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बुधवार, 31 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 146

 

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आरम्भिक बातें – 107


परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 13


क्षमा किए और भुलाए गए पापों का स्मरण – 5  

 

इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरंभिक बात, “अन्तिम न्याय” पर हमारे इस अध्ययन में, हमने देखा है कि यह न्याय मसीही विश्वासियों का होगा, उनके स्वर्गीय प्रतिफलों और परिणामों को निर्धारित करने और दिए जाने के लिए। हम यह देख चुके हैं कि प्रभु यीशु के द्वारा किए जाने वाले इस न्याय के समय, विश्वासियों द्वारा की गई प्रत्येक बात, क्यों और कैसे आँकलन किए जाने के लिए प्रकट की जाएगी, वे पाप भी जिन्हें परमेश्वर क्षमा करके भुला चुका है। अब हमने एक संबंधित प्रश्न को देखना आरम्भ किया है कि यदि सब कुछ को प्रकट होना ही है, तो फिर परमेश्वर को पापों को भुलाने की आवश्यकता ही क्या है? इसका उत्तर समझने के लिए, हमने प्रथम पाप के साथ मानवजाति में प्रवेश करने वाली तीन बातों को याद किया था, पहली, मृत्यु – शारीरिक और आत्मिक; दूसरी, इस पाप-स्वभाव वाली देह में रहते हुए जीवन भर दुःख, परेशानी और परिश्रम को झेलना; और तीसरी, उनके लिए जो प्रभु यीशु और कलवरी के क्रूस पर दिए गए उसके प्रायश्चित रूपी बलिदान में विश्वास करके परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप कर लेते हैं, उनके लिए स्वर्ग में अनन्तकालीन महिमामय अद्भुत प्रतिफल और परिणाम। एक बार जब हम इन तीनों के बारे में समझ लेते हैं, तो हम परमेश्वर द्वारा पापों को क्षमा करके भुला देने को भी समझ सकेंगे। हम इन तीनों बातों कि उलटे क्रम में देखते आ रहे हैं।

हमने आरंभ किया यथा तीसरी बात, विश्वासियों को दिए जाने वाले प्रतिफलों और परिणामों के बारे में सीखने के साथ। वर्तमान में हम दूसरी बात, पाप-स्वभाव वाली इस शारीरिक देह में रहते हुए, हर किसी को, वह चाहे वास्तव में उद्धार पाया हुआ मसीही विश्वासी हो या न हो, जीवन भर दुःख, परेशानी और परिश्रम को झेलते रहना। और पिछले लेख से हम इस बहुत बड़े और गम्भीर विषय – मसीही विश्वासी के जीवन में दुःख उठाने की भूमिका, को एक बहुत संक्षिप्त रीति से देख रहे हैं। हमने हमारे वर्तमान अध्ययन से इस विषय के एक सम्बन्धित पक्ष को देखा था कि किस प्रकार से यह दुःख उठाना और परिश्रम एक प्रकार से, की गई गलतियों और अपराधों का उचित न्याय किए जाने के लिए, हमारे अन्दर से उठने वाली माँग को शान्त करता है और साथ ही हमें इसके लिए तैयार होने में सहायता करता है कि हम शरीर की अभिलाषाओं के अनुसार नहीं, बल्कि परमेश्वर की महिमा के लिए जीवन जीएँ। पिछले लेख में हम यहाँ पर आकर रुके थे, कि मसीही विश्वासी के जीवन में दुःख होने का केवल यही एक कारण नहीं है। आज हम मसीही विश्वासियों के जीवनों में दुःख के एक अन्य कारण को भी, परमेश्वर के वचन के कुछ उदाहरणों के द्वारा देखेंगे।

कुछ मसीही विश्वासियों और परमेश्वर के लोगों के द्वारा जीवन में दुःख उठाने का एक और महत्वपूर्ण कारण होता है, उनके लिए यह परमेश्वर की योजना होना। परमेश्वर उन्हें उदाहरण बनाकर, मसीही जीवन और ज़िम्मेदारियों के निर्वाह के बारे में औरों को, हमें, कुछ महत्वपूर्ण बातें और शिक्षाएँ देता है। इसका सर्वोत्तम उदाहरण है प्रभु यीशु मसीह, जिसने समस्त मानवजाति के लिए, परमेश्वर की इच्छा में होकर अपमान, दुःख और मृत्यु को सहा “परमेश्वर पिता, और हमारे प्रभु यीशु मसीह की ओर से तुम्हें अनुग्रह और शान्ति मिलती रहे। उसी ने अपने आप को हमारे पापों के लिये दे दिया, ताकि हमारे परमेश्वर और पिता की इच्छा के अनुसार हमें इस वर्तमान बुरे संसार से छुड़ाए” (गलतियों 1:3-4; साथ ही इब्रानियों 10:5-9 भी देखिए)। लेकिन हम साधारण नश्वर मनुष्यों में से भी हम कुछ उदाहरण देख सकते हैं – यूहन्ना 9 अध्याय में, हम एक जन्म के अंधे व्यक्ति के बारे में देखते हैं, जिसे प्रभु ने उसके वयस्क होने पर चँगा किया था। प्रभु के शिष्यों को लगा कि उसका अन्धापन पापों के कारण है, किन्तु प्रभु ने कहा कि वह परमेश्वर के काम प्रकट करने के लिए था (यूहन्ना 9:1-3)। इस व्यक्ति का जन्म से अन्‍धा होना परमेश्वर की महिमा के लिए, और उसके जीवन से होकर परमेश्वर के द्वारा औरों के जीवनों में कुछ उद्देश्य पूरे करने के लिए था। एक अन्य उदाहरण पौलुस प्रेरित का है; दमिश्क के मार्ग पर प्रभु यीशु मसीह के साथ हुए उसके साक्षात्कार के बाद पौलुस अन्‍धा हो गया था। जब परमेश्वर ने हनन्याह को पौलुस से जाकर मिलने और उसे परमेश्वर का सन्देश देने के लिए कहा, तब पौलुस के कुख्यात होने के कारण, हनन्याह जाने से संकोच करने लगा। लेकिन परमेश्वर ने उसे आश्वस्त किया कि पौलुस उसका चुना हुआ पात्र है, और साथ में पौलुस की सेवकाई के लिए यह भी कहा कि “और मैं उसे बताऊंगा, कि मेरे नाम के लिये उसे कैसा-कैसा दुख उठाना पड़ेगा” (प्रेरित 9:16)।

