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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 45
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (20)
व्यावहारिक मसीही जीवन, संसार के सामने मसीही विश्वास की एक प्रत्यक्ष गवाही रखता है। मसीही विश्वासी के बदले हुए जीवन को, और संसार तथा सांसारिकता की बातों से भिन्न जीवन शैली को दिखाता है। मसीह में विश्वास करने और उसे समर्पित जीवन जीने से, उसके जीवन में विद्यमान परमेश्वर की सहायता, सामर्थ्य, और सुरक्षा को प्रमाणित करता है। ऐसे व्यावहारिक मसीही जीवन को जीने के लिए परमेश्वर के वचन, बाइबल को जानना और मानना अनिवार्य है। व्यवहारिक मसीही जीवन को जीने, और परमेश्वर से आशीषित होने को जानने और समझने के लिए बाइबल में प्रेरितों 2:42 एक बहुत महत्वपूर्ण पद है। इस पद में मसीही विश्वास के जीवन से सम्बन्धित चार व्यावहारिक बातें दी गई हैं, जिन्हें मसीही जीवन के स्तम्भ भी कहा जाता है। इन चार बातों का लौलीन होकर पालन करने के परिणामस्वरूप, आरम्भिक मसीही विश्वासी अपने आत्मिक जीवनों में उन्नत हुए, हर परिस्थिति का सामना कर सके और अपने विश्वास में स्थिर और दृढ़ खड़े रह सके; और कलीसियाएं भी बढ़ती चली गईं। उन आरम्भिक मसीही विश्वासियों की तुलना में कुरिन्थुस के मसीही विश्वासी हैं, जिनका जीवन और व्यवहार इससे ठीक उलट था। उन्हीं चार बातों को एक रस्म, एक औपचारिकता में बदल देने के कारण, उन बातों के स्वरूप और निर्वाह में अपनी ही समझ और बुद्धि के अनुसार बदलाव करने के कारण, कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों का जीवन बहुत बिगड़ गया, और उनकी गवाही नकारात्मक हो गई।
पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा पत्रियाँ लिखवाकर उन्हें उनकी गलतियाँ भी दिखाईं, और सुधरने का मार्ग भी बताया; और इन बातों को अनन्तकाल के लिए अपने वचन में सम्मिलित करवाकर, उन्हें सभी के लिए उपयुक्त और लागू भी करवा दिया। जो उस समय कुरिन्थुस के विश्वासियों की दशा थी, वही आज के मसीहियों की दशा भी है। इसीलिए, जो कुरिन्थुस की मण्डली के लिए समाधान था, वही आज के मसीही विश्वासियों के लिए भी समाधान है। हम वर्तमान में 1 कुरिन्थियों 11:17-34 से इन बातों को सीख और समझ रहे हैं। वर्तमान में हम पद 33-34 पर विचार कर रहे हैं, और आज भी इसे ज़ारी रखेंगे।
7. प्रभु-भोज में भाग लेना - पद 31-34 - (भाग 4)
पिछले लेख में हमने देखा था कि पद 33-34 में पौलुस, इस विषय पर आरम्भ में, पद 20-22 में कही गई बात को ही दोबारा से दोहरा रहा है, और उन्हें समझा रहा है कि प्रभु भोज में भाग लेना, सबके सामने और सभी को दिखाने के लिए अपनी ही व्यक्तिगत दावत करना नहीं है। ऐसा करना अनुचित रीति है, और परमेश्वर से दण्ड का भागी बनाती है। व्यक्तिगत दावत का स्थान घर है, कलीसिया में प्रभु भोज सभी के साथ मिलकर, प्रभु द्वारा स्थापित स्वरूप और विधि, “एक ही रोटी और एक ही प्याला” का पालन करना है। ऐसा करना सभी सदस्यों में परस्पर प्रेम और एक-मनता की पुष्टि करता और उसमें दृढ़ बने रहने के लिए प्रेरित करता है। यहाँ 34 पद के मध्य भाग में फिर से चेतावनी दोहराई गई है, जो लोग इन निर्देशों की अनदेखी करते हैं, वे स्वयं को अनुचित रीति से भाग लेने का दोषी और परमेश्वर से दण्ड पाने का भागी बनाते हैं। और इससे बचने का एक ही तरीका है, प्रभु ने जो कहा और सिखाया है, उसी के अनुसार करना है। प्रभु की बातों और शिक्षाओं में अपनी समझ और धारणा के अनुसार कोई भी परिवर्तन नहीं करना है।
