मंगलवार, 5 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 242

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 87


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (29) 


आरम्भिक मसीही विश्वासी, अपने व्यावहारिक मसीही जीवन में चार बातों में लौलीन रहते थे। ये चार बातें प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं। उन बातों का लौलीन होकर पालन करने के कारण वे वचन में, विश्वास में, अपने आत्मिक जीवनों में स्थिर, दृढ़, और उन्नत होते चले गए, और कलीसियाएं बढ़ती चली गईं। इन्हीं चार बातों का मसीही आज भी पालन करते हैं, लेकिन एक रीति के समान, औपचारिकता पूरी करने के लिए। इसलिए आज के मसीहियों में इन बातों का वह आत्मिक उन्नति देने वाला प्रभाव नहीं है, जैसा आरम्भिक मसीही विश्वासियों के जीवनों में देखा जाता था। इन चारों बातों के बारे में, उनके मूल स्वरूप और पालन के बारे में हम परमेश्वर के वचन बाइबल में दिए गए सम्बन्धित पदों और उदाहरणों से सीखते आ रहे हैं। वर्तमान में, इनमें से चौथी बात, प्रार्थना पर विचार करते हुए, अब हम तथा-कथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में मत्ती 6:5-15 से देख रहे हैं। इस खण्ड से हमने देखा है कि पद 5-8 में परमेश्वर के सामने प्रार्थना, यानि उससे वार्तालाप, में आने से पहले अपने आप को कैसे तैयार करना है। फिर पद 9-13 में दी गई बात, जिसे “प्रभु की प्रार्थना” कहकर बचपन से रटा, और फिर हर अवसर पर, हर बात के लिए, उसके बारे में बिना सोचे-समझे बोला जाता है को देख रहे हैं। हमने देखा है कि यह वास्तव में प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके आधार पर प्रत्येक मसीही विश्वासी को अपनी वास्तविक प्रार्थना को बनाना है, ताकि वह परमेश्वर को स्वीकार्य हो। इसके आरम्भिक पद 9-10, परमेश्वर को ऊँचे पर उठाने, उसका गुणानुवाद करने, उसकी आराधना करने के बारे में हैं। अर्थात, परमेश्वर से कुछ माँगने और प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले को पहले, अपने जीवन में और अपने जीवन के द्वारा परमेश्वर का आराधक होना चाहिए, उसके बाद ही वह अपने निवेदन योग्य और उचित रीति से प्रस्तुत कर सकता है, कि वे स्वीकार्य हों, तथा परमेश्वर उनके सकारात्मक उत्तर दे। यहाँ पर, उन्हें समझने के लिए, पद 9 में दी गई तीन बातों को देखने के बाद, अब हम पद 10 में दी गई दो बातों का विश्लेषण कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर से कुछ प्राप्त करने की इच्छा को रखने वाले को साथ ही यह इच्छा भी रखनी चाहिए कि पृथ्वी पर परमेश्वर का राज्य आए तथा जैसे स्वर्ग में होती है वैसे ही पृथ्वी पर भी उसकी इच्छा पूरी हो। और इन दोनों बातों के आरम्भिक विश्लेषण में हमने देखा था कि उस व्यक्ति को सुसमाचार और परमेश्वर के वचन का प्रचार और प्रसार करने वाला होना चाहिए। आज हम पद 10 की इन्हीं दोनों बातों के बारे में थोड़ा और देखेंगे। यहाँ पर हमारा विषय और उद्देश्य परमेश्वर के राज्य, और परमेश्वर की इच्छा पर अध्ययन और चर्चा करना नहीं है, वरन इन दोनों को प्रार्थना के सन्दर्भ में देखना है; इसलिए हमारा यह अध्ययन उसी के अनुसार रहेगा।

 

पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा परमेश्वर के राज्य के बारे में लिखवाया है, “क्योंकि परमेश्वर का राज्य खाना पीना नहीं; परन्तु धर्म और मिलाप और वह आनन्द है; जो पवित्र आत्मा से होता है और जो कोई इस रीति से मसीह की सेवा करता है, वह परमेश्वर को भाता है और मनुष्यों में ग्रहण योग्य ठहरता है” (रोमियों 14:17-18); और “क्योंकि परमेश्वर का राज्य बातों में नहीं, परन्तु सामर्थ्य में है” (1 कुरिन्थियों 4:20)। ये दोनों ही पद परमेश्वर के राज्य के साथ जुड़ी हुई काल्पनिक या अप्रत्यक्ष नहीं बल्कि प्रत्यक्ष बातों को दिखाते हैं; अर्थात जो व्यक्ति परमेश्वर के राज्य से जुड़ा हुआ होगा, उसमें ये बातें दिखाई देंगी। रोमियों 14:17-18 के अनुसार, परमेश्वर के राज्य से जुड़े हुए व्यक्ति का व्यवहार शारीरिक बातों, शरीर की लालसाओं, भौतिक अभिलाषाओं आदि की प्राप्ति और उनकी पूर्ति नहीं है। वरन वह पवित्र आत्मा से मिलने वाली आत्मिक बातों - धर्म, मिलाप, आनन्द को अपने जीवन में दिखाता है। और जो इस तरह से मसीह की सेवा करता है, वह परमेश्वर को भाता है। जो परमेश्वर को भाता है, स्वाभाविक है कि वह परमेश्वर की इच्छा के अनुसार, उसके वचन के अनुसार चलेगा भी। और तब, उसकी प्रार्थनाएं भी परमेश्वर को स्वीकार्य होंगी, उनका सकारात्मक उत्तर मिलेगा। परमेश्वर के राज्य से सम्बन्धित दूसरे हवाले, 1 कुरिन्थियों 4:20 में सचेत किया गया है कि परमेश्वर का राज्य कोरी बातों में नहीं, वरन प्रकट सामर्थ्य में है। अर्थात कामों के द्वारा प्रकट दिखाई देता है। कुछ डिनॉमिनेशंस में इसे उछलने-कूदने, मुँह से निरर्थक आवाज़ें निकालने, लोगों को धरती पर गिराने, हाथ-पैर पटकने, आदि के रूप में दिखाया जाता है, जो बाइबल के साथ बिल्कुल भी मेल नहीं खाता है, और गलत व्यवहार है। जैसा हमने रोमियों 14:17-18 से देखा है पवित्र आत्मा की सामर्थ्य धर्म, मिलाप, और आनन्द के द्वारा प्रकट और प्रमाणित होती है; ऐसी व्यर्थ नाटकीय और वचन से असंगत बातों के द्वारा नहीं। कठिन और विपरीत परिस्थितियों में भी धर्म, मिलाप, और आनन्द के ईश्वरीय गुणों को बनाए रखना, उनका पालन करना, उनको प्रकट दिखाना, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य का काम और प्रमाण है।

 

मत्ती 6:10 में दी गई दूसरी बात है, पृथ्वी पर परमेश्वर की इच्छा वैसे ही पूरी होना, जैसी स्वर्ग में होती है। परमेश्वर की इच्छा क्या है, उसे कैसे जान सकते हैं, आदि बातें एक विस्तृत विषय है, जो हमारे इस अध्ययन और चर्चा से बाहर है। हम अपने सन्दर्भ के अनुसार परमेश्वर की एक इच्छा से सम्बन्धित थोड़ा सा विचार करेंगे। पौलुस प्रेरित ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में लिखा है, “वह [परमेश्वर] यह चाहता है, कि सब मनुष्यों का उद्धार हो; और वे सत्य को भली भांति पहचान लें”(1 तीमुथियुस 2:4)। स्वर्ग में ऐसा कोई मनुष्य नहीं पहुँचा है जिसका उद्धार न हुआ हो, जिसे परमेश्वर ने स्वीकार न किया हो। स्वर्ग में जितने भी प्राणी हैं, चाहे वे स्वर्गदूत और विभिन्न प्रकार के स्वर्गीय प्राणी हों, या वहाँ पहुँचे हुए मनुष्य, सभी सत्य को भली-भाँति पहचानते और पालन करते हैं। जो परमेश्वर के सत्य को नहीं पहचानता, उसका पालन नहीं करता है, वह स्वर्ग में रह ही नहीं सकता है। प्रभु, जब अपने शिष्यों को परमेश्वर से वार्तालाप या प्रार्थना करने की यह रूपरेखा सिखा रहा है, तो यहाँ पर वह उन को सिखा रहा है कि उन्हें भी, इस पृथ्वी पर रहते हुए भी, वही व्यवहार करना है जो स्वर्ग में होता है - परमेश्वर के सत्य को जानना, उसका पालन करना। और पृथ्वी पर यह केवल परमेश्वर के वचन के अध्ययन के द्वारा, परमेश्वर को पूर्णतः समर्पित और आज्ञाकारी रहने के द्वारा ही सम्भव है। जो ऐसा व्यवहार रखेगा, वह परमेश्वर को भाएगा, और परमेश्वर उसकी सुनेगा भी।

