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गुरुवार, 3 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 21 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 13

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 13

मनुष्यों की अज्ञानता (भाग 2)

 

पिछले लेखों में हमने इसका विश्लेषण करते हुए, कि परमेश्वर क्यों मनुष्य के पापमय व्यवहार को “अज्ञानता के समय  में किए गए कार्य” मानकर, उनके लिए आनाकानी करने और मनुष्यों को दण्ड से बचने का अवसर देना चाहता है, यह देखा है कि मनुष्य अपनी सृष्टि से ही शैतान और उसके दूतों से कम स्तर का बनाया गया है। इसलिए अपनी सामर्थ्य और क्षमता से वह उनका किसी भी प्रकार से सामना करने और उन पर जयवंत होने में असमर्थ है। जब तक कि वह यह सामना प्रभु परमेश्वर की अधीनता में, उसकी आज्ञाकारिता एवं मार्गदर्शन में न करे - और केवल तब ही वह शैतान और उसकी युक्तियों, उसकी भ्रामक बातों से बच कर उस पर जयवंत हो सकता है, अन्यथा कभी नहीं।


व्यावहारिक जीवन में हमारे लिए इसका तात्पर्य है कि शैतान, जो आरंभ से ही झूठा है, और झूठ का पिता है (यूहन्ना 8:44), वह अपने झूठ, भ्रम, कुटिल युक्तियों, आदि बातों के द्वारा मनुष्य को बहका, भरमा, झूठ में फँसा कर, उससे जाने-अनजाने अनुचित और गलत व्यवहार करवाता रहता है, और बहुधा शैतान ऐसा धार्मिकता और भले कामों के द्वारा, प्रभु यीशु, उसके कार्यों, उसमें सभी के लिए मुफ्त में उपलब्ध पापों की क्षमा और उद्धार से मनुष्य की दृष्टि हटा कर करवाता है (2 कुरिन्थियों 4:4-6)। और मनुष्य को इसके विषय पता भी नहीं चलने पाता है कि वह कैसे शैतान के हाथों का खिलौना बनकर अपनी ही हानि करने में लगा हुआ है। परमेश्वर और उसकी बातों से, उसके मार्गों से भटक कर दूर हो रखा है, और शैतान की प्रेरणा से अपनी ही गढ़ी हुई धार्मिकता की बातों के पालन और निर्वाह के द्वारा, अपने आप को धर्मी, नैतिक और भला समझे हुए है। मिथ्या बातों के भ्रम में पड़ा हुआ अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य और उसे प्रसन्न करने वाला समझे हुए है; जबकि वास्तविकता इससे बिलकुल विपरीत है। और शैतान द्वारा बहकाया, भरमाया हुआ मनुष्य पाप में पड़ा हुआ परमेश्वर एवं स्वर्ग की ओर नहीं वरन अनन्त विनाश की ओर बढ़ता जा रहा।


न केवल शैतान और उसके दूत मनुष्य से हर प्रकार से सामर्थी हैं, वरन मनुष्य से अधिक बुद्धिमान भी हैं। इस बुद्धिमत्ता का प्रयोग वे मनुष्यों के विरुद्ध दुष्टता की कुटिल युक्तियों के द्वारा मनुष्यों को मूर्ख बनाकर, उन्हें बहका और भरमा कर पापमय व्यवहार और जीवन में जीने, और उन्हें पाप में गिराने के लिए करते हैं। साथ ही वे सत्य को मनुष्य से छिपाए रहते हैं, उसे सत्य के निकट आने ही नहीं देते हैं, सत्य को जानने और समझने ही नहीं देते हैं। उसने मनुष्यों की बुद्धि को अंधा कर रखा है, ताकि प्रभु यीशु मसीह के सुसमाचार की ज्योति उन पर चमकने न पाए (2 कुरिन्थियों 4:4-6)। सांसारिक, अपरिवर्तित मनुष्य, जो परमेश्वर के वचन को अपनी बुद्धि, ज्ञान, और क्षमता से जानना और सीखना चाहता है, उसके हृदय पर परमेश्वर के वचन के प्रति एक पर्दा पड़ा हुआ है, जो उसे मन्द-मति बना देता है। यह पर्दा तब ही उठता है जब व्यक्ति प्रभु की ओर फिरता है, पश्चाताप करके प्रभु को समर्पित जीवन जीने लगता है (2 कुरिन्थियों 3:14-16), और पवित्र आत्मा के द्वारा सिखाया जाता है (1 कुरिन्थियों 2:10-15)। 