साथ ही, विषय को समाप्त करते हुए, पौलुस एक संकेत और देता है। वह पद 24 के अन्त में लिखता है “...और शेष बातों को मैं आकर ठीक कर दूंगा।” इससे प्रकट है कि कुरिन्थुस की उस मण्डली में प्रभु भोज से सम्बन्धित व्यवहार में कुछ अन्य समस्याएं भी थीं, जिनका निवारण भी अनिवार्य था। लेकिन जो सबसे मुख्य और तुरन्त सुधार के लिए आवश्यक बातें थीं, वह उसने पवित्र आत्मा की अगुवाई में उन्हें लिख दी थीं, जिससे कि वे उन बातों पर शीघ्रता से कार्यवाही करें, और गलतियों से निकलें, उनके दुष्परिणामों से बचें।
इससे हम तीन बातों को और सीखते हैं:
पहली यह, कि मसीही विश्वास का जीवन क्रमशः उन्नत होते जाने का जीवन है। प्रभु और उसके निर्धारित सेवकों के द्वारा, प्रभु के वचन के आधार पर, हमारे मसीही जीवनों के लिए एक नींव डाली जाती है। उस नींव पर प्रत्येक को अपने जीवन को, वचन की शिक्षाओं के अनुसार बनाना और बढ़ाना होता है। यही बात पौलुस ने कुरिन्थुस के इन्हीं विश्वासियों को इसी पत्री में पहले स्पष्ट रीति से 1 कुरिन्थियों 3:10 में लिखी है। पौलुस ने उनके लिए नींव डाली, लेकिन उन्हें उस नींव पर अपना रद्दा रखकर, विश्वास के उस भवन को बनाना और बढ़ाना है। प्रकट है कि हर रद्दा योजनाबद्ध तरीके से और सही रीति से रखा जाना चाहिए, अन्यथा वह भवन सही नहीं बनेगा। यही प्रक्रिया सुधारे जाने के लिए भी है। गलतियाँ दिखाए जाने और सुधारे जाने के बाद, पुनःअवलोकन भी होगा, और यदि फिर भी कोई शेष गलती है तो उसे सुधारने के लिए भी कहा जाएगा। और साथ ही, जो अन्य छोटी गलतियाँ, बाद में बताई जाएं, उन्हें भी सुधारने के लिए कलीसिया के लोगों को तैयार रहना चाहिए।
दूसरी यह, कि पौलुस उन्हें आश्वस्त नहीं कर रहा है कि यदि वे इतना भर कर लें, तो पर्याप्त होगा। इतना कर लेने के बाद वे फिर निश्चिंत हो सकते हैं। वरन, पौलुस उन्हें बता दे रहा है कि पत्री में जो लिखा है, वह तो केवल अभी तुरन्त कार्यवाही के लिए है; वहाँ आने पर वह शेष बातों को ठीक करेगा। सुधार हमेशा ज़ारी रहता है, हम अंश-अंश करके प्रभु की समानता में बदलते हैं (2 कुरिन्थियों 3:18); और इस समानता में ढलते चले जाने के लिए निरंतर जाँच और सुधार आवश्यक और अनिवार्य हैं।
तीसरी यह कि कलीसिया के पादरी या अगुवे की ज़िम्मेदारी है कि वह कलीसिया के लोगों को जब और जैसे आवश्यक हो उनकी गलती दिखाए और उन्हें सुधारे। इसलिए, कलीसिया के लोगों की भी यह जिम्मेदारी है कि वे सुधारे जाने के लिए तैयार रहें, और सुधरने के लिए दिए गए निर्देशों का पालन करें। पौलुस ने युवा सेवक और कलीसिया के अगुवे, तीतुस को लिखा, “मैं इसलिये तुझे क्रेते में छोड़ आया था, कि तू शेष रही हुई बातों को सुधारे, और मेरी आज्ञा के अनुसार नगर नगर प्राचीनों को नियुक्त करे” (तीतुस 1:5)। इस ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए प्रश्न आयु का नहीं था, वरन परमेश्वर द्वारा सौंपी गई ज़िम्मेदारी के निर्वाह का था। यह अपने आप में एक बड़ा विषय है, और पहले के लेखों में, कलीसिया में अनुशासन और अगुवों की जिम्मेदारी के बारे में हम इसे देख चुके हैं।
इन बातों के आधार पर, कुल मिलाकर, निष्कर्ष यही है कि अगुवों द्वारा जाँचे जाने और सुधारे जाने की प्रक्रिया, कलीसिया में बनी रहनी चाहिए। अगुवे को जाँचने और सुधारने की ज़िम्मेदारी निभानी है; और कलीसिया के लोगों को वचन के आधार पर उन्हें दिखाए और बताए गए सुधारों लागू करना है। यदि दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह नहीं करेंगे तो बात बिगड़ जाएगी, जो कुरिन्थुस की मण्डली में हुआ था।
अगले लेख में हम प्रभु भोज से सम्बन्धित एक अन्य प्रश्न पर विचार करेंगे, जो यहाँ 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में तो नहीं उठाया गया है, किन्तु आज कलीसियाओं में जिसे लेकर असमंजस रहता है - प्रभु भोज को कब और कितनी बार आयोजित होना चाहिए?
