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सोमवार, 14 नवंबर 2022

पवित्र आत्मा प्राप्त करने के विषय भ्रामक शिक्षाएँ / Wrong Teachings Regarding Receiving the Holy Spirit


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अन्य-भाषाएं - कुछ और गलत शिक्षाएं


हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता से भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं। इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्‍वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डाली हुई होती हैं। जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार। साथ ही इस पद में सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है, कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बाइबल से देखने, जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है।

 

पिछले लेखों में हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, प्रभु यीशु से संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को देखने के बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से देखना आरंभ किया है। हम देख चुके हैं कि प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के नया जन्म या उद्धार पाते ही, तुरंत उसके उद्धार पाने के पल से ही परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी संपूर्णता में आकर उसके अंदर निवास करने लगता है, और उसी में बना रहता है, उसे कभी छोड़ कर नहीं जाता है; और इसी को पवित्र आत्मा से भरना या पवित्र आत्मा से बपतिस्मा पाना भी कहते हैं। वचन स्पष्ट है कि पवित्र आत्मा से भरना या उससे बपतिस्मा पाना कोई दूसरा या अतिरिक्त अनुभव नहीं है, वरन उद्धार के साथ ही सच्चे मसीही विश्वासी में पवित्र आत्मा का आकर निवास करना ही है। इन गलत शिक्षकों की एक और बहुत प्रचलित और बल पूर्वक कही जाने वाले बात है “अन्य-भाषाओं” में बोलना, और उन लोगों के द्वारा “अन्य-भाषाओं” को अलौकिक भाषाएं बताना, और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग के द्वारा इससे संबंधित कई और गलत शिक्षाओं को सिखाना। इसके बारे में भी हम देख चुके हैं कि यह भी एक ऐसी गलत शिक्षा है जिसका वचन से कोई समर्थन या आधार नहीं है। प्रेरितों 2 अध्याय में जो अन्य भाषाएं बोली गईं, वे पृथ्वी ही की भाषाएं और उनकी बोलियाँ थीं; कोई अलौकिक भाषा नहीं। हमने यह भी देखा था कि वचन में इस शिक्षा का भी कोई आधार या समर्थन नहीं है कि “अन्य-भाषाएं” प्रार्थना की भाषाएं हैं। इस गलत शिक्षा के साथ जुड़ी हुई इन लोगों की एक और गलत शिक्षा है कि “अन्य-भाषाएं” बोलना ही पवित्र आत्मा प्राप्त करने का प्रमाण है, जिसके भी झूठ होने और परमेश्वर के वचन के दुरुपयोग पर आधारित होने को हमने पिछले लेख में देखा है।

 

आज हम अन्य-भाषाएं बोलने से संबंधित कुछ अन्य गलत शिक्षाओं के बारे में देखेंगे। कुछ लोग अपनी इस बात को सही ठहराने के लिए कुछ और भी तर्क देते हैं:

क्या “अन्य भाषा” बोलना, बोलने का नहीं वरन सुनने का आश्चर्यकर्म था?

कुछ का कहना है कि प्रेरितों 2:3-11 में आश्चर्यकर्म बोलने का ही नहीं सुनने का भी था। अर्थात, प्रभु के शिष्य तो पृथ्वी के बाहर की अलौकिक भाषाएं बोल रहे थे, किन्तु एकत्रित यहूदियों को वह सुन उनकी अपनी स्थानीय भाषाओं और बोलियों में रहा था।

 

यदि ऐसा था, तो फिर आज ऐसा क्यों नहीं होता है? आज क्यों सुनने वालों को केवल कुछ निरर्थक आवाज़ें ही सुनाई देते हैं? आज जब ये लोग और उनके अनुयायी बड़े जोर-शोर से अपनी “अन्य-भाषाएं” बोलते हैं तो क्यों लोगों को न तो उनकी अपनी भाषा सुनाई देती है और न ही कुछ समझ में आता है कि वे कह क्या रहे हैं! औरों को तो क्या, स्वयं बोलने वालों को भी पता नहीं होता है कि उन्होंने क्या कहा है!

क्या आज की यह “अन्य भाषाएं” पृथ्वी के किसी भिन्न स्थान की भाषाएं हैं? 

