ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

गुरुवार, 25 मई 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न - 21a - Sin & Salvation / पाप और मोक्ष (उद्धार) - 1

Click Here for the English Translation

मसीही विश्वास में पाप तथा पाप से मुक्ति (उद्धार या मोक्ष) - भाग 1

    उद्धार प्राप्त करने का अर्थ है पाप के दुष्परिणामों – अनन्त काल की मृत्यु, अर्थात पृथ्वी के इस जीवन के उपरान्त अनन्त काल के लिए परमेश्वर से दूर हो कर नरक में, जहां से कभी कोई लौट कर वापस नहीं आ सकता है “और इन सब बातों को छोड़ हमारे और तुम्हारे बीच एक भारी गड़हा ठहराया गया है कि जो यहां से उस पार तुम्हारे पास जाना चाहेंवे न जा सकेंऔर न कोई वहां से इस पार हमारे पास आ सके” (लूका 16:26), चले जाने से बच जाना। बचाए जाने का अर्थ प्रभु यीशु मसीह में होकर अनन्त काल के लिए परमेश्वर के सम्मुख धर्मी ठहरना और परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप  हो जाना है “सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरेतो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें।” “क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?” (रोमियों 5:110)। उद्धार पाने या बचाए जाने के साथ ही प्राप्त होने वाले अन्य लाभ हैं परमेश्वर की संतान बन जाना “परन्तु जितनों ने उसे ग्रहण कियाउसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दियाअर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लोहू सेन शरीर की इच्छा सेन मनुष्य की इच्छा सेपरन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैं” (यूहन्ना 1:12-13), तथा मसीह यीशु के संगी वारिस बन जाना “और यदि सन्तान हैंतो वारिस भीवरन परमेश्वर के वारिस और मसीह के संगी वारिस हैंजब कि हम उसके साथ दुख उठाएं कि उसके साथ महिमा भी पाएं” (रोमियों 8:17)।

    प्रत्येक मनुष्य पाप करने के स्वभाव और प्रवृति के साथ जन्म लेता है “मनुष्य है क्या कि वह निष्कलंक होऔर जो स्त्री से उत्पन्न हुआ वह है क्या कि निर्दोष हो सके?” (अय्यूब 15:14); और “देखमैं अधर्म के साथ उत्पन्न हुआऔर पाप के साथ अपनी माता के गर्भ में पड़ा” (भजन 51:5)। पाप करना और अधर्मी होना हमारे अन्दर जन्म से विद्यमान प्रवृत्ति है जो हमारे आदि माता-पिता हव्वा और आदम के पाप के परिणामस्वरूप मनुष्य जाति में वंशानुगत रीति से है “इसलिये जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आयाऔर पाप के द्वारा मृत्यु आईऔर इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गईइसलिये कि सब ने पाप किया” (रोमियों 5:12)। जैसे कि एक डूबता हुआ मनुष्य अपने सिर के बालों से अपने आप को खींच कर स्वयं को पानी से बाहर नहीं निकाल सकता है, वैसे ही पाप से अपवित्र एवं अशुद्ध मनुष्य अपने किसी भी प्रयास से अपने आप को पवित्र एवं शुद्ध नहीं कर सकता है हम तो सब के सब अशुद्ध मनुष्य के से हैंऔर हमारे धर्म के काम सब के सब मैले चिथड़ों के समान हैं। हम सब के सब पत्ते के समान मुर्झा जाते हैंऔर हमारे अधर्म के कामों ने हमें वायु के समान उड़ा दिया है” (यशायाह 64:6)। जैसे उस डूबते हुए मनुष्य को बचने के लिए बाहर से किसी की सहायता चाहिए होती है, उसी प्रकार से पाप में डूबे हुए मनुष्य को भी पाप से उभरने के लिए पाप से बाहर के किसी की सहायता की आवश्यकता होती है “जूफा से मुझे शुद्ध करतो मैं पवित्र हो जाऊंगामुझे धोऔर मैं हिम से भी अधिक श्वेत बनूंगा” (भजन 51:7)।

