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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 237

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 82


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (24) 


व्यावहारिक मसीही जीवन के लिए आवश्यक बातों के सन्दर्भ में हम परमेश्वर के वचन के उदाहरणों और पदों से देख रहे हैं। वर्तमान में हम प्रेरितों 2:42 में दी गई चार में से चौथी बात, प्रार्थना के बारे में देखते आ रहे हैं। पिछले कुछ लेखों से हमने तथाकथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में वचन के आधार पर देखना आरम्भ किया है। हमने देखा है कि यह प्रभु यीशु द्वारा रट लेने और हर अवसर तथा परिस्थिति में दोहराते रहने के लिए दी गई कोई “प्रार्थना” नहीं है। वरन यह परमेश्वर से प्रभावी प्रार्थना करने के लिए, एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके अनुसार प्रभु के लोगों को अपनी व्यक्तिगत प्रार्थनाएं ढालनी चाहिएं। हमने इसके बारे में मत्ती 6:5-15 के आधार पर देखना आरम्भ किया है। पिछले लेख में हमने परमेश्वर से प्रार्थना करने से पूर्व की तैयारी के बारे में पद 5 और 6 से इस तैयारी के बारे में आरम्भिक बातें समझी हैं। इस सन्दर्भ में हमने पद पाँच से देखा है कि परमेश्वर से प्रार्थना, परमेश्वर से वार्तालाप करने के लिए ही होनी चाहिए। यह अपनी वाक्पटुता और आलंकारिक भाषा के प्रयोग द्वारा लोगों को सुनाने और प्रभावित करने, उनकी प्रशंसा और सराहना प्राप्त करने के लिए बोले शब्द नहीं होने चाहिए, अन्यथा उस प्रार्थना का परमेश्वर से कोई प्रतिफल नहीं मिलेगा। दूसरी बात, जिसे हमने पद 6 से देखा था, है कि सच्ची प्रार्थना एकान्‍त में, संसार के आकर्षणों से स्वयं को अलग करके केवल परमेश्वर के साथ जुड़कर की जाती है। आज हम यहीं से और आगे बढ़ेंगे और वचन से, प्रभु की शिक्षाओं से प्रार्थना के बारे में और सीखेंगे। 


परमेश्वर पिता से खराई से प्रार्थना करने के लिए, मत्ती 6:7 में लिखा है, “प्रार्थना करते समय अन्यजातियों के समान बक बक न करो; क्योंकि वे समझते हैं कि उनके बहुत बोलने से उन की सुनी जाएगी।” अर्थात, परमेश्वर से की गई प्रार्थना का प्रभावी और कारगर होना, शब्दों की बहुतायत पर निर्भर नहीं है, विशेषकर कुछ शब्दों या वाक्यांशों को बारम्बार दोहराते रहने पर निर्भर नहीं है। कुछ लोगों की यह आदत होती है कि वे अपने कुछ प्रिय शब्द या वाक्यांश, अपनी प्रार्थना या आराधना में, हर वाक्य में बारम्बार दोहराते रहते हैं। यहाँ प्रभु यीशु ने इस प्रवृत्ति से निकलने, इसे बंद करने के लिए कहा है। साथ ही प्रभु ने इसे बक-बक करना और अन्यजातियों के समान प्रार्थना या आराधना करना कहा है, और इस तरह की प्रार्थना को “बक-बक करना” कहा है। ये प्रभु द्वारा प्रयोग किए गए तीखे शब्द हैं, जो बल देकर ऐसी प्रार्थना के व्यर्थ होने को दिखाते हैं। केवल यहाँ नए नियम में ही नहीं, परमेश्वर पवित्र आत्मा ने सुलैमान के द्वारा सभोपदेशक की पुस्तक में भी इस बात को लिखवाया है, “जब तू परमेश्वर के भवन में जाए, तब सावधानी से चलना; सुनने के लिये समीप जाना मूर्खों के बलिदान चढ़ाने से अच्छा है; क्योंकि वे नहीं जानते कि बुरा करते हैं। बातें करने में उतावली न करना, और न अपने मन से कोई बात उतावली से परमेश्वर के सामने निकालना, क्योंकि परमेश्वर स्वर्ग में हैं और तू पृथ्वी पर है; इसलिये तेरे वचन थोड़े ही हों” (सभोपदेशक 5:1-2)। परमेश्वर की प्रेरणा से सुलैमान ने यह स्पष्ट लिखा है कि अनावश्यक और अधिक बोलना, मूर्खों के समान बलिदान चढ़ाना और बुरा करना है; और परमेश्वर के सामने कहे गए मनुष्यों के वचन थोड़े होने चाहिएँ। मनुष्य को परमेश्वर के समीप, अपनी बात कहने के उद्देश्य से कम, और परमेश्वर की बात को सुनने के उद्देश्य के लिए अधिक जाना चाहिए। इन बातों से यह प्रकट है कि जहाँ तक सम्भव हो, परमेश्वर से प्रार्थना करने से पहले, प्रार्थना करने वालों को अपने अन्दर विचार कर लेना चाहिए कि वे परमेश्वर के सम्मुख क्यों जा रहे हैं? उससे क्या कहने के लिए जा रहे हैं? वे किन शब्दों का उसके सम्मुख उपयोग करेंगे? ताकि उनकी प्रार्थनाएं परमेश्वर की दृष्टि में अन्यजातियों की बक-बक या मूर्खों की बातें न लगें। साथ ही प्रार्थना करने वाले को परमेश्वर से केवल अपनी बात कहने के लिए ही नहीं, बल्कि उसकी बात को सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिए।


