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सोमवार, 23 सितंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 199

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 44


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 3 - प्रभु-भोज (19) 



हम प्रेरितों 2:42 से व्यवहारिक मसीही जीवन के लिए अनिवार्य शिक्षाओं को सीखते आ रहे हैं। इस पद में चार बातें दी गई हैं, जिनका पालन आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर किया करते थे। इस कारण वे अपने आत्मिक जीवन में उन्नत होते चले गए; वे हर प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में भी अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ बने रहे, बढ़ते गए; और कलीसियाएं भी बढ़ती चली गईं। इन चारों बातों के इसी बढ़ोतरी करने और स्थिरता प्रदान करने वाले प्रभाव के कारण, उन्हें “मसीही जीवन के चार स्तम्भ” भी कहा जाता है। वर्तमान में हम इन चार में से तीसरे स्तम्भ “रोटी तोड़ना” के बारे में विचार कर रहे हैं, सीख रहे हैं। लौलीन होकर इन चारों बातों का पालन करने वाले उन आरम्भिक विश्वासियों की तुलना में, परमेश्वर के वचन बाइबल में कुरिन्थुस की मण्डली के स्थापित विश्वासी हैं। उन्होंने अपने मसीही विश्वास के जीवन को बुरी तरह से बिगाड़ लिया था; उनमें अनेकों गलत बातें घुस आई थीं, और उनकी आत्मिक दशा बहुत बिगड़ गई थी। उनके इस भ्रष्ट किए जाने में प्रभु भोज में उनके द्वारा अनुचित रीति से, एक औपचारिकता निभाने के समान भाग लेने के द्वारा उसका निरादर और दुरुपयोग करना भी था। उनके इस व्यवहार के कारण वे परमेश्वर के दण्ड के भागी हो गए थे। पवित्र आत्मा ने पौलुस प्रेरित के द्वारा उन्हें समझाने, सिखाने, और सुधारने के लिए पत्रियाँ लिखवाईं। पौलुस की पहली पत्री में, 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में हम हमारे वर्तमान विषय, प्रभु भोज में उचित रीति से भाग लेने के विषय में शिक्षाएं पाते हैं। हम इन्हीं शिक्षाओं को सात बिन्दुओं के अन्तर्गत देखते चले आ रहे हैं। अभी हम सातवें बिन्दु, “अन्तिम टिप्पणियाँ” को इस खण्ड के पद 31-34 से देख रहे हैं, और पद 31, 32 को देख चुके हैं। आज हम पद 33-34 से, प्रभु भोज में भाग लेने से सम्बन्धित आगे की बातों को देखेंगे।    

7. प्रभु-भोज में भाग लेना - पद 31-34 - (भाग 3)


हम 1 कुरिन्थियों 11:20-22 में, कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों में प्रभु भोज को लेकर घुस आई एक गलत धारणा के निर्वाह के बारे में देखते हैं - उनमें से कुछ इसे एक दावत के समान लेने लगे थे। वे अपने घरों से अपना पूरा भोजन लाते, तथा औरों को दिखाते हुए, उन्हें सम्मिलित किए बिना, स्वयं ही उस खाया करते थे; और दाखरस पीकर मतवाले भी हो जाते थे। लेकिन मण्डली के कुछ सदस्य, बिना किसी भोज में सम्मिलित हुए ही रह जाते थे। यद्यपि वचन उनके ऐसा करने के कारण को तो नहीं बताता है, किन्तु सम्भवतः वे ऐसा फसह के पर्व के भोज को उदाहरण बनाकर करते थे, जिसके दौरान प्रभु ने मेज़ की स्थापना की थी। यदि ऐसा भी था, तो भी उनका यह करना सर्वथा अनुचित और गलत था। उनके द्वारा वचन की एक बिल्कुल गलत समझ रखने और वचन की बातों का दुरुपयोग करने का उदाहरण था। प्रभु और उसके शिष्यों ने एक साथ मिलकर, फसह के पर्व के एक ही भोज में भाग लिया था। ऐसा नहीं था कि कुछ, या सभी शिष्य अपना-अपना भोजन लेकर आए थे, और अलग-अलग बैठकर, एक दूसरे को दिखाते हुए खा रहे थे। साथ ही, जैसा हम पहले देख चुके हैं, प्रभु द्वारा प्रभु भोज के लिए स्थापित रीति “एक रोटी और एक प्याला” थी, जिसमें से उपस्थित (यहूदा इस्करियोती प्रभु भोज स्थापित होने के समय तक वहाँ से जा चुका था) सभी शिष्यों ने भाग लिया था। इसलिए, इस आधार पर भी, जो लोग अपना-अपना भोजन लाकर, अलग-अलग खाते और पीते थे, वे गलत करते थे, प्रभु के किए के अनुरूप नहीं करते थे। और 22 पद में पवित्र आत्मा ने उन्हें डाँटते हुए कहा है कि इस प्रकार से खाने और पीने का स्थान उनका अपना घर है, प्रभु भोज में भाग लेने के लिए मण्डली में आकर यह नहीं करना है।


