शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 38

 

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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 35

 

    यह समझने के लिए कि शैतान किस तरह से कलीसिया तथा मसीही विश्वासियों की मण्डलियों में अपने लोगों को घुसा देता है, हम बाइबल से कुछ ऐसे लोगों के उदाहरणों को देख रहे हैं जो प्रभु यीशु के अनुयायी तथा मसीही विश्वासी होने का दावा करते थे, किन्तु वास्तविकता में थे नहीं। अन्ततः उनकी सच्चाई प्रकट हो गई और वे प्रभु की तथा प्रभु के लोगों की संगति में बने नहीं रहे, चले गए। पिछले लेखों के उदाहरणों के द्वारा हमने ऐसे लोगों के कुछ लक्षणों को देखा है। अभी तक हमने तीन प्रकार के नकली-विश्वासियों के बारे में देखा है – पहले वे हैं जो परमेश्वर के वचन को ग्रहण करने वाले तो प्रतीत होते हैं, किन्तु उनका प्रभु के लिए निष्फल होना उनकी वास्तविकता को प्रकट कर देता है; दूसरे वे हैं, जो प्रभु की कुछ शिक्षाओं को स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं, क्योंकि उन शिक्षाओं से उन्हें ठोकर लगती है, वे इस बात की अनदेखी कर देते हैं कि ये शिक्षाएँ देने वाला सर्वज्ञानी, कभी गलती न करने वाला, हमेशा सही और अटल रहने वाला सार्वभौमिक प्रभु परमेश्वर है जो कभी कुछ गलत नहीं कह या कर सकता है; और तीसरा जिसे हमने पिछले लेख में देखा है वे लोग हैं जो यहूदा इस्करियोती के समान हैं, जिसने प्रभु के साथ निकट संगति में समय बिताया, अन्य शिष्यों के समान प्रभु द्वारा सामर्थ्य को प्राप्त किया, किन्तु कभी भी वास्तविक शिष्य नहीं बना, और अन्ततः, अनन्त विनाश में चला गया। आज हम एक और व्यक्ति के उदाहरण को देखेंगे, जिसने लगता था कि पापों से पश्चाताप किया है और विश्वासियों के साथ जुड़ गया है, उनके साथ रहता था, किन्तु वास्तविकता में अभी भी अपने पापों में ही था, और परमेश्वर को साँसारिक लाभ प्राप्त करने के लिए उपयोग करना चाहता था – शमौन टोना करने वाला।

    प्रेरितों 8 अध्याय में फिलिप्पुस की सामरिया के एक नगर में सेवकाई का वर्णन दिया गया है, जहाँ उसने न केवल सुसमाचार का प्रचार किया, वरन चंगाई भी की और दुष्ट-आत्माओं को भी निकाला। फिलिप्पुस की उस सेवकाई से उस नगर में बहुत आनन्द हुआ (प्रेरितों 8:5-8)। उसी नगर में शमौन नाम का एक व्यक्ति भी रहता था, जो टोना करता था, लोग उसे परमेश्वर की शक्ति वाला मानते थे, और लोगों पर उसका बहुत प्रभाव था (प्रेरितों 8:9-11)। लेकिन फिलिप्पुस की सेवकाई के द्वारा वहाँ पर परिस्थितियाँ बदल गईं, और अन्य लोगों के समान, शमौन टोना करने वाले ने भी विश्वास किया, उसका बपतिस्मा हुआ, और वह फिलिप्पुस के साथ संगति में रहने लगा (प्रेरितों 8:12-13)। शमौन के फिलिप्पुस के साथ रहने के कारण, बहुत संभव है कि अब उसके पास टोना करने का अवसर नहीं होता होगा, इसलिए हो सकता है कि उसने टोना करना बन्द कर दिया हो। सामरिया के इस नगर में हुए इस काम की चर्चा को सुनकर यरूशलेम के प्रेरितों ने पतरस और यूहन्ना को वहाँ भेजा। जब वे लोग आए, तो उन्होंने लोगों के पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना की, और प्रार्थना के बाद जब पतरस और यूहन्ना ने विश्वासियों पर अपने हाथ रखे, तो उन्हें पवित्र आत्मा प्राप्त हुआ (प्रेरितों 8:14-17)। यह ध्यान देने योग्य है कि ऐसा कोई उल्लेख  नहीं है कि शमौन भी हाथ रखवाने के लिए आया, या उसे भी पवित्र आत्मा प्राप्त हुआ; किन्तु आगे की घटनाओं से यही प्रतीत होता है कि ऐसा नहीं हुआ।