 फिर मत्ती 6:8 में, मत्ती 6:7 की बात को आगे बढ़ाते हुए, प्रभु यीशु ने कहा है, “सो तुम उन के समान न बनो, क्योंकि तुम्हारा पिता तुम्हारे मांगने से पहिले ही जानता है, कि तुम्हारी क्या क्या आवश्यकता है।” प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा है कि उनके माँगने से पहले ही परमेश्वर उनकी प्रत्येक आवश्यकता को, बात को जानता है। इसलिए परमेश्वर को कुछ समझाने, सिखाने की आवश्यकता नहीं है। हमारा सीधे, साफ, और संक्षिप्त शब्दों में अपनी बात को परमेश्वर से कहना, हमारी बात को परमेश्वर को स्वीकार्य, तथा प्रार्थना को प्रभावी और कारगर बनाता है। हम इस बात को प्रार्थना के बारे में आरम्भिक लेखों में पहले देख चुके हैं कि जब परमेश्वर हमारी आवश्यकताओं को पहले से ही जानता है, तो फिर हमें किसी भी बात के लिए उससे प्रार्थना करने की क्या आवश्यकता है? मुख्यतः, प्रार्थना करने के द्वारा, हम स्वयं को, और अपने सुनने वालों को अपनी प्रार्थनाओं की सार्थकता और प्रार्थना, या परमेश्वर से वार्तालाप के विषय अपनी मानसिकता, को दिखाते हैं। जब हम अपने ही शब्दों को - चाहे मन ही में अथवा अपने कानों से, सुनते हैं तो हमें अधिक बेहतर रीति से पता चलता है कि हम अपनी प्रार्थनाएं सच्चे मन से परमेश्वर से कहने के लिए कर रहे हैं; या लोगों को सुनाने और उन्हें प्रभावित करने के लिए कह रहे हैं। क्योंकि जो प्रार्थनाएं परमेश्वर को सुनाने के लिए होंगी, वे परमेश्वर की इच्छा के, उसके निर्देशों के अनुसार होंगी; और जो मनुष्यों को सुनाने के लिए होंगी, लोगों पर प्रभाव जमाने के लिए होंगी, वे फिर लोगों की पसन्द के अनुसार, उन्हें प्रभावित करने वाली बातों के अनुसार होंगी। साथ ही यहाँ पर पद 8 के आरम्भिक वाक्य “सो तुम उन के समान न बनो” पर भी ध्यान कीजिए। यहाँ प्रभु अपने शिष्यों के सामने, प्रार्थना से सम्बन्धित एक चुनौती रख रहा है। प्रभु उन से कह रहा है कि प्रार्थनाओं को परमेश्वर को स्वीकार्य और कारगर बनाना उनके अपने हाथों में है। यह उन शिष्यों का अपना निर्णय और व्यवहार है कि वे क्या कहने, करने वाले बनाना चाहते हैं। प्रभु का उन्हें परामर्श है कि वे बक-बक करने वाले अन्यजातियों के समान न बनें; लेकिन इस परामर्श को व्यवहारिक करना, प्रत्येक शिष्य का व्यक्तिगत निर्णय और व्यवहार है।

 

प्रार्थना से पहले की तैयारियों के बारे में संक्षेप में देखने के बाद, अगले लेख में हम पद 9-13 में दी गई तथाकथित “प्रभु की प्रार्थना” पर, प्रभु द्वारा प्रार्थना के लिए दी गई रूपरेखा या ढाँचे पर विचार करना आरम्भ करेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 82


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (24)


We have been learning about living a practical Christian life through the examples and the text of God’s Word. Currently we have been considering the fourth of the four things given in Acts 2:42. For the past few articles we have been considering the so-called “Lord’s Prayer” on the basis of the Word of God. We have seen that it is not something given by the Lord to memorize, and then by rote keep reciting it on every occasion, in every circumstance. Rather, it is an outline, a framework for constructing and molding the personal prayers of the people of the Lord to make them effective. We have begun to consider this from Matthew 6:5-15. In the previous article we have seen and understood about the preliminary preparations that should be done before praying, from verses 5 and 6. In this context we have seen from verse five that praying should be to converse with God. It should not be to show-off our eloquence and use of figurative language to others for impressing them, nor should prayer be words spoken to gain the praise and appreciation of people; else, there will be no results of such prayers. The second thing that we learnt from verse 6 is that sincere prayer is said by isolating ourselves from the attractions and distractions of the world, and being joined only to the Lord. Today we will proceed further from here, and learn some more from the Word and the Lord’s teachings.


