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आरम्भिक बातें – 117
परमेश्वर की क्षमा और न्याय – 23
प्रभु की मृत्यु और उसके निहितार्थ – 5
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक बातों में से छठी बात, “अन्तिम न्याय” के हमारे इस अध्ययन में, पिछले लेखों में हमने देखा है कि प्रथम पाप के साथ तीन और बातें मानवजाति में आ गईं – पहली, मृत्यु, दोनों आत्मिक तथा शारीरिक; दूसरी, मनुष्य के लिए जीवन भर दुःख और परेशानी उठाना और परिश्रम करना; और तीसरी, उनके लिए जो परमेश्वर की ओर मुड़ने और उसे जीवन समर्पित करने का निर्णय लेते हैं, परमेश्वर के साथ उनके बहाल किए जाने और अनन्तकालीन प्रतिफल प्राप्त करने की प्रतिज्ञा। पाप के इन तीनों प्रभावों के विभिन्न पक्षों के बारे में, और प्रभु यीशु मसीह की मृत्यु और पुनरुत्थान का इन तीनों बातों पर प्रभाव देख लेने के बाद, आज, इस विषय के हमारे अन्तिम लेख में, हमने इन बातों के बारे में जो सीखा है, उसे परमेश्वर के वचन के एक प्रमुख पात्र, राजा दाऊद, के जीवन से चित्रित होते हुए देखेंगे।
दाऊद के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल में लिखा है “क्योंकि दाऊद वह किया करता था जो यहोवा की दृष्टि में ठीक था और हित्ती ऊरिय्याह की बात के सिवाय और किसी बात में यहोवा की किसी आज्ञा से जीवन भर कभी न मुड़ा” (1 राजाओं 15:5)। ऊरिय्याह और उसकी पत्नी बतशेबा से सम्बन्धित यह एक बात, जो 2 शमूएल 11 और 12 अध्याय में दर्ज है; इस पाप ने दाऊद के जीवन को बदहाल कर दिया, उसके परिवार को छिन्न-भिन्न कर दिया, और हमेशा के लिए उसकी गवाही को बिगाड़ दिया। इन 11 और 12 अध्यायों का संक्षिप्त ब्यौरा है कि अपनी सेना के साथ युद्ध पर जाने की बजाए, दाऊद महल ही में रह गया, और एक शाम, छत पर टहलते हुए उसने एक स्त्री को स्नान करते हुए देखा। वह उसकी सेना के एक वफादार और प्रतिबद्ध अधिकारी, जो उस समय दाऊद के लिए युद्ध लड़ने गया हुआ था, हित्ती ऊरिय्याह की पत्नी थी। दाऊद ने उस स्त्री को बुलवा भेजा, उसके साथ व्यभिचार का सम्बन्ध बनाया, और जब वह गर्भवती हुई, तो दाऊद ने पहले तो बात छिपाने के प्रयास किए, किन्तु जब प्रयास सफल नहीं हुए, तो उसने जवाबदेही तथा शर्मिंदगी से बचने के लिए, ऊरिय्याह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचा, और उसे युद्ध में मरवा डाला। लेकिन इस सब से परमेश्वर बहुत अप्रसन्न हुआ, और परमेश्वर ने अपने नबी, नातान को भेजा, कि दाऊद को चिताए और उसे परिणामों के बारे में अवगत करे। नातान ने एक कहानी के द्वारा दाऊद के सामने इस अन्याय को रखा, लेकिन दाऊद को एहसास नहीं हुआ कि उस कहानी में अन्याय करने वाला वह ही है, और राजा ने निर्णय दिया कि अन्याय करने वाले को अपने किए का चार गुणा भरना होगा (2 शमूएल 12:6); तब नातान ने उसे बताया कि कहानी उसी के बारे में है, और कहानी का अन्यायी पात्र वह ही है (2 शमूएल 12:7)। दाऊद ने अपना दोष मान लिया, उसके लिए पश्चाताप किया, और नातान ने दाऊद पर, उसके किए हुए के लिए, परमेश्वर की दण्ड-आज्ञा को बताया (2 शमूएल 12:9-14)। यहाँ पर 2 शमूएल 12:13 पर विशेष ध्यान दीजिए “तब दाऊद ने नातान से कहा, मैं ने यहोवा के विरुद्ध पाप किया है। नातान ने दाऊद से कहा, यहोवा ने तेरे पाप को दूर किया है; तू न मरेगा।” अब हम देखते हैं कि पाप के तीनों प्रभाव इस घटना के साथ कैसे सम्बन्धित हैं।
