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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 37
इस श्रृंखला के आरम्भ में, हमने कहा था कि मसीही विश्वासी तथा कलीसिया, अपनी आत्मिक उन्नति एवं बढ़ोतरी के लिए, दोनों ही परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को भोजन के समान लेते रहने पर निर्भर हैं। यह कोई मात्र अटकल लगाना नहीं है, वरन परमेश्वर के लोगों के लिए परमेश्वर के वचन का दावा है (भजन 19:7-10; 1 पतरस 2:1-2; 2 पतरस 3:18)। परमेश्वर के लोगों से अपेक्षा रखी जाती है कि वे समस्याओं से बचे रहने के लिए परमेश्वर के समस्त वचन से अवगत रहेंगे और उसका पालन करते रहेंगे। परमेश्वर का वचन बाइबल हमें सिखाती है कि जब भी परमेश्वर से मिलने वाली समझ की घटी होती है, परमेश्वर के लोग स्वतः ही गम्भीर समस्याओं में गिरने लग जाते हैं (यशायाह 5:13; होशे 4:6)। इस श्रृंखला के आरम्भ में दिए गए आरम्भिक विचारों में, हमने देखा था कि तीन प्रकार की शिक्षाएँ हैं जो मसीही विश्वासियों एवं कलीसिया की बढ़ोतरी और उन्नति के लिए आधारभूत या मौलिक हैं, क्योंकि कलीसिया मसीही विश्वासियों का समूह ही है। ये तीन प्रकार की शिक्षाएँ हैं सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएँ; आरम्भिक बातों से सम्बन्धित शिक्षाएँ; व्यवहारिक मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित शिक्षाएँ।
इन तीनों में से हमने सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के साथ आरम्भ किया था, और समझा था कि ‘सुसमाचार’ शब्द का क्या अर्थ है। हमने देखा था कि पश्चाताप या मन-फिराव और सुसमाचार में विश्वास करना सुसमाचार के दो अनिवार्य पक्ष हैं। ये दोनों पक्ष एक ही सिक्के के दोनों ओर के समान हैं; जब तक कि दोनों विद्यमान न हों, सिक्का अधूरा है और उसकी कोई कीमत नहीं है। इसी प्रकार से जब तक व्यक्ति के जीवन में एक साथ ही वास्तविक पश्चाताप और खराई से सुसमाचार में विश्वास करना नहीं होता है, और यह उसके जीवन में लागू नहीं किया जाता है, तो सुसमाचार अप्रभावी या व्यर्थ होता है – जैसा हमने 1 कुरिन्थियों 15:1-4 से देखा, जहाँ पर और गलतियों 1:4 में, सुसमाचार का सार या मर्म दिया गया है। आज सुसमाचार की शिक्षाओं से सम्बन्धित इस अंतिम लेख में हम सुसमाचार के बहुत महत्वपूर्ण, बहुत सामर्थी, परन्तु अकसर नज़रन्दाज़ किए जाने वाले, पहचाने न जाने वाले, और मसीही विश्वासियों के जीवनों में लागू न किए जाने वाले पक्ष को देखेंगे। यदि इस पक्ष को समझ लिया जाए, ध्यान में बनाए रखा जाए, और जीवन में लागू किया जाए तो इससे मसीही विश्वासियों को अपने आत्मिक जीवन में बढ़ते रहने और शैतान की युक्तियों में नहीं फँस पाने में बहुत सहायता मिलेगी।
पवित्र आत्मा की अगुवाई में, प्रेरित पौलुस ने रोम के मसीही विश्वासियों को लिखा, “क्योंकि मैं सुसमाचार से नहीं लजाता, इसलिये कि वह हर एक विश्वास करने वाले के लिये, पहिले तो यहूदी, फिर यूनानी के लिये उद्धार के निमित परमेश्वर की सामर्थ्य है” (रोमियों 1:16)। सुसमाचार का यह गुण है कि वह उद्धार के निमित परमेश्वर की सामर्थ्य है, अर्थात वह सामर्थ्य है जो नरक के मार्ग पर अग्रसर घोर पापी को भी बदल कर पवित्र और महिमित परमेश्वर की सन्तान बना देता है, और जो प्रत्येक विश्वास करने वाले को उपलब्ध है। लेकिन फिर भी मसीही सँसार से डरा हुआ जीवन जीते हैं, शैतान और उसकी शक्तियों से हारा हुआ और उनके द्वारा दबाया गया जीवन जीते हैं, बजाए अपने जीवनों से सुसमाचार की सामर्थ्य को कार्यकारी दिखाने के।