For praying sincerely to God the Father, it is written in Matthew 6:7, “And when you pray, do not use vain repetitions as the heathen do. For they think that they will be heard for their many words.” In other words, the impact and efficacy of the prayers made to God are not dependent upon the volume and type of words used, especially on habitually repeating some word or phrases over and over again. Some people are habituated to very frequently repeating their favorite words or phrases over and over again in every sentence, in their prayers or worship. Here the Lord has asked to stop such tendencies and come out of them. Moreover, the Lord has called doing this “vain repetition” and praying or worshiping like the heathen. These are sharp words, used by the Lord to emphatically show the vanity of such prayers. Not just here in the New Testament, but God the Holy Spirit also had the same thing written by Solomon in the Book of Ecclesiastes, “Walk prudently when you go to the house of God; and draw near to hear rather than to give the sacrifice of fools, for they do not know that they do evil. Do not be rash with your mouth, And let not your heart utter anything hastily before God. For God is in heaven, and you on earth; Therefore, let your words be few” (Ecclesiastes 5:1-2). Through the inspiration of God, Solomon has clearly written that speaking excessively and saying unnecessary things is like offering the sacrifice of fools, is evil. Man should approach God, more to listen to God than to make God listen to him; and man’s words spoken before God should be few. It is apparent from these that as far as it can be done, before praying to God, the person saying the prayer should ponder over it in his heart and see why he is approaching God? What is he going to say to Him? What words is he going to speak before Him? So that their prayers do not seem like vain repetitions of the fools and of heathen in the eyes of God. Moreover, those praying should not only approach God to speak to Him, but they should also be willing and prepared to listen to God.


Then, in Matthew 6:8, carrying the thought of Matthew 6:7 ahead, the Lord Jesus said, “Therefore do not be like them. For your Father knows the things you have need of before you ask Him.” The Lord has told His disciples that before they ask anything, God already knows about their needs and everything else. So, there is no need to try to make God understand anything, to teach and explain things to Him. Our saying what we have to say in a clear, straightforward, and succinct manner makes our prayers acceptable to Him, impactful and effective. We have already seen in the initial articles on prayer, why when God already knows about our needs, do we at all need to pray to Him for anything? Mainly, because by praying, we show to ourselves and to others listening to us, the meaningfulness of our prayers, and our mentality in our conversation with God. When we listen to our own words - whether in our hearts or through our ears, then we learn better whether we are sincerely saying our prayers to converse with God, or saying them for the sake of the people listening to us and to impress them. Because the prayers that are said for God to hear, they will be according to His will, and consistent with His instructions; whereas the prayers meant for people to hear, to impress the people, they will be according to what the people want to hear and to impress them. Also, consider and pay attention to the initial sentence of verse 8 “Therefore do not be like them.” Here the Lord is placing a challenge related to prayer, before His disciples. The Lord is saying to them that to make their prayers acceptable to God and effective, is in their own hands. It is the disciple’s own decision and behavior, what they want to say or do. The Lord’s advice to them is that they do not become like the heathen, vainly repeating things in their prayers; but to accept this advice and practically apply it in their lives, is each disciple’s personal decision and behavior.


Having briefly seen the preliminary preparations necessary before praying, from the next article, we will start considering the so-called “Lord’s Prayer” given in Matthew 6:9-13, seeing the outline and the framework for an effective prayer given to us by the Lord.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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बुधवार, 30 अक्तूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 236

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 81


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (23) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के बारे हम अभी प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों में से चौथी बात, प्रार्थना करने के बारे में, परमेश्वर के वचन में दी गई सम्बन्धित बातों के उदाहरणों और हवालों से देख रहे हैं। प्रार्थना से सम्बन्धित कुछ भ्रांतियों, गलत शिक्षाओं, और अनुचित धारणाओं को देखने के बाद, अब हम मसीहियों में बहुत आम तौर से बोली जाने वाली “प्रभु की प्रार्थना” के बारे देख रहे हैं। हमने देखा है कि बाइबल में इस “प्रार्थना” के बारे में जो लिखा गया है और जिस तरह से इसे उपयोग किया गया है, उससे यही लगता है कि यह प्रभु यीशु द्वारा रटने और बारम्बार, हर अवसर पर, बिना इस समझे या इसके बारे में विचार किए, यूँ ही बोलते रहने के लिए दी गई कोई प्रार्थना नहीं है। बल्कि प्रभु के द्वारा परमेश्वर से सही रीति से, कारगर प्रार्थना करने की एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके आधार पर, या जिसके अनुसार प्रभु के अनुयायियों को अपनी प्रार्थनाओं को स्वरूप देना है। आज हम इसी बात को, “प्रभु की प्रार्थना” की रूपरेखा या ढाँचे को, बहुत संक्षेप में देखना और समझना आरम्भ करेंगे। इसके लिए हम मत्ती 6:5-15 का उपयोग करेंगे, क्योंकि न केवल यह अधिक विस्तृत है, वरन यह प्रभु द्वारा पहली बार कहा गया स्वरूप भी है।

 

