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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 79
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (21)
परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी की इस श्रृंखला के आरम्भ में हमने देखा था कि प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को जानना और मानना आवश्यक है। साथ ही हमने देखा था परमेश्वर के वचन बाइबल कि विभिन्न शिक्षाओं में से तीन प्रकार की शिक्षाओं के सही निर्वाह के साथ मसीही विश्वासियों की वृद्धि, कलीसियाओं की बढ़ोतरी, और मसीहियों की आत्मिक जीवन में उन्नति विशेष रीति से सम्बन्धित रही है। ये तीन प्रकार की शिक्षाएं हैं सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएं, इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक शिक्षाओं की छः बातें, और व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित शिक्षाएं, जो मुख्यतः प्रेरितों 2 और 15 अध्यायों में दी गई हैं। व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित सात शिक्षाएं प्रेरितों 2 अध्याय में दी गई हैं। इनमें से पहली तीन मसीही विश्वास में आने से सम्बन्धित हैं और पतरस द्वारा किए गए प्रचार के अन्त की ओर, प्रेरितों 2:38-41 में दी गई हैं। फिर प्रेरितों 2:42 में चार बातें दी गई हैं, जिनका आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर निर्वाह किया करते थे। इन चार में से अब हम, जैसा हमने इससे पहले की तीन शिक्षाओं के बारे में किया है, चौथी शिक्षा, प्रार्थना करने के बारे में वचन में दिए गए उदाहरणों और हवालों से देख और सीख रहे हैं। हमने इन चारों के बारे में देखा है कि आज के अधिकाँश मसीही इन का केवल एक रस्म के समान, औपचारिकता पूरी करने के लिए निर्वाह करते हैं, इसलिए इनकी आशीषों से वंचित रहते हैं, अपने आत्मिक जीवनों में उन्नति नहीं करते हैं, और कलीसियाओं में भी बढ़ोतरी नहीं होती है। प्रार्थना के विषय पर पिछले लेखों में यह देखने के बाद कि प्रार्थना क्या है, हमने बाइबल के आधार पर मसीहियों में व्याप्त कुछ भ्रांतियों पर विचार किया था। हमने परमेश्वर द्वारा प्रार्थनाओं के सकारात्मक उत्तर देने से सम्बन्धित भ्रांतियों के बारे में देखा और समझा है; और आज एक अन्य भ्रांति - ‘प्रभु की प्रार्थना’ के बारे में वचन से कुछ बातों को बहुत संक्षेप में देखेंगे।
मसीहियों में परमेश्वर से की जाने वाली प्रार्थनाओं में एक बहुत आम प्रार्थना है ‘प्रभु की प्रार्थना’ जिसके बिना शायद ही कोई मसीही आयोजन या उत्सव पूरा होता हो। यह ‘प्रार्थना’ बचपन से ही रटा दी जाती है, और फिर जीवन पर्यन्त बिना उसे, उसके तात्पर्य, उसकी उपयोगिता को समझे, उसे प्रत्येक मसीही कार्यक्रम में बोला जाता है। यदि न बोला जाए तो उपस्थित लोगों को लगता है कि कुछ कमी रह गई है, परमेश्वर की आशीष नहीं मिलेगी। जिसे सामान्यतः ‘प्रभु की प्रार्थना’ कहा जाता है, उसका प्रभु द्वारा पूरे नए नियम में केवल दो बार उल्लेख हुआ है। पहली बार हम प्रभु द्वारा इसे मत्ती 6:9-13 में देखते हैं, जहाँ पहाड़ी उपदेश में प्रभु अपने शिष्यों को प्रार्थना के बारे में सिखा रहा है (मत्ती 6:5-15); और यह ‘प्रभु की प्रार्थना,’ प्रभु द्वारा दी गई प्रार्थना से सम्बन्धित शिक्षाओं का एक भाग है। दूसरी बार हम इसका उल्लेख लूका 11:1-4 में मिलता है, जब शिष्यों ने प्रभु से निवेदन किया कि वह उन्हें प्रार्थना करना सिखाए, और प्रभु ने उन्हें इस ‘प्रार्थना’ को सिखाया। इन दोनों उल्लेखों के अतिरिक्त, न तो प्रभु ने फिर कभी इस ‘प्रार्थना’ को स्वयं बोला, और न ही कहीं लिखा है कि प्रभु के शिष्यों ने प्रार्थना के इन शब्दों को कहीं पर किसी बात के लिए प्रयोग किया। प्रेरितों के काम और पत्रियों में भी कहीं पर इस प्रार्थना का कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
नए नियम की सभी पत्रियाँ, चाहे वे किसी कलीसिया को लिखी गई हों, अथवा किसी व्यक्ति को, उन्हें वचन की सही शिक्षा देने, और उनकी गलतियों को सुधारने के लिए लिखी गई थीं। इन सभी में इस ‘प्रभु की प्रार्थना’ का कोई उल्लेख न होना ध्यान देने और विचार करने योग्य बात है। आज जिन मसीहियों को प्रार्थना करनी नहीं आती है, वे प्रार्थना करने की औपचारिकता का निर्वाह करने के लिए केवल इस ‘प्रार्थना’ को दोहरा लेते हैं; जब मसीही किसी चिन्ता या परेशानी में होते हैं, तब वे इसे ‘मन्त्र’ के समान जपते रहते हैं; जब भी किसी भी बात के लिए, किसी मसीही कार्यक्रम आयोजन होता है तो उसमें इसे सामूहिक रीति से बोला जाता है; इसे स्मरण रखना और इसे बोल पाना एक तरह से ‘मसीही’ होने की पहचान के समान देखा और समझा जाता है; आदि। किन्तु आज पाई जाने वाली इन बातों की तुलना में, आरम्भिक मसीही विश्वासियों, कलीसियाओं, और प्रेरितों तथा मसीही अगुवों एवं प्रचारकों में इस प्रार्थना से सम्बन्धित इनमें से एक भी बात का न होना हमारे सामने यह बात लाता है कि या तो इस ‘प्रार्थना’ का आज के समान यह प्रयोग वचन से सुसंगत नहीं है, वचन की शिक्षा नहीं है, एक बाद में डाली गई बात है; या फिर परमेश्वर के वचन के लिखे जाने में कुछ कमी रह गई और इस ‘प्रार्थना’, उसके महत्व, और उसके उपयोग से सम्बन्धित बातें लिखी जाने से रह गईं। क्योंकि परमेश्वर का वचन सिद्ध है, बिना किसी त्रुटि का है, अपरिवर्तनीय है, और इसमें किसी सुधार अथवा कुछ भी जोड़े जाने की कोई सम्भावना नहीं है, इसलिए सम्भव निष्कर्ष केवल यही है कि इस ‘प्रभु की प्रार्थना’ का वर्तमान स्वरूप और निर्वाह, इसका आज का यह प्रयोग, प्रभु अथवा पवित्र आत्मा द्वारा सिखाई बात नहीं है, वरन मनुष्यों द्वारा बाद में जोड़ी गई, डाली गई बात है।
हम अगले लेख में भी इसी विषय पर आगे विचार करेंगे, और ‘प्रभु की प्रार्थना’ के बारे में कुछ और बातों को सीखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 79