पौलुस ने अठारह महीनों तक कुरिन्थुस में परिश्रम किया और वहाँ पर कलीसिया की स्थापना की थी (प्रेरितों 18:1, 11)। वहाँ से जाने के बाद में उसे पता चला कि उस कलीसिया में अनेकों समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं; उन समस्याओं के समाधान के लिए पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने उनको पत्र लिखे। उसके पत्रों में से दो को नए नियम में परमेश्वर के वचन का एक भाग बनाया गया है। हम 1 कुरिन्थियों के आरम्भ में देखते हैं कि आरम्भिक अभिवादन और आशीर्वाद के तुरन्त बाद पौलुस उन विभिन्न समस्याओं को, जो उसके ध्यान में लाई गई थीं, संबोधित करना आरम्भ कर देता है और उनका समाधान बताता जाता है; और यह पत्र के अंत तक चलता रहता है। पत्र के अंत की ओर आकर, जिसे हम अपने बाइबलों में 15 अध्याय के नाम से जानते हैं, पौलुस अपने पाठकों को सुसमाचार को स्मरण करवाता है। इस तथ्य पर थोड़ा विचार कीजिए; पौलुस का पत्र विश्वासियों को लिखा गया था, अविश्वासियों को नहीं; इस पत्र के अपने आरम्भ में पौलुस उन्हें “परमेश्वर की उस कलीसिया के नाम जो कुरिन्थुस में है” (1 कुरिन्थियों 1:2) सम्बोधित करता है। जबकि, सुसमाचार, जैसा हम उसके बारे में जानते और समझते हैं, अविश्वासियों को प्रभु में विश्वास के द्वारा उद्धार में लाने के लिए है। इसलिए, कुरिन्थुस के विश्वासियों को, उनकी गलतियों को दिखाने और उन्हें सही करने के दौरान, पौलुस द्वारा उन्हें सुसमाचार को स्मरण दिलाने की क्या आवश्यकता पड़ गई?
जब हम 1 कुरिन्थियों 15 को पढ़ते हैं, तो कुरिन्थुस के विश्वासियों को सुसमाचार स्मरण दिलाने के बाद, पौलुस उनके सामने सुसमाचार की सच्चाई और परिवर्तन लाने की उसकी सामर्थ्य को प्रमाणित करता है, और फिर उन्हें पुनरुत्थान के महत्व और विश्वासियों के लिए उसके प्रासंगिक होने से सम्बन्धित शिक्षाएँ देता है। ध्यान कीजिए, न केवल प्रभु का मारा जाना, और गाड़ा जाना, वरन उसका जी उठना भी सुसमाचार के आवश्यक भाग हैं। पौलुस में होकर पवित्र आत्मा अपनी त्रुटियों में फंसे हुए विश्वासियों को दिखा रहा है कि जब कभी तुम अपने आपको परीक्षाओं में पड़ा हुआ और शैतान की युक्तियों से अभिभूत पाओ, तो स्मरण करो कि परमेश्वर ने तुम्हारे लिए क्या कुछ किया है। ध्यान करो कि परमेश्वर ने तुम्हें कहाँ से उठाया, और कहाँ ला कर रखा है (1 कुरिन्थियों 1:26-31), और विचार करो कि आते दिनों के लिए उसकी तुम्हारे लिए क्या योजना है (1 कुरिन्थियों 15:51-58)। एक बार मसीही विश्वासी, उसके साथ होने वाली बातों, परिस्थितियों, परीक्षाओं, संघर्षों, विरोध, आदि को सुसमाचार के दृष्टिकोण से देखना सीख लेंगे, और फिर उसके अनुसार व्यवहार करने लगेंगे, तो शैतान के लिए विश्वासियों पर हावी होना और उन्हें पाप में गिराना बहुत कठिन हो जाएगा।
गलतियों 1:4 एक अन्य पद है जहाँ पर सुसमाचार का सार या मर्म दिया गया है, और गलतिया के विश्वासियों को लिखी गई यह पत्री सुसमाचार की उपरोक्त सामर्थ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है। गलतिया की कलीसिया उद्धार और उद्धार पाया हुआ जीवन जीते रहने के लिए विधियों के निर्वाह और व्यवस्था के पालन में विश्वास करने में गिरती जा रही थी। पौलुस ने उन्हें लिखे अपने पत्र के आरम्भ में, पवित्र आत्मा के द्वारा, स्मरण दिलाया कि उनके उद्धार का आधार, अर्थात सुसमाचार क्या है, और फिर उन्हें समझाया कि विश्वासी के द्वारा व्यवस्था के पालन में पड़ना कैसे व्यर्थ है (गलतियों 3:1-5, 10-14, 23-26; 4:9-11); और कैसे शैतान उन्हें बहका और भरमा रहा है कि वे परमेश्वर के अनुग्रह को भूलकर अपने कर्मों पर