प्रभु द्वारा दिए गए पहाड़ी उपदेश के प्रार्थना से सम्बन्धित इस खण्ड में प्रभु ने अपने शिष्यों से परमेश्वर से प्रार्थना करने केवल एक स्वरूप को ही नहीं दिया है, वरन प्रार्थना करने से पहले की बातों और तैयारियों के बारे में भी बताया है। यहाँ पर, पद 5 में हम देखते हैं कि परमेश्वर पिता से प्रार्थना करने, खराई से उससे वार्तालाप करने की पहली तैयारी, उसकी आधारभूत बात है, प्रार्थना को करने के मर्म को समझना। यह ध्यान रखना और उसका पालन करना कि जो हम करने जा रहे हैं, वह लोगों को दिखाने, उनकी प्रशंसा और सराहना प्राप्त करने के लिए नहीं है। मत्ती 6:5-15, कुल 11 पदों का एक छोटा सा खण्ड है, और इन 11 पदों में ‘प्रार्थना’ के शब्द, पद 9-13, अर्थात 5 पदों में दिए गए हैं। इन पदों में व्यक्त की गई बात, सिखाई गई शिक्षाएं, बहुत सीधे और साधारण शब्दों तथा वाक्यों में हैं। यहाँ पर न तो किसी प्रकार की कोई वाक्पटुता दिखाई गई है, और न ही कोई आलंकारिक भाषा प्रयोग की गई है। थोड़े से शब्दों में इतना कुछ कहा गया है, और इस तरह से कहा गया है जो लोगों से अपनी लम्बी-लम्बी प्रार्थनाओं में नहीं कहा जाता है। परमेश्वर से प्रार्थना करने के लिए, प्रभु का पहला निर्देश है कि अपने आप को परमेश्वर को सम्बोधित करने के लिए तैयार करें, न कि परमेश्वर से प्रार्थना करने के नाम पर, लोगों को दिखाने, सुनाने, उन्हें प्रभावित करने, और लोगों से ही प्रशंसा और सराहना प्राप्त करने का प्रयास करें। जिनकी प्रार्थनाएं लोगों को सुनाने, अपनी वाक्पटुता और आलंकारिक भाषा का उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए होती हैं, इस पद में प्रभु उन्हें सचेत करते हुए स्पष्ट कह देता है कि “वे अपना प्रतिफल पा चुके।” अब वे पिता परमेश्वर से किसी प्रतिफल की, प्रार्थना के किसी और उत्तर की कोई आशा नहीं रखें। प्रभु की बात का कुल निचोड़ है कि प्रार्थना सीधी, स्पष्ट, संक्षिप्त हो; परमेश्वर से बात करना हो, न कि लोगों को सुनाने और प्रभावित करने के लिए की गई हो।


इसी बात को आगे बढ़ाते हुए, प्रभु यीशु ने पद 6 में कहा है कि यदि वास्तव में परमेश्वर के साथ बातचीत करनी है, तो उस बातचीत में बाधा डालने वाली बातों और परिस्थितियों से बचकर, एक ऐसे स्थान में परमेश्वर से वार्तालाप करना चाहिए, जहाँ ध्यान बँटाने वाली कोई बात, कोई परिस्थिति न हो। स्वाभाविक है कि जब प्रार्थनाएं एकांत में की जाएंगी, तो अधिक यथार्थ पूर्ण होंगी, साफ, सीधे, और स्पष्ट शब्दों में की जाएंगी। जो प्रार्थनाएं गुप्त में की जाएंगी, पद 5 की बात की तुलना में, उनके प्रतिफल मनुष्यों से नहीं परमेश्वर से मिलेंगे। अब यहाँ पर इस पद के इस अंतिम वाक्य की रचना पर ध्यान कीजिए; प्रभु ने ऐसी प्रार्थना के लिए अपने शिष्यों से कहा “...तुझे प्रतिफल देगा।” अर्थात, यह होना कोई सम्भावना नहीं, वरन अवश्यंभावी है। जब प्रभु के शिष्य, मनुष्यों से मुँह मोड़कर, अपने आप को परमेश्वर से जोड़कर, मनुष्यों को दिखाने, सुनाने, प्रभावित करने के लिए नहीं बल्कि सच्चे मन से, परमेश्वर से सीधे, स्पष्ट शब्दों में अपने आप परमेश्वर के सामने व्यक्त करते हैं, तो परमेश्वर भी उनकी सुनता है, उन्हें उत्तर देता है। यहाँ पर यह निहित है कि, यह स्वाभाविक है कि जब प्रभु का सच्चा शिष्य, परमेश्वर से अपने मन की बात कहेगा और माँगेगा, तो वह कुछ अनुचित अथवा परमेश्वर के गुणों से असंगत नहीं होगा। जबकि लोगों को सुनाने, प्रभावित करने के लिए की गई प्रार्थनाओं में लोगों की इच्छा और प्रसन्नता के अनुसार बातें होंगी, चाहे वे परमेश्वर की इच्छा और प्रसन्नता के अनुसार न भी हों। इसलिए ऐसी प्रार्थनाओं का परमेश्वर से उत्तर मिलने की सम्भावना भी नहीं है। इस पद का यह अर्थ नहीं है कि सामूहिक प्रार्थनाएं नहीं की जानी चाहिएं या सभाओं में की गई प्रार्थनाओं का परमेश्वर उत्तर नहीं देगा। प्रभु के शिष्य सभाओं में, या सामूहिक प्रार्थनाएं भी लोगों की परवाह किए बिना ही सीधी और स्पष्ट कर सकते हैं, खराई से अपने आप को परमेश्वर के सम्मुख व्यक्त कर सकते हैं; और तब परमेश्वर उन शिष्यों की प्रार्थनाओं को सुनेगा, उनका उत्तर देगा।