पुराने नियम में भी, परमेश्वर के लोगों के परमेश्वर की इच्छा में, उसकी महिमा के लिए दुःख उठाने के उदाहरण हैं। यिर्मयाह नबी को लड़कपन में ही सेवकाई के लिए नियुक्त कर दिया गया था (यिर्मयाह 1:4-7); परमेश्वर ने यिर्मयाह को आश्वस्त किया कि वह निरन्तर उसके साथ बना रहेगा और उसकी सहायता करता रहेगा। लेकिन परमेश्वर ने साथ ही यह भी कहा कि जिनके मध्य में उसे सेवकाई करनी है, वे उससे लड़ते ही रहेंगे, लेकिन कभी उस पर प्रबल नहीं होने पाएँगे “वे तुझ से लड़ेंगे तो सही, परन्तु तुझ पर प्रबल न होंगे, क्योंकि बचाने के लिये मैं तेरे साथ हूँ, यहोवा की यही वाणी है” (यिर्मयाह 1:19)। और यिर्मयाह अपनी पूरी सेवकाई में इस्राएलियों के विरोध का सामना करता रहा और उनके साथ संघर्ष ही करता रहा। एक भक्त जन के द्वारा दुःख उठाने का एक जाना-माना उदाहरण है अय्यूब, लेकिन जैसा उसके विषय याकूब 5:11 (IBP हिन्दी बाइबल) में लिखा है “देखो, धैर्य रखने वालों को हम धन्य समझते हैं। तुमने अय्यूब के धैर्य के विषय में तो सुना ही है, और प्रभु के व्यवहार के परिणाम को देखा है कि प्रभु अत्यन्त करुणामय और दयालु है,” अय्यूब के लिए परमेश्वर के व्यवहार का एक उद्देश्य था – उन दुःखों के द्वारा परमेश्वर उसे, उसकी धार्मिकता के बावजूद उसकी वास्तविक पापमय स्थिति का एहसास करने तथा पश्चाताप करने तक ले कर आया (अय्यूब 40:3-5; 42:4-6), जिस से अय्यूब अपने धार्मिकता के कार्यों के आधार पर नहीं परन्तु पापों के लिए पश्चाताप तथा परमेश्वर के अनुग्रह के द्वारा बचाया जाए। उसके बाद परमेश्वर ने उसे बहुतायत से, उसके द्वारा उठाई गई हानि से भी अधिक आशीषित किया (अय्यूब 42:11-15)।

इसलिए परमेश्वर के लोगों का दुःख उठाना केवल पापों के कारण ही नहीं होता है, वरन परमेश्वर की योजना और उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भी होता है। अगले लेख में हम दुःख उठाने के एक और पक्ष को देखेंगे, अर्थात, आशीष और मार्गदर्शन पाना।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 107


God’s Forgiveness and Justice – 13


Remembrance of Sin Forgiven and Forgotten - 5

   

In our study on “Eternal Judgment,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, we have seen that this judgment will be of the Christian Believers, to ascertain and give them their eternal rewards and consequences, for the Christian lives they have lived since their salvation, their being Born-Again. We have seen how and why, at the time of this judgment by the Lord Jesus, everything that the Believers have done, will be laid open and evaluated, even the sins that God has forgiven and forgotten. We are now considering a related question, that if everything has to be brought up and laid open, then why does God have to forget the forgiven sins? To answer this, we have re-capitulated the three things that happened for mankind, with the entry of sin – firstly, death – physical and spiritual; secondly, lifelong pain, problems and labor; and thirdly, promise of eternal heavenly and glorious rewards to those who return to the Lord God and are reconciled with Him through faith in the Lord Jesus, and His atoning sacrifice made on the Cross of Calvary. Once we understand about these three, then we can understand God’s forgiving and forgetting sins.

We have been considering these three things in the reverse order, and have studied about the third thing, the rewards and consequences that will be given to the Believers. Presently we are considering the second thing – lifelong pain and suffering in the physical bodies having a sin nature, for everyone, even the truly Born-Again Christian Believers; and the sufferings will remain with everyone as long as they are in this physical body with a sin-nature. In the last article we have seen one aspect of this very vast and profound topic – suffering in the life of Christians; which we are considering very briefly for our current study. We have seen how this suffering in a way serves to meet the demands of our sense of justice for the wrongs committed, and also serves to prepare us to learn to live our lives not for obeying the lusts of the flesh, but for the glory of God. In the last article we had stopped at the point that this is not the only reason for the Christian Believer’s suffering in this world. Today we will touch upon another aspect of suffering in a Christian Believer’s life, through some examples from God’s Word.

Another important reason for some people to be suffering in their lives is God’s plans for them, to use their lives as an example, to bring important lessons about our Christian life and responsibilities for the others, to us. There can be no better example of this than our Lord Jesus Christ Himself, who suffered humiliation and death for all of mankind in the will of God; “Grace to you and peace from God the Father and our Lord Jesus Christ, who gave Himself for our sins, that He might deliver us from this present evil age, according to the will of our God and Father” (Galatians 1:3-4; also see Hebrews 10:5-9). But even amongst the common mortal men, we can consider some other examples – from John chapter 9, we learn about a man born blind, and healed by the Lord Jesus as an adult. The disciples of the Lord thought that this was because of sin; but the Lord Jesus corrected them and said, it was so that God’s works should be revealed in him (John 9:1-3). This man’s blindness since birth was for the glory of God and for God to accomplish certain purposes through him, in the life of others. Another example is the Apostle Paul; after his encounter with the Lord Jesus on the road to Damascus, Paul had become blind. When God told Ananias to go and meet Paul and convey God’s message to him, Ananias, because of Paul’s adverse reputation, was reluctant to go. But God assured him that Paul was His chosen vessel for spreading the gospel, also saying about Paul’s ministry, “For I will show him how many things he must suffer for My name's sake” (Acts 9:16).

Even in the Old Testament we have similar examples of suffering in God’s will, for God’s glory. The prophet Jeremiah was ordained to be the Lord’s prophet as a youth (Jeremiah 1:4-7); God assured Jeremiah His constant presence and support in his ministry. But God also told him that those amongst whom he will minister for God, they will keep fighting against him, but never prevail “They will fight against you, But they shall not prevail against you. For I am with you," says the Lord, "to deliver you"” (Jeremiah 1:19); and throughout his ministry he kept on facing opposition and struggling with the Israelites. Job is a very well-known example of sufferings experienced by a godly person, but as it says in James 5:11 “Indeed we count them blessed who endure. You have heard of the perseverance of Job and seen the end intended by the Lord--that the Lord is very compassionate and merciful,” God had a purpose – through those sufferings God brought Job to the realization of his actual sinful condition (Job 40:3-5; 42:4-6) despite his religious and righteous living, and brought him to repentance; to Job’s being saved by repentance from sins and the grace of God and not by his works of righteousness; and then blessed him abundantly over and above his losses (Job 42:11-15).

