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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 89
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (31)
व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के बारे में सीखते हुए, हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों को, जिनका पालन आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर किया करते थे, परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए उनसे सम्बन्धित पदों और उदाहरणों के आधार पर देख रहे हैं। पहली तीन बातों को देखने के बाद अब हम चौथी बात, प्रार्थना करने के बारे में मत्ती 6:5-15 के आधार पर विचार कर रहे हैं। हम देख चुके हैं कि जिसे सामान्यतः “प्रभु की प्रार्थना” कहा जाता है, और जिसे बचपन से ही रट लेने के बाद सामान्यतः मसीही हर अवसर पर और हर बात के लिए, बिना उसके बारे में सोचे-समझे, उस पर विचारे, यूँ ही बोलते रहते हैं, वह वास्तव में प्रभु यीशु द्वारा दी गई कोई ‘प्रार्थना’ नहीं है। बल्कि पिता परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाएं बनाने के लिए एक रूपरेखा, एक ढाँचा है। प्रत्येक मसीही को प्रभु द्वारा दिए गए इस ढाँचे के अनुसार अपने आप को, अपने जीवन और व्यवहार को सही करके, उसमें दी गई बातों के आधार पर परमेश्वर के सामने प्रस्तुत करने के लिए अपने निवेदनों को तैयार करना चाहिए। पिछले लेख में हमने देखा था कि किस प्रकार से शैतान ने हमें बहका और भरमा कर, यहाँ पर प्रभु ने जो प्रार्थना के विषय दिए हैं, उन्हें तो नज़रन्दाज़ करवा दिया है। लेकिन इससे थोड़ा सा आगे, मत्ती 6:19-34 में जो बातें परमेश्वर ने स्वतः ही अपने सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी विश्वासियों को उपहार के समान देने के लिए रखी हुई हैं, उन्हें हमारे प्रार्थना के विषय बनवा दिया है। परिणामस्वरूप, हमें न तो प्रार्थना वाली बातें मिलती हैं, और न ही उपहार में मिलने वाली बातें। क्योंकि पहली हम माँगते नहीं हैं, और दूसरी को पाने के लिए जो करना चाहिए उसे करने की बजाए, उनके लिए बस प्रार्थना करते रह जाते हैं। परमेश्वर के वचन को समझने और पालन करने में गलती हमारी है, किन्तु अपेक्षित उत्तर न पाने के लिए हम दोष परमेश्वर पर लगाते हैं, कि वह हमारी सुनता ही नहीं है। जबकि सच तो यह है कि हम उसकी नहीं सुनते हैं, उसके कहे के अनुसार नहीं करते हैं; बल्कि मनुष्यों की कही और गढ़ी हुई बातों में, उनकी सिखाई हुई गलतियों में फंसे और हानि उठाते रहते हैं। आज हम प्रभु द्वारा प्रार्थना में माँगने के लिए जो तीन बातें दी हैं, उनपर विचार करना आरम्भ करेंगे।
जैसा हमने पहले देखा है, मत्ती 6:11-13a में प्रभु ने तीन बातें बताई हैं, जिन्हें मसीही विश्वासियों को पिता परमेश्वर से माँगना चाहिए। पहली बात, पद 11 में दी गई है, “हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे” (मत्ती 6:11)। प्रभु की यह बात इस्राएलियों के मिस्र के दासत्व से निकलकर मिस्र की यात्रा के समय उनके भोजन के बारे में ध्यान करवाती है। हम उत्पत्ति 16 अध्याय में देखते हैं कि उन इस्राएलियों के भोजन के लिए, परमेश्वर उन्हें प्रतिदिन मन्ना दिया करता था। उन्हें प्रतिदिन सवेरे उठकर उसे एकत्रित करना होता था, और उनके पास हमेशा परिवार के प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकता के अनुसार दिन भर का मन्ना उपलब्ध रहता था, चाहे वे कम या अधिक, जितना भी एकत्रित करें। यदि अधिक एकत्रित करते थे, तो जो आवश्यकता से अधिक था, वह सड़ जाता था; और यदि कम एकत्रित किया होता था, तो भी कोई भूखा नहीं रहता था। केवल सबत के दिन के लिए वे दो दिन की आवश्यकता के अनुसार मन्ना एकत्रित किया करते थे, और वह खराब नहीं होता था। जब तक वे इस्राएली कनान में आकर बस नहीं गए, उनके पास खेती करके भोजन का साधन नहीं हो गया, परमेश्वर उन्हें मन्ना देता रहा (यहोशू 5:12)। लेकिन जंगल की 40 वर्ष की यात्रा में परमेश्वर के उन लोगों, इस्राएलियों को, कभी एक दिन, या एक बार भी मन्ना दिए जाने के लिए परमेश्वर से कोई प्रार्थना नहीं करनी पड़ी। परमेश्वर ने प्रतिज्ञा की थी कि उन्हें प्रतिदिन मन्ना मिलेगा, और प्रति भोर, मन्ना उनके लिए उपलब्ध होता था, उन्हें बस जाकर उसे एकत्रित करना होता था। तो फिर प्रभु यहाँ पर अपने शिष्यों से प्रतिदिन की रोटी माँगने के लिए क्यों कह रहा है? उसने, उन शिष्यों से यह क्यों नहीं कहा कि परमेश्वर से माँगो कि जैसे इस्राएलियों को प्रतिदिन उनका भोजन मिल जाता था, वैसे ही हमें भी जीवन भर स्वतः ही भोजन मिलता रहे; माँगने की आवश्यकता ही न हो?
