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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 29
वर्तमान में हम सुसमाचार, जो हर एक विश्वास करने वाले के लिए उद्धार के निमित्त परमेश्वर की सामर्थ्य है (रोमियों 1:15-16), से सम्बन्धित बाइबल की कुछ शिक्षाओं को देख रहे हैं। शैतान इस सामर्थ्य के बारे में भली-भान्ति जानता है, और इसलिए अपना भरसक प्रयास करता है कि सुसमाचार प्रभावी रीति से, जैसा बाइबल के अनुसार उसे उपयोग होना चाहिए, वैसे उपयोग न होने पाए। पिछले लेखों में हमने उन कुछ तरीकों को देखा है जिनके द्वारा शैतान लोगों से सुसमाचार में बिगाड़ उत्पन्न करवाता है। सुसमाचार को प्रभावी होने से रोकने का शैतान का एक तरीका है कि लोगों के द्वारा उसमें कुछ परिवर्तन करवा के उसे बिगाड़ दे, लोगों को उकसाए कि वे उस में अपनी बुद्धि, समझ, और तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार, या तो कुछ जोड़ दें अथवा उस में से कुछ हटा लें। शैतान का एक अन्य तरीका है कि प्रभु यीशु के बारे में ऐसी गलत शिक्षाएँ फैलाए जो लोगों में सुसमाचार के मर्म – प्रभु यीशु के मारे जाने, गाड़े जाने, और जी उठने, पर सन्देह उत्पन्न करें। पिछले लेख में हमने देखा था कि इस उद्देश्य से एक गलत शिक्षा जो उसने फैलाई है कि प्रभु यीशु क्रूस पर नहीं चढ़ाया गया था, वरन उनके स्थान पर कोई और क्रूस पर मारा गया था; और हमने सुसमाचारों में दिए गए वर्णनों से देखा था कि यह क्यों गलत और अस्वीकार्य है। आज से हम इसी के समान एक अन्य गलत शिक्षा को देखना आरम्भ करेंगे जो प्रभु यीशु के मारे जाने, गाड़े जाने, और जी उठने पर सन्देह उत्पन्न करने के प्रयास के लिए है।
शैतान द्वारा एक अन्य धारणा प्रचलित की गई है कि प्रभु यीशु क्रूस पर चढ़ाए तो गए थे किन्तु वे क्रूस पर मरे नहीं, बस बेहोश हुए, और बाद में कब्र के ठन्डे वातावरण में होश में आकर, वे कब्र से बाहर आ गए, जिसे उनके शिष्यों ने उनके पुनरुत्थान के रूप में प्रस्तुत कर दिया। इस गढ़ी हुई कहानी के झूठे होने को समझने के लिए हमें यह देखना सहायक होगा कि उनके क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले और मर जाने के समय तक प्रभु यीशु ने क्या-क्या सहा। यद्यपि इसका उल्लेख पिछले लेख में किया गया है, किन्तु यहाँ हम इसे कुछ विस्तार से और सम्बन्धित बाइबल के लेखों के हवालों के साथ देखेंगे।
क्रूस की मृत्यु रोमी साम्राज्य के समय में समाज के सबसे निकृष्ट अपराधियों को दी जाती थी, और इसे सबसे अधिक अपमानजनक मृत्यु माना जाता था। क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले अपराधियों को बहुत मारा-पीटा जाता था, कोड़े लगाए जाते थे। उन कोड़ों के सिरों पर नुकीली वस्तुएं लगी होती थीं, जो कोड़े के शरीर पर पड़ने के वेग से खाल के अंदर धंस जाती थीं और जब कोड़े मारने वाला कोड़े को वापस खींचता था तो वे धँसी हुई नुकीली वस्तुएं खाल और माँस को फाड़ते हुए बाहर आती थीं। जब सिपाही यह सब कर चुकते थे, तब उस व्यक्ति को अपना काठ से बना क्रूस, अपनी कोड़ों की मार से चिथड़े हो चुकी पीठ पर लादे हुए क्रूसित होने के स्थान तक जाना पड़ता था, और वहाँ पर उसकी बाहें फैला कर हाथों में से होकर मोटी कीलें क्रूस के काठ में ठोक कर तथा पैरों को एक ऊपर दूसरा रख कर उनमें से भी मोटी कील क्रूस के काठ में ठोक कर उस क्रूस को सार्वजनिक स्थान पर धरती में गाड़कर खड़ा कर दिया जाता था। क्रूस पर चढ़ाए गए अपराधियों के प्राण तुरंत ही नहीं निकलते थे। यह बहुत ही पीड़ादायक मृत्यु होती थी। कोड़ों की मार से उधड़ा हुआ उसका बदन हर सांस के साथ खुरदरे काठ पर रगड़ता रहता था, और हर साँस पीड़ादायक होती थी। लटके होने के कारण, शरीर का सारा वज़न कीलों से ठोके हुए हाथों पर आता था, जो हाथों की पीड़ा को