So, God’s people suffering is not only because of sin, but also because God has a reason for it, and it helps accomplish His purposes. In the next article we will consider another aspect of sufferings, i.e., blessings and guidance because of suffering.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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मंगलवार, 30 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 145

 

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आरम्भिक बातें – 106


परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 12


क्षमा किए और भुलाए गए पापों का स्मरण – 4

 

पिछले लेख में, इस बात पर विचार करते हुए कि पापों को क्षमा कर देने के बाद परमेश्वर उन्हें भुला क्यों देता है, और तब भी, अन्तिम न्याय के समय वे फिर से प्रकट कर दिए जाएँगे, हमने पाप के सँसार में प्रवेश करने के साथ होने वाली तीन बातों की समीक्षा की थी। ये तीन बातें हैं, मृत्यु – आत्मिक और शारीरिक; मनुष्यों का जीवन भर दुःख और परेशानी उठाते रहना, वे चाहे उद्धार पाए हुए हों अथवा नहीं; और जो परमेश्वर की ओर लौट आते हैं, प्रभु यीशु में होकर परमेश्वर के साथ मेल-मिलाप कर लेते हैं, उनके लिए अनन्तकालीन स्वर्गीय प्रतिफलों की प्रतिज्ञा। पिछले लेखों में हमने देखा है कि ये स्वर्गीय प्रतिफल उन्हें बहुत बारीकी से किये गए आँकलन और न्याय के बाद दिए जाएँगे, कि उद्धार पाने के बाद उन्होंने अपना मसीही जीवन किस प्रकार से व्यतीत किया, अपने मनों में क्या कुछ बसाए और छुपाए रखा। इस न्याय के लिए, परमेश्वर द्वारा क्षमा किए गए और भुलाए गए पापों का लेखा खोला जाएगा, सभी बातें प्रकट की जाएँगी और तब न्याय तथा प्रतिफलों का दिया जाना तय होगा। आज से हम अदन की वाटिका में पाप के साथ आने वाली दूसरी बात पर विचार करना आरम्भ करेंगे – जीवन भर शारीरिक दुःख और परेशानी उठाते रहने का श्राप।

जैसा कि हम अदन की वाटिका में जो हुआ, उसके विवरण से देखते हैं, शरीरों पर पाप का दुष्प्रभाव इतना भयानक था, कि उसके कारण मनुष्यों में पाप का स्वभाव और प्रवृत्ति हमेशा के लिए घर कर गई, यहाँ तक कि, यह प्रवृत्ति उनकी भावी पीढ़ियों में भी वन्शागत होकर चलती चली गई। यह प्रभाव ऐसा है कि यह पापों के क्षमा किए जाने के बाद भी नहीं मिटता है। यह तब ही मिटता है, जब इसके प्रभाव वाला शरीर मिट जाता है और उद्धार पाए हुए व्यक्ति वैसी सिद्ध या स्वर्गीय देह में आ जाते हैं, जैसी देह में परमेश्वर ने उनकी रचना की थी। क्योंकि यह पाप-स्वभाव प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान रहता है, वह चाहे उद्धार पाया हुआ हो अथवा न हो, इसी लिए प्रत्येक जन पाप करता रहता है, जैसा कि प्रेरित यूहन्ना ने लिखा है “यदि हम कहें, कि हम में कुछ भी पाप नहीं, तो अपने आप को धोखा देते हैं: और हम में सत्य नहीं। यदि कहें कि हम ने पाप नहीं किया, तो उसे झूठा ठहराते हैं, और उसका वचन हम में नहीं है” (1 यूहन्ना 1:8, 10)। हम न केवल अपने कामों के द्वारा प्रत्यक्ष पाप करते हैं, परन्तु अपने विचारों में, तथा अपने मन-मस्तिष्क में अभक्ति की, अशुद्ध और पापमय बातों को रखने के द्वारा भी अप्रत्यक्ष पाप करते हैं। इस लिए कोई भी व्यक्ति कभी यह दावा नहीं कर सकता है कि वह पूर्णतः निष्पाप है, नया-जन्म पा लेने और पापों के क्षमा हो जाने के बाद भी।

अब ध्यान कीजिए कि परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में रचा था; इसी लिए मनुष्य का प्रत्येक वह गुण और चरित्र जो पापमय या दुष्टता का नहीं है, एक छोटी सी रीति से परमेश्वर के गुणों और चरित्र को प्रतिबिंबित करता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, हम एक बात पर विचार करते हैं जो हमारे परिवारों और समाज में हमेशा होती रहती है, और जिस से हम भली-भाँति परिचित हैं। चाहे हमारे घरों में हो या हमारे सामाजिक जीवनों में, प्रत्येक की गई गलती और अपराध, प्रत्येक किए गए असामाजिक काम के लिए, हमारे अन्दर की न्याय की भावना, यह माँग करती है कि उस बुराई के साथ कोई-न-कोई व्यवहार होना चाहिए और उसका निवारण किया जाना चाहिए। वह चाहे परिवार का बच्चा हो या कोई अन्य व्यक्ति, उस गलती की गम्भीरता, तथा उसे करने वाले के द्वारा उसे बारम्बार किए जाने के आधार पर, कुछ न कुछ प्रत्युत्तर दिया जाता है। यह प्रत्युत्तर एक हल्की सी नाराज़गी या डाँट हो सकती है, या उस से बढ़कर कुछ हो सकता है, अथवा कोई गम्भीर दण्ड भी हो सकता है। एक बार उस बच्चे या व्यक्ति ने उस प्रत्युत्तर का निर्वाह कर लिया, तो फिर यह मान लिया जाता है कि उस गलती या अपराध का निवारण हो गया है, और अब वह बच्चा या व्यक्ति उस बुराई को करने से पहली की स्थिति में बहाल हो गया है।

अब उस पर ध्यान कीजिए जो पवित्र आत्मा ने प्रेरित पतरस के द्वारा लिखवाया है, “सो जब कि मसीह ने शरीर में हो कर दुख उठाया तो तुम भी उस ही मनसा को धारण कर के हथियार बान्ध लो क्योंकि जिसने शरीर में दुख उठाया, वह पाप से छूट गया। ताकि भविष्य में अपना शेष शारीरिक जीवन मनुष्यों की अभिलाषाओं के अनुसार नहीं वरन परमेश्वर की इच्छा के अनुसार व्यतीत करो” (1 पतरस 4:1-2)। दूसरे शब्दों में, क्योंकि हम में परमेश्वर का न्यायी होने का गुण है, इसी लिए शरीर में किए गए पाप के लिए, शरीर ही में दण्ड के भुगतान करने की प्रवृत्ति भी है, जिस से पाप के लिए शरीर के साथ व्यवहार हो और उसकी बुराई का निवारण किया जाए; जिसके बाद फिर, पाप या बुराई से पहले की दशा में आ जाने के बाद, व्यक्ति परमेश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन व्यतीत करे, न कि, और भी पाप करने के लिए, शरीर की लालसाओं के अनुसार। इसी लिए हम देखते हैं कि प्रत्येक जन, वह चाहे उद्धार पाया हुआ हो अथवा न हो, भिन्न-भिन्न प्रकार से दुःख और परेशानी उठता रहता है। परमेश्वर भी अपने गलती करने वाले बच्चों की ताड़ना करता है, कभी-कभी तो बहुत तीव्रता और गम्भीरता से, ताकि वे न केवल उसके पास लौट आएँ और सही हो जाएँ, परन्तु धार्मिकता के लिए उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए भी (इब्रानियों 12:5-11)।