अगले लेख में हम प्रार्थना पर प्रभु की इस शिक्षा पर, इस खण्ड से विचार करना ज़ारी रखेंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 81


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (23)


Presently we are considering the fourth of the four things related to practical Christian living, given in Acts 2:42, i.e., prayer, through the examples and references given in God’s Word about it. Having considered some wrong notions, false teachings, and inappropriate concepts about prayer, we are now considering the very commonly spoken “Lord’s prayer.” We have seen from what is written about this ‘prayer’ and the way this ‘prayer’ has been used in the Bible, that this is not a ‘prayer’ to be spoken by rote on all occasions, without understanding or pondering over it. Rather, it is an outline, a framework given by the Lord, based on which the Christians should mold their prayers, for their prayers to be effective. Today we will begin considering and understanding this outline or framework or effectively praying to God, briefly. For this we will use Matthew 6:5-15, since not only is this somewhat more detailed, but is also the first form of what the Lord has said about this “prayer.”


In this section from the Sermon on the Mount spoken by the Lord regarding prayer, not only has He spoken about praying, but also about the preliminary preparations related to praying. Here, in verse 5, we see that for praying to God, for sincerely conversing with Him, the initial preparation, the basic requirement is to first understand the essence of praying to God. To recognize, and observe the basic fact that what we are going to do, is not to show-off to the people, nor is it for being appreciated and commended by people. The things that have been spoken here in these verses, the teachings that have been given here, are all in very simple and straightforward words and sentences. There is no usage of any eloquence, nor of any ornamental or figurative language here. Stil, in these few words and verses so much has been said, and has been said in a manner that people are unable to say in the long and verbose prayers they say. For praying to God, the first instruction given by the Lord is that we should first prepare ourselves to express ourselves to God, instead of trying to show-off to people and impress them, to get their admiration and acclaim, in the name of praying to God. Those who pray to get the admiration and acclaim of the people, who use eloquent and ornamental or figurative language to impress people in the name of prayer, the Lord very clearly says something to them in this verse to caution them, “...they have their reward.” Now they should not expect anything more as an answer to their prayers from God the Father. The essence of what the Lord has said is that the prayers should be straightforward, clear, and to-the-point; they should be for conversing with God, not to impress people, to show-off to them.


Carrying this same thought ahead, in verse 6 the Lord has said that if one really wants to converse with God, then it should be done in a place where there are no disturbances and distractions that interfere in this conversation with God. It is only natural that when prayers are said in solitude, they will be more realistic, and in a clear, simple, and straightforward manner. The prayers that are said in secret, in contrast to the kind of prayers said in verse 5, their rewards will be given not by men, but by God. Now, pay attention to the construction of this sentence; the Lord has said for such a prayer that God “...will reward you openly.” In other words, the answer to such prayers is not a possibility, but a certainty. When the disciples of the Lord turn away from impressing people, instead of trying to impress people and show-off to them, truly join themselves with God, converse with God and express themselves in a clear, straightforward, to-the-point manner, then God too listens to them and answers them. It is implied over here that when a true disciple of the Lord will express his heart to the Lord and ask for something, then it will not be something that is inappropriate or inconsistent with the attributes of God. In contrast, the prayers made to impress people and to show-off to them will be of the kind that the people like to hear, whether or not their content is consistent with what God wants to hear. Therefore, there is no possibility of such prayers being heard or answered. This verse should not be taken to mean that it forbids the praying in a gathering or that God will not answer corporate prayers. The disciples of the Lord can, even in assemblies and gathering, in corporate settings, pray without being concerned about the people present, in a simple, straightforward, clear manner, express themselves sincerely to God; and then God will listen to their prayers and answer them.


In the next article we will carry on considering about this section, about the Lord’s teachings on prayer. 

 

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 235

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 80


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (22) 


हम व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों का अध्ययन कर रहे हैं, और वर्तमान में प्रेरितों 2:42 में दी गई चार में से चौथी बात, प्रार्थना करने पर, परमेश्वर के वचन बाइबल के उदाहरणों और हवालों के आधार पर विचार कर रहे हैं। पिछले लेखों में प्रार्थना क्या है, मसीही विश्वासियों को क्यों परमेश्वर के साथ निरन्तर प्रार्थना में लगे रहने है, परमेश्वर किन प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देता है, “विश्वास में” और “यीशु के नाम में” प्रार्थना माँगने का बाइबल के अनुसार अर्थ और उपयोग क्या है, आदि बातों पर विचार करने के बाद, पिछले लेख से हमने मसीहियों में व्याप्त एक अन्य धारणा, ‘प्रभु की प्रार्थना’ के बारे में विचार करना आरम्भ किया था। पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रभु यीशु ने यह प्रार्थना पहली बार अपने शिष्यों को अपने “पहाड़ी उपदेश” उपदेश में, प्रार्थना से सम्बन्धित शिक्षाओं (मत्ती 6:5-15) के एक भाग (पद 9-13) के रूप में दी थी; और दूसरी बार इसका उल्लेख लूका 11:1-4 में तब आता है जब शिष्यों ने प्रभु से निवेदन किया कि उन्हें प्रार्थना करना सिखाएं। इन दो बार के अतिरिक्त, पूरे नए नियम में इस ‘प्रभु की प्रार्थना’ का न तो कहीं उल्लेख है, और न ही कहीं इसके किसी तरह से उपयोग किए जाने, या इसके बारे में कोई शिक्षा दिए जाने के बारे में कुछ लिखा है। वर्तमान मसीहियों में इस ‘प्रभु की प्रार्थना’ का जो स्वरूप और प्रयोग देखा जाता है, वह बाइबल में कहीं नहीं दिया गया है, आरम्भिक मसीही विश्वासियों और कलीसियाओं में उसका वैसा कोई निर्वाह नहीं होता था; और यह सब बात में मनुष्यों द्वारा वचन में जोड़ी गई बातें हैं।