उस समय की इस्राएलियों की परिस्थिति का ध्यान कीजिए; वे यात्रा में थे। परमेश्वर उनके मार्ग का, उन्हें कितना चलना है, कब और कहाँ रुकना है, कितने समय रुकना है, कब फिर से चल देना है, अगला पड़ाव कब और कहाँ होगा, आदि सभी बातों को तय करता था, और उसके अनुसार उन्हें लेकर चलता था (गिनती 9:17-22)। इसलिए उस पूरी यात्रा में, उनकी बलवई और अनाज्ञाकारिता की प्रवृत्ति के बावजूद, उन इस्राएलियों के पास सिवाए परमेश्वर पर मन्ना के लिए निर्भर रहने के, भोजन के लिए अन्य कोई विकल्प था ही नहीं। वे मिस्र के भोजन को याद करके विलाप कर सकते थे, लेकिन कनान में पहुँचने से पहले वैसे भोजन को प्राप्त नहीं कर सकते थे। उन इस्राएलियों के समान, आज के मसीही भी बलवई हैं, ढीठ और अनाज्ञाकारी तो हैं; लेकिन एक तरह से, भोजन के लिए परमेश्वर पर निर्भर नहीं हैं। आज वे अपने प्रयत्न, अपने परिश्रम से, या संसार के साथ समझौते करके, शारीरिक भोजन प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए, अपने शिष्यों को प्रार्थना में माँगने के लिए पहली बात प्रतिदिन का भोजन, को रखने के द्वारा प्रभु अपने शिष्यों के अन्दर यह प्रवृत्ति, यह निर्भरता चाहता है कि वे अपनी शारीरिक सामर्थ्य और साँसारिक योग्यता पर, अपनी सम्पन्नता पर भरोसा ना करें, वरन केवल परमेश्वर पर निर्भर रहने वाले हों।
उन इस्राएलियों के, परमेश्वर के प्रति हर प्रकार के व्यवहार के बावजूद, परमेश्वर उन्हें प्रतिदिन उनकी आवश्यकता के अनुसार मन्ना देता ही रहा; उसे कभी रोका नहीं। अर्थात परमेश्वर के प्रावधान उसके लोगों के लिए हमेशा और हर परिस्थिति में उपलब्ध रहते हैं, “जवान सिंहों तो घटी होती और वे भूखे भी रह जाते हैं; परन्तु यहोवा के खोजियों को किसी भली वस्तु की घटी न होवेगी” (भजन 34:10)। लेकिन जो परमेश्वर पर नहीं, बल्कि स्वयं पर निर्भर रहते हैं, वे नहीं जानते हैं कि कब परिस्थिति बदले, कब कोई दुर्घटना, कोई रोग, कोई आपदा आए, और वे सम्पन्नता से कंगाली में पहुँच जाएं; बहुतायत से निकलकर दाने-दाने को तरस जाएं। संसार कि जिन लोगों पर वे भरोसा कर रहे हैं, वे कब उन्हें धोखा दे दें, कब उनसे उनका सब कुछ छीन लें। इसलिए प्रभु के सच्चे शिष्यों को परमेश्वर से जो माँगना है, उसमें सब से पहली बात है परमेश्वर पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति, जिससे वे कभी किसी धोखे में, हानि में न आएं; उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति का स्त्रोत हमेशा उपलब्ध बना रहे। अगले लेख में हम यहाँ से आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 89
The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (31)
While learning about things related to practical Christian living, we have been considering the four things given in Acts 2:42, which the initial Christian Believers observed steadfastly, through the examples and verses given about them in God’s Word, the Bible. Having seen the first three things, we are now considering the fourth one, prayer; and on the basis of Matthew 6:5-15 we are seeing about the “Lord’s Prayer.” We have seen that what is commonly called the “Lord’s Prayer,” and is usually memorized in childhood and then is routinely spoken by rote on all occasions, for everything without trying to understand about it or ponder over it, is actually not a ‘prayer’ given by the Lord. Instead, it is an outline, a framework to build prayers acceptable to God the Father. Every Christian should correct and build their lives and behavior according to this framework and the things given in it, and then prepare their prayers to offer to God according to this outline. In the previous article we have seen how Satan has deceived and misled us to ignore the things stated by the Lord in these verses to pray about. But a little ahead, in Matthew 6:19-34 what God has given as things that He will automatically gift to His true, surrendered, obedient disciples, those, under Satan’s influence on us, have become our prayer points. Consequently, neither do we receive the things that should be our topics for prayer, nor those which are meant to be given as gifts or rewards. Because we never pray and ask for the first ones, and do not do what we should be doing to receive the second ones, but only keep praying about them. The fault of not understanding and obeying God’s Word is ours, but since we do not get our expected answers, we hold God responsible and accuse Him of not answering our prayers. Whereas, the truth is that instead of listening to God, we listen to men and their contrived teachings, and remain caught up in their wrong teachings and keep suffering loss. Today we will begin considering the three topics for prayer that have been stated by the Lord here.