अब यहाँ, हमारे इस सातवें बिन्दु के इस अन्तिम खण्ड, पद 33-34 में भी यही बातें दोहराई गई है। लेकिन यहाँ हम साथ ही पौलुस से एक और व्यावहारिक बात को भी सीखते हैं। इस विषय के समापन की ओर आते हुए, वह उन्हें एक बार फिर, प्रेम और आदर के साथ “हे मेरे भाइयों” कहकर सम्बोधित करता है, और फिर आगे की बात कहता है। यह एक ध्यान देने योग्य बात है कि उनकी इन सभी घोर गलतियों के बावजूद, न तो वह उन्हें अविश्वासी कहता है, न किसी की व्यक्तिगत आलोचना करता है, न किसी का न्याय करता है, न किसी के पक्ष में तथा किसी अन्य के विरुद्ध व्यक्तिगत रीति से बोलता है। पौलुस न केवल सभी के साथ समान व्यवहार करता है, वरन उनकी इस आत्मिक गिरावट की इस स्थिति में भी उन्हें “हे मेरे भाइयों” कहकर सम्बोधित करने के द्वारा अपने आप को उनके साथ जोड़ लेता है, उन्हें अपने स्तर पर ले आता है। यह सभी कलीसियाओं के सभी अगुवों और पादरियों के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा तथा उदाहरण है। इसका निर्वाह करना, कलीसिया के लोगों के साथ उनके मध्य, समस्याओं का समाधान करने के लिए बहुत आवश्यक और सहायक है। ध्यान कीजिए कि यूहन्ना 21 अध्याय में भी, जब पतरस और कुछ अन्य चेले निराश होकर, फिर से अपने पुराने जीवन यापन के तरीके, मछली पकड़ने में लौट गए थे, तब भी प्रभु ने उन्हें बहाल करने के लिए यही तरीका अपनाया था, वह स्वयं उनके पास आया, और सारी रात असफल परिश्रम करने से थके हुए और निराश लोगों को उलाहना देने की बजाए, प्रभु ने प्रेम से उन्हें “हे बालकों” कहकर सम्बोधित किया, उन्हें बहुत बड़ी सफलता पाने का तरीका भी बताया (यूहन्ना 21:5-6) और उनके लिए भोजन भी तैयार करके रखा (यूहन्ना 21:9)। और फिर इसके बाद के वार्तालाप में हताश और निराश पतरस को उसके वापस लौट जाने, तथा औरों को भी साथ वापस ले जाने के लिए डाँटा नहीं, कुछ नहीं कहा। वरन, वहीं, उन सभी वापस लौटे हुओं के सामने उसे ज़िम्मेदारियाँ देने के द्वारा उसके प्रति अपने प्रेम, तथा भावी सेवकाई में उसके महत्व को प्रकट भी किया। कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी गई इस पत्री के आरम्भ में पौलुस ने भी यही कार्यविधि अपनाई है; यह जानते हुए भी कि कुरिन्थुस की कलीसिया बहुत बिगड़ चुकी है, भ्रष्ट हो गई है, 1 अध्याय के आरम्भिक, 1-9 पदों में पौलुस अपने आरम्भिक सम्बोधन में उन्हें विश्वासी कहता है, उनकी सराहना करता है, उनके साथ अपने को जोड़ता है। फिर उसके बाद वह उन्हें आवेश और आक्रोश के साथ नहीं, परन्तु प्रेम और समझ के साथ उन्हें उनकी गलतियाँ दिखाना और सुधारना आरम्भ करता है। कलीसियाओं में गलतियाँ सुधारने का परमेश्वर द्वारा दिए गए तरीकों में से एक है।


अगले लेख में भी हम इसी खण्ड पर विचार ज़ारी रखेंगे, और एक अन्य संबंधित बात पर भी विचार करेंगे। 

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 


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English Translation


Things Related to Christian Living – 44


The Four Pillars of Christian Living - 3 - Breaking of Bread (19)