अपने पहाड़ी उपदेश में प्रभु अपने शिष्यों को उस समय के धर्म के अगुवों द्वारा सिखाई गई अनेकों गलत धारणाओं और गलत व्याख्याओं का सही स्वरूप बता और सिखा रहा था। हम प्रभु द्वारा बारम्बार कही गई “तुम सुन चुके हो” या इसके समान कोई बात, और फिर “लेकिन मैं तुम से कहता हूँ” या इसके समान कोई बात को पाते हैं। उस समय के यहूदी समाज में प्रचलित धार्मिक व्यवहार और शिक्षाओं के स्वरूप और अर्थ को बदलने के साथ ही प्रभु ने यह भी कहा कि वह वचन को तोड़ने नहीं, उसे पूरा करने के लिए आया है (मत्ती 5:17-18)। तात्पर्य यह है कि पहाड़ी उपदेश में प्रभु अपने शिष्यों को वचन की गलत शिक्षाओं के स्थान पर वास्तविक और सही शिक्षाओं को बता और सिखा रहा था; और इन शिक्षाओं का एक भाग प्रार्थना से सम्बन्धित शिक्षाएं भी थीं, जिन शिक्षाओं में प्रभु ने पहली बार शिष्यों को प्रार्थना का वह स्वरूप दिया, जिसे हम आज ‘प्रभु की प्रार्थना’ कहते हैं। इसलिए यदि उसे वचन में दिए गए उसके वास्तविक स्वरूप में देखा जाए, तो यह प्रभु की कोई “प्रार्थना” नहीं थी, बल्कि सही रीति से परमेश्वर से प्रार्थना करने से सम्बन्धित एक शिक्षा थी। बाद में जब लूका 11:1-4 में प्रभु के शिष्यों ने प्रभु से निवेदन किया कि वह उन्हें प्रार्थना करना सिखाए, तो फिर से प्रभु ने उसी शिक्षा को, जिसे वह मत्ती 6:9-13 में दे चुका था, उनके सामने दोहराया। जैसा हमने पिछले लेख में ध्यान और विचार किया है, सम्पूर्ण वचन में इन दो स्थानों को छोड़, और कहीं पर भी, किसी भी सन्दर्भ में, यह “प्रार्थना” न तो प्रभु द्वारा और न ही शिष्यों द्वारा फिर कभी कही गई, या किसी भी उद्देश्य से प्रयोग की गई, और न ही इससे सम्बन्धित कोई शिक्षा दी गई। यदि यह वास्तव में प्रभु द्वारा सिखाई गई “प्रार्थना” होती, तो स्वाभाविक है कि इस “प्रार्थना” का बहुत महत्व होता; इसे शिष्यों द्वारा उपयोग किया जाता, औरों को सिखाया जाता, इसकी व्याख्या और महत्व को इसके सही उपयोग और आशीषों को वचन में समझाया जाता। हम पहले के एक लेख में, यूहन्ना 15 के बारे में देख चुके हैं, जहाँ प्रभु ने शिष्यों को सिखाया है कि परमेश्वर से प्रार्थनाओं के सकारात्मक उत्तर पाने के लिए उन्हें क्या करना है। यद्यपि इसके लिए यह एक बहुत उपयुक्त समय तथा सन्दर्भ था, लेकिन प्रभु ने यहाँ पर भी इस ‘प्रभु की प्रार्थना” के बारे में कुछ नहीं कहा, उन्हें इस “प्रार्थना” के बारे में न तो याद दिलाया और न ही कुछ और सिखाया। पत्रियों में भी प्रभु के लोगों के द्वारा प्रार्थना के विषय, आवश्यकता, महत्व, आदि के बारे में कई बातें लिखी गई हैं, लेकिन वहाँ पर भी किसी भी सन्दर्भ में इस “प्रार्थना” का कोई उल्लेख, या उससे मिलने वाली किसी भी शिक्षा के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।

 