भरोसा करने लग जाएँ – अर्थात, व्यवस्था पालन, और व्यवस्था के पीछे चलने के अपने कर्मों पर। सो इस प्रकार, दोनों ही स्थानों से हम देखते हैं कि किस प्रकार से सुसमाचार विश्वासी को अपने उद्धार तथा परमेश्वर के साथ सम्बन्ध के विषय सही दृष्टिकोण में लौट आने, और परमेश्वर की सहायता से एक विजयी जीवन जीने में सहायता करता है। प्रत्येक मसीही विश्वासी को एक स्वर्गीय दृष्टिकोण बनाकर रहना चाहिए (कुलुस्सियों 3:1-2), और यह एक स्वाभाविक बात, स्वतः होने वाला कार्य हो जाएगा, यदि मसीही विश्वासी अपने आप को सुसमाचार के बारे में याद दिलाते रहेंगे, कि प्रत्येक विश्वास करने वाले के लिए यह उद्धार के निमित परमेश्वर की सामर्थ्य है; और फिर वे अपने आत्मिक जीवनों में एक अद्भुत सामर्थ्य और उन्नति को देखेंगे।
अगले लेख से हम इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भ की बातों को देखना आरम्भ करेंगे। हम उन्हें देखना, इन आरम्भ की बातों के परिचय के साथ, जो इब्रानियों 5:11-14 में दिया गया है, से करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 37
At the beginning of this series, we had said that the spiritual growth of the Church and the Christian Believer are both dependant upon their feeding on the whole of God’s Word. This is not mere conjecture, but the assertion of God’s Word for God’s people (Psalm 19:7-10; 1 Peter 2:1-2; 2 Peter 3:18). God’s people are expected to be well versed in all of God’s Word, and keep following it, to stay safe from falling into problematic situations. God’s Word the Bible teaches us that where there is lack of knowledge from God, God’s people automatically go into serious problems (Isaiah 5:13; Hosea 4:6). In the preliminary considerations at the beginning of this series, we had seen that there are three kinds of teachings that are fundamental for the growth and progress of Christian Believers, and therefore, of the Church, since it is the congregation of the Christian Believers. These three kinds of teachings are teachings related to the gospel; teachings related to the elementary principles; and teachings related to practical Christian living.
Of these three, we had started with the teachings related to the gospel and had understood what the term ‘gospel’ means. We saw that repentance and believing in the gospel are the two essential components of the gospel. These two components are like the two sides of the same coin; unless both are present together, the coin is incomplete and of no value. Similarly, unless true repentance and sincere believing in the gospel are accepted and applied in a person’s life simultaneously, the gospel is ineffective or vain – as we have seen from 1 Corinthians 15:1-4, where, along with Galatians 1:4, the gist of the gospel has been given. Today, in this concluding article on teachings related to the gospel, we will consider one very important, very powerful, but mostly neglected, unrealized, and unapplied aspect of the gospel, which if understood, kept in mind, and applied by Christian Believers in their day-to-day lives, will help them tremendously to live overcoming lives, not fall into Satan’s ploys, and to grow spiritually.