इसीलिए, प्रत्येक व्यक्ति, उसमें विद्यमान पाप-स्वभाव के कारण, और उससे उनमें निरन्तर बने रहने वाले पाप के कारण, किसी-न-किसी शारीरिक दुःख और परेशानी से होकर निकलता ही रहता है। लेकिन इस शारीरिक दुःख उठाने के और भी पक्ष हैं, जैसे कि परमेश्वर की योजना, परमेश्वर के लोगों पर शैतान के हमले, आदि; और इनके बारे में हम अगले लेख में देखेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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The Elementary Principles – 106


God’s Forgiveness and Justice – 12


Remembrance of Sin Forgiven and Forgotten - 4

   

In the last article, while considering why does God forget sins after forgiving them, and yet they will be brought out and laid open at the time of Eternal Judgment we had recapitulated about the three aspects of what happened with the entry of sin into the world. These three are, Death – physical and spiritual; lifelong suffering for mankind, whether saved or not; and promise of eternal heavenly rewards to those who return to God and are reconciled with Him through the Lord Jesus. In the previous articles, we have already seen about the heavenly rewards – they will be given to every Christian Believer after a thorough evaluation of the Christian life they have lived, and the things they have kept in them, since after being Born-Again. For this, even the sins forgiven and forgotten by God, their record will be brought out for judgment, and the rewards given accordingly. From today we will see about the second thing that came with sin in the Garden of Eden – the curse of lifelong suffering in this physical body.

As we see from what happened in the Garden of Eden, the effect of sin on the physical bodies was such that it permanently brought the sin nature into their physical bodies, so much so, that it would keep passing on to their future generations. This effect was such that it would get eliminated even after sins were forgiven. It would be removed only after the body with the sin nature was removed and the saved mankind was restored to the ‘heavenly’ or ‘perfect’ bodies that man was created in by God before he fell into sin. Because this sin nature is present in every person, whether saved and Born-Again, or unsaved, therefore everyone keeps committing sin; as the Apostle John has written “If we say that we have no sin, we deceive ourselves, and the truth is not in us. If we say that we have not sinned, we make Him a liar, and His word is not in us” (1 John 1:8, 10). We not only sin evidently through our deeds, but even sin non-evidently, through our thoughts, and through keeping ungodly, unclean things in our minds and hearts. So, no person can ever claim to be totally and absolutely free from sin, even after being Born-Again, and his sins being forgiven by God.

Now, remember that man was created in the image of God; so, every non-sinful, non-evil attribute and characteristic of man, is from God, and reflects in a small way, the attributes and characteristics of God. With this in mind, let us see what happens in a family setting, and in our social lives – something we are very familiar with. Whether in our family, every offense, every wrong, everything unsocial, we do, it always has a repercussion – our sense of justice demands that wrongs and offenses, in some way or the other must be dealt with and neutralized. Depending upon the seriousness of the wrong or offense committed, and how often a child or the person keeps doing it, the repercussions of the offense or wrong might be just a light verbal reprimand, or something more, even going to some extreme penalties. When a child or person has undergone a punishment or repercussion for their offense, it is assumed that the offense has been balanced out or cancelled through this punishment, and the child or person can then have been considered to be restored back to the pre-offense state.

Now consider what the Holy Spirit had the Apostle Peter write “Therefore, since Christ suffered for us in the flesh, arm yourselves also with the same mind, for he who has suffered in the flesh has ceased from sin, that he no longer should live the rest of his time in the flesh for the lusts of men, but for the will of God (1 Peter 4:1-2). In other words, because of God’s attribute of justice being present in us, sin in the flesh, requires punishment of the flesh, to balance out or cancel the sin, and restore the person to the pre-offense stage, where they should live their lives not for the lusts of men, i.e. for more sins in the flesh, but for the will of God. With sin nature residing and always being at work in every person, since their birth to their death, everyone is under the repercussions of sin in their lives, all the time. That is why we see everyone, whether saved or unsaved, suffering, in varying intensities and duration, from something or the other in their lives. God too reprimands his misbehaving children, at times severely, to not only to correct and restore them back to Him but to also train them for righteousness (Hebrews 12:5-11). And this will continue lifelong for everyone.

Therefore, every person, because of the inherent sin nature, and continual presence of sin in them, also continues to suffer from some physical or bodily problem or the other. But there are other aspects to this physical suffering – e.g., God’s plan, and satanic attacks on God’s people, and we will consider about them in the next article.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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रविवार, 28 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 144

 

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आरम्भिक बातें – 105


परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 11


क्षमा किए और भुलाए गए पापों का स्मरण – 3

 

परमेश्वर के वचन बाइबल से “अन्तिम न्याय,” जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरंभिक बातों में से छठी बात है, के बारे में अध्ययन करते हुए हमने देखा है कि यह अन्तिम न्याय मसीही विश्वासियों का होगा, उन्हें उनके प्रतिफल और परिणाम देने के लिए। ये प्रतिफल और परिणाम उनके द्वारा उद्धार पाने के बाद से जिए गए मसीही जीवन, और उनके द्वारा अपने मन में रखी गई बातों के आधार पर होगा। हमने बाइबल से यह भी देखा है कि इस न्याय के लिए, प्रत्येक मसीही विश्वासी के बारे में प्रत्येक बात प्रकट कर दी जाएगी, वे पाप भी जो परमेश्वर ने क्षमा करके भुला दिए हैं, जिससे कि किसी के भी मन में प्रभु द्वारा किए जाने वाले इस न्याय के बिल्कुल सही और खरा होने, और हर किसी को उचित एवं उपयुक्त प्रतिफल और परिणाम दिए जाने को लेकर कोई भी सन्देह या प्रश्न न रह जाए। पिछले लेख से हमने इस अंतिम न्याय के लिए प्रत्येक विश्वासी के बारे में सब कुछ प्रकट किये जाने से सम्बन्धित दो प्रश्नों पर विचार करना आरम्भ किया था। पहला प्रश्न था कि यदि अन्ततः प्रत्येक विश्वासी के बारे में सभी कुछ प्रकट किया ही जाना था, वे पाप भी जिन्हें परमेश्वर ने क्षमा करके भुला दिया है, तो फिर परमेश्वर ने यह बात छिपा कर क्यों रखी, और इस पहले से क्यों नहीं बताया? हमने इस प्रश्न के बारे में विचार किया था और देखा था कि ऐसा नहीं है कि परमेश्वर ने कुछ छिपा के रखा है; उसने तो इन बातों को अपने वचन में स्पष्ट और खुला लिखा हुआ है। यह तो नया-जन्म पाए हुए मसीहियों की गलती है, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन का अध्ययन नहीं करते हैं, वचन को परमेश्वर पवित्र आत्मा से नहीं सीखते हैं, वरन अधिकतर विश्वासी अन्य मनुष्यों पर निर्भर रहते हैं कि वे उन्हें परमेश्वर का वचन सिखाएँ, उसके बारे में बताएँ। इसी प्रवृत्ति के कारण, वे परमेश्वर के वचन में दी गई बातों की गलत व्याख्याओं और झूठी शिक्षाओं द्वारा बहकाए और भरमाए जाते हैं। आज से हम दूसरे प्रश्न पर विचार करना आरम्भ करेंगे, कि यदि हर बात को न्याय करने के लिए प्रकट करना ही था, तो फिर परमेश्वर पापों को क्षमा करके उन्हें भुला क्यों देता है?

