शनिवार, 13 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 39

 

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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 36

    

    हम पिछले लेखों में देखते आ रहे हैं कि पापों के लिए पश्चाताप और सुसमाचार में विश्वास करना, सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाओं के आवश्यक भाग हैं। दोनों ही बातें अनिवार्य हैं और साथ मिल कर एक कार्यकारी इकाई बनाती हैं, एक के बिना दूसरी अधूरी एवं अप्रभावी है। लोगों को सच्चे और बाइबल के अनुसार सही सुसमाचार, जिसका मर्म या सार 1 कुरिन्थियों 15:1-4 और गलतियों 1:4 में दिया गया है, में विश्वास करने से रोकने के लिए शैतान उसके स्थान पर किसी मनगढ़ंत सुसमाचार को लाने का प्रयास करता है, या फिर लोगों द्वारा सुसमाचार में अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार बातें डाल कर उसे बिगाड़ने का प्रयास करता है। हमने 1 कुरिन्थियों 15:1-4 से देखा है कि वास्तविक सुसमाचार क्या है, और अब हम 1 कुरिन्थियों 15:1-2 से सुसमाचार में दृढ़ बने रहने और उसे थामे रहने के बारे में दिए गए निर्देश पर विचार कर रहे हैं; क्योंकि, जैसा यहाँ पर लिखा गया है, जो ऐसा नहीं करते हैं, वो वे लोग होते हैं जिनका विश्वास व्यर्थ है। हाल ही के पिछले कुछ लेखों में, हमने परमेश्वर के वचन बाइबल से ऐसे कुछ लोगों के उदाहरणों को देखा है जिन्होंने ऐसा व्यर्थ विश्वास किया था, अर्थात, उन्होंने प्रभु के अनुयायी, उसके विश्वासी होने का दावा तो किया, किन्तु विभिन्न परिस्थितियों ने उनके दावे की व्यर्थता को प्रकट कर दिया, और किसी न किसी कारण से वे लोग प्रभु तथा उसके लोगों से दूर चले गए। उनके जीवनों और उदाहरणों से, हमने ऐसे नकली विश्वासी लोगों के कुछ लक्षणों को सीखा था। आज हम इसी व्यर्थ विश्वास के बारे में कुछ और देखेंगे, कि कलीसिया पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है।

    प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी के सेवकाई के दौरान, बुरे बीज के दृष्टान्त (मत्ती 13:24-30) के द्वारा चेतावनी दी थी कि शत्रु आ कर स्वामी के खेत में बुरे बीज बो देगा, और वह ऐसा तब करेगा जब स्वामी के सेवक सो रहे होंगे (मत्ती 13:25), अर्थात सचेत नहीं होंगे। जब भी मसीही विश्वासी और उनके अगुवे, विशेषकर वे जिन्हें वचन की सेवकाई सौंपी गई है, निश्चिन्त और लापरवाह हो जाते हैं, और जो वचन प्रचार किया तथा सिखाया जा रहा है, उसका आंकलन नहीं करते हैं, जिसे करना परमेश्वर के वचन की शिक्षा है (प्रेरितों 17:11; 1 कुरिन्थियों 14:29; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21), तब लोगों को बहकाने और भरमाने के लिए शैतान निश्चय ही झूठी शिक्षाएँ और गलत सिद्धान्त ले आता है। इन झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों को कलीसिया में फैलाने के लिए जिन “बुरे बीजों” वो बोता है, वे झूठे प्रेरितों, छल से काम करने वाले लोग होते हैं जो मसीह के प्रेरितों, ज्योतिर्मय स्वर्गदूत, और धर्म के सेवकों का रूप धर कर आते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। वे बहुत भक्त और धर्मी, तथा समर्पित विश्वासियों के भेस में आते हैं। ये घुसपैठिये झूठी शिक्षाएँ और गलत सिद्धान्त ले आते हैं, जिससे कि कलीसिया में समस्याएँ उत्पन्न हो जाएँ। उन्हें पहचानने का एक आधारभूत चिह्न है कि वे जो प्रचार करते और शिक्षाएँ देते हैं, वे सभी शारीरिक और साँसारिक बातों के बारे में होती हैं, साँसारिक समृद्धि, शारीरिक चंगाई, भौतिक और नश्वर लालसाओं की पूर्ति आदि से सम्बन्धित; किन्तु उद्धार का सुसमाचार और उस से सम्बन्धित पापों से क्षमा तथा मसीह यीशु में विश्वास करना, उनकी शिक्षाओं में नहीं पाया जाता है।

    प्रेरित पौलुस ने इफिसुस की मण्डली के अगुवों से अपनी अन्तिम विदाई लेते समय उन्हें चेतावनी दी कि वे सचेत और सावधान रहें, क्योंकि बाहर से ‘फाड़ने वाले भेड़िये’ आएँगे, और कलीसिया के अन्दर से भरमाने वाली बातें करके शिष्यों को अपने पीछे खींचने वाले लोग उठेंगे (प्रेरितों 20:28-31); अर्थात ऐसे लोग जो औरों को झूठी शिक्षाओं और गलत सिद्धान्तों में फंसाकर, परमेश्वर के वचन के नहीं बल्कि अपने ही पीछे चलने वाला बनाएँगे और विनाश में ले जाएंगे।