असहनीय बना देता था; राहत पाने के लिए यदि अपराधी पैरों का सहारा लेकर ऊपर को उचकने का प्रयास करता तो यही असहनीय पीड़ा फिर पैरों में भी होती, और इस सारी प्रक्रिया में उसका उधड़ा हुआ बदन और भी ज़ोर से क्रूस के काठ पर रगड़ खाता। अर्थात अपराधी कुछ भी करे, वह उसकी पीड़ा को और बढ़ाता ही था, किसी भी रीति से कोई राहत उसे नहीं मिल सकती थी। अंततः थके हुए और लहू बहने से कमज़ोर हो चुके, कीलों से ठुके हुए हाथों के भार टंगे हुए शरीर को सांस लेना भी भारी हो जाता था, और पैरों के सहारे थोड़ा सा उचक कर सांस लेने के प्रयास उसे सांस तो ले लेने देते थे, किन्तु साथ ही उसकी पीड़ा को बहुत बढ़ा भी देते थे। कुछ अपराधियों को इस स्थिति में टंगे हुए, तिल-तिल करके मरने में एक दिन से भी अधिक लग जाता था, और जब तक वो मर नहीं जाते थे, उन्हें क्रूस पर से उतारा नहीं जाता था। प्रभु यीशु ने यह सब जानते हुए भी, इस मृत्यु को स्वेच्छा से स्वीकार कर लिया जिससे हम मनुष्यों को अनन्त-काल की नरक की पीड़ा से बचने का मार्ग बनाकर सेंत-मेंत प्रदान कर सकें।
प्रभु यीशु को दोपहर में क्रूस पर चढ़ाया गया, और उन्होंने लगभग तीन घंटे क्रूस पर टंगे रहने के बाद अपने प्राण त्याग दिए (मत्ती 27:45-50)। क्योंकि यहूदियों की व्यवस्था के अनुसार मृत्यु-दण्ड भुगतने वाले अपराधी की लाश को सूर्यास्त से पहले दफनाया जाता था (व्यवस्थाविवरण 21:22-23), और क्योंकि प्रभु यीशु के क्रूस पर चढ़ाए जाने से अगला दिन सबत का दिन था जिसमें यहूदी कोई भी कार्य नहीं करते थे, इसलिए प्रभु यीशु की देह को उसी संध्या, सूर्यास्त से पहले दफनाया जाना आवश्यक था। क्रूसित अपराधी की मृत्यु को कुछ शीघ्र कर देने के लिए रोमियों ने एक और पीड़ादायक विधि अपना रखी थी - वे अपराधी की टांगें तोड़ देते थे - पीड़ा भी होती थी, और अपराधी अब सांस लेने के लिए पैरों का बिल्कुल भी सहारा नहीं ले सकता था, शरीर पूर्णतः हाथों में ठुकी हुई कीलों के सहारे लटक जाता था, जो पीड़ा को बढ़ाता था, सांस लेने के लिए छाती को ठीक से फूलने नहीं देता था, जिससे सांस ठीक से नहीं आने पाती थी और व्यक्ति घुटन के अनुभव और तड़पने के साथ कुछ शीघ्र मर जाता था। यही करने सिपाही प्रभु यीशु के पास भी आए, परंतु उसे मरा हुआ पाकर उसकी टांगें तो नहीं तोड़ीं, किन्तु उसकी मृत्यु निश्चित कर लेने के लिए उसकी छाती में भाला मारा, “और इसलिये कि वह तैयारी का दिन था, यहूदियों ने पिलातुस से बिनती की कि उन की टांगे तोड़ दी जाएं और वे उतारे जाएं ताकि सबत के दिन वे क्रूसों पर न रहें, क्योंकि वह सबत का दिन बड़ा दिन था। सो सिपाहियों ने आकर पहिले की टांगें तोड़ीं तब दूसरे की भी, जो उसके साथ क्रूसों पर चढ़ाए गए थे। परन्तु जब यीशु के पास आकर देखा कि वह मर चुका है, तो उस की टांगें न तोड़ीं। परन्तु सिपाहियों में से एक ने बरछे से उसका पंजर बेधा और उस में से तुरन्त लहू और पानी निकला। जिसने यह देखा, उसी ने गवाही दी है, और उस की गवाही सच्ची है; और वह जानता है, कि सच कहता है कि तुम भी विश्वास करो। ये बातें इसलिये हुईं कि पवित्र शास्त्र की यह बात पूरी हो कि उस की कोई हड्डी तोड़ी न जाएगी। फिर एक और स्थान पर यह लिखा है, कि जिसे उन्होंने बेधा है, उस पर दृष्टि करेंगे” (यूहन्ना 19:31-37)।