पहला, पाप मृत्यु लाता है। हम इस पद से देखते हैं कि दाऊद के द्वारा किए गए पाप के कारण, उसकी पिछली सारी धार्मिकता के बावजूद, अब वह परमेश्वर की दृष्टि में मृत्यु-दण्ड का भागी था। लेकिन क्योंकि उसने चिताए जाने पर अपने पाप को मान लिया, अपने आप को सही ठहराने का प्रयास नहीं किया, और न ही बात को हल्के में लिया, बल्कि पश्चाताप किया, इसीलिए, परमेश्वर ने उसे क्षमा कर दिया, और उस पर से मृत्यु-दण्ड को हटा दिया, जैसा कि नीतिवचन 28:13 में भी लिखा है “जो अपने अपराध छिपा रखता है, उसका कार्य सफल नहीं होता, परन्तु जो उन को मान लेता और छोड़ भी देता है, उस पर दया की जायेगी।” लेकिन परमेश्वर से मिली क्षमा के कारण पाप का दूसरा प्रभाव उसके जीवन से नहीं हटा|
दूसरा, पाप के कारण दुःख, परेशानी और कड़ा परिश्रम आता है। नातान दाऊद को बताता है कि वह नहीं मरेगा, लेकिन उसे पाप के परिणाम उठाने पड़ेंगे (2 शमूएल 12:9-14)। ध्यान कीजिए कि नातान की कहानी सुनने के बाद दाऊद ने कहा था कि अन्याय के दोषी को अपने किए का चार गुणा भरना होगा। परमेश्वर द्वारा दाऊद के पापों को क्षमा करने से पाप के कारण आने वाले दुःख नहीं मिटे। दाऊद को अपने कहे के अनुसार, चार-गुणा भरना पड़ा, अर्थात उसके द्वारा किए गए पाप के चारों पक्षों के परिणामों को झेलना पड़ा। दाऊद के द्वारा चार-गुणा भरा जाना, संक्षेप में, इस प्रकार से था:
मृत्यु - दाऊद ने ऊरिय्याह को मरवाया था; अब बतशेबा से उत्पन्न हुआ उसका पुत्र, दाऊद के परमेश्वर के आगे गिड़गिड़ाने के बावजूद, मर गया। फिर, उसके पुत्रों ने एक-दूसरे को मार डाला - अबसलोम ने बलात्कार करने वाले अपने भाई अमनोन को मार डाला। दाऊद ने अपनी सेना के अधिकारी को युद्ध में मरवाया था, उसकी सेना के सेनापति ने उसके पुत्र अबसलोम को युद्ध में मार डाला, यद्यपि दाऊद ने आज्ञा दी थी कि युद्ध में अबसलोम को मारना नहीं है।
परिवार में व्यभिचार - दाऊद ने बतशेबा के साथ व्यभिचार किया। उसके बच्चों में से अमनोन ने अपनी बहन तामार के साथ बलात्कार किया; और एक अन्य पुत्र अबसलोम ने, दाऊद को उसके महल से भगा देने के बाद, छत पर दाऊद की रखेलियों के साथ बलात्कार किया।
परिवार में विद्रोह - दाऊद ने परमेश्वर की व्यवस्था और नैतिकता के विरुद्ध बलवा किया। उसके पुत्र, अबसलोम ने अपने पिता के विरुद्ध विदोह किया, उसका विरोधी होकर पिता को मार डालना चाहा, और दाऊद को अपने ही राज्य में भगोड़ा बना दिया। दाऊद के सेनापति, योआब ने दाऊद की आज्ञा के प्रति बलवा किया और अबसलोम को मार डाला।
परिवार में धोखा और पारिवारिक सम्बन्धों का टूटना - दाऊद ने अपने वफादार और प्रतिबद्ध सेना अधिकारी, ऊरिय्याह के साथ धोखा किया, और उसे युद्ध में मरवा डाला। दाऊद के पुत्र अमनोन ने अपनी बहन से धोखा किया और उसके साथ बलात्कार किया; फिर अबसलोम ने अमनोन के साथ धोखा करके उसे मार डाला; अबसलोम ने अपने पिता के साथ धोखा किया, पहले स्वयं को परदेश से वापस बुलवा लिया, और फिर दाऊद का तख्ता पलटने तथा उसे मर डालने का षड्यन्त्र रचा।
अपने स्वार्थ और थोड़े से मज़े के लिए, दाऊद ने एक छोटे से परिवार को छिन्न-भिन्न कर दिया; अब परिणामस्वरूप उसका बहुत बड़ा परिवार छिन्न-भिन्न हो गया, टूट गया। दाऊद ने एक व्यभिचार को छुपाने का प्रयास किया; लेकिन परमेश्वर ने उसके सारे दुष्कर्मों को न केवल प्रकट कर दिया, बल्कि अनन्तकाल के लिए उन्हें अपने वचन में लिखवा दिया कि सभी पढ़ें और जानें।