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 45
The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (20)
A practically lived out Christian life places a testimony before the world about the Christian faith. It demonstrates the changed life of a Christian Believer, and exhibits a life-style different from that of the world and worldliness. It proves God’s help, power, and security in the life of those Christian Believers who live a life committed and surrendered to God. To live such a practical Christian life, it is necessary to know and obey God’s Word, the Bible. To live a practical Christian life, and to know and understand being blessed by God, in the Bible, Acts 2:42 is a very important verse. In this verse four practical things regarding Christian living have been given, and these are also known as the “Pillars of Christian Living.” Because of steadfastly observing these four things, the initial Christian Believers were continually edified in their spiritual lives; they, despite all adverse circumstances, stood firm and strong in their faith; and the churches continued to grow. In contrast to those initial Christian Believers, are the Christian Believers of Corinth, whose life and behavior was just the opposite. They had turned these four things into a ritual, observed them as a formality, and had altered their form and method of observance as per their own understanding and wisdom. Consequently, their lives had become spoiled and corrupt, their testimony was very negative.
The Holy Spirit had the Apostle Paul write letters to them, to show them their wrongs, and the way to correct them; and by having these included for eternity in His Word, made them necessary to be obeyed by everyone. Today, the Christians are very much in the same condition, as those Corinthians Believers were then. Therefore, the solution that was given for the Corinthian Believers, is also the solution for us today. Presently, we are learning and understanding about them from 1 Corinthians 11:17-34; and are now considering verses 33-34, and will continue with them today as well.
7. Partaking in the Holy Communion - verses 31-34 - (Part 4)
In the previous article we had seen that in verses 33-34, Paul is repeating what he had said about it at the beginning of this topic in verses 20-22, and is explaining to them that participation in the Holy Communion is not having their personal party, and showing it off to everyone. Doing this is participating unworthily, and bringing upon themselves punishment from the Lord. The place to have a personal party is their home. In the Church, participation in the Holy Communion has to be together, along with everyone else. And it is to be in the form and manner given by the Lord, i.e., as “One Bread and One Cup for everyone to partake from.” By doing this everyone affirms mutual love, and also encourages to maintain unity and being of one-mind in the Church. Here, in the middle of verse 34, the warning is repeated once again that those who neglect these instructions, they automatically make themselves guilty of participating unworthily, and therefore of suffering God’s punishment. And, there is only way of escaping from this, do what the Lord has taught, just as He has said it should be done. Adding one’s own understanding and concepts to what the Lord has said and taught, and altering them, is forbidden.
Moreover, while concluding the topic, Paul gives a pointer to something more. To end verse 34, he says, “...And the rest I will set in order when I come.” It is evident from this that in the Church at Corinth, there were some other problems as well, and they too required being corrected. But the things that were most important and necessary for urgent correction, Paul had written those under the guidance of the Holy Spirit, so they would act urgently, come out of their wrongs, and be saved from their harmful consequences.
From this we learn three things:
The first is that the Christian living is a life of progressively improving and being edified. The Lord through His servants, lays a foundation in our lives, based on, and through His Word. Everyone has to build his life on that, through the teachings and instructions of God’s Word. Paul has said this to these very Corinthain Believers in this very letter, in 1 Corinthians 3:10. Paul was instrumental in laying the foundation in their lives, but they had to build up their life of faith on that foundation. It is evident that every stage of building up has to be according to a proper plan and done correctly, else the building will not be good. The same process is also applicable to being corrected. When errors and mistakes are shown and the method of correction is told, and it has been implemented, then there will also be a review. If any small or residual wrongs are found, they will also be pointed out for correction and will have to be corrected. Also, besides what has already been pointed out, if anything else is pointed out at a later time, that too has to be accepted and implemented by the congregation.
The second is that Pual is not assuring them that if they do whatever has been pointed out, then that will be sufficient. Having done all that has been pointed out, they can sit back and be content. Instead, Paul is making it clear to them that what was written to them in the letter was meant for immediate implementation; when he comes to them, he will set in order the rest of the remaining things. Corrections and improvement are a continual process, we are being changed into the likeness of the Lord bit by bit (2 Corinthians 3:18). And this also makes necessary a continual revaluation, correction, and review.
The third is that it is the responsibility of the Church Pastor or Elder that as and when necessary, he should point out the wrongs of the people of the congregation, and have them correct them. Therefore, it is also the responsibility of the people of the congregation that they remain willing and ready to be corrected, and to implement the corrections they are being asked to carry out. Paul wrote to the young Church Elder and minister, Titus, “For this reason I left you in Crete, that you should set in order the things that are lacking, and appoint elders in every city as I commanded you” (Titus 1:5). To fulfill this responsibility, the question was not of age, but of fulfilling the God given responsibility. This in itself is a big topic, and in the earlier articles, where we were looking at Church discipline, we have seen about the responsibilities of the Church Elders, and their carrying them out.
On the basis of these things, the overall conclusion is that a continual process of being evaluated and corrected should be present in the Church. The Elder has to fulfill the responsibility of evaluating and correcting, and the congregation has to fulfill their responsibility of accepting their wrongs shown on the basis of God’s Word and correcting them. If both sides do not fulfill their respective responsibilities, then the situation will only go from bad to worse, as happened in the Church at Corinth.
In the next article we will consider a related question, one that has not been raised or addressed here in 1 Corinthians 11:17-34, but continues to perplex the churches today - when and how often should the Holy Communion be observed?
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.