इसे समझने के लिए, पहले हम उन तीन बातों को याद कर लेते हैं जो अदन की वाटिका में पहले पाप के साथ हुई थीं। हमने कुछ दिन पहले के लेखों में देखा है कि मानव जाति के लिए पहले पाप के साथ मुख्यतः तीन बातें साथ में आईं – सबसे पहली – मृत्यु, दो प्रकार से – आत्मिक (मनुष्य का परमेश्वर से अलग हो जाना) और शारीरिक (मनुष्य का मनुष्य से अलग हो जाना); और जैसा हम देख चुके हैं, कलवरी के क्रूस पर प्रभु यीशु द्वारा दिए गए बलिदान में विश्वास करने के द्वारा उद्धार प्राप्त करना, मृत्यु की इस दशा को अनन्त जीवन की बहाली के लिए पलट दिया जाना, और मनुष्य का परमेश्वर के, तथा मनुष्य का मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप हो जाना है। दूसरी बात, पाप आजीवन दुःख, परिश्रम, और तकलीफें सहने का श्राप भी लेकर आया; यह ऐसा श्राप है जो इस पापमय देह के साथ जुड़ा हुआ है। इसी लिए ये बातें परमेश्वर द्वारा प्रत्येक जन की देखभाल करने से भी जाती नहीं हैं, और न ही उद्धार पाने और पापों की क्षमा प्राप्त होने, तथा परमेश्वर की सन्तान बन जाने से हट जाती हैं। तीसरी बात है, परमेश्वर से मिला आश्वासन कि जो सच में उसके पास लौट आते हैं, उसे अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, उसने उनके लिए, उनके स्वर्गीय निवास-स्थान में, कुछ अत्यन्त अद्भुत तैयार कर के रखा हुआ है; वह इतना विलक्षण है कि मानवीय समझ की क्षमताओं से बिल्कुल परे है; और उनके द्वारा उद्धार पाने के बाद जीए गए मसीही जीवन और मनों में रखी गई बातों की गुणवत्ता के अनुपात में उन्हें दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में परमेश्वर अपने प्रत्येक विश्वासी को उसके लिए सर्वथा उचित और उपयुक्त प्रतिफल देगा। जो परमेश्वर के लिए जीते और उसकी तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में कार्य करते हैं, उनके लिए स्वर्गीय प्रतिफलों वाला अनन्तकाल प्रतीक्षा कर रहा है।

तो इस प्रकार से पाप के प्रभाव के तीन पक्ष हैं: पहला – मृत्यु – शारीरिक और आत्मिक, अर्थात शरीर का अन्य मनुष्यों और सँसार की वस्तुओं से पलटा न जा सकने वाला पृथक हो जाना; और परमेश्वर के साथ आत्मिक संगति का टूट जाना। दूसरा, प्रत्येक व्यक्ति के लिए, वह चाहे उद्धार पाया हुआ हो अथवा न हो, जीवन भर शारीरिक दुःख और परेशानियाँ। तीसरा, परमेश्वर की अनन्तकालीन स्वर्गीय प्रतिफलों के बारे में प्रतिज्ञा, जो प्रतिफल इतने अद्भुत होंगे कि हम उनके बारे में अभी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। पाप के प्रभाव को पूर्णतः पलटने और मिटाने के लिए इन तीनों बातों के साथ व्यवहार किया जाना अनिवार्य है।

वास्तव में, अभी तक के लेखों में, हम इन तीनों बातों को उनके उलटे क्रम में लेकर चलते आ रहे हैं। अभी तक हमने तीसरे पक्ष, स्वर्गीय प्रतिफलों के दिए और लिए जाने के “कैसे और क्यों” के बारे में देखा है। हम वह सीखते आ रहे हैं जो प्रत्येक का न्याय किये जाने और प्रतिफलों तथा परिणामों के दिए और लिए जाने के बारे में परमेश्वर ने अपने वचन में दिया और सिखाया है, ताकि मानवजाति, विशेषकर प्रभु के लोग, अपने आप को इस न्याय के लिए तैयार कर लें। जिन्होंने अभी तक प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा नया-जन्म नहीं पाया है, वे यीशु को अपना उद्धारकर्ता और प्रभु ग्रहण कर के बच जाएँ; और जो बचे हुए, या उद्धार पाए हुए हैं, वे अभी तक जो मसीही जीवन उन्होंने जिया है और जो बातें अपने मनों में रखी हुई हैं, उनके बारे में गम्भीरता से विचार कर लें, क्योंकि इन सभी बातों का प्रभाव उनके अनन्तकालीन स्वर्गीय प्रतिफलों और परिणामों पर पड़ेगा।

अगले लेख में हम दूसरे पक्ष – जीवन भर का दुःख और परेशानियाँ, मसीही विश्वासियों के जीवनों में भी, के बारे में विचार करेंगे; और फिर उस के बाद हम पहले पक्ष, अर्थात शारीरिक और आत्मिक मृत्यु, तथा विश्वासी के उससे बहाल किए जाने के बारे में देखेंगे।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 105


God’s Forgiveness and Justice – 11


Remembrance of Sin Forgiven and Forgotten - 3

   