    इन बातों का प्रेरितों 17:30 की बात से, परमेश्वर द्वारा मनुष्यों के पापों को अज्ञानता के समय के कार्य मानकर, उनके विषय मनुष्य को दण्ड देने से आनाकानी करने, और दण्ड से बचने के लिए पश्चाताप करने की आज्ञा देने के साथ क्या संबंध है, इसे हम अगले लेख में देखेंगे। अभी के लिए, यदि आप एक मसीही विश्वासी है तो अपने जीवन को गंभीरता से जाँच कर देख लीजिए कि आपने प्रभु की इस आज्ञा का पालन किया है कि नहीं? यदि आप अभी भी अपने धर्म, डिनॉमिनेशन, उनके विधि-विधानों और अनुष्ठानों के निर्वाह के आधार पर अपने आप को परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी और उसे स्वीकार्य समझे बैठे हैं, तो आप शैतान द्वारा फैलाए गए धोखे के जाल में फंसे हुए हैं, और आपको आज, अभी, समय रहते इस धोखे से निकलने की आवश्यकता है; विलंब, अविश्वास, या बाद के लिए टालना बहुत भारी नुकसान करवा सकता है।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


 

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Why The Law Cannot Save Us – 13

Man’s Ignorance (Part 2)

 

    In previous articles, while analyzing why God considers this sinful behavior of man to be “things done in times of ignorance", thereby giving the disobedient and sinful people opportunity to avoid punishment, we have seen that humans from the time of their creation are created lower than Satan and his angels. Therefore, they are unable by any means to face and overcome them; unless they face them under the submission, obedience and guidance of the Lord God - and only then can man overcome Satan and his devious devices, and his delusions; never otherwise.


    For us, in our day-to-day practical life this means that Satan, who is a liar from the beginning, and the father of lies (John 8:44), tricks, deceives, and misguides man through his lies, delusions, devious tricks, etc., making him do in appropriate and wrong things knowingly or unknowingly. Quite often Satan gets this done in the form of works of righteousness and good works, turning away man’s attention from the Lord Jesus, His works, from the forgiveness of sins and salvation freely available to everyone through Him (2 Corinthians 4:4-6). And man, entrapped by Satan’s deviousness, inadvertently or unknowingly keeps on living and behaving inappropriately, wrongly, and sinfully. Man is so caught up in Satan’s devious deceptions that he does not even realize how he actually is actively engaged in harming himself by becoming a toy in the hands of Satan. He has no idea how, though he has turned away from God and His Word, and from God’s ways, yet keeps thinking himself to be righteous, moral, and good, through practicing his contrived piety, and living out his self-devised righteousness, beguiled by Satan. Man, not only remains convinced of his own falsehood, but also considers himself to be acceptable and pleasing to God because of it; whereas the reality is quite the opposite. And man, deceived by Satan, continues to move not towards God and heaven, but towards eternal destruction in his unresolved state of sin.


    Not only are Satan and his angels stronger than man in every way, but they are also wiser than man. They use this intelligence of theirs against humans, to fool men, to mislead and deceive them, to get them to live in sinful behavior and a life unacceptable to God, to keep them entrapped in their state of sin, by devious schemes of wickedness. At the same time, they keep the truth hidden from man, do not allow him to come near to the truth, do not allow him to know and understand the truth. Satan has blinded the minds of men, so that the light of the gospel of the Lord Jesus Christ may not shine upon them (2 Corinthians 4:4-6). The earthly, unregenerate man, who seeks to know and learn the Word of God with his own wisdom, knowledge, and ability, has a veil over his heart regarding the Word of God, which makes him incapable of understanding the truth of God’s Word. This veil is raised and taken away only when one turns to the Lord, when one repents and lives a life submitted to the Lord (2 Corinthians 3:14–16), and begins to be taught by the Holy Spirit (1 Corinthians 2:10–15).


    What does this have to do with Acts 17:30, with God considering man's sins to be acts of ignorance, His being reluctant to punish man about them, and commanding man to repent to avoid punishment? We will see it in the next article. For now, if you are a Christian, take a serious look at your life to see if you have obeyed the Lord's command for repentance. If you still consider yourself righteous and acceptable to God on the basis of your religion, denomination, the observance of their statutes and rituals, then you are in the trap of deceit spread by Satan, and you need to get out of this deception today, now, while you have the time and opportunity. Procrastination, unbelief, or postponing for a later time can do great harm.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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