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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 7
मसीही जीवन के सात कदम - 4 - अलग
परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी की हमारी इस वर्तमान श्रृंखला में, हम मसीही बढ़ोतरी के लिए आवश्यक तीसरी श्रेणी की शिक्षाओं पर विचार कर रहे हैं, अर्थात व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित शिक्षाएँ। हम देख चुके हैं कि यद्यपि ये शिक्षाएँ सम्पूर्ण बाइबल में स्थान-स्थान पर दी गई हैं, लेकिन परमेश्वर के वचन में दो स्थानों पर, प्रेरितों 2 अध्याय तथा प्रेरितों 15 अध्याय में, वे शिक्षाएँ दी गई हैं जिनसे न केवल कलीसियाओं में तेज़ी से वृद्धि हुई, बल्कि जिन से मसीही विश्वासियों को भी परमेश्वर के वचन की अन्य शिक्षाओं को सीखने, समझने, और उनके अनुसार चलने में सहायता मिली, वे सक्षम हुए। इसी लिए, इस श्रृंखला में हम इन दो शिक्षा समूहों पर ही विचार कर रहे हैं। वर्तमान में हम प्रेरितों 2:38-42 में दी गई सात बातों पर विचार कर रहे हैं। हम देख चुके हैं कि जिन के हृदय पतरस के द्वारा, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य से दिए गए परमेश्वर के वचन से छिद गए थे, उन्होंने जानना चाहा कि अब उन्हें क्या करना चाहिए? पतरस ने उन से तीन बातें करने के लिए कहा; जिन में से पहली दो, अर्थात पश्चाताप करें और बपतिस्मा लें को हम पिछले दो लेखों में देख चुके हैं। ये दोनों बड़े विषय हैं, लेकिन क्योंकि हम उन्हें पहले, इस श्रृंखला के पूर्व के लेखों में देख चुके हैं, इसलिए पिछले दो लेखों में हमने उन्हें केवल संक्षेप में देखा है। आज हम पतरस द्वारा कही गई तीसरी बात पर विचार करेंगे, जो प्रेरितों 2:40 में दी गई है “...अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ।” अर्थात, उन लोगों को ऐसे उपयुक्त कदम उठाने थे जिस से वे सँसार के टेढ़े या बुरे लोगों से सुरक्षित रहें, तात्पर्य यह कि उन्हें सँसार के लोगों से एक दूरी रखनी थी, अपने आप को उनसे अलग करना था।
3. अलगाव: (प्रेरितों 2:40) हम देख चुके हैं कि प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा उद्धार प्राप्त करने के लिए पहला कदम है अपने पापों से पश्चाताप करना। जो व्यक्ति सच्चे मन से पश्चाताप करता है, उसके पापों के लिए प्रभु यीशु द्वारा कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान पर विश्वास करता और उसे स्वीकार करता है, प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करता है, अपना जीवन प्रभु यीशु को समर्पित करता है ताकि उसका शिष्य बनकर उसकी तथा उसके वचन की आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करे, वह परमेश्वर की सन्तान बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13)। उसके उद्धार पाने के उस पल से आगे के लिए, उसके शेष जीवन भर हमेशा उसके साथ रहने के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा आकर उस में निवास करने लग जाता है (इफिसियों 1:13-14)। फिर उसे प्रभु यीशु में विश्वास करने के द्वारा उसके अन्दर आए इस परिवर्तन की गवाही को बपतिस्मे द्वारा सँसार के सामने रखना होता है। इसलिए यह प्रकट है कि उसके उद्धार पाने के पल से ही, व्यक्ति प्रभु यीशु के प्रभुत्व में आ जाता है, उसका बन जाता है; और परमेश्वर के वचन बाइबल से इसकी पुष्टि भी होती है, “क्या तुम नहीं जानते, कि तुम्हारी देह पवित्रात्मा का मन्दिर है; जो तुम में बसा हुआ है और तुम्हें परमेश्वर की ओर से मिला है, और तुम अपने नहीं हो?” (1 कुरिन्थियों 6:19), तथा “और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा। सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है: पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गईं” (2 कुरिन्थियों 5:17,15)। इस लिए मसीह यीशु में विश्वास लाने और अपना जीवन उसे समर्पित करने के द्वारा, मसीही विश्वासी अपना जीवन प्रभु के हाथों में सौंप देता है, सेवक या दास बनकर नहीं, किन्तु परमेश्वर की सन्तान बनकर जीने के लिए। उसी पल से प्रभु उसके जीवन में काम करने लगता है, उसे अपनी समानता में बदलने लगता है (2 कुरिन्थियों 3:18), उसकी शान्ति और भलाई की योजनाएं बनाता है (यिर्मयाह 29:11), और अन्ततः सब बातों के द्वारा उसकी भलाई उत्पन्न करता है (रोमियों 8:28)।