 

मत्ती 6:9-10 में हमने प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को सिखाई गई, परमेश्वर को ऊँचे पर उठाने वाली, उसका गुणानुवाद करने वाली पाँच बातों को देखा है - (i) परमेश्वर के साथ पिता-सन्तान का सम्बन्ध होना; (ii) परमेश्वर के उच्च स्थान और हस्ती का ध्यान रखना; (iii) परमेश्वर के नाम को आदर और सम्मान देना; (iv) परमेश्वर के राज्य की लालसा रखना; (v) परमेश्वर की आज्ञाकारिता। इन पाँचों बातों में से प्रत्येक का विश्लेषण हमें उस एक ही तथ्य की ओर ले जाता है जिसे हम पहले से देखते और कहते चले आ रहे हैं, कि परमेश्वर से कुछ माँगने, उससे प्राप्त करने की इच्छा को रखने वाले को पहले परमेश्वर का सच्चा, समर्पित, आज्ञाकारी शिष्य बनकर, फिर परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और उसके वचन से सुसंगत माँगना चाहिए। परमेश्वर अल्लाद्दीन की कहानी का जिन्न नहीं है कि कोई भी “प्रार्थना” नामक “चिराग” को कुछ विशेष वाक्यांशों के साथ रगड़े, और परमेश्वर उसकी इच्छा को पूरा करने के लिए बाध्य हो जाए। परमेश्वर से कुछ माँगने से पहले, उससे वार्तालाप करने से पहले, एक तैयारी आवश्यक है। उससे कुछ प्राप्त करने की लालसा रखने वाले को पहले उसे कुछ देने वाला - अपने जीवन में, तथा अपने जीवन के द्वारा, परमेश्वर को उसका उचित आदर, स्थान, और महिमा देने वाला होना चाहिए; और यह परमेश्वर के वचन एवं आज्ञाकारिता में बने रहने से ही सम्भव है। उसके बाद, वह जो भी परमेश्वर के वचन से सुसंगत, तथा परमेश्वर की इच्छा के अनुसार माँगेगा, परमेश्वर उसे उसके लिए पूरा करेगा।


अगले लेख से हम मत्ती 6:11-13a पर विचार करना आरम्भ करेंगे, कि एक सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी मसीही विश्वासी को किन बातों को परमेश्वर से माँगना चाहिए। अर्थात, वे कौन सी बातें हैं जो परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और उसके वचन से सुसंगत हैं, जिन्हें परमेश्वर अपने लोगों के लिए पूरा करता है।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 87


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (29)


The initial Christian Believers were steadfast in four things in their practical Christian living. These four things are given in Acts 2:42. Since they were steadfastly observing them, therefore they remained firm, established, and continually edified in their faith, spiritual lives, and God’s Word. The Christians observe the same four things today also, but as a ritual, just to fulfill a formality. Hence these things do not have the same spiritually edifying effect in the lives of the Christians today, as they had in the lives of those initial Believers. We have been learning about these four things, their original form and application, from the related verses and examples given in God’s Word the Bible. Presently, while considering the fourth thing, prayer, we have come to consider about the so-called “Lord’s Prayer” from Matthew 6:5-15. We have seen from this passage that verses 5-8 are about preparing to come before God for prayer, i.e., conversing with Him. Then in verses 9-13 is what is commonly known as the “Lord’s Prayer” which the Christians memorize as children, and then keep saying it on all occasions, for everything, without ever understanding it, or ever pondering over it. We have seen that actually this is not a “prayer” but an outline, a framework, which the Lord Jesus gave to His disciples for them to build their individual prayers, so that the prayers may be acceptable to God. Its initial verses 9-10, are about exalting God, praising Him, worshiping Him. Implying that those who desire to ask and receive something from God, must first be those who exalt and worship God in and through their lives, only then will they be able to put forth their desires in an appropriate and acceptable way, and receive an affirmative answer from God. Here to understand this, in verse 9 three things are given, which we have already seen; and are now analyzing at the two things given in verse 10. In the previous article we had seen that the one who desires to receive something from God, should also desire that God’s kingdom comes on earth and His will is done on earth as it is done in heaven. And through a brief analysis of these things, we had seen that this meant that the person should be one involved in preaching and spreading the gospel and the Word of God. Today we will see some more about these two things of verse 10. Here, our topic and goal is not to study and discuss about the Kingdom of God or about Knowing God’s Will; rather, we will only be looking at them in the context of Prayer, and so this study will be in accordance with that.


