Click Here for the English Translation
मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 30
मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (5)
इस सन्देश को हिन्दी में सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें
हम व्यावहारिक मसीही जीवन जीने के लिए, प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों, जिन्हें “मसीही जीवन के चार स्तम्भ” भी कहा जाता है, का अध्ययन कर रहे हैं। हम देख चुके हैं कि आरम्भिक मसीही विश्वासियों द्वारा लौलीन होकर इन चार बातों का पालन करने से वे अपने आत्मिक जीवन में और संख्या में बहुत तेज़ी से बढ़े। जो बात तब उन आरम्भिक मसीही विश्वासियों के लिए सही थी, वही आज हमारे लिए भी है, यदि हम उनके समान लौलीन होकर इन बातों का पालन चारों बातों का पालन करने वाले बनें। इन चार में से हम पहली दो बातों, “परमेश्वर के वचन का अध्ययन” और “संगति रखना” के बारे में देख चुके हैं। अब हम तीसरी बात, “रोटी तोड़ना” के बारे में, सात बिन्दुओं के अन्तर्गत, मुख्यतः 1 कुरिन्थियों 11:17-34 से सीख रहे हैं। इन सात में से तीसरे बिन्दु के विषय, पिछले लेख में हमने पद 17-22 से देखा था जो पौलुस द्वारा कुरिन्थुस की मण्डली को प्रभु-भोज में भाग लेने के सन्दर्भ में लगाई गई फटकार है। हमने सीखा था कि प्रत्येक पास्टर या कलीसिया के अगुवे की यह ज़िम्मेदारी है कि एक आत्मिक पिता के समान, वह मण्डली के सदस्यों को परमेश्वर के वचन की बातों को सिखाए, और उन्हें सुधारे; जहाँ आवश्यक हो उन्हें फटकार भी लगाए। साथ ही मण्डली के सदस्यों कि यह ज़िम्मेदारी है कि वे दीनता और नम्रता के साथ एक-मनता में रहें, मण्डली में कोई विभाजन और दलों का बनाना न लाएं। साथ ही, सभी मसीही विश्वासियों को वचन से सीखते रहना है, विश्वास में बढ़ते रहना है; तथा जब भी उन्हें उनकी गलतियाँ दिखाई जाएँ, और उन्हें सुधारने की शिक्षा दी जाए, तो उसे नम्रता से स्वीकार करें, उसका पालन करें। आज हम सात में से चौथे बिन्दु पर विचार करेंगे।
4. प्रभु-भोज के लिए प्रभु के निर्देश - उद्देश्य - पद 23-26 - (भाग 1)
इस खण्ड के आरम्भिक पद, पद 23 में, पौलुस यह स्पष्ट कर देता है कि जो भी वह कह रहा है, वह न तो उसके अपने मन की बात है, और न ही उसने किसी अन्य मनुष्य से उसे सीखा है। हम पौलुस के जीवन से जानते हैं कि वह पहले यीशु को प्रभु स्वीकार करने का और मसीही विश्वासियों का कट्टर विरोधी हुआ करता था। जब प्रभु यीशु ने प्रभु-भोज की स्थापना की, उस समय वह वहाँ नहीं था। इसलिए, इससे पहले कि कोई उसकी बातों के विषय सन्देह खड़े करे, वह पहले ही स्पष्ट कर देता है कि जो वह लिख रहा है, वह उसे प्रभु ही ने दिया है, उसकी अपनी मनसा या धारणा नहीं है। इसलिए, उसके कहे को अस्वीकार करना, प्रभु के कहे को अस्वीकार करना होगा। जैसा हमने पिछले लेख में प्रेरितों 18:1-11 से देखा था, पौलुस ने कुरिन्थुस में डेढ़ वर्ष तक परिश्रम किया था, कठिनाइयों और विरोध को झेला था, और यह केवल प्रभु की सामर्थ्य ही थी जिसने उसे वहाँ बनाए रखा था, उसकी गवाही को बनाए रखा था। इसलिए कुरिन्थुस की मण्डली के लोग, उसके साथ अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर, यह भली-भाँति जानते और समझते थे कि पौलुस जब प्रभु से निर्देश पाने का दावा कर रहा है, तो यह व्यर्थ अथवा झूठ नहीं है। इसलिए, जैसे उन्होंने उसके वहाँ होने पर उसकी बातों को गम्भीरता से लिया था, उसी प्रकार से अब, जो उसने पत्री के द्वारा उन्हें निर्देश दिए हैं, उन्हें भी उतनी ही गम्भीरता से लेना है।