    पवित्र एवं निष्पाप परमेश्वर पाप के साथ संगति या समझौता नहीं कर सकता है – यह उसके स्वभाव तथा चरित्र के प्रतिकूल है “जब तुम मेरी ओर हाथ फैलाओतब मैं तुम से मुंह फेर लूंगातुम कितनी ही प्रार्थना क्यों न करोतौभी मैं तुम्हारी न सुनूंगाक्योंकि तुम्हारे हाथ खून से भरे हैं। परन्तु तुम्हारे अधर्म के कामों ने तुम को तुम्हारे परमेश्वर से अलग कर दिया हैऔर तुम्हारे पापों के कारण उस का मुँह तुम से ऐसा छिपा है कि वह नहीं सुनता।” “वे उस समय यहोवा की दोहाई देंगेपरन्तु वह उनकी न सुनेगावरन उस समय वह उनके बुरे कामों के कारण उन से मुंह फेर लेगा” (यशायाह 1:15; 59:2; मीका 3:4)। किन्तु वह अपनी सर्वश्रेष्ठ सृष्टि, मनुष्य, से बहुत प्रेम करता है और उस के साथ संगति रखना चाहता है – यद्यपि मनुष्य अब पाप में गिर चुका है। परमेश्वर न केवल प्रेमी है, वरन वह न्यायी भी है। वह पाप की यूं ही अनदेखी नहीं कर सकता है, परमेश्वर के न्याय की मांग है कि प्रत्येक पापी को अपने ही पाप के लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित दण्ड – मृत्य, अर्थात उससे पृथक हो जाने को सहना ही होगा “देखोसभों के प्राण तो मेरे हैंजैसा पिता का प्राणवैसा ही पुत्र का भी प्राण हैदोनों मेरे ही हैं। इसलिये जो प्राणी पाप करे वही मर जाएगा। जो प्राणी पाप करे वही मरेगान तो पुत्र पिता के अधर्म का भार उठाएगा और न पिता पुत्र काधर्मी को अपने ही धर्म का फलऔर दुष्ट को अपनी ही दुष्टता का फल मिलेगा” (यहेजकेल 18:4, 20)। यदि मनुष्य को यह दण्ड सहना पड़े, तो फिर वह परमेश्वर के साथ संगति में कभी लौटने नहीं पाएगा; किन्तु परमेश्वर, अपने बड़े प्रेम के कारण, मनुष्य से संगति रखना चाहता है।