The Holy Spirit, had the Apostle Paul write about the Kingdom of God, “for the kingdom of God is not eating and drinking, but righteousness and peace and joy in the Holy Spirit. For he who serves Christ in these things is acceptable to God and approved by men.” (Romans 14:17-18); and “For the kingdom of God is not in word but in power” (1 Corinthians 4:20). Both verses show some tangible things, not imaginary or contrived, related to the Kingdom of God; i.e., these things will be evident and practically seen in the lives of those who are joined to the Kingdom of God. According to Romans 14:17-18, the behavior of the person joined to the Kingdom of God will not be about the receiving and fulfilling of physical things, fleshly lusts, and temporal things. Rather, he will exhibit in and through his life the spiritual things received in the Holy Spirit - righteousness, peace, and joy. And the one who serves Christ in this manner, is acceptable to God. Now, it is only natural that the one who is acceptable to God will live and walk according to God’s Word and will. Then, his prayers will be acceptable to God, and will be answered in the affirmative. In the second reference related to the Kingdom of God, 1 Corinthians 4:20, we have been cautioned that God’s Kingdom is not just empty talk or something imaginary, but it is evident in and through its power. Some denominations “demonstrate” the “power” through jumping and shaking, gibberish or making non-understandable sounds, making people fall down, throwing around their limbs, etc. and all of these are things absolutely inconsistent with the Bible, and are totally wrong. As we have seen from Romans 14:17-18, the power of the Holy Spirit manifests through and is proven by righteousness, peace, and joy, and not by such dramatic things inconsistent with the Bible. Maintaining and living by the divine qualities of righteousness, peace, and joy, and actively demonstrating them even in difficult and adverse circumstances is the evident power and proof of the Holy Spirit.


The second thing given in Matthew 6:10 is that God’s will be done on earth as it is in heaven. What is God’s will, how can we know God’s will, etc., are a vast topic, which are outside of our current study and discussion. In accordance with our context, we will briefly consider one aspect of God’s will. The Apostle Paul under the guidance of the Holy Spirit wrote that “who [God] desires all men to be saved and to come to the knowledge of the truth.” (1 Timothy 2:4). No person has ever reached heaven without first being saved, and having been accepted by God here on earth. Every creature in heaven, whether angels and other created heavenly beings, or the people who have reached there, they all know and follow the truth. Those who do not know or recognize God’s truth, do not follow the truth, cannot and do not stay in heaven. When the Lord Jesus is teaching His disciple to converse or to pray to God using this outline or framework that we are studying, then He is teaching them to do while here on earth, just as what is done in heaven - know God’s truth and follow it. On earth, this is possible only through studying God’s Word, and being fully surrendered and obedient to God. Those who exhibit such behavior, will be accepted by God, and God will listen to them.


From Matthew 6:9-10 we seen five things taught by the Lord Jesus for exalting and praising God - (i) Having a Father-son relationship with God; (ii) Keeping in mind the highly exalted position and stature of God; (iii) Giving honor and reverence to God’s name; (iv) Desire for the Kingdom of God; (v) Obedience to God. As we individually analyzed these five things, each analysis took us to the same point which we have been seeing and saying since before, the one who desires to ask and to obtain something from God should first become a true, surrendered, and obedient disciple of God, and then ask God for things consistent with the Word of God and according to the will of God. God is not the genie of the story of Alladin’s lamp, that anyone may rub the lamp i.e., say a prayer using some prescribed phrases, and God will be under compulsion to fulfill those desires. Before asking God for something, conversing with Him, a preparation is essential. The one who wants to receive something from Him, must first know to give something to Him - in and through His life give God His exalted primary status, the honor and glory that He is deserving of; and this is only possible by abiding in God’s Word and being obedient to Him. Only then, when the person asks for something in God’s will and consistent with His Word, will God fulfill his desire.


From the next article we will start considering Matthew 6:11-13a, what all should a true, surrendered, obedient Christian Believer ask from God? In other words, what are the things that are in accordance with God’s will and consistent with His Word; things that God fulfills for His people.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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