प्रभु यीशु की मृत्यु निश्चित हो जाने के बाद, प्रभु के दो अनुयायियों ने उनकी देह को पिलातुस से माँग लिया और सूर्य ढलने से पहले शीघ्रता से देह को पचास सेर सुगंध-द्रव्यों - गंधरस और एलवा में कफन में लपेटकर पास ही की एक कब्र में रख दिया “इन बातों के बाद अरमतियाह के यूसुफ ने, जो यीशु का चेला था, (परन्तु यहूदियों के डर से इस बात को छिपाए रखता था), पिलातुस से बिनती की, कि मैं यीशु की लोथ को ले जाऊं, और पिलातुस ने उस की बिनती सुनी, और वह आकर उस की लोथ ले गया। निकुदेमुस भी जो पहिले यीशु के पास रात को गया था पचास सेर के लगभग मिला हुआ गन्धरस और एलवा ले आया। तब उन्होंने यीशु की लोथ को लिया और यहूदियों के गाड़ने की रीति के अनुसार उसे सुगन्ध द्रव्य के साथ कफन में लपेटा। उस स्थान पर जहां यीशु क्रूस पर चढ़ाया गया था, एक बारी थी; और उस बारी में एक नई कब्र थी; जिस में कभी कोई न रखा गया था। सो यहूदियों की तैयारी के दिन के कारण, उन्होंने यीशु को उसी में रखा, क्योंकि वह कब्र निकट थी” (यूहन्ना 19:38-42); “अरिमतिया का रहने वाला यूसुफ आया, जो प्रतिष्ठित मंत्री और आप भी परमेश्वर के राज्य की बाट जोहता था; वह हियाव कर के पिलातुस के पास गया और यीशु की लोथ मांगी। पिलातुस ने आश्चर्य किया, कि वह इतना शीघ्र मर गया; और सूबेदार को बुलाकर पूछा, कि क्या उसको मरे हुए देर हुई? सो जब सूबेदार के द्वारा हाल जान लिया, तो लोथ यूसुफ को दिला दी। तब उसने एक पतली चादर मोल ली, और लोथ को उतारकर उस चादर में लपेटा, और एक कब्र में जो चट्टान में खोदी गई थी रखा, और कब्र के द्वार पर एक पत्थर लुढ़का दिया” (मरकुस 15:43-46)।
अगले लेख में हम प्रभु यीशु के मारे जाने, गाड़े जाने, और जी उठने से सम्बन्धित बाइबल में लिखे कुछ अन्य तथ्यों को भी देखेंगे, और फिर देखेंगे कि बाइबल के इन तथ्यों के समक्ष यह शिक्षा कि प्रभु यीशु क्रूस पर मरे नहीं, केवल बेहोश हुए थे, और फिर कब्र में होश में आने के बाद चलकर कब्र से बाहर आ गए, किस प्रकार से बिलकुल झूठी साबित होती है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 29
We are presently studying some Biblical teachings about the gospel, the power of God to salvation for everyone who believes (Romans 1:15-16). Satan knows this power very well, therefore tries his utmost to prevent the gospel from being used effectively, in the Biblical manner it should be used, to bring people to salvation. In the previous articles we have seen the various ways through which Satan induces people to pervert the gospel. One of the ways in which Satan prevents the gospel from being effective is by inducing people to pervert it, through using their wisdom, understanding, and the circumstances at hand to alter it by adding something to it or take something away from it. Another one of his methods is to spread false teachings about the Lord Jesus to create doubts about the crux of the gospel – the death, burial, and resurrection of the Lord Jesus. In the last article we had seen that to this end a teaching that he spreads is that not the Lord Jesus, but someone else was crucified in His place; and we had seen the fallacy of this contention through the Gospel accounts. Today we will begin to look at another similar false teaching, again intended to create doubts about the death, burial, and resurrection of the Lord Jesus.
Another wrong notion spread by Satan is that though the Lord Jesus was crucified but He did not die on the cross; He only became unconscious and only appeared to be dead on the cross; later, in the cool environment of the tomb, He revived, and walked out of the tomb, which His disciples claimed as the Lord being resurrected. To understand the fallacy of this concocted story, it would help to understand what the Lord Jesus suffered before and during His crucifixion and death. Though it has been mentioned in the previous article, we will look into it in some detail with the relevant Bible references.