कुछ अन्य कहते हैं कि भाषाएं पृथ्वी ही की हैं, किन्तु किसी अन्य अनजाने देश अथवा स्थान की, जिसे उन बोलने वालों ने कभी नहीं सीखा या जाना, किन्तु पवित्र आत्मा उन से उन भाषाओं में बुलवाता है। इसे स्वीकार करने में दो मुख्य समस्याएं हैं: पहली तो यह कि आज जब लोग “अन्य भाषा” बोलते हैं, तो उनके मुँह के उच्चारण, आवाजों में न तो किसी भाषा के समान कोई प्रवाह दिखता है, और न ही कोई शब्द कहे जाने का आभास होता है। वे थोड़ी सी आवाजों को ही हर बार, हर बात के लिए, हर समय बारंबार दोहराते रहते हैं, जो भाषा होने के अनुरूप कदापि नहीं है। दूसरी बात, आज के समय में उनका किसी अन्य स्थान की भाषा बोलने का क्या औचित्य अथवा उपयोग है; वह भी तब जब बोलने वाले उन परदेश के स्थानों पर न तो जाते हैं और न सेवकाई करते हैं? किसी को अपनी व्यक्तिगत प्रार्थना या आराधना करने के लिए, किसी अन्य स्थान की भाषा, जिसे न तो वह जानता है और न ही समझता है, बोलने की क्या आवश्यकता है? यदि व्यक्ति अपनी ही भाषा में प्रार्थना और आराधना नहीं कर सकता है, तो किसी अन्य भाषा में, जिसे वह नहीं जानता है, कैसे कर सकेगा; और वह कैसे जानेगा कि उसने क्या प्रार्थना या आराधना की है, परमेश्वर से क्या मांगा है? और पवित्र आत्मा उससे किसी अन्य भाषा में प्रार्थना और आराधना क्यों करवाएगा; ऐसा करने से क्या अतिरिक्त लाभ होगा? यह और भी विचित्र और हास्यास्पद हो जाता है जब यह ध्यान करें कि पृथ्वी के किसी और स्थान पर उस “अन्य भाषा” को स्वाभाविक रीति से बोलने वाले लोग, इसी प्रकार से, अपनी प्रार्थना और आराधना के लिए किसी और ही भाषा का प्रयोग करते होंगे! तो जो भाषा उनके अपने लिए प्रभावी नहीं है, वह किसी दूसरे के लिए प्रभावी कैसे हो सकती है?


क्या अन्य-भाषाएं प्रार्थना करने के लिए स्वर्गीय, गुप्त, भाषाएं हैं जिससे शैतान और उसके दूत हमारी प्रार्थनाओं को न समझ सकें, और उनमें बाधाएं न डालने पाएं?

अपनी निरर्थक आवाजों को अन्य-भाषाओं का जायज़ प्रतीत होने वाला स्वरूप देने के लिए ये लोग एक अन्य तर्क भी देते हैं कि उनकी वे अन्य-भाषाएं, परमेश्वर द्वारा दी गई स्वर्गीय और गुप्त भाषाएं हैं जिससे हम जो प्रार्थनाएं इन भाषाओं में करते हैं, उसे शैतान और उसके दूत समझ न सकें, और प्रार्थनाओं के उत्तर मिलने में बाधाएं न डाल सकें। जो यह तर्क देते हैं, उनके इस तर्क से यह प्रमाणित हो जाता है कि उन्हें बाइबल के सत्य, तथ्य, और इतिहास का कुछ पता नहीं है। उनकी इस बात का वचन से कोई समर्थन नहीं है। न ही वे यह ध्यान करते हैं कि अय्यूब की पुस्तक के पहले दो अध्यायों के अनुसार शैतान स्वर्ग में जाकर परमेश्वर के साथ मिलता और बात-चीत करता रहता है; उसे किसी स्वर्गीय भाषा से कोई अवरोध नहीं होता है। साथ ही परमेश्वर भी अपने लोगों के बारे में उसके साथ खुलकर बात करता है, परमेश्वर को भी इसका कोई भय नहीं है कि शैतान यदि उसकी इच्छा जान लेगा तो कुछ बिगाड़ उत्पन्न करेगा; क्योंकि परमेश्वर का जन परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं के बाहर परखा ही नहीं जा सकता है (1 कुरिन्थियों 10:13)। इस गलत शिक्षा के द्वारा वे इस बात की भी अनदेखी करते हैं कि पाप के कारण स्वर्ग से निकाले और गिराए जाने तथा शैतान बनने से पहले लूसिफर और उसके दूत, स्वर्ग में परमेश्वर के साथ रहने वाला प्रधान स्वर्गदूत और उसके साथ के स्वर्गदूत थे। इसलिए स्वर्ग की कोई भाषा या बात उनसे छिपी नहीं है, स्वर्गीय भाषा हम मनुष्यों के लिए “गुप्त” हो सकती है, उनके लिए नहीं।