We have been learning the teachings essential for practical living from Acts 2:42. There are four things given in this verse, and the initial Christian Believers steadfastly did them. Therefore, they were edified in their spiritual lives; could remain firm and steady in their Christian faith despite all adverse circumstances; and the churches grew continually. Because of this growth causing and providing stability and steadfastness, these four are also called the “Pillars of Christian Living.” Presently, we are pondering over and learning about the third of the four pillars, i.e., “breaking of bread.” In contrast to those initial Christian Believers who steadfastly observed these four things, in God’s Word the Bible we have the Christian Believers of the Church in Corinth. They had terribly spoiled their Christian living; many wrong things had come into them, and their spiritual lives had become very deplorable. Amongst their many corruptions, one was their participation in the Holy Communion unworthily, as a mere formality, through which they had dishonored and misused it. Because of this behavior, they had become guilty of being punished by God. The Holy Spirit, through the Apostle Paul, had letters written to them, to make them understand, correct, and teach them about it. In Paul’s first letter, in 1 Corinthians 11:17-34, we have the teachings regarding our current topic, i.e., about participating worthily in the Holy Communion. We are considering these teachings under seven points. Presently we are on verses 31-34 for the seventh point, “Final Comments,” and we have seen verses 31 and 32. Today we will consider some more things related to participation in the Lord’s Table from verses 33-34.

 

7. Partaking in the Holy Communion - verses 31-34 - (Part 2)


We see in 1 Corinthians 11:20-22 about a wrong concept regarding the Holy Communion that had come into the Christian Believers of Corinth - some of them had started taking part in it as a feast. They would bring food from their homes, and eat it there, all by themselves, showing it off to others, but not sharing with them; and some would even become drunk by drinking the wine. But some others in the assembly would never get to participate in any feast. Though we have no reason given in the Word for their doing this, it is possible that they did it using the Lord celebrating the Passover feast at the time of instituting the Lord’s Table. Even if this was the reason, yet, their doing this was completely wrong and improper. It only showed their totally wrong understanding and improperly using that which was given in God’s Word. The Lord and His disciples had together participated in one feast. It was not that the disciples had individually brought their own food, and were sitting separately from each other, eating all by themselves, while showing off to the others. Moreover, as we have seen earlier, the Lord’s given method of participation in the Holy Communion was “one bread and one cup for everyone,” and all who were present there (Judas Iscariot had left by the time the Lord instituted the Holy Communion) took part from the same bread and same cup of wine. Therefore, on this basis also, those who brought their own food, and ate it separately, were doing wrongly, and not according to what the Lord had shown to be done. Then, in verse 22, the Holy Spirit reprimands them, and tells them that the place for eating and drinking in this manner is their home, participation in the Lord’s Table is not to be done in this manner.


Now here, in verses 33-34, in the last part of this seventh point, the same has been reiterated. But here we see another thing of practical applicability from Paul. While coming to the conclusion of this topic, once again he addresses them honorably and in love as “my brethren”, and then proceeds with what is to be said. This is something to be taken note of, that despite their very serious wrongs, he neither calls them unbelievers, nor does he pointedly demean anyone in particular, nor does he judge anyone, nor does he take sides of any individuals, speaking in favor of some and against others. Not only did Paul address everyone at par, but also despite their deplorable spiritual condition, he still calls them “my brethren” and thereby joins himself with them, lifts them up to his state. This is a very important lesson to learn for all the Pastors and Elders of all the churches and Assemblies. Following this is a very important part of resolving untoward situations and differences amongst the members of the congregation. Recall that in John chapter 21, the Lord Jesus too, when Peter and others with him, in their state of being depressed and frustrated, had gone back to their previous occupation of earning a living by fishing, at that time too the Lord had used this method to restore them back. He had Himself gone to them, and instead of taunting or reprimanding those tired fishermen who had unsuccessfully labored the whole night, the Lord lovingly addressed them as “children,” then told them the way to be very successful in their work (John 21:5-6), and even prepared and kept ready food for them (John 21:9). Then, after this, during their conversation, to restore the depressed and frustrated Peter and others back into fellowship with Him, He neither reprimanded them, nor said anything about what they had done. Instead, there, in the presence of all who had gone back, the Lord gave responsibilities to Peter. Thereby He expressed His love for him, and showed him how important he was for the Lord for the ministry in the days ahead. At the beginning of this letter written to the Church in Corinth, Paul has also adopted the same strategy. Paul Knew that the Church in Corinth had become very badly spoiled and corrupted. But still in the first nine verses of chapter one, Paul in his opening address to them, calls them Believers, commends and appreciates them, and joins himself with them. Then he addresses them, not in fury and indignation, but in love and with understanding, and then starts telling them their wrongs and teaching them on how to correct them. This is one of God given methods of addressing and correcting the problems in the churches.


We will continue pondering over this section in the next article, and then also address another related matter.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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