किन्तु परमेश्वर की सन्तान होने के सभी विशेषाधिकारों और प्रतिफलों से लाभान्वित होने के लिए, मसीही विश्वासी के लिए यह अनिवार्य है कि वह परमेश्वर के मार्गों के प्रतिकूल प्रत्येक बात से अपने आप को अलग कर ले। प्रभु यीशु ने कहा है “कोई मनुष्य दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि वह एक से बैर ओर दूसरे से प्रेम रखेगा, वा एक से मिला रहेगा और दूसरे को तुच्छ जानेगा; तुम परमेश्वर और धन दोनों की सेवा नहीं कर सकते” (मत्ती 6:24)। प्रेरित पौलुस प्रश्न करता है “...हम जब पाप के लिये मर गए तो फिर आगे को उस में क्योंकर जीवन बिताएँ?” (रोमियों 6:2)। यद्यपि मसीही विश्वासी को अपना जीवन सँसार में ही बिताना है, किन्तु फिर भी वह सँसार के साथ, सँसार का बनकर नहीं रह सकता है। वह जो विश्वासी होने का दावा करता है, लेकिन फिर भी सँसार और सँसार की बातों से प्रेम करता है, वह वास्तव में अभी भी परमेश्वर की सन्तान, एक मसीही विश्वासी, नहीं बना है, क्योंकि वह अभी भी परमेश्वर से बैर की स्थिति में है “हे व्यभिचारिणयों, क्या तुम नहीं जानतीं, कि सँसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई सँसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है।” (याकूब 4:4); और उसमें परमेश्वर के लिए प्रेम नहीं है “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई सँसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है। क्योंकि जो कुछ संसार में है, अर्थात शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है। और संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा।” (1 यूहन्ना 2:15-17)।
जिस प्रकार उस मनुष्य को जो पाप की दशा में है, पहले दो कदमों, पश्चाताप तथा बपतिस्मे के लिए, पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन और सामर्थ्य से परमेश्वर के पक्ष में निर्णय लेकर, उसके अनुसार कार्यवाही करनी होती है; ठीक उसी प्रकार से, अब तीसरे कदम के लिए भी, उसे परमेश्वर और उसके वचन के अनुसार निर्णय लेकर उस पर कार्यवाही करनी होती है। पौलुस ने लिखा “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:1-2); तथा “इसलिये प्रभु कहता है, कि उन के बीच में से निकलो और अलग रहो; और अशुद्ध वस्तु को मत छूओ, तो मैं तुम्हें ग्रहण करूंगा। और तुम्हारा पिता हूंगा, और तुम मेरे बेटे और बेटियां होगे: यह सर्वशक्तिमान प्रभु परमेश्वर का वचन है।” (2 कुरिन्थियों 6:17-18)।
ऐसा नहीं है कि यह कोई नई बात है, जो केवल मसीही विश्वासियों के लिए लाई गई है। परमेश्वर ने यही बात इस्राएलियों से भी कही थी, जब वह उन्हें मिस्र के दासत्व से निकाल कर लाया था। इस्राएलियों को परमेश्वर की ऐसी विशेष प्रजा बनकर रहना था, जो उसे पूर्णतः समर्पित एवं आज्ञाकारी हो, पवित्र जाति बनकर रहे, और उसके याजक बनें (निर्गमन 19:5-6)। परमेश्वर उन्हें जहाँ बसाने के लिए लेकर जा रहा था, उन्हें वहाँ के लोगों के साथ कोई वाचा, कोई समझौता नहीं करना था (निर्गमन 23:32-33)। इस्राएलियों को न तो उन लोगों के जीवन जीने तौर-तरीके, और न ही उनके देवी-देवताओं की उपासना करने के उनके तरीके अपनाने थे; वरन केवल वही करना था जो परमेश्वर उन्हें करने के लिए कहे (व्यवस्थाविवरण 12:30-32)। किन्तु परमेश्वर के साथ यह वाचा बाँधने के बावजूद, वे अपनी बात पर प्रतिबद्ध नहीं रहे, उन्होंने अपने आस-पास के लोगों के साथ समझौते किए, उपासना के उन लोगों के तरीकों को अपना लिया, और अन्ततः एक बहुत भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी (न्यायियों 2 अध्याय; भजन 106:35-40)।