  

और न ही यह गलत शिक्षा देने वाले इस बात को कहते समय यह ध्यान करते हैं कि जब प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को प्रार्थना करने से संबंधित शिक्षाएं दीं, तब लोगों को दिखाने के लिए नहीं वरन एकांत में प्रार्थना करने को कहा, और प्रार्थना का एक स्वरूप भी दिया (मत्ती 6:5-13); किन्तु कभी भी प्रभावी प्रार्थना के लिए किसी अन्य-भाषा का प्रयोग करने की कोई बात नहीं कही या सिखाई। और न ही बाद में नए नियम की पुस्तकों में कहीं ऐसी कोई शिक्षा दी गई कि प्रभावी प्रार्थनाओं के लिए न समझी जाने वाली “अन्य-भाषा” में प्रार्थना करनी चाहिए। और यदि प्रार्थनाएं सुन और समझकर शैतान और उसके दूत उन्हें बाधित कर सकते हैं, तब तो वो परमेश्वर से अधिक सामर्थी हो गए, जो परमेश्वर की इच्छा और योजना, और उसकी संतानों के लिए परमेश्वर की आशीषों को जब चाहे रोक दें, और परमेश्वर इस विषय में कुछ न करने पाए! यह तथ्य भी उनकी इस बात के बिलकुल गलत होने को प्रकट कर देता है।


अगले लेख से हम 1 कुरिन्थियों 13-14 अध्याय में दी गई अन्य भाषाएं बोलने से संबंधित कुछ और बहुत महत्वपूर्ण बातों पर विचार करेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित इन गलत शिक्षाओं में न पड़ जाएं; न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाले ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर भी ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें। यदि आप इन गलत शिक्षाओं में पड़ चुके हैं, तो अभी वचन के अध्ययन और बात को जाँच-परख कर, सही शिक्षा को, उसी के पालन को अपना लें।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • विलापगीत 3-5 

  • इब्रानियों 10:19-39


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English Translation

Some Other Wrong Teachings Regarding the Holy Spirit

    We have been seeing in the previous articles that one of the ways the childlike, immature Christian Believers can be identified is that they can very easily be deceived, beguiled and misled by wrong doctrines and false teachings. Satan and his followers bring in their wrong doctrines and misinterpretations of God’s Word through people who masquerade as apostles, ministers of righteousness, and angels of light (2 Corinthians 11:13-15). These deceptive people and their false messages, their teachings appear to be very attractive, interesting, knowledgeable, even very reverential and righteous; but there is always something or the other that is extra-Biblical or unBiblical mixed into them. These wrong teachings and false doctrines are mainly about three topics, as God the Holy Spirit got it written down through the Apostle Paul in 2 Corinthians 11:4 “For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!” - the Lord Jesus Christ, the Holy Spirit, and the Gospel. In this verse a very important way to identify the false and the correct, discern between them, and escape from being beguiled by Satan is also given - that which is the truth about these three topics has already been given and written in God’s Word. Therefore, by cross-checking every teaching and doctrine from the Bible, the true and the false can be discerned; that which is not already present in God’s Word is false, and their preacher is a preacher of satanic deceptions.


In the previous articles, after seeing some commonly preached and taught false things about the Lord Jesus, we had started to look into the wrong things often taught and preached about the Holy Spirit. About the Holy Spirit, we have seen that every truly Born-Again Christian Believer automatically receives the Holy Spirit from God, at the very moment of his being saved. From that moment onwards, the Holy Spirit comes to reside in him in all His fullness, stays with him forever, never leaves him; and Biblically this is also known as being filled by the Holy Spirit or the baptism with the Holy Spirit. Another very popular and emphatically stated wrong teaching of these preachers and teachers of deceptions is about “speaking in tongues”, their claim that the “tongues’ are super-natural languages, and some other related wrong teachings. Regarding this we have seen that these are also wrong teachings which have no support or affirmation from the Bible. The speaking in “tongues” in Acts 2 were the known and understood languages of the earth and not any super-natural languages. We also saw that quite unlike their claims, “tongues” are not any “prayer language” - the Bible does not offer any support to this. Also, in the last article we also saw how their emphatic claim that speaking in tongues is proof of receiving the Holy Spirit is also patently false and unBiblical; it is their concocted doctrine through misuse and misinterpretation of Biblical facts.


Today we will look at some other commonly preached things related to “speaking in tongues” through which they try to justify their wrong teachings and false doctrines about the Holy Spirit:


Was “speaking in tongues” a miracle of hearing, and not of speaking?