    लेकिन पतरस और यूहन्ना के द्वारा जो हो रहा था, शमौन उस से बहुत प्रभावित हुआ, और संभवतः उसे कमाई का एक नया और अद्भुत अवसर दिखाई देने लगा। यद्यपि यह कहीं नहीं कहा गया है कि उसने टोना करना बन्द किया था या नहीं, किन्तु क्योंकि अब लोग सच्चे परमेश्वर की ओर मुड़ गए थे, इसलिए उन्होंने उसके पास जाना बन्द कर दिया होगा। और क्योंकि शमौन भी फिलिप्पुस की संगति में रहता था, तो उसे भी जो वह पहले किया करता था उसे करने का अवसर नहीं रहता होगा। शमौन ने प्रेरितों, पतरस और यूहन्ना, से बात की, उन्हें पैसे देकर उन से यह अधिकार लेना चाहा कि वह भी जिस किसी पर हाथ रखे उसे पवित्र आत्मा प्राप्त हो जाए (प्रेरितों 8:18-19)। इससे शमौन की वास्तविकता प्रकट हो गई, क्योंकि इसके लिए पतरस उसे अच्छे से डांट लगाता है, उससे पश्चाताप करने तथा इस बुराई से छुड़ाए जाने के लिए परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए कहता है (प्रेरितों 8:20-23)। अजीब बात यह है कि शमौन ने ऐसा नहीं किया, बल्कि उसने केवल प्रेरितों से ही उसके लिए प्रार्थना करने के लिए कहा कि वह अपनी बुराई के परिणामों से बच जाए (प्रेरितों 8:24)।

    इसके बाद क्या हुआ और अन्ततः शमौन का क्या हुआ, इसका कोई उल्लेख नहीं है; हम उसके बारे में यही अनुमान लगा सकते हैं कि उसने सम्भवतः टोना करना छोड़ दिया था। उसने बपतिस्मा लिया था, वह फिलिप्पुस के साथ रहता था, उस सुसमाचार प्रचारक से परमेश्वर का वचन सुनता था, विश्वासियों के साथ संगति करता था, लेकिन फिर भी अपने मन में वह अभी भी अपरिवर्तित ही था। वह अभी भी पैसे के लोभ और सँसार की वस्तुओं के प्रेम से बन्धा हुआ था, और यहाँ तक कि परमेश्वर पवित्र आत्मा को भी अपनी अधीनता में उपयोग करना चाहता था; और ये सभी एक अपरिवर्तित जीवन के लक्षण हैं (1 तीमुथियुस 6:10; 1 यूहन्ना 2:15-17; याकूब 4:2-4)। यह बहुत अचरज की बात है कि यद्यपि शमौन को उसकी वास्तविक स्थिति के बारे में बताया गया था, और उसे अवसर प्रदान किया गया कि वह पश्चाताप करे तथा परमेश्वर से क्षमा प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करे, किन्तु फिर भी उस अवसर का सदुपयोग करने की बजाए, उसने स्वयं प्रार्थना नहीं की केवल एक औपचारिकता पूरी करने के समान प्रेरितों से ही कह दिया कि वे ही उसके लिए प्रार्थना कर दें।