इन बातों पर विचार करने से जो बात सामने आती है वह यही है कि यह तथाकथित ‘प्रभु की प्रार्थना’ वास्तव में कोई प्रार्थना नहीं है, वरन प्रार्थना करने के बारे में प्रभु द्वारा दी गई एक शिक्षा है, जिस से सम्बन्धित अन्य बातें हम मत्ती 6:5-15 में पाते हैं। साथ ही मत्ती 6:9-13 का खण्ड, जिसे ‘प्रभु की प्रार्थना’ कहा और माना जाता है, तथा उसी तरह से सिखाया और पालन किया जाता है, वास्तव में प्रार्थना की एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके आधार पर प्रभु के शिष्यों को अपनी प्रार्थनाओं को ढालना और बनाना है; तथा औरों को प्रार्थना करना सिखाना है। प्रभु का उद्देश्य अपने शिष्यों को ऐसे प्रार्थना करना सिखाना था जो प्रभावी हों, कार्यकारी हों; और हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर प्रभु के सच्चे शिष्यों की उन्हीं प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देता है जो परमेश्वर की इच्छा के अनुसार और परमेश्वर के वचन से सुसंगत हों। प्रभु द्वारा दी गई प्रार्थना की इस रूपरेखा के आधार पर माँगी गई प्रार्थनाएं नि:सन्देह परमेश्वर को स्वीकार्य प्रार्थनाएं होंगी, सकारात्मक उत्तर मिलने वाली प्रार्थनाएं होंगी, और लोगों को मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ बनाएंगी, आत्मिक जीवन में उन्नत करेंगी। लेकिन प्रभु द्वारा दिए गए इस कारगर उपाय को शैतान ने बिगाड़ कर लोगों के मन में यह गलत धारणा बैठा दी है कि उनके द्वारा इस रूपरेखा, इस ढाँचे को “प्रार्थना” कहकर, बिना समझे यूँ ही बोलते, दोहराते रहने के द्वारा, उसे एक “मन्त्र” के समान प्रयोग करने के द्वारा, परमेश्वर उन से प्रसन्न हो जाएगा, उन्हें परमेश्वर की आशीषें प्राप्त हो जाएंगी, उनकी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। और क्योंकि ऐसा नहीं होता है, इसलिए लोग प्रार्थना करने से उदासीन, परमेश्वर से अप्रसन्न, और सच्चे मसीही विश्वासी बनने से कतराते हैं। और इससे शैतान का लोगों को प्रभु और उद्धार से दूर रखने का उद्देश्य पूरा हो जाता है।

 

अगले लेख में हम इस तथाकथित “प्रभु की प्रार्थना” की रूपरेखा को, प्रार्थना करने के ढाँचे को समझने का प्रयास करेंगे।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 80


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (22)

    We are studying things related to practical Christian living, and presently are considering the fourth of the four things given in Acts 2:42, prayer, on the basis of the examples and references given in the Bible. In the previous articles, having seen what prayer is, why Christian Believers should continually stay connected to God in prayer, what kind of prayers does God answer in the affirmative, the meaning and utilization of asking “in faith” and “in the name of Jesus,” etc., from the previous article we have begun to consider another wrong concept about the ‘Lord’s Prayer.’ In the previous article we had seen that the Lord Jesus has spoken of this “prayer” (Matthew 6:9-13) for the first time to His disciples as a part of His teachings related to prayer (Matthew 6:5-15) in the Sermon on the Mount; the second time this “prayer” is given is in Luke 11:1-4, when the disciples had requested the Lord to teach them to pray. Other than these two instances, in the whole of the New Testament there is no mention of this ‘Lord’s Prayer,’ nor of using it in any manner, nor of giving any teachings about it at any place. The form and utilization of this “prayer” as practiced by the current Christians, has not been given in the Bible. It was never practiced the way it is being practiced nowadays, amongst the initial Christian Believers and the initial churches. All of these are man-made additions to the Word.


In His Sermon on the Mount, the Lord is telling and teaching His disciples the correct form of the incorrect teachings given to them by the then religious leaders. We find the Lord repeatedly using “you have heard” or something to that effect, and then “but I tell you,” or something to that effect. While changing the form and meaning of the prevalent religious practices of the then Jewish society, the Lord also says that He has not come to break the Law but to fulfill it (Matthew 5:17-18). The implication is that in the Sermon on the Mount, the Lord is telling and teaching His disciples the actual and correct teachings; and a part of these teachings were the teachings related to prayer, and the form of prayer given to the disciples by the Lord, which today is known as the ‘Lord’s Prayer.’ Therefore, if it is seen in the actual form as it has been given in the Word, then it is not prayer said by the Lord, but a teaching or instruction on correctly or appropriately praying to God. Later, when in Luke 11:1-4 the disciples requested the Lord to reach them to pray, then the Lord repeated the same teaching that He had given to them in Matthew 6:9-13 once again. As we have noted and considered in the previous article, other than these two instances, this “prayer” has not been stated anywhere else in the whole of the Word, neither by the Lord, nor by any of His disciples, in any context; nor has it ever been used for any purpose, nor has any teaching been given about it at any time. If it really was a “prayer” taught by the Lord, then quite naturally, it would be something of great significance; the disciples would have used it, would have taught it to others, its exposition and importance and its appropriate use and the consequent blessings would have been taught in God’s Word. We have seen in an earlier article about John chapter 15, where the Lord has taught the disciples what they need to do to receive positive answers from God for their prayers. Though this would have been a very appropriate time and context for this, but here too, the Lord did not say anything related to the ‘Lord’s Prayer’, did not remind the disciples about the “prayer” nor did he teach them anything more about it. Even in the letters, there are many things written by the Lord’s people related to prayer, its necessity, importance etc.; but there too, this “prayer” has never been mentioned in any context, nor has anything been said about any teaching related to it.