जैसा कि ऊपर, 2 कुरिन्थियों 6:17-18 में कहा गया है, परमेश्वर का पिता होना और अपनी सन्तानों को आशीष देना इस पर निर्भर है कि उसे केवल पिता कहा नहीं जाए, वरन इसका पालन करके उससे पिता के समान व्यवहार भी किया जाए; उसका आज्ञाकारी बनकर अपने आप को सँसार से अलग करके रखा जाए। यदि मसीही विश्वासी सँसार के साथ समझौते का जीवन जीते हैं, परमेश्वर के साथ बाँधी अपनी वाचा का अपना कर्तव्य नहीं निभाते हैं, तो फिर वे यह अपेक्षा क्यों करते हैं कि परमेश्वर उनके इशारों पर नाचता रहेगा, और जो भी वे उससे कहेंगे उसे पूरा करता रहेगा? परमेश्वर ने अपने वचन में यह बहुत स्पष्ट किया है कि यद्यपि वह सभी की देखभाल करता है, बुरे और अधर्मी लोगों की भी (मत्ती 5:45), किन्तु उसकी आशीषें और पिता समान देखभाल उन्हीं के लिए है, जो उसके पिता होने को ईमानदारी से आदर देते और निर्वाह करते हैं। प्रभु द्वारा दिए गए उड़ाऊ पुत्र के दृष्टान्त पर ध्यान कीजिए (लूका 15:11-32)। जब उड़ाऊ पुत्र अपना भाग लेकर सँसार में चला गया, तब यद्यपि उसके प्रति पिता का प्रेम और लालसा बने रहे, लेकिन पिता की देखभाल और आशीषें उसके साथ नहीं गए; जब तक कि वह सँसार से अलग होकर और वापस पिता के घर में रहने के लिए लौट कर नहीं आ गया। पिता ने उसे कठिनाइयों के द्वारा पाठ सीख लेने दिए, और फिर जब उसे एहसास हुआ कि उसे क्या करना चाहिए, तब पिता ने खुले दिल से उसका स्वागत किया और परिवार में उसके स्थान को बहाल कर दिया।
इसलिए, जो परमेश्वर के लोग बनकर जीने का निर्णय लेते हैं, उन्हें सँसार और सँसार की बातों से अलग होकर रहने का भी निर्णय लेना होगा। अगले लेख से हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों को, जिन्हें “मसीही जीवन के स्तम्भ” भी कहा जाता है, देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Things Related to Christian Living – 7
The Seven Steps of Christian Living - 4 - Separated
In our current series on Growth through God's Word, we are presently considering the third category of teachings for Christian growth i.e., things related to practical Christian living. We have seen that though these teachings are spread all over the Bible, but at two places in God's Word, in Acts chapter 2 and Acts chapter 15, are given the teachings that not only led to a rapid growth in the Church, but also enabled the Believers to learn, understand, and live by the other teachings given in God’s Word. Therefore, in this series, we are concentrating upon these two groups of teachings. Presently we are considering the seven things given in Acts 2:38-42. We have seen that they, whose hearts had been pricked by God’s Word spoken to them through Peter under the power and guidance of the Holy Spirit, wanted to know what to do next? Peter asked them to do three things; of which, we have seen the first two, i.e., Repent and be Baptized. Both of these are big topics, but since we had already considered both of them in the earlier articles of this series, therefore we had briefly recapitulated them in the last two articles. Today we will consider the third thing said by Peter, and given in Acts 2:40, i.e., "...Be saved from this perverse generation;" i.e., they should take appropriate steps to stay safe and unharmed from the perverse people of the world, implying maintaining a distance from them, or staying away from them.