    यह कुछ उस के समान है जो यहूदा इस्करियोती ने किया था। प्रभु के लिए मृत्यु दण्ड घोषित किये जाने के बाद, यहूदा अपने किए के लिए पछताया और इसके लिए महायाजकों और पुरनियों के पास गया, उनके सामने अपने पाप को माना; किन्तु प्रभु के पास क्षमा मांगने के लिए नहीं गया। यदि वह पश्चाताप के साथ प्रभु के पास आया होता, तो कहानी बिलकुल बदल जाती। किन्तु उन धार्मिक अगुवों से यहूदा को न तो क्षमा और न ही कोई सहानुभूति मिली। दुर्भाग्यवश, एक बार फिर उसने अपनी ही इच्छा के अनुसार वह किया जो उसे सही लगा। बजाए उसे याद करने के और उसके अनुसार करने के जो उसने प्रभु को अनेकों बार करते देखा था – पश्चातापी लोगों को क्षमा देते हुए, और इस आशा के साथ पश्चाताप के साथ प्रभु के पास आने के, उसने जाकर स्वयं को फाँसी लगा ली (मत्ती 27:1-5), और बिना पापों की क्षमा पाए हुए ही मर गया। जिस प्रकार से यहूदा कठोर मन का व्यक्ति था, शमौन भी कठोर मन का व्यक्ति था, स्वयं के अनन्त जीवन के प्रति भी।

    ये उदाहरण सच्चे परिवर्तन के लिए वास्तविक पश्चाताप की अनिवार्यता के महत्व को दिखाते हैं। सच्चा पश्चाताप किए बिना, और परमेश्वर की आज्ञाकारिता की इच्छा और उसमें विश्वास करना उत्पन्न नहीं होता है। पतरस तथा अन्य शिष्यों ने भी उसे अकेला छोड़ कर भाग जाने के द्वारा प्रभु का इनकार किया था। किन्तु क्योंकि उन्होंने प्रभु जो था उसमें वास्तविक विश्वास किया था, और वे प्रभु के प्रति पूर्णतः समर्पित थे, इसलिए ठोकर खाने के बाद भी वे परिस्थिति से बाहर आ सके और सेवकाई में बहाल किये गए। केवल बाहरी रीतियों के निर्वाह के द्वारा और मसीही विश्वासियों के समान व्यवहार करने के द्वारा, कोई परिवर्तित हुआ नहीं माना जा सकता है। अन्ततः, सभी की वास्तविक दशा प्रकट हो ही जाती है। इसलिए जब समय और अवसर उपलब्ध है, जब परमेश्वर का वचन व्यक्ति को कायल कर रहा है, तो किसी को भी लापरवाह होकर उचित कार्य करने को करना टालना नहीं चाहिए, कहीं बहुत देर न हो जाए (इब्रानियों 3:12-19)।

    अगले लेख में हम कुछ और ऐसे लोगों के उदाहरण देखेंगे जो प्रभु और कलीसिया से दूर हो गए, बाहर चले गए।

   यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Teachings Related to the Gospel – 35

 

    To understand how Satan infiltrates the Church and the congregation of Christian Believers, we are considering some Biblical examples of those claimed to be the followers of the Lord Jesus, Christian Believers, but actually were not. Eventually, they were exposed and they did not continue in fellowship with the Lord and His people, went away. Through the examples in the previous articles, we have seen some characteristics of such people. So far we have seen three kinds of such pseudo-believers – one are those who appear to receive God’s Word, but their being unfruitful for the Lord exposes their true self; second are those who are unwilling to accept some teachings of the Lord, since they feel offended by them, overlooking the fact that the one giving these teachings is the inerrant, omniscient, always true, the Sovereign Lord God, who can never be wrong; and the third that we saw in the previous article are those like Judas Iscariot, who spent time in close fellowship with the Lord, was empowered by the Lord as the others were, but never truly became the Lord’s disciple, and eventually went into eternal destruction. Today we will consider the example of another person, who seemingly repented of sins and joined the Believers, moved around with them, but actually was still in his sins, and wanted to use God for temporal gains – Simon the sorcerer.