    इसी प्रकार से प्रेरित यूहन्ना ने भी चेतावनी दी कि बहुत से मसीह विरोधी उठ खड़े हुए हैं और कार्य कर रहे हैं; वे विश्वासियों में से ही निकल कर आए थे, किन्तु उन्हें छोड़ कर बाहर चले गए; और उन का प्रभु के लोगों के साथ बने न रहना ही इस बात का चिह्न है कि वे किस के लोग हैं (1 यूहन्ना 2:18-19)।

    इसलिए, नकली विश्वासियों के प्रचार और शिक्षाओं में पापों के लिए पश्चाताप, प्रभु यीशु में विश्वास, और उसे पूर्ण समर्पण की शिक्षा के न होने के साथ ही एक अन्य लक्षण भी होता है, जिससे हम उन्हें पहचान सकते हैं; यह दूसरा लक्षण है कि वे विश्वासियों की उन मण्डलियों में, जहाँ बाइबल की शिक्षाएँ दी जाती हैं, विभाजन करवाते हैं, गुट बनवा देते हैं, मण्डली को तोड़ने और अपने पीछे चलने वाले लोगों को लेकर निकल जाने के प्रयास करते हैं।

    इसीलिए प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए यह अनिवार्य है कि वह परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन में स्थिर बना रहे, और कम से कम मौलिक शिक्षाओं को तो अवश्य सीखे, जो करना आत्मिक उन्नति तथा मसीही जीवन के लिए अनिवार्य है। अगले लेख में हम 1 कुरिन्थियों 15:1-4 सुसमाचार से सम्बन्धित एक और पक्ष को देखेंगे, और फिर उसके बाद हम एक दूसरे विषय, आरंभिक सिद्धान्तों पर जाएँगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 36

 

    We have been seeing in the previous articles that along with repentance from sins, believing in the gospel is are essential components of Biblical teachings related to the gospel. The two put together make a functional unit, one without the other is incomplete and ineffective. To prevent people from believing in the true Biblical gospel, which has been outlined in 1 Corinthians 15:1-4 and Galatians 1:4, Satan tries to substitute it with a contrived false gospel, or pervert it by inducing people to add their own thoughts and understanding to it. We have considered from 1 Corinthians 15:1-4 what the gospel is, and now from 1 Corinthians 15:1-2, we are considering about the instructions to stand firm in it and hold fast to it; for as it has been written here, those who do not do so are those who have believed in vain. Over the past few articles, we have seen various examples from God’s Word the Bible, of people who had believed in vain, i.e., they had claimed to be the Lord’s followers and believers in Him, but various circumstances exposed the vanity of their claim, and for some reason or the other, they walked away from the Lord and His people. From their lives and examples, we had learnt certain characteristics of such pseudo-believers in the Lord. Today we will see more on this vain belief, how it effects the Church.

    The Lord Jesus had warned during his earthly ministry through the parable of the wheat and tares (Matthew 13:24-30) that the enemy will sow the tares in the Master’s field, and he will do so when the workers of the Master are sleeping (Matthew 13:25), i.e., are not alert. Whenever the Christian Believers and their Elders, especially those involved in the ministry of God’s Word, become complacent, and do not evaluate the word that is being preached and taught, as has been instructed in God’s Word (Acts 17:11; 1 Corinthians 14:29; 1 Thessalonians 5:21), Satan will surely bring in wrong teachings and false doctrines to mislead people away. The ‘tares’ that he plants in the Church to spread these wrong teachings and false doctrines, are brought in as false prophets, deceitful workers who come as apostles of Christ, ministers of righteousness, angel of light (2 Corinthians 11:13-15). They will come as very godly, committed believers. These infiltrators will bring in wrong teachings and false doctrines to create problems in the Church. One basic way to recognize them and their teachings is that they will preach and teach about physical and worldly things, about worldly prosperity, physical healings, fulfilling of temporal and physical desires, etc., but the gospel of salvation through repentance for sins and faith in the Lord Jesus Christ will be missing from their teachings.

    The Apostle Paul, bidding a final farewell to the elders of the Church in Ephesus, warned them to take heed and be careful, since ‘savage wolves’ will come from outside, and from within the Church men speaking perverse things will rise to draw the disciples to themselves (Acts 20:28-31), i.e., lead people away from the truth into wrong teachings and false doctrines, into following them instead of following God’s Word, and take them into destruction.

    Similarly, the Apostle John warned that many antichrists have already come and are at work; they rose up from amongst the Believers, but left them and moved out; their not being willing to continue with the people of God is an indicator of who they belong to (1 John 2:18-19).

    So, in the teachings and preaching of the false believers, besides repentance for sins, faith in the Lord Jesus, and submission to Him being missing, another characteristic that helps us identify them is that they create divisions and factions in the congregation, try to break it up, gather their own followers and lead them away from the Church that professes and practices true Biblical teachings.

    That is why it is essential for every Christian Believer to be well grounded in God’s Word, and learn at least the basic teachings necessary for spiritual growth and Christian living. In the next article we will see one more aspect of the gospel from 1 Corinthians 15:1-4, and then we will take up the second topic of elementary principles.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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