Under the guidance of the Holy Spirit, the Apostle Paul, wrote to the Christian Believers in Rome, “For I am not ashamed of the gospel of Christ, for it is the power of God to salvation for everyone who believes, for the Jew first and also for the Greek” (Romans 1:16). This characteristic of the gospel, that it is the power God to salvation, i.e., the power that turns a vile hell-bound sinner into a holy and glorious child of God, is available for everyone who believes. And yet the Christian Believers live fearful of the world, defeated and subdued by Satan and his forces, instead of demonstrating the effects of the power of the gospel at work in their lives.
Paul had laboured for eighteen months in Corinth (Acts 18:1, 11) to establish the Church there. Later, after he had gone elsewhere, he learnt of the various problems that had developed in that Church; and under the guidance of the Holy Spirit wrote letters addressed to the Church in Corinth to rectify those errors that had crept into them. We have two of his letters compiled in the New Testament as part of God’s Word. We see at the very beginning of 1 Corinthians, straightaway after the initial greetings and opening blessings, Paul starts addressing the various problems that were brought to his notice, and the way to rectify them; and this continues right through the letter. Towards the end of the letter, in what we have as chapter 15 in our Bibles, Paul reminds his readers of the gospel. Ponder over this fact; Paul's letter was addressed to established Christian Believers and not some unbelievers; in his opening address to them he addresses them as the “Church of God which is at Corinth” (1 Corinthians 1:2). Whereas, the gospel as we see and understand about it, is meant to bring the unbelievers to salvation through faith in the Lord. So, what is the relevance of Paul’s reminding the Believers in Corinth about the gospel, while showing them their errors and the way to correct them?
As one reads through 1 Corinthians 15, after reminding them of the gospel, Pauls affirms to them the veracity of the gospel and its transforming power, and then goes on to teaching them about the significance of the resurrection of the Lord Jesus, and its relevance for the Believers. Remember, not only the death and burial, but even the resurrection of the Lord Jesus are the essential parts of the gospel. What the Holy Spirit is showing to the errant Believers through Paul is that whenever you find yourself being tempted, or overwhelmed by satanic ploys, remember what God has done for you. Recall from where God picked you up, and where He has placed you presently (1 Corinthians 1:26-31), and think about what God has in mind for you in the days to come (1 Corinthians 15:51-58). Once the Believers learn look at things, situations, temptations, struggles, opposition, etc. through the perspective of the gospel, and then behave accordingly, Satan will have a hard time overcoming the Believers and inducing them to sin.
Galatians 1:4, another verse where the gist of the gospel has been stated, and the letter to Galatians is a practical example of this. The Church in Galatia had started to slip into believing in legalism and observance of the Law for salvation and living the life of a saved person. Paul, through the Holy Spirit, begins by reminding them of the what the gospel, the basis of their salvation is, and then goes on to expound to them the vanity of a Christian Believer falling for the observance of the Law, because of Satan has beguiling them into forgetting God’s grace and relying on works – the works of the Law, and going after the Law (Galatians 3:1-5, 10-14, 23-26; 4:9-11). So, at both places we see how the gospel helps the Believers to come back to a correct perspective about their salvation and relationship with God, and live overcoming lives through the power of God. Every Christian Believer should live with this heavenly perspective (Colossians 3:1-2), which will become a natural thing, something automatic, if the Christian Believers keep reminding themselves of the gospel – the power of God to salvation for everyone who believes; and they will see a tremendous growth and power in their spiritual lives.
From the next article we will start considering about the elementary principles given in Hebrews 6:1-2. We will begin by considering the prologue to these elementary principles given in Hebrews 5:11-14.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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