तीसरा, बहाली और प्रतिफलों की प्रतिज्ञा भी है - जो वापस मुड़ कर परमेश्वर की ओर लौट आते हैं, अपने आप को उसे समर्पित कर देते हैं, परमेश्वर ने उनके लिए बड़े प्रतिफल तैयार कर रखे हैं। दाऊद को नए नियम में परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति कहा गया है (प्रेरितों 13:22); उसका पाप क्षमा करके भुला दिया गया - अर्थात जिस मृत्यु-दण्ड के वह योग्य था, उसके लिए उसे फिर कभी याद नहीं किया गया। पृथ्वी पर रहते हुए भी दाऊद आशीषित हुआ, हम देखते हैं कि उसका राज्य उसे लौटा दिया गया, वह जगत के उद्धारकर्ता, प्रभु यीशु का पूर्वज बना, और उसके लिखे हुए भजन, अनन्तकाल के लिए परमेश्वर के वचन का भाग हैं, हम से बात करते हैं, हमें सिखाते हैं, हमें परमेश्वर के बारे में, मनुष्य चाहे दुर्बल हो और पाप भी करे तब भी, मनुष्य के प्रति परमेश्वर के प्रेम के बारे में, और मनुष्य के प्रति उसकी देखभाल के बारे में सिखाते हैं। दाऊद का जीवन हमें दिखाता है कि पाप हमारे जीवनों में क्या करता है, और पापों से पश्चाताप किस प्रकार से परमेश्वर से सम्बन्धों को बहाल कर देता है और परमेश्वर से आशीषों को लेकर आता है, इस पृथ्वी पर भी और स्वर्ग में भी।
लेकिन एक बार फिर, हमें इस बात का एहसास करने और उसे स्वीकार करने की आवश्यकता है कि हम परमेश्वर के वचन की शिक्षाओं को समझें, उनका पालन करें, और उन्हें जी कर के दिखाएँ। पाप के परिणाम बहुत बुरे होते हैं; और परमेश्वर द्वारा अपने अनुग्रह में होकर मृत्यु को हटा लेने का अर्थ पाप के कारण मिलने वाले दुःखों, परेशानियों, और कड़े परिश्रम को हटा लेना नहीं है; और न ही उस से परमेश्वर के लोगों, अर्थात, जो उसकी ओर फिर जाते हैं और उसे समर्पित हो जाते हैं, उन्हें प्रतिफल देने के लिए किए जाने वाले उनके न्याय और आँकलन को हटा देना है। दाऊद के क्षमा और बहाल किए जाने के द्वारा, परमेश्वर के वचन में से उसके पापों का लेख मिटा नहीं दिया गया। वरन, दाऊद के जीवन को, उसकी धार्मिकता, भलाइयों और बुराइयों सहित, सबके सामने प्रकट किया गया है। न केवल दाऊद का, वरन परमेश्वर के प्रत्येक जन का जीवन बाइबल में खोल कर रखा गया है; तो फिर हमारा जीवन क्यों नहीं खोला और प्रकट किया जाएगा? जैसे उनका किया गया है, उसी प्रकार से सभी मसीही विश्वासियों के जीवन का लेखा-जोखा भी स्वर्ग में रखी हुई परमेश्वर की पुस्तकों में से प्रकट किया जाएगा, और उनके उसी लेखे-जोखे के अनुसार किए गए न्याय और आँकलन के आधार पर उन्हें उनके प्रतिफल और परिणाम दिए जाएँगे।
आज के इस लेख के साथ, परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी के लिए दूसरी श्रेणी, अर्थात आरम्भिक बातों से सम्बन्धित शिक्षाओं को देख लेने के बाद, अगले लेख से हम तीसरी श्रेणी, अर्थात, मसीही जीवन जीने से सम्बन्धित शिक्षाओं पर विचार करना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 117
God’s Forgiveness and Justice – 23
Lord’s Death and its Implications - 5
In this study on “Eternal Judgement,” the sixth elementary principle given in Hebrews 6:1-2, in the previous articles we have seen that along with the first sin, came three things – first, death, spiritual as well as physical; second, life-long suffering, problems, and toil for mankind; and third, a promise of restoration and eternal rewards for those who turn back to God and submit themselves to Him. Having considered various aspects of these three effects of sin, and the implications of the death and resurrection of the Lord Jesus in relation to these three effects, today, in this concluding article on this topic, we will see what we have learnt about these three effects, illustrated through the life of a prominent character in God’s Word, King David.