In our study from God’s Word the Bible about the “Eternal Judgment,” the sixth of the elementary principles given in Hebrews 6:1-2 we have seen that this final judgment will be of the Christian Believers, to give them their eternal rewards and the consequences of the lives they have lived, and the things they have kept in in their hearts, since after being Born-Again. We have also seen from the Bible that for this judgment, everything about every Christian Believer, even the sins forgiven and forgotten by God, will be laid open and then judged, so that no one will have any questions or doubts about the fairness of the Lord’s judgments and the eternal rewards He gives to each one. Since the last article we began considering two questions about this laying open everything about every Believer for this Eternal Judgment. The first question was that if everything about every Believer eventually had to be laid open, even after forgiving and forgetting their sins, then why did God keep it hidden, and not tell about it beforehand? We considered this question in the last article, and saw that it is not God who has kept anything hidden; He has stated it openly in His Word. It is the Born-Again Christians who are at fault, because they do not study God’s Word, do not learn it from God the Holy Spirit, but mostly rely upon some other men to teach and speak God’s Word to them. Because of this tendency, they are usually misled by many misinterpretations and wrong teachings about the things God has given in His Word. From today we will begin with the second question, if things have to be brought out in the open for judgment, then why does God forget sins after forgiving them?

To understand this, let us recapitulate the three things that happened in the Garden of Eden, with the committing of the first sin. We have seen in earlier articles, a few days ago, that essentially, the first sin brought in three things for mankind – firstly death – both spiritual (man’s separation from God) and physical (man’s separation from man); and as we have seen, salvation, through faith in the sacrifice of the Lord Jesus on the cross of Calvary, is the reversal of this state of death to eternal life, restoration of fellowship between man and God, and also man and man. Secondly sin brought the curse of lifelong toil, pain, and misery; and this curse is tied to this sinful body for a person’s lifetime. Therefore, these are not eliminated despite the care given by God to every person, nor even with salvation, forgiveness of sins, and becoming children of God. Thirdly, God has given the assurance that those who return back to Him and submit to Him, for them in their eternal heavenly abode, He has kept ready something so marvelous, that it is beyond human capacity and capabilities of understanding. These heavenly rewards will be given in proportion to the quality of the Christian lives His people have lived and the things they have kept in heart while here on earth after, since after their salvation. In other words, God will give every Believer his fair and just rewards, and an eternity of heavenly rewards awaits those who live and work for God, in obedience to Him and His Word.

So, the effects of first sin has three aspects to it: firstly death – physical and spiritual, i.e., physical irreversible separation from other persons and the things of this world; and spiritual separation from fellowship with God. Secondly lifelong physical sufferings and problems for every person, whether a saved, Born-Again Believer, or an unsaved unbeliever. Thirdly God’s promise of eternal heavenly rewards, which we cannot even think and imagine. Each of these three has to be managed, to completely and fully reverse, or undo the effect of sin.

Actually speaking, so far, we have been considering these three things in the reverse order, since as yet we have been considering the “how and why” of the third aspect – the giving and receiving of the heavenly rewards. We have been learning what God has given and taught in His Word about everyone being judged for their eternal rewards and consequences, so that mankind, especially His people prepare themselves for it. Those not yet saved or Born-Again through faith in the Lord Jesus, should accept Him as their Lord and Savior, and be saved; whereas those saved or Born-Again, should seriously start considering the kind of Christian life they have been living so far, the kind of things they have kept in themselves, since all of these will affect their eternal heavenly rewards and consequences.

In the next article, we will consider the second aspect – the lifelong physical sufferings and problems, even in the life of the Christian Believers; and after that we will consider the first aspect, i.e., death physical and spiritual, and the Believer’s restoration from it.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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शनिवार, 27 जुलाई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 143

 

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आरम्भिक बातें – 104


परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 10


क्षमा किए और भुलाए गए पापों का स्मरण – 2  

 

पिछले लेख में, “अन्तिम न्याय,” जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छठी आरम्भिक बात है, के बारे में सीखते हुए, हमने परमेश्वर के वचन बाइबल में से देखा है कि विश्वासी के बारे में सभी कुछ स्वर्ग में लिखा जा रहा है। पाप, जिन्हें परमेश्वर ने क्षमा करके भुला दिया है, वे भी स्वर्ग की पुस्तकों में लिखे हुए हैं। न्याय के समय, प्रत्येक विश्वासी को उसके सही और उपयुक्त प्रतिफल देने के लिए, प्रत्येक बात खोलकर प्रकट की जाएगी, और प्रभु यीशु के द्वारा धार्मिकता से उसका न्याय होगा। यह हमें, दो प्रश्नों के रूप में, परमेश्वर द्वारा पापों को क्षमा करने और भुला देने के एक और पक्ष पर ले कर आता है। प्रश्न ये हैं कि यदि अन्ततः हर बात को प्रकट करना ही था, तो परमेश्वर यह स्पष्ट भी तो कह सकता था कि यद्यपि उसने पाप क्षमा तो कर दिए हैं, लेकिन न्याय के समय, वह उनका हिसाब अवश्य लेगा; उसने अपनी यह मनसा छिपा कर क्यों रखी? दूसरा, परमेश्वर ने यह आश्वासन क्यों दिया कि वह पाप क्षमा करके उन्हें भुला देता है; अब परमेश्वर द्वारा पाप भुलाए जाने की क्या आवश्यकता रह गई? आज से हम इन प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करेंगे।

जैसा कि पाठकों को एहसास हुआ होगा, जब वे इन लेखों पर मनन करते हैं, तो यहाँ पर कही गई हर बात केवल बाइबल के पदों और खण्डों के आधार पर ही है। यहाँ इन लेखों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी भी डिनॉमिनेशन या मत की मान्यताओं या शिक्षाओं के अनुसार हो; और न ही यह किसी भी व्यक्ति द्वारा दी गई शिक्षाओं पर आधारित है, न ही बाइबल की किसी कॉममेंटरी पर या बाइबल अध्ययन की किसी सहायक पुस्तकों से है जो सामान्यतः धर्म-विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने वाले उपयोग करते हैं। यहाँ पर जो कुछ भी लिखा गया है, वह प्रभु परमेश्वर की पवित्र आत्मा के द्वारा सिखाई गई बातें हैं, जैसी कि प्रभु ने यूहन्ना 14:26 तथा 1 कुरिन्थियों 2:11-14 में प्रतिज्ञा दी है। मसीही या ईसाई सामान्यतः जो समझते और मानते हैं, तथा वह जो यहाँ लिखा जाता है, उसमें इतनी अधिक भिन्नता इसलिए है, क्योंकि वे मसीही या ईसाई मनुष्यों द्वारा दी जाने वाली शिक्षाओं पर निर्भर रहते हैं, बजाए उसके जैसा कि परमेश्वर चाहता है, कि उसके लोग सीधे उसी से सीखें, शर्त यह है कि लोगों को परमेश्वर के साथ समय बिताने के लिए तैयार होना चाहिए। अपने न्याय के बारे में परमेश्वर ने कुछ भी छिपा कर नहीं रखा है, सभी बातें उसके वचन में सबके लिए खुली और स्पष्ट हैं, अगर लोग परमेश्वर के वचन को परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में, जो प्रत्येक मसीही विश्वासी को दिया गया है, सीखने के लिए तैयार हों, तो। यदि वे पवित्र आत्मा के आज्ञाकारी रहेंगे, और जैसा वह उन्हें सिखाना चाहता है वैसे सीखना चाहेंगे तो वह उन्हें सिखाएगा। यदि वे परमेश्वर के वचन के अर्थ, सही व्याख्या, और प्रति दिन के जीवन में वचन को लागू करने के बारे में उस से माँगेंगे, तो वह यह क्यों नहीं करेगा? लेकिन इसके लिए एक अनुशासन तथा प्रतिबद्धता की आवश्यकता होती है; अपने जीवनों में परमेश्वर और उसके वचन को उनका उचित, सर्वोच्च प्राथमिकता का स्थान देने की आवश्यकता होती है, न कि जैसा अधिकांशतः किया जाता है, केवल एक औपचारिकता पूरी करने के लिए वचन का कोई अंश पढ़ या सुन भर लेना।