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (21)
At the beginning of this series on Growth through God’s Word, we had seen that every Christian Believer should learn and obey the whole of God’s Word. We had also seen that of the various teachings of God’s Word, the proper observance of three kinds of teachings has been associated with increase in the number of Christian Believers, growth of the churches, and spiritual edification of the Christian Believers. These three kinds of teachings are, teachings related to the gospel, the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, and teachings related to practical Christian living, which are mainly found in Acts chapter 2 and 15. Seven of these teachings are given in Acts chapter 2. Of these seven the first three are related to coming into the Christina faith and are found towards the end of Peter’s sermon, in Acts 2:38-41. Then, in Acts 2:42, four things are given, which the initial Christian Believers used to observe steadfastly. Of these four, as we have done about the initial three teachings, we are learning about the fourth one, praying, through the examples and references given in the Bible. We have seen that the Christians today observe them more as a ritual, to fulfill a formality, and therefore remain lacking in the blessings, are not edified in their spiritual lives, and the churches do not grow. In the previous few articles, we have learnt what prayer is, and then based on the Bible had considered some misconceptions rampant amongst the Christians related to prayer. We have also seen and learnt about the common and popular misconceptions related to God answering the prayers made to Him in the affirmative. Today we will begin considering about another misconception - ‘The Lord’s Prayer’ very briefly.
Amongst the prayers said by the Christians, a very commonly said prayer is ‘The Lord’s Prayer’ without which hardly any Christian function or occasion is considered complete. This ‘prayer’ is memorized in childhood, and then throughout the lifetime, without knowing, learning, or understanding its meaning, implications, and utility, it is spoken out by rote, in every Christian program. If it is not said, then the people attending the function have a feeling of things being incomplete, and that God’s blessings will not come since it was missed out. We see this prayer was first given by the Lord in His Sermon on the Mount in Matthew 6:9-13, where, when the Lord is teaching His disciples about prayers (Matthew 6:5-15), a part of those teachings is this ‘prayer.’ The second mention of this prayer is in Luke 11:1-4, when the disciples requested the Lord to teach them to pray, and the Lord taught this ‘prayer’ to them. Other than these two instances, neither did the Lord speak this prayer at any time or any place else; nor is it written that the disciples ever used these words, at any time, place or occasion. There is no mention or reference to this prayer, anywhere in the book of Acts or in any of the letters.
All the letters of the New Testament, whether they were written to the churches or to any person, were written to give the right teachings and to correct the wrong teachings amongst them. That this ‘prayer’ is not mentioned in any of them, is something worthy of being taken note of and pondered over. Today, the Christians who do not know how to pray, they merely speak it out by rote to fulfill the formality of having “prayed;” if the Christians get caught in any trouble or problem, they start reciting this prayer like a “chant” or a “mantra;” at all Christian programs, this ‘prayer’ is spoken by rote by the people gathered there; the ability to remember and recite this ‘prayer’ is considered a kind of ‘proof’ of the person being a “Christian,” etc. But in contrast to these things that are seen today related to this ‘prayer,’ not even one of these things were seen or done amongst the initial Christian Believers, churches, Apostles and other Church Elders. This brings a point to ponder over before us, that either this use (rather misuse) of this ‘prayer’ is not consistent with the teachings of God’s Word, is something that was added later. Else, it implies that there was something lacking in the initial writing of God’s Word; the things related to this ‘prayer,’ its importance, its utility, etc. somehow got missed out and were then added in later on. Since God’s Word is perfect, inerrant, unchanging, and there is no scope or possibility of any modification or of adding anything to it; therefore, the only possible conclusion is that the present-day form and observance of this ‘Lord’s Prayer,’ the way it is used today, are not things taught by the Lord or the Holy Spirit, but something that has been added later on by men.
In the next article we will consider further about this topic, and learn some more things related to the ‘Lord’s Prayer.’
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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