It is written in God’s Word the Bible about David that “David did what was right in the eyes of the Lord, and had not turned aside from anything that He commanded him all the days of his life, except in the matter of Uriah the Hittite” (1 Kings 15:5). This one matter, of Uriah and his Bathsheba, is recorded in 2 Samuel chapters 11 and 12; and this one sin wreaked havoc in David’s life, disrupted his family, and tainted his testimony forever. To summarize chapters 11 and 12, David, instead of going out with his army to battle, had stayed behind, and one evening while walking on the roof, he happened to see a woman bathing; she was the wife of Uriah the Hittite, one of his faithful and committed officers in his army, who at that time was fighting battles for David. David sent for her, had an adulterous relationship with her, and when she became pregnant, David first tried a cover-up; and when that failed, to avoid embarrassment, plotted and had Uriah killed in the battle; and then took Bathsheba as his wife. But all of this greatly displeased God, and God sent His prophet Nathan, to reprimand David for what he had done, and make him aware of the consequences. Nathan through a story brought before David the injustice he had done, but David, not realizing the story was about him, as King, ruled that the one who had done this, will have to make a four-fold restitution for his injustice (2 Samuel 12:6); and then Nathan told him that this story was about him, and he is the guilty person of the story (2 Samuel 12:7). David accepted his being guilty, was penitent, and Nathan pronounced God’s verdict on David for what he did (2 Samuel 12:9-14) Here, pay particular attention to 2 Samuel 12:13 “So David said to Nathan, "I have sinned against the Lord." And Nathan said to David, "The Lord also has put away your sin; you shall not die.” Let us see how the three effects of sin connect to this incidence.
Firstly, sin brings death. We see from this verse that because of the sin David had committed, despite his past righteousness, now, in God’s eyes, he was worthy of death. But because he admitted his sin, did not try to justify himself, or take it casually, but repented of it. Therefore, God forgave him, and took away the death penalty, as it says in Proverbs 28:13 “He who covers his sins will not prosper, But whoever confesses and forsakes them will have mercy.” But God’ forgiveness, did not take away the second effect of sin for David.
Secondly, Nathan tells him that though he will not die, but he will still have to suffer the consequences of his sin. Recall that David, in response to Nathan’s story, had said that the one guilty of injustice will have to pay four-fold for what he did. God’s forgiveness of sin did not mean the cancellation of the sufferings that sin brings. David too had to pay four-fold, i.e., for each kind of offense he committed. David’s four-fold payment was:
1. Death – David had Uriah killed; now, his son from Bathsheba, the result of his adultery, despite David’s pleadings to God died. Then, his children killed one-another - Absalom killed the rapist brother Amnon. David had his army officer, Uraih, killed; David’s General of the army Joab, killed his son Absalom despite David’s instructions to not kill Absalom in the battle.
2. Adultery in the family – David committed adultery with Bathsheba. Amongst his children Amnon raped his sister Tamar; and another son, Absalom raped David's concubines on the rooftop, after ousting David from the palace.
3. Rebellion within family – David rebelled against God's laws and morality. Absalom rebelled and turned against his father, wanting to kill him, and usurp the kingdom, and made David a fugitive in his own kingdom. Joab rebelled against David's instructions and killed Absalom.
4. Treachery causing broken family relationships – David committed treachery against his faithful and committed army officer, Uriah, and had him killed in battle. Amnon committed treachery against his sister, Tamar, and raped her; Absalom committed treachery against Amnon, and killed him; Absalom committed treachery against his father David, in having himself brought back from exile, and then plotted to overthrow and kill David.
Out of selfishness, for a pleasure, David had disrupted a small family; now his own large family lay disrupted and broken. David wanted to hide one adulterous relationship; but God exposed all his sordid deeds, and had them recorded in His Word for all to know and see till eternity
Thirdly, those who turn back to God, and submit to Him, God has great rewards for them. In the New Testament, David is called the man after God’s own heart (Acts 13:22); his sin was forgiven, and forgotten – was no longer remembered for the punishment it deserved, i.e., death. David was blessed even while on earth, for we see that his kingdom was restored to him, he was made the forefather of the Lord Jesus, the savior of the world, and his Psalms, for eternity, are a part of God’s Word, to speak to us, teach us, and tell us about God and God’s care for man, despite their sins and weaknesses. David’s life shows us what sin does, and how repentance from sin restores the relationship with God and brings blessings from God, on earth as well as in heaven.
But we once again need to realize, accept, and live out the clear teaching of God’s Word. Sin has severe consequences; and the taking away of death by the grace of God does not mean taking away the pain and suffering because of sin, nor does it take away the judgment for eternal rewards for God’s people, i.e., those who turn to Him and submit to Him. David’s restoration by God did not wipe away the account of his sin from God’s Word. It is still there in God’s Word, to teach us. Similarly, though the Believers have been forgiven and restored to fellowship with God through repentance and faith in the Lord Jesus, but the records of our lives are there with God; and our rewards will be according to God’s evaluation and judgment, based on the records He has in heaven about us.
Having concluded the teachings about the second category of teachings i.e., the Elementary Principle with this article, from the next article we will begin looking at the third category of teachings about Growing through God’s Word, i.e., about teachings regarding Christian Living.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.