जो बात उस समय कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों के लिए सत्य थी, विश्वासयोग्यता और गम्भीरता से लिए जाने के लिए थी, वही बात आज प्रभु यीशु की सार्वभौमिक विश्वव्यापी मण्डली के सभी मसीही विश्वासियों के लिए, उतनी ही विश्वासयोग्यता और गम्भीरता से लेने के योग्य है।
परमेश्वर पवित्र आत्मा को प्रेरित पौलुस में होकर प्रभु-भोज के बारे में ये निर्देश क्यों देने पड़े? क्योंकि कुरिन्थुस के उन मसीही विश्वासियों ने प्रभु की मेज़ की गम्भीरता, उसके मूल स्वरूप, और उसके उद्देश्यों को एक औपचारिकता में बदल दिया था, उसे बिगाड़ दिया था, उसमें अपनी मन-गढ़न्त बातें डाल दी थीं। जैसा हमने पिछले लेख में देखा था, कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों के जीवनों की व्यक्तिगत गवाही बहुत बिगड़ चुकी थी; उन्होंने प्रभु भोज के “सभी के लिए एक रोटी और एक ही प्याला” के स्वरूप और पालन के तरीके को बदल दिया था; अपना भोजन ला कर अलग से खाने लग गए थे। मण्डली में उनका परस्पर व्यवहार सही नहीं था; वे मण्डली में कुछ को ऊँचा दिखाने लगे थे, और कुछ को नीचा दिखाकर, उनका अपमान करने लगे थे। अर्थात, प्रभु की आराधना और उपासना का स्थान, प्रभु और उसकी देह के सदस्यों का अपमान करने का स्थान बन गया था। प्रभु-भोज में सम्मिलित होने के नाम में वे लोग जो कुछ कर रहे थे, उसके घोर परिणाम भी उस मण्डली में आने आरम्भ हो गए थे, जैसा कि हम पद 29-31 में देखते हैं। अर्थात, मसीही विश्वासी होने की गवाही को, प्रभु और उसके निर्देशों को, प्रभु की मण्डली के लोगों के साथ व्यवहार को, प्रभु-भोज और उसके उद्देश्यों को हल्के में कदापि नहीं लिया जा सकता है। जो भी उसे हल्के में लेता है, इन बातों के साथ मनमानी करता है, प्रभु-भोज को एक औपचारिकता के समान लेता है, उसे ऐसा करने के घोर एवं गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे।
जो बात कुरिन्थुस के उन मसीही विश्वासियों के लिए सही थी, वही आज के मसीहियों के लिए भी सही है। बहुत से मसीही विश्वासी, और पारम्परिक कलीसियाओं के सदस्य, कलीसिया या मण्डली के बाहर उनके जीवन, व्यवहार, आदतों, और अन्य लोगों के मध्य उनके मसीही होने की गलत गवाही की परवाह किए बिना, प्रभु भोज में निःसंकोच भाग लेते हैं। विभिन्न डिनॉमिनेशंस और कलीसियाओं में प्रभु-भोज के स्वरूप को बदल दिया गया है। विभिन्न कलीसियाओं और डिनॉमिनेशनों में विभिन्न तरीके पाए जाते हैं, और सभी यही मानते हैं कि उनका तरीका सही है, औरों का गलत है। लेकिन परमेश्वर के वचन में जो स्वरूप दिया गया है, उससे जाँच कर अपने सही या गलत होने के बारे में कोई नहीं देखता है। आज कितनी मण्डलियों या कलीसियाओं या डिनॉमिनेशनों के ऐसे अगुवे हैं जो पौलुस के समान प्रभु-भोज और अन्य बातों के लिए खराई से यह कह सकते हैं “क्योंकि यह बात मुझे प्रभु से पहुँची और मैंने तुम्हें भी पहुँचा दी” (1 कुरिन्थियों 11:23)? यदि वे सच्चाई से कुछ कहने पाएंगे तो यही कहेंगे कि “क्योंकि यह बात मुझे मेरे अधिकारियों से पहुँची, इसीलिए मैंने इसे तुम्हारे मध्य निभा दिया।”