    इस असंभव प्रतीत होने वाली विडंबना का समाधान भी परमेश्वर ने ही बनाया, जिससे उसके न्याय की मांग भी पूरी हो जाए और वह मनुष्य के साथ संगति भी रख सके। परमेश्वर ने स्वयं मनुष्य बनकर इस पृथ्वी पर प्रभु यीशु मसीह के रूप में जन्म लिया “आदि में वचन थाऔर वचन परमेश्वर के साथ थाऔर वचन परमेश्वर था। और वचन देहधारी हुआऔर अनुग्रह और सच्चाई से परिपूर्ण हो कर हमारे बीच में डेरा कियाऔर हम ने उस की ऐसी महिमा देखीजैसी पिता के एकलौते की महिमा” (यूहन्ना 1:1, 14), और एक सामान्य मनुष्य के समान जीवन जीते हुए भी एक निष्पाप तथा निष्कलंक जीवन बिताया “क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहींजो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सकेवरन वह सब बातों में हमारी समान परखा तो गयातौभी निष्‍पाप निकला।” “सो ऐसा ही महायाजक हमारे योग्य थाजो पवित्रऔर निष्‍कपट और निर्मलऔर पापियों से अलगऔर स्वर्ग से भी ऊंचा किया हुआ हो” (इब्रानियों 4:15; 7:26); “न तो उसने पाप कियाऔर न उसके मुंह से छल की कोई बात निकली” (1 पतरस 2:22); “और तुम जानते होकि वह इसलिये प्रगट हुआकि पापों को हर ले जाएऔर उसके स्‍वभाव में पाप नहीं” (1 यूहन्ना 3:5)। प्रभु यीशु ने कभी कोई भी पाप नहीं किया, वे आजीवन पाप से अनजान रहे। फिर भी, प्रभु यीशु ने समस्त मानवजाति के सभी पापों को अपने ऊपर ले लिया, संसार के सभी मनुष्यों के पाप को अपना कर वे सभी मनुष्यों के लिए कलवारी के क्रूस पर पाप बन गए “जो पाप से अज्ञात थाउसी को उसने हमारे लिये पाप ठहरायाकि हम उस में हो कर परमेश्वर की धामिर्कता बन जाएं” (2 कुरिन्थियों 5:21), और मनुष्यों के स्थान पर उन्होंने स्वयं मृत्यु “क्योंकि मसीह का प्रेम हमें विवश कर देता हैइसलिये कि हम यह समझते हैंकि जब एक सब के लिये मरा तो सब मर गए। और वह इस निमित्त सब के लिये मराकि जो जीवित हैंवे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:14-15); तथा परमेश्वर से दूर होने को सह लिया “तीसरे पहर के निकट यीशु ने बड़े शब्द से पुकारकर कहाएलीएलीलमा शबक्तनी अर्थात हे मेरे परमेश्वरहे मेरे परमेश्वरतू ने मुझे क्यों छोड़ दिया?” (मत्ती 27:46)। उन्होंने स्वेच्छा से तथा सब कुछ जानते हुए क्रूस पर अपना बलिदान दिया “पिता इसलिये मुझ से प्रेम रखता हैकि मैं अपना प्राण देता हूंकि उसे फिर ले लूं। कोई उसे मुझ से छीनता नहींवरन मैं उसे आप ही देता हूं: मुझे उसके देने का अधिकार हैऔर उसे फिर लेने का भी अधिकार है: यह आज्ञा मेरे पिता से मुझे मिली है” (यूहन्ना 10:17-18)। वे मारे गए, गाड़े गए, और तीसरे दिन मृतकों में से जी उठ कर अपने ईश्वरत्व को प्रमाणित किया “उसी कोजब वह परमेश्वर की ठहराई हुई मनसा और होनहार के ज्ञान के अनुसार पकड़वाया गयातो तुम ने अधर्मियों के हाथ से उसे क्रूस पर चढ़वा कर मार डाला। परन्तु उसी को परमेश्वर ने मृत्यु के बन्‍धनों से छुड़ाकर जिलाया: क्योंकि यह अनहोना था कि वह उसके वश में रहता।” “क्योंकि उसने एक दिन ठहराया हैजिस में वह उस मनुष्य के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगाजिसे उसने ठहराया है और उसे मरे हुओं में से जिलाकरयह बात सब पर प्रामाणित कर दी है” (प्रेरितों 2:23-24; 17:31)।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
अगला लेख: प्रभु यीशु मसीह की भूमिका एवं कार्य 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें
*************************************************************************************

Sin & Deliverance from Sins (Salvation) In the Christian Faith – Part - 1

Salvation, or to be saved means to be saved or to be rescued from the deleterious effect of sin  eternal death, i.e. to be rescued from being separated from God forever, and, after this earthly life, from being cast away into hell fire forever, from where none can ever come back, “And besides all this, between us and you there is a great gulf fixed, so that those who want to pass from here to you cannot, nor can those from there pass to us” (Luke 16:26). To be saved means to be justified before God and for eternity to be reconciled with God through the Lord Jesus “Therefore, having been justified by faith, we have peace with God through our Lord Jesus Christ”; and For if when we were enemies we were reconciled to God through the death of His Son, much more, having been reconciled, we shall be saved by His life (Romans 5:110)The added benefits of salvation or being saved are that we become God’s children But as many as received Him, to them He gave the right to become children of God, to those who believe in His name: who were born, not of blood, nor of the will of the flesh, nor of the will of man, but of God (John 1:12-13), and a co-heir with Christ Jesus and if children, then heirs--heirs of God and joint heirs with Christ, if indeed we suffer with Him, that we may also be glorified together (Romans 8:17).

Every person is born unrighteous with a natural tendency to sin, “What is man, that he could be pure? And he who is born of a woman, that he could be righteous? (Job 15:14); and “Behold, I was brought forth in iniquity, And in sin my mother conceived me” (Psalms 51:5).  Unrighteousness and sinfulness is our in-born hereditary tendency because of the effects of the sin of our fore-parents, Adam and Eve, “Therefore, just as through one man sin entered the world, and death through sin, and thus death spread to all men, because all sinned (Romans 5:12). Just as a drowning person cannot lift himself out of the water by catching hold of his hair and trying to pull himself out of water, similarly a person made unholy and defiled by sin cannot make himself holy and pure by any self-efforts of being righteous, “But we are all like an unclean thing, And all our righteousnesses are like filthy rags; We all fade as a leaf, And our iniquities, like the wind, Have taken us away (Isaiah 64:6). Just as that drowning man needs help from someone outside, similarly a person drowning in sin needs the help of someone to be delivered from the sin, “Purge me with hyssop, and I shall be clean; Wash me, and I shall be whiter than snow (Psalm 51:7).