परमेश्वर के वचन से उसके सत्यों को न सीख पाने का मूल कारण है मसीहियों में परमेश्वर के वचन बाइबल के प्रति उदासीनता। जो बाइबल पढ़ते भी हैं, उनमें से अधिकाँश कहीं से भी निकालकर एक छोटे से भाग को औपचारिकता पूरी करने के लिए पढ़ लेते हैं, और सोचते हैं कि उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी कर ली है; जबकि अधिकाँश ईसाई या मसीही तो इतना भी नहीं करते हैं। इसकी बजाए, अधिकाँश ईसाई या मसीही केवल उसी पर निर्भर रहते हैं जो उन्हें कोई मनुष्य या पादरी बता या सिखा देता है जिस पर वे अँध-विश्वास कर लेते हैं, और यह भी सप्ताह में केवल एक बार, इतवार के दिन होता है। लेकिन फिर भी लगभग सभी यह दावा करते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, प्रभु यीशु में विश्वास करते हैं, और इस जीवन में तथा पृथ्वी के बाद के जीवन में वे परमेश्वर की आशीष और देखभाल चाहते हैं। यदि उन से पूछा जाए कि उनके द्वारा परमेश्वर से प्रेम करने और प्रभु यीशु में विश्वास करने के क्या संकेत अथवा प्रमाण हैं, तो अधिकतर लोग उनके द्वारा प्रभु के नाम में किए जाने वाले भले कामों, कलीसिया और उसके कार्यों में सम्मिलित रहने, और कुछ लोग परमेश्वर के वचन से प्रचार करने या सिखाने, तथा प्रभु यीशु के बारे में गवाही देने आदि बातों को प्रमाण के समान बताएंगे।

जो लोग इस गलतफहमी में हैं कि उपरोक्त बातों के कारण वे परमेश्वर से प्रेम करने और उसके लिए कार्य करने वाले स्वीकार किए जाने चाहिएँ, उनके लिए परमेश्वर के वचन में कुछ शिक्षाएँ हैं जिन पर उन्हें गम्भीरता से विचार करना चाहिए। जो यह मानते हैं कि उनके द्वारा प्रभु के नाम में किए जाने वाले भले काम प्रमाण हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, उनको प्रभु यीशु द्वारा मत्ती 7:21-23 में कही बात पर विचार करना चाहिए। अधिकाँश ईसाई या विश्वासी बस यह मान लेते हैं कि यदि वे प्रभु के नाम में भले और बाइबल से संगत काम करेंगे, तो यह परमेश्वर को प्रसन्न करेगा और उसे स्वीकार होगा। किन्तु मत्ती 7:21-23 यह स्पष्ट कर देता है कि जब तक कि ये भले और बाइबल से संगत काम परमेश्वर के निर्देश के अनुसार न किए जाएँ, तो वे परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हैं, उनके लिए कोई प्रतिफल नहीं है, बल्कि परमेश्वर उनका तिरस्कार कर के, उनके लिए श्राप देता है। जो यह सोचते हैं कि उनके द्वारा प्रचार करना और परमेश्वर का वचन बाँटना इस बात का प्रमाण है कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं और प्रभु के लिए काम करते हैं, उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि शैतान बाइबल के बारे में हम में से किसी से भी अधिक जानकारी रखता है, उसने तो परमेश्वर के वचन का प्रभु यीशु के सामने ही दुरुपयोग करना चाहा (मत्ती 4:1-11)। साथ ही शैतान के दूत झूठे प्रेरित, धार्मिकता के कार्य करने वाले, और धर्म के सेवक बनकर काम करते हैं, लोगों को बहकाते और भरमाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15)। हम यह भी देखे हैं कि दुष्टात्माएं भी परमेश्वर के भवन में आ जाती हैं (लूका 4:33), और प्रभु यीशु के बारे में गवाही देती हैं (मरकुस 5:7; लूका 4:41; 8:28; प्रेरितों 16:17; याकूब 2:19), लेकिन उन्हें यह करने नहीं दिया गया। इसलिए परमेश्वर के वचन को बाँटना और प्रचार करना, तथा प्रभु यीशु की गवाही देना, परमेश्वर से प्रेम करने के कोई निश्चित प्रमाण नहीं हैं।

प्रभु यीशु तथा परमेश्वर से प्रेम करने का केवल एक ही निश्चित प्रमाण है, और यह प्रमाण स्वयं प्रभु यीशु ने कहा है, और इसके अतिरिक्त बाइबल में कहीं भी कोई और प्रमाण नहीं दिया गया है। और यह प्रमाण है परमेश्वर के वचन से प्रेम करना और उसका पालन करना “जिस के पास मेरी आज्ञा है, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा, और अपने आप को उस पर प्रगट करूंगा। यीशु ने उसको उत्तर दिया, यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे” (यूहन्ना 14:21, 23)। इसलिए जो यह दावा करते हैं कि वे परमेश्वर से प्रेम करते हैं, और यह मानते हैं कि वे उसके लिए कार्य कर रहे हैं, उन्हें अपने आप को गम्भीरता से जाँच कर देखना चाहिए कि उनके जीवनों में परमेश्वर के वचन का क्या स्थान है? क्या वे अपनी ही धारणा और मान्यता के अनुसार, परमेश्वर के नाम में काम कर रहे हैं, या वे परमेश्वर की इच्छा को जानने, उसके वचन से उस से निर्देश प्राप्त करने, और फिर उसके बाद, वही करते हैं जो परमेश्वर उनसे चाहता है कि वे करें?