3. Be Separated: (Acts 2:40) We have already seen that repentance from one’s sins is the first step to salvation through faith in the Lord Jesus. The person who sincerely repents, believes and accepts the sacrifice made by the Lord Jesus on the Cross of Calvary for his sins, and accepts the Lord Jesus as his savior, submits his life to the Lord, to live in obedience to Him and His Word, as a disciple of the Lord Jesus Christ, becomes a child of God (John 1:12-13). From the moment of his salvation onwards, God the Holy Spirit comes to reside in him (Ephesians 1:13-14) permanently. The person is then to witnesses before the world about this inner change brought by coming to faith in the Lord Jesus through baptism. Therefore, it is apparent that from the moment of one’s salvation, of being Born-Again, the person has come under the Lordship of Lord Jesus, and belongs to Him; and this is affirmed by God’s Word the Bible, “Or do you not know that your body is the temple of the Holy Spirit who is in you, whom you have from God, and you are not your own?” (1 Corinthians 6:19), and “and He died for all, that those who live should live no longer for themselves, but for Him who died for them and rose again. Therefore, if anyone is in Christ, he is a new creation; old things have passed away; behold, all things have become new” (2 Corinthians 5:15,17). So, through coming to faith in the Lord Jesus and submitting his life to Him, the Believer hands over his life to the Lord, not to live as a servant or slave, but as a child of God. From that moment onwards, the Lord starts working in his life, transforming him into His likeness (2 Corinthians 3:18), planning for his peace and good (Jeremiah 29:11), and making everything eventually work for his benefit (Romans 8:28).
But to receive and be benefitted by all the privileges and rewards of being a child of God, it is necessary for every Believer to separate away from everything that is contrary to the ways of God. The Lord Jesus had said “No one can serve two masters; for either he will hate the one and love the other, or else he will be loyal to the one and despise the other. You cannot serve God and mammon” (Matthew 6:24). The Apostle Paul asks, “...How shall we who died to sin live any longer in it?” (Romans 6:2). Though the Believer has to live his lifetime in the world, yet he cannot live with, or live like the world. He who claims to be a Believer, but still loves the world and the things of the world has not actually come to be a child of God, a Christian Believer, since he is still in enmity with God “Adulterers and adulteresses! Do you not know that friendship with the world is enmity with God? Whoever therefore wants to be a friend of the world makes himself an enemy of God” (James 4:4); and the love for God is not in him “Do not love the world or the things in the world. If anyone loves the world, the love of the Father is not in him. For all that is in the world--the lust of the flesh, the lust of the eyes, and the pride of life--is not of the Father but is of the world. And the world is passing away, and the lust of it; but he who does the will of God abides forever” (1 John 2:15-17).
Just as the person in his sinful state, for the first two steps of repentance and baptism, took a decision in favor of God and acted upon it, under the guidance of God and His Word; similarly now for the third step, he again has to take this decision in favor of God and act upon it, under the guidance of God and His Word. Paul writes, “I beseech you therefore, brethren, by the mercies of God, that you present your bodies a living sacrifice, holy, acceptable to God, which is your reasonable service. And do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your mind, that you may prove what is that good and acceptable and perfect will of God” (Romans 12:1-2); and “Therefore, Come out from among them And be separate, says the Lord. Do not touch what is unclean, And I will receive you. I will be a Father to you, And you shall be My sons and daughters, Says the Lord Almighty” (2 Corinthians 6:17-18).
It is not that this is something new, meant for the Christian Believers. God had said the same to the Israelites, when He delivered them from the slavery of Egypt. The Israelites were to be a peculiar people of God, fully surrendered and obedient to God, living as a holy nation, functioning as His priests (Exodus 19:5-6). They were not to make any covenant or compromises with the people amongst whom God was taking them to settle (Exodus 23:32-33). The Israelites were not follow their ways, nor adopt their methods of worship, but only to do what God told them to do (Deuteronomy 12:30-32). But the Israelites, despite making this covenant with God, did not stay faithful to their commitment, compromised with the people around them, adopted their ways and worship, and eventually paid a heavy price (Judges chapter 2; Psalms 106:35-40).
As stated in 2 Corinthians 6:17-18, above, God’s being a Father and blessing His children is conditional upon their not merely accepting, but actually treating Him as their Father, by separating themselves from the world, and being obedient to Him. If the Christian Believers live a life of compromise with the world, if they do not live up to their part of the covenant with God, then why should they expect God to be at their beck and call, and keep doing for them whatever they ask of Him? God has made it very clear in His Word, that though He takes care of everyone, even the ungodly and the evil (Matthew 5:45); but, His blessings and Fatherly care is with those who sincerely treat Him as their Father. Consider the Lord’s parable of the Prodigal Son (Luke 15:11-32). When the prodigal son took his share and went out into the world, though the yearning and love of the father’ heart was for him, but the father’s care and blessings did not go with him, till he came back to the father’s house, to live there separated from the ways of the world. The father allowed him to learn his lessons the hard way, and then when he realized what he needed to do, the father welcomed him back with open arms and restored him to his status in the family.
Therefore, those who decide to live as the people of God, should also decide and live separated from the world and its ways. From the next article we will start looking at the four things given in Acts 2:42, also known as the “pillars of Christian living.”
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.