As we have seen earlier, the Lord has said three things in Matthew 6:11-13a, which the Christian should be praying about to God. The first is in verse 11 “Give us this day our daily bread” (Matthew 6:11). What the Lord has said brings to mind the way God provided food for the Israelites when they came out of slavery in Egypt and journeyed to the Promised Land. We see in Exodus chapter 16 that God gave them food for the day in the form of manna every day. Every morning the Israelites had to gather manna for the day, and they always had enough for the needs of the family throughout the day, no matter how much or how little they would gather. If they gathered in excess, it would rot, even if they had gathered less, no one went hungry. Only for the Sabbath day could they gather enough to last them for two days and it would not rot. They continued to receive manna till they settled in Canaan and had their first harvest (Joshua 5:12). But throughout their 40 years of travel in the wilderness, never once did the Israelite have to ask for manna to be provided to them. God had promised that they would receive it every morning, and every morning it was there, available for them; all they had to do was go and gather it for the day. Then why is the Lord asking His disciples to pray for their daily bread? Instead, why did He not ask the disciples to ask God to automatically keep giving them food daily, as He gave to the Israelites, without having to pray for it?
Ponder over the situation of the Israelites at that time; they were traveling. It was God who decided the way they had to take, for how long they had to continue traveling, when and where they were to break journey, for how long they had to stop, when they were to resume the journey, when and where would be the next camping, etc. (Numbers 9:17-22). Therefore, in that whole journey, despite their being rebellious, stiff-necked, and disobedient, the Israelites had no one but God to depend upon and no alternative for food except for the manna He provided to them as their food for the day. They could sorrow and lament for the food they ate in Egypt, but till they reached Canaan, they could never have it again. Like those Israelites, today’s Christians too are similarly rebellious, stiff-necked, and disobedient; but in a way, are not totally dependent upon God for their food as the Israelites were. Today, through their efforts, work, or compromising with the world, they can arrange for food for their physical needs. Therefore, by keeping their daily provision of food as the first prayer matter, the Lord wants the disciples to develop this tendency, this dependency that they will never rely on their physical strength, their capabilities, their prosperity, the world, but only trust and rely upon God for everything.
Despite whatever way those Israelites treated God, God continued to provide them with manna according to their needs; He never stopped it for them. In other words, God’s provisions are always available for His people, under all circumstances “The young lions lack and suffer hunger; But those who seek the Lord shall not lack any good thing” (Psalm 34:10). But those who depend not upon God but upon themselves, they never know when circumstances will change and they will go from being prosperous to being paupers. Some disease, some accident, some natural disaster would change everything for them. The people of the world that they have been relying upon, may deceive them and loot them out of everything they have. Therefore, the true disciples of the Lord, the first thing they should learn to ask from God is to have the nature of totally depending upon Him for everything, so that they will never be deceived by anyone, suffer any loss from anyone, and they always have available the inexhaustible source to meet their needs. From the next article, we will consider ahead from here.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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