इसलिए, जब तक कि ईसाई या मसीही परमेश्वर के वचन से प्रेम करना, प्रतिदिन उस दिन के लिए परमेश्वर की इच्छा जाने के लिए वचन का नियमित अध्ययन करना, और परमेश्वर के लिए उसकी इच्छा के अनुसार काम करना नहीं सीखेंगे, वे लोगों के द्वारा बहकाए और भरमाए जाते रहेंगे, तथा औरों को भी बहकाते और भरमाते रहेंगे, और सत्य को कभी नहीं जानने और सीखने पाएँगे। अन्तिम न्याय के बारे में परमेश्वर ने कुछ भी छिपा कर नहीं रखा है; बल्कि लोगों ने ही अपनी ही धारणाएँ बना रखी हैं, परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्याओं में पड़ गए हैं, और स्वयं के लिए असमंजस उत्पन्न कर लिए हैं। अगले लेख में हम दूसरे प्रश्न को लेंगे कि यदि न्याय के लिए सभी बातें प्रकट होनी ही हैं, तो फिर परमेश्वर उन्हें भूलता क्यों है?

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 104


God’s Forgiveness and Justice – 10


Remembrance of Sin Forgiven and Forgotten - 2

   

In the last article, in learning about “Eternal Judgment” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, we have seen from God’s Word the Bible that everything about every Believer is being recorded in heaven. The sins forgiven and forgotten by God are present in the record books kept in kept heaven. At the time of judgment, to give every Believer their fair rewards and consequences in a just manner, everything will be laid open and judged righteously by the Lord Jesus. This brings before us another aspect related to God’s forgiving and forgetting sins, in the form of two questions. The questions are that if everything ultimately had to be made open, then God could as well have said that though he has forgiven sin, but at judgment time, He will ask for an account about them; and then why has He kept this intention hidden? Secondly, why has God assured that he forgives sins and forgets them too; what then is the necessity of God forgetting sins? We will try to answer these questions from today.

As the readers would realize, as they ponder over the contents of these articles, everything stated here is on the basis of verses and passages from God’s Word the Bible. There is nothing given that is according to any denominational beliefs or teachings; nor is anything stated on the basis of any person’s teachings, nor on the basis of any Commentaries and Bible study helps commonly used by those undergoing theological training and educational qualifications. Whatever has been written here, has been as the Lord God has taught through His Holy Spirit, as is His promise in John 14:26 and 1 Corinthians 2:10-14. The immense difference between what Christians generally believe, and what these articles have brought out is because of the reliance of those Christians on human beings and man’s teachings, instead of learning directly from God, as God wants us to do; provided we are willing to spend time with Him. God has not kept anything hidden from man about His judgment. It is all there in His Word, open and evident before everyone, if they care to study God’s Word under the guidance of God’s Holy Spirit who has been given the Believers to teach God’s Word to them. If they remain obedient to the Holy Spirit, and are willing to learn as He teaches them, He will teach them. If they ask Him to show them the meanings, correct interpretations, and actual applications of God’s Word in day-to-day lives, why will He not do it? But this requires discipline, and commitment; giving God and His Word the proper, the highest priority, place and time in their lives, instead of a cursory fulfilling of formality, as most Christian do with God’s Word, in their daily routines.

The underlying problem of not seeing and learning God’s truths from His Word, is the apathy Christians have towards God’s Word the Bible. It is a stark reality that the vast majority of Christians do not study God’s Word the Bible for themselves. There are few who read the Bible, but only some do it regularly and very few do it systematically. Most of those who read the Bible, only fulfill a formality by reading some short passage, usually randomly, and think they have done their part; whereas most do not even do this. Instead, most of the Christians blindly rely only on what some person, or some Pastor teaches them or tells them, and that too once week, on Sundays. And yet, practically everyone claims to love God, believe in the Lord Jesus, and wants to be blessed by God in this life as well as the next. If one were to ask them of some indicators or proof of their loving God and believing in the Lord Jesus, then the majority will speak about the good things they do in the name of the Lord, being involved in the Church and the things related to the Church, and some would also add about the preaching or sharing of God’s Word and witnessing for the Lord Jesus that they might be doing.

For those who think and believe that they are working for the Lord through the above-mentioned misconceptions, God’s Word has some teachings for them to ponder about quite seriously. Those who believe that their doing good things in the Lord’s name is proof of their loving God, they should ponder over what the Lord Jesus has said in Mathew 7:21-23. Most Christians simply assume that if they do some good and “Biblical” things in God’s name, God will be happy and pleased with them for it. But Matthew 7:21-23 makes it very clear that unless even these good and “Biblical” things are done as per God’s will and instructions, they are not accepted or rewarded by God, rather are rejected and cursed by Him. For those who think that their preaching and sharing God’s Word and witnessing for the Lord Jesus proves they love and work for the Lord Jesus, should remember that Satan knows the Bible far better than anyone one of us, he even misquoted God’s Word to the Lord Jesus (Matthew 4:1-11). Satan’s agents as false Apostles and in the guise of deceitful workers and ministers of righteousness are all the time, in every place preaching from God’s Word, and beguiling people into false teachings (2 Corinthians 11:3, 13-15). We also see that demons would come into God’s house (Luke 4:33), and they too witnessed about the Lord Jesus (Mark 5:7; Luke 4:41; 8:28; Acts 16:17; James 2:19), though they were not allowed to continue doing so. So, preaching and sharing God’s Word and witnessing about the Lord Jesus is not a definite proof of loving God.

There is only one valid proof of loving the Lord Jesus and God, and this proof has been given by the Lord Jesus Himself; other than this one proof, there is no other proof mentioned in the Bible to prove one’s love for God and the Lord Jesus. And this proof is loving the Word of God and obeying it “He who has My commandments and keeps them, it is he who loves Me. And he who loves Me will be loved by My Father, and I will love him and manifest Myself to him. Jesus answered and said to him, "If anyone loves Me, he will keep My word; and My Father will love him, and We will come to him and make Our home with him.” (John 14:21, 23). Therefore, those who claim to love the Lord Jesus, and believe they are working for Him, should examine themselves and see what place does God’s Word have in their lives? Are they assuming and doing things in the name of God, or, are they seeking God’s will, receiving God’s instructions through His Word, and then doing what God wants them to do for Him.

So, unless Christians start loving God’s Word and studying it daily to learn God’s will for them for that day; to know what God wants them to do for Him, they will keep getting misled by people, even misleading others, and never know the actual truth. God has not kept anything about the eternal judgment a secret; it is people who have assumed things, fallen for misinterpretations of God’s Word, and got themselves into a confusion. In the next article we will take up the second question, why does God forget, if things have to be brought out again for judgment.

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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