    In Acts 8 is given the account of Philip’s ministry in a city of Samaria, where he not only preached the gospel to them but also healed and cast out demons from many people. The ministry of Philip brought great joy to that city (Acts 8:5-8). In that city lived a person by the name of Simon, who practised sorcery, was considered a man of god, and had a great influence over the people of the city (Acts 8:9-11). But things changed with Philip’s ministry there, and like the others, Simon the sorcerer also believed, and was baptized and continued in fellowship with Philip (Acts 8:12-13). Simon’s continuing with Philip, quite likely, would not have given him any opportunity to continue practising his sorcery, so, may be, he had stopped doing sorcery. On hearing of this work in the city of Samaria, the Apostles in Jerusalem, sent Peter and John there. When they came, they prayed for the people that they may receive the Holy Spirit, and having prayed, when Peter and John laid their hands on the Believers, they received the Holy Spirit (Acts 8:14-17). Notably, it is not mentioned that Simon too came forth for the laying of hands, or that he received the Holy Spirit; but quite likely from the turn of events this did not happen.

    But Simon was fascinated by what happened through Peter and John, and apparently, he saw a new and great business opportunity. Though there is no mention whether or not he had actually given up his sorcery, but now since the people had turned to the real God, and so they would have stopped coming to him, and since Simon was in the company of Philip, so he would not have been able to do what he did earlier. Simon approached the Apostles, Peter and John, offered them money, and asked them to given him this power of being able to provide the Holy Spirit to those on whom he would lay hands (Acts 8:18-19). This is how Simon’s real state was exposed, for Peter severely reprimands him, and asks him to repent and pray to be delivered from his wickedness, since he was poisoned by bitterness and bound by iniquity (Acts 8:20-23). The strange thing is that Simon did not do so, instead, he only asked the apostles to pray for him to the Lord and help him escape from the consequences of his wrong (Acts 8:24).

    There is no mention of what happened next, and what eventually happened to Simon; what we can surmise is that though he possibly had given up sorcery. He had taken baptism, was moving around with Philip, listened to preaching of God’s Word through God’s evangelist, fellowshipped with the Believers, yet in his heart he had remained unregenerated. He was still caught up with the love of money and of the things of the world, and he even wanted to use God the Holy Spirit for himself; all of which are signs of an unregenerated life (1 Timothy 6:10; 1 John 2:15-17; James 4:2-4). What is most surprising is that though Simon was told of his true condition, and opportunity was given to him to repent and pray about it to God for forgiveness, yet instead of taking that opportunity, he perfunctorily only asked the apostles to pray for him, instead of doing it himself.

    This is something like what Judas Iscariot had done, after the Lord had been given the death sentence; then Judas showed remorse about it and went to chief priests and elders, confessed his sin to them; but never went to the Lord for forgiveness. Had he come to the Lord in repentance, the story would have been totally different. But Judas did not receive any forgiveness or even sympathy from the religious leaders. Unfortunately, he once again took matters into his own hands, he once again did that which seemed right to him. Instead of remembering and doing according to what he had seen the Lord do many times, i.e., forgiving the repentant, and on that basis having hope and going to the Lord in repentance, he went and hanged himself (Matthew 27:1-5) and died an unforgiven man. Just as Judas was hard-hearted, Simon too was hard-hearted, even about his own eternal future.

    These examples underscore the importance of sincere repentance for true regeneration. Without true repentance, the desire to obey God, to trust in Him does not come. Peter too had denied the Lord, and so had the other disciples in running away from Him and leaving Him alone. But because they had truly believed in who the Lord was, and were actually fully surrendered to Him, so, despite their faltering, they could come out of the situation and be restored. Merely going through the external rituals and appearances, living and behaving like a Christian Believer, does not constitute regeneration. Eventually, sooner or later, the true state is exposed. Therefore, while there is time and opportunity, and God’s Word is convicting the person, no one should be careless and post-pone doing the needful i.e., truly repent and turn to the Lord in complete surrender, before it is too late (Hebrews 3:12-19).

    In the next article we will see some more examples of people who walked away from the Lord and His Church.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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