प्रभु की मेज़ के विषय सुधार करने के लिए पौलुस का यही प्रयास था कि जो और जैसा प्रभु ने कहा और दिखाया है, उसे वैसे ही निभाया जाए; न कि उसके साथ मनमानी कि जाए। प्रभु द्वारा दिया गया “सभी के लिए एक ही रोटी और एक ही प्याला” जैसा स्वयं प्रभु ने ही कहा है, प्रभु की एक ही देह और बहाए गए लहू का प्रतीक है। वह मसीही विश्वासियों में एकता और एक मनता को भी दिखाता है। आज अधिकाँश कलीसियाओं में छोटी-छोटी अलग-अलग “रोटियाँ” और छोटे-छोटे अलग-अलग गिलास या कटोरियाँ इसीलिए हैं क्योंकि मण्डली या कलीसिया के लोगों में एकता और एक मनता नहीं है, सभी एक कलीसिया में होते हुए भी एक मन नहीं हैं, कलीसियाओं में विभाजन और दल हैं, ऊँच-नीच है, मतभेद और बैर हैं, लेकिन फिर भी लोग बिना इन बातों को ठीक किए प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहते हैं। कलीसिया के लोग प्रभु की मेज़ की उस एकता और एक मनता के पाठ का पालन नहीं करना चाहते हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रभु-भोज में सही रीति से भाग लेने के लिए व्यक्तिगत गवाही और व्यवहार, तथा मण्डली में गवाही और व्यवहार सही होना कितना आवश्यक है।
आज हमने पद 23 से देखा है कि प्रभु-भोज में सम्मिलित होने के लिए वचन के अनुसार उसके स्वरूप का निर्वाह करना कितना आवश्यक है। अगले लेख में हम प्रभु-भोज के उद्देश्यों के बारे में देखेंगे, और समझेंगे कि उनके अनुसार प्रभु-भोज में भाग लेने का क्या तात्पर्य है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
******************************************************************
English Translation
Things Related to Christian Living – 30
The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (5)
To Listen to this message in English Click Here
We are studying the four things given in Acts 2:42 about practical Christian living. These four things are also known as the “Pillars of Christian Living.” We have seen that the initial Christian believers used to steadfastly follow these four and therefore, they grew very rapidly in their personal spiritual lives and in their numbers. That which was true for those initial Christian Believers is as much true for us today also, provided like them, we too steadfastly follow these four things. We have already seen the first of these two things i.e., “Studying God's Word” and “Fellowship” in the preceding articles. Now we are considering the third thing that is “Breaking of Bread” under 7 points. We are doing this mainly from 1 Corinthians 11:17-34. Out of these seven points, so far we have seen about three points. In the previous article, we saw about the third point from verses 17 to 22, where Paul was rebuking the church in Corinth about their errors while partaking in the Lord’s Table. We had learnt that the Pastor or the leader of every church has the responsibility of serving as a spiritual father for the members of the congregation, to teach them God's Word, to correct them when they need any correction, and as and when required to also rebuke them for correcting them. Also, it is the responsibility of the members of the Assembly or the church that they should be humble and polite, be one minded, and there should be no division and factions in the church or the Assembly. Along with this all the Christian Believers should continue to learn God's Word and grow in their faith; and whenever their short-comings or errors are pointed out to them, and they are asked or taught to correct their errors or short-comings, then they should politely and humbly accept and follow it. Today, in this article, we will consider the 4th of these 7 points.
