there is nothing hidden from God. He is the all-knowing God who knows everything within us. Therefore, our claiming before Him that we are asking in faith or in true faith, cannot impress Him, since He well knows what is in our hearts, what we really are. He knows why, and for what purpose we have asked for a thing. He also knows what all we have tried to do, before coming to Him to get the solution to our need or problem. God also knows the alternatives we have planned or kept ready in case our praying to Him does not work according to our expectations. All these things spoken of and done as possible alternatives, by those who claim to ask in faith, are not indicators of the steadfastness of faith but of its being hollow, and of the lack of faith. Consider the prayers of the people of God, His prophets, His Apostles, His followers, given in the Bible; did any of them ever have to use this phrase of “asking in faith” for God to act on their behalf? God’s people know that God knows everything about them and their needs, and makes the necessary provisions. There is no need for them to impress God or compel Him in any way. We should learn from the prayers of God’s people, and pray like they did.
There is another related matter, that if our faith in God is sincere and steadfast, then we will not go to Him for having our needs met or for the solution to our problems, after we have exhausted everything that we could do on our own. Rather, we will go to Him, before going anywhere else or doing anything else; knowing that He not only knows about all our needs and everything about our problem, but that He already has the solution to everything. Therefore, there is no need for us to go anywhere for anything. Secondly, those who claim to ask “in faith” should also keep in mind that if God is not granting something according to our will, then He is doing it for our benefit. Therefore, those who claim to ask “in faith” should be willing to accept the possibility of some loss due to an unanswered prayer, instead of being the ones who overlook God’s will to have their own wills fulfilled. And thirdly, whether God listens to our prayers or not, whether or not He answers them as per our desires, those claiming to pray and ask “in faith” should not have any other alternatives worked out and kept ready, in case God does not answer and give what they want. Because keeping an alternative ready, shows that the faith is not sincere. If our “asking in faith” is according to these things, then it genuinely is “asking in faith;” else it is nothing more than empty and meaningless words. And God cannot be impressed by such vain words, nor does He answer them.
In James 4:1-4, God has given another reason for unanswered prayers - asking with wrong desires, lust, and for inappropriate physical pleasures; living not as people of God but as people of the world, as those who are enemies of God. Take note, this once again draws our attention to what was said at the beginning of this topic, about the kind of people whose prayers God answers, and the kind of prayers that He answers. The people who do not truly love God and are not actually committed to Him, are not obedient to Him, those whose prayer requests are not for glorifying God, but only for physical gratification, lusts, and the things of this world, on what basis should they expect God to answer their prayers? Their selfish prayers, their prayers about physical lusts, covetousness, mutual enmity etc. will never be answered, no matter how intense their claim of “asking in faith” may be, and how many times they have asked them.
From the next article we start considering the examples that are used with an incomplete understanding and wrong interpretation, to preach and teach this wrong notion that the Lord will answer all prayers made in His name or “in faith” in the affirmative.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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