In the days of the Roman empire, the death of the cross was awarded to the worst of criminals, and was considered the most humiliating of all death penalties. The criminals were severely beaten and scourged before being crucified. To scourge them, to the whips sharp objects were tied, and by the force of the whiplash, these sharp objects would get embedded into the skin and flesh of the criminal, and when the soldier scourging the criminal would pull back the whip for the next strike, those sharp objects would tear out the skin and flesh. After they had finished scourging the condemned criminal, he would then be made to bear his wooden cross on his back that had been torn up and raw from the scourging, and walk to the place of crucifixion. There his hands and feet would be spread out on the cross, and nailed with thick nails to the cross, and the cross was made to stand erect in a public place. The crucified criminal did not die immediately. This was a very painful and long-drawn means of inflicting death. With the raw back of the person rubbing against the rough wood of the cross with every breath, therefore, each breath was an agony. Because of the body hanging by the nailed hands, the body weight came onto the hands causing excruciating pain there; and if the man tried to brace himself up by taking the weight of the body onto the feet, the nail in the feet would cause similarly excruciating pain to occur in the feet; all the while his raw, bleeding back would be rubbing against the wood of the cross. So, whatever the crucified criminal did, it would only aggravate his pain, not relieve it. Eventually, exhausted by all this, he would not even be able to take full breaths and he would gradually die over a long period of time, at times, it would take more than a day to die, and they would be taken off the cross only after their death. The Lord Jesus, knowing all this, still willingly suffered this painful death, so that we could be provided with the way to escape the eternal torment of hell.
The Lord Jesus was crucified in the afternoon, and after about three hours on the cross, He gave up His spirit (Matthew 27:45-50). Because, according to the Law of the Jews, the dead body had to be buried before sunset (Deuteronomy 21:22-23); and the next day was the sabbath day, in which no Jew would do any work, therefore, it was necessary to bury the body of the Lord the same evening before sunset. To hasten the death of the crucified person, the Romans had devised another agonizing method - they would break the legs of the crucified person. This would not only aggravate the pain, but would now also make it impossible for the person to brace himself up by pushing up on his nailed feet. The chest of the person, hanging by the nailed hands, would be stretched by the body weight, and not allow the person to breath adequately, and the person would soon succumb to this pain and choking sensation. The soldiers had come to do this to the Lord, but when they saw that He had already died, they did not do this, but to ascertain His death, they pierced His chest, “Therefore, because it was the Preparation Day, that the bodies should not remain on the cross on the Sabbath (for that Sabbath was a high day), the Jews asked Pilate that their legs might be broken, and that they might be taken away. Then the soldiers came and broke the legs of the first and of the other who was crucified with Him. But when they came to Jesus and saw that He was already dead, they did not break His legs. But one of the soldiers pierced His side with a spear, and immediately blood and water came out. And he who has seen has testified, and his testimony is true; and he knows that he is telling the truth, so that you may believe. For these things were done that the Scripture should be fulfilled, "Not one of His bones shall be broken." And again, another Scripture says, "They shall look on Him whom they pierced."” (John 19:31-37).
After it was confirmed that the Lord had died, two of His followers asked for His body from Pilate, and before sunset quickly wrapped it in a cloth with about a hundred pounds of mixture of myrrh and aloes and put His body in a nearby tomb “After this, Joseph of Arimathea, being a disciple of Jesus, but secretly, for fear of the Jews, asked Pilate that he might take away the body of Jesus; and Pilate gave him permission. So he came and took the body of Jesus. And Nicodemus, who at first came to Jesus by night, also came, bringing a mixture of myrrh and aloes, about a hundred pounds. Then they took the body of Jesus, and bound it in strips of linen with the spices, as the custom of the Jews is to bury. Now in the place where He was crucified there was a garden, and in the garden a new tomb in which no one had yet been laid. So there they laid Jesus, because of the Jews' Preparation Day, for the tomb was nearby” (John 19:38-42); “Joseph of Arimathea, a prominent council member, who was himself waiting for the kingdom of God, coming and taking courage, went in to Pilate and asked for the body of Jesus. Pilate marvelled that He was already dead; and summoning the centurion, he asked him if He had been dead for some time. So when he found out from the centurion, he granted the body to Joseph. Then he bought fine linen, took Him down, and wrapped Him in the linen. And he laid Him in a tomb which had been hewn out of the rock, and rolled a stone against the door of the tomb” (Mark 15:43-46).
In the next article, we will look at some more of the Biblical facts related to the death, burial, and resurrection of the Lord Jesus, and then see how, in face of these Biblical facts this false teaching that the Lord did not die on the cross, but only became unconscious; then revived in the tomb, and walked out of tomb, utterly fails.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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