4. Lords instructions for the Holy communion – The purposes - verses 23-26 - (part 1)
In the initial verse of this section, i.e., in verse 23 Paul makes it clear that whatever he is saying, was not something of his own making, or from his own mind or thoughts; nor was it something that had been taught to him by some person. We know from Paul's life that before becoming a disciple of the Lord Jesus, he was a strong opponent of accepting Jesus as Lord, and severely persecuted the Christian Believers. When the Lord Jesus established the Lord’s Table with His disciples, Paul was not present there. Therefore, before anyone would raise any doubts about what he was saying, he made it clear that whatever he was writing was what he had received from the Lord; and not something that he had thought of on his own. The implication is that rejecting what he has said, is rejecting what the Lord has said. As we have seen in the previous article from Acts 18:1-11, Paul labored very hard for one and a half years, suffering greatly, facing many problems and many oppositions to establish the church in Corinth; and it was only the Lord's strength that had kept him there and had maintained his witness among those people. Therefore, the people of the Corinthian Church because of their personal experiences with Paul, knew very well and understood that when Paul is saying that he has received something from the Lord then that is neither false nor vain. So, just as they would take his teachings and saying seriously when he was present with them, similarly now whatever instructions he is giving to them through his letter, they too have to be taken with equal seriousness.
That which was true, reliable, acceptable, and something to be taken seriously by the then Christian Believers of Corinth, the same thing is equally true, reliable, acceptable, and to be taken equally seriously by the Christian Believers of the Lord Jesus’s Universal Worldwide Church today.
Why did God the Holy Spirit, through Apostle Paul, have to give these instructions about the Lord’s Table? Because the Christian Believers in Corinth had stopped taking the Lord’s Table seriously, they had altered its original form given by the Lord, they had changed its purposes into a formality, they had not only spoilt it, they had added their own contrived things into it. As we have seen in the previous articles, the personal life and Christian witness of the members of Corinthian church had deteriorated very significantly; they had changed the Lord’s instructions of “one bread and one cup for all,” they had changed the way the Lord’s Table was served; they would bring their own food and eat it separately. Their behavior towards each other in the church was not correct, instead of being seen as equals, some people were considered to be of a higher status and some others to be of low status, and then those considered of a low status, would be insulted. In other words, the place for worshiping and honoring the Lord had become a place for insulting the Lord and the members of his body, in the name of participating in the Lord’s Table. Because of what they were doing, they had already started to suffer the grave consequences, as we see from verses 29 to 31. That is to say that the testimony of being a Christian Believer, the instructions of the Lord Jesus, the behavior towards the members of the Lord's Church, the Lord’s Table and its purposes etc., can never be taken lightly or treated inappropriately. Whoever takes them lightly, treats them disrespectfully, observes the Lord’s Table as a formality, they will have to suffer severe and serious consequences of doing so.
That which was true for the Christian Believers at that time is also true for the Christian Believers today. The lives, their behavior, their habits, and the testimony they have amongst others as Christians, of many Christian Believers and members of the denominational churches is deplorable; and yet they partake of the Lord’s Table without any hesitation. Various denominations and churches have changed the form and observance of the Lord’s Table to something of their own convenience. Different churches and denominations have different ways of observing the Lord’s Table, yet everyone thinks their way is correct and that of the others is wrong. But nobody bothers to check with the actual form and observance given in the Word of God, whether what they are doing is correct or not. Today how many church Elders or Pastors can honestly say that which Paul said about the Lord’s Table “For I received from the Lord that which I also delivered to you…” (1 Corinthians 11:23)? If at all they can say anything honestly, it would only be “Because I received this from my superiors, therefore, I am observing it so amongst you.”
Paul’s effort was to correct the observance of the Lord’s Table into its form and method as given by the Lord Jesus; and nobody should treat it in whichever way they wanted to. What the Lord has given is “one bread and one cup for everyone.” As the Lord himself has said, it is the representation of the one body and blood of the Lord Jesus himself. It shows the unity and one mindedness amongst the Christian Believers. Today in the majority of the churches there are small-small pieces of bread and small-small cups or glasses to serve the Lord’s Table, because the people of the church or assembly are no longer united, and they are no longer of the same mind; they may be members of one Church but they are not all of one mind. The churches have many divisions and factions; there are mutual differences and contentions; there are people who think themselves superior and consider others as inferior, but despite all of these wrongs, without correcting any of these things, people continue to take part in the Lord’s Table with impunity. In the previous article we have seen that partaking in the Lord’s Table properly demands having a proper personal witness and behavior amongst the people, as well as a proper witness and behavior within the church.
Today we have seen from verse 23 how essential it is to partake in the Lord’s Table in conformity with the Word of God. It is very necessary to observe the Lord’s Table in the same form as it was given by the Lord. In the next article we will consider the purpose and meaning of partaking in the Lord’s Table.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.