Some people say that the miracle of Acts 2:3-11 was one of hearing, and not of speaking; i.e., the disciples of the Lord Jesus were actually speaking super-natural languages, but the Jews gathered in Jerusalem were hearing and understanding what was being said in their own languages and dialects.


If it was so, then why does the same not happen today? Why is it that today people get to hear only gibberish - incomprehensible, meaningless sounds? These people very enthusiastically, dramatically, and loudly speak in their so-called “super-natural tongues”, but neither they themselves, nor any of the hearers understand or know what is being said. So how can this be the same Biblical phenomenon as was seen in Acts 2; even if it was to be a miracle of hearing?


Are these “tongues” being spoken today, the languages of some other region of the earth?

Some of the believers in “tongues” being “super-natural” claim that, the “tongues” are languages of the earth, but of another region, a language which the speaker never learnt, but the Holy Spirit makes him speak in that language. There are two main problems in accepting this as true; firstly, today when these people “speak in tongues” then there is no flow or sense of words being spoken, as happens when anyone speaks in any language. These people keep repeating the same unintelligible sounds over and over again, for everything and whenever they “speak in tongues”, all of which is inconsistent with speaking in any language of any place. Secondly, is there any need, necessity, or rational of their speaking in a language of another geographical location; that too when they have no ministry or work in the place of that language? Why would anyone need to pray or worship in a language of another location, a language he neither knows nor understands? If he cannot worship and pray in his own language which he knows, then how can he pray or worship in a language that he does not know? How will he know whether he has worshipped or prayed; if he prayed then what has he asked in prayer? Why would the Holy Spirit get him to worship or pray in another language; what extra benefit will he get by doing so? It becomes all the more absurd and ridiculous, when one thinks that the people of that other region will be praying and worshipping in some other language of the earth, and not their own; if their own native language was not effective enough for them to pray and worship in, then how will it become effective for this person who is praying and worshipping in their language? There is simply no sense in this explanation of “tongues”.


Are “tongues” a secret heavenly language, to keep Satan and his angels from understanding our prayers and hindering them?

This is another argument given by these people to justify their gibberish - that these are secret languages given by God to prevent Satan and his angels from knowing, understanding, and hindering our prayers. Those who give this argument, reveal that they have no knowledge and understanding of Biblical facts, truths, and history. Their this contention too has no support whatsoever from the Word of God. It shows that they are not aware, as stated in the first two chapters of the Book of Job, Satan visits heaven and converses with God; he has no problems because of any “heavenly language”. Moreover, God too talks with him and discusses about His people very openly; God has no worries that if Satan comes to know His will about a person, then Satan will go and do some harm, because Satan cannot in any way, do any harm or touch, or test a person beyond the boundaries set by God (1 Corinthians 10:13). By teaching this wrong message they also show that they are unaware that before being cast out of heaven and becoming Satan, Lucifer and his angels were in heaven, living with God and other angels. Therefore, no language of heaven is unknown to them; a so-called “heavenly language” may be “secret” and “unknown” for us humans, but not for Satan and his angels.


These preachers and teachers of this misinformation ignore the Lord’s teachings about prayer to His disciples. When the Lord taught the disciples about prayer, he asked them to pray not to show to people, but quietly, all by themselves, and also gave them a form or outline of prayer (Matthew 6:5-13); but never ever spoke of or taught them about praying in unknown tongues. But contrary to the Lord’s instructions, these people revel in making a loud, ostentatious demonstration of their “praying in tongues”. Neither, later in any of the books of the New Testament do we find any such teaching or instruction, that for an effective prayer, it should be in an unknown and secret, “tongue”. If Satan and his angels are capable of hindering prayers because of hearing and knowing them, then they have become more powerful than God, have got the ability to obstruct and prevent God’s will and plans for His children from being fulfilled, and God is unable to do anything about it! This shows how hollow this claim actually is. They, in one way or another keep mixing in unBiblical, extra-Biblical things, that may sound logical and reverential but are false not untenable.


From the next article we will look at some very important truths about speaking in “tongues” given in 1 Corinthians 13 and 14 chapters. If you are a Christian Believer, then it is very essential for you to know and learn that you do not get beguiled and misled into wrong teachings and doctrines about the Holy Spirit; neither should you get deceived, nor should anyone else be deceived through you. Take note of the things written in God’s Word, not on things spoken by the people; always cross-check and verify all messages and teachings from the Word of God. If you have already been entangled in wrong teachings, then by cross-checking and verifying them from the Word of God, hold to only that which is the truth, follow it, and reject the rest.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Lamentations 3-5 

  • Hebrews 10:19-39