The Holy and Sinless God can never compromise or keep company with sin  this is contrary to His nature and character, “When you spread out your hands, I will hide My eyes from you; Even though you make many prayers, I will not hear. Your hands are full of blood “; “But your iniquities have separated you from your God; And your sins have hidden His face from you, So that He will not hear”; “Then they will cry to the Lord, But He will not hear them; He will even hide His face from them at that time, Because they have been evil in their deeds (Isaiah 1:15; 59:2; Micah 3:4). But He also loves His best creation, man, very much and wants to have fellowship with him – even though man has now fallen in sin. Not only is God a loving God, but He is also a just God. He cannot simply condone sin, God's justice demands that the sinner receive and bear the just and God determined punishment for his sin – death, i.e. to be separated from Him, “Behold, all souls are Mine; The soul of the father As well as the soul of the son is Mine; The soul who sins shall die”; “The soul who sins shall die. The son shall not bear the guilt of the father, nor the father bear the guilt of the son. The righteousness of the righteous shall be upon himself, and the wickedness of the wicked shall be upon himself (Ezekiel 18:420). If man were to undergo this punishment then he would never be able to return to fellowship with God; but God, in His great love for us, does want to have fellowship with man.

It was God who provided the way out of this seemingly impossible imbroglio, so that His justice could be met, as well as He could have fellowship with men. God was born as a man on this earth, incarnated as the Lord Jesus Christ, “In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God”; “And the Word became flesh and dwelt among us, and we beheld His glory, the glory as of the only begotten of the Father, full of grace and truth  (John 1:114), and lived a sinless and spotless even though living as a common man, “For we do not have a High Priest who cannot sympathize with our weaknesses, but was in all points tempted as we are, yet without sin”; “For such a High Priest was fitting for us, who is holy, harmless, undefiled, separate from sinners, and has become higher than the heavens (Hebrews 4:157:26); “Who committed no sin, Nor was deceit found in His mouth” (1 Peter 2:22)And you know that He was manifested to take away our sins, and in Him there is no sin” (1 John 3:5)The Lord Jesus never committed any sin; all through His life, He knew no sin. Yet the Lord Jesus took upon Himself all the sins of everyone in the whole world, and by taking up the sins of every person of earth, on the Cross of Calvary He became sin for all the people of the world, “For He made Him who knew no sin to be sin for us, that we might become the righteousness of God in Him (2 Corinthians 5:21), and He then bore the punishment for sin for the entire mankind, He suffered death, “For the love of Christ compels us, because we judge thus: that if One died for all, then all died; and He died for all, that those who live should live no longer for themselves, but for Him who died for them and rose again” (2 Corinthians 5:14-15) and separation from God in place of manAnd about the ninth hour Jesus cried out with a loud voice, saying, "Eli, Eli, lama sabachthani?" that is, "My God, My God, why have You forsaken Me?"  (Matthew  27:46). He knowingly and voluntarily sacrificed Himself on the cross, “Therefore My Father loves Me, because I lay down My life that I may take it again. No one takes it from Me, but I lay it down of Myself. I have power to lay it down, and I have power to take it again. This command I have received from My Father (John 10:17-18). He died, He was buried, and by resurrecting from the dead on the third day He proved His divinity, “Him, being delivered by the determined purpose and foreknowledge of God, you have taken by lawless hands, have crucified, and put to death; whom God raised up, having loosed the pains of death, because it was not possible that He should be held by it.”; “because He has appointed a day on which He will judge the world in righteousness by the Man whom He has ordained. He has given assurance of this to all by raising Him from the dead (Acts 2:23-2417:31).

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued
Next Article: The Role and Work of the Lord Jesus Christ


Please Share The Link & Pass This Message To Others As Well