On considering these things, the thing that becomes apparent is that this so-called ‘Lord’s Prayer’ in reality, is not a prayer, but is a teaching, an instruction given by the Lord on prayer, and we find the other related instructions in the other verses of Matthew 6:5-15. The section of Matthew 6:9-13, which is popularly known, taught and followed as being the ‘Lord’s Prayer’ is actually an outline, a framework, based on which the disciples of the Lord should mold and construct their prayers, as well as teach others about how to pray. The Lord’s purpose was to teach His disciples how to pray effectively and functionally; and we have seen in the previous articles that even for the true disciples of the Lord, God answers in the affirmative only those prayers that are in His will and consistent with His Word. Prayers said according to this outline or framework given by the Lord will undoubtedly be those that are acceptable to God, and answered affirmatively by Him. This in turn, will make these people firm and steady in their Christian faith, and edify them in their spiritual lives. But Satan has corrupted this Lord given method of effective prayer, and has established this false concept in their hearts that by their ritually and perfunctorily repeating over and over again this outline or framework for effective prayers as a “prayer,” by using it as a chant or a “mantra” God will be pleased with them, and they will receive God’s blessings, their problems will be solved. And since this does not happen, therefore people become disinterested in praying, unhappy with God, and shy away from becoming true Christian Believers. And this serves Satan's purpose of keeping people away from the Lord and salvation very well.


In the next article we will try to understand the outline or framework of this so-called ‘Lord’s Prayer.’


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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सोमवार, 28 अक्तूबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 234

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 79


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (21) 


परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी की इस श्रृंखला के आरम्भ में हमने देखा था कि प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए परमेश्वर के सम्पूर्ण वचन को जानना और मानना आवश्यक है। साथ ही हमने देखा था परमेश्वर के वचन बाइबल कि विभिन्न शिक्षाओं में से तीन प्रकार की शिक्षाओं के सही निर्वाह के साथ मसीही विश्वासियों की वृद्धि, कलीसियाओं की बढ़ोतरी, और मसीहियों की आत्मिक जीवन में उन्नति विशेष रीति से सम्बन्धित रही है। ये तीन प्रकार की शिक्षाएं हैं सुसमाचार से सम्बन्धित शिक्षाएं, इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरम्भिक शिक्षाओं की छः बातें, और व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित शिक्षाएं, जो मुख्यतः प्रेरितों 2 और 15 अध्यायों में दी गई हैं। व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित सात शिक्षाएं प्रेरितों 2 अध्याय में दी गई हैं। इनमें से पहली तीन मसीही विश्वास में आने से सम्बन्धित हैं और पतरस द्वारा किए गए प्रचार के अन्त की ओर, प्रेरितों 2:38-41 में दी गई हैं। फिर प्रेरितों 2:42 में चार बातें दी गई हैं, जिनका आरम्भिक मसीही विश्वासी लौलीन होकर निर्वाह किया करते थे। इन चार में से अब हम, जैसा हमने इससे पहले की तीन शिक्षाओं के बारे में किया है, चौथी शिक्षा, प्रार्थना करने के बारे में वचन में दिए गए उदाहरणों और हवालों से देख और सीख रहे हैं। हमने इन चारों के बारे में देखा है कि आज के अधिकाँश मसीही इन का केवल एक रस्म के समान, औपचारिकता पूरी करने के लिए निर्वाह करते हैं, इसलिए इनकी आशीषों से वंचित रहते हैं, अपने आत्मिक जीवनों में उन्नति नहीं करते हैं, और कलीसियाओं में भी बढ़ोतरी नहीं होती है। प्रार्थना के विषय पर पिछले लेखों में यह देखने के बाद कि प्रार्थना क्या है, हमने बाइबल के आधार पर मसीहियों में व्याप्त कुछ भ्रांतियों पर विचार किया था। हमने परमेश्वर द्वारा प्रार्थनाओं के सकारात्मक उत्तर देने से सम्बन्धित भ्रांतियों के बारे में देखा और समझा है; और आज एक अन्य भ्रांति - ‘प्रभु की प्रार्थना’ के बारे में वचन से कुछ बातों को बहुत संक्षेप में देखेंगे। 


मसीहियों में परमेश्वर से की जाने वाली प्रार्थनाओं में एक बहुत आम प्रार्थना है ‘प्रभु की प्रार्थना’ जिसके बिना शायद ही कोई मसीही आयोजन या उत्सव पूरा होता हो। यह ‘प्रार्थना’ बचपन से ही रटा दी जाती है, और फिर जीवन पर्यन्त बिना उसे, उसके तात्पर्य, उसकी उपयोगिता को समझे, उसे प्रत्येक मसीही कार्यक्रम में बोला जाता है। यदि न बोला जाए तो उपस्थित लोगों को लगता है कि कुछ कमी रह गई है, परमेश्वर की आशीष नहीं मिलेगी। जिसे सामान्यतः ‘प्रभु की प्रार्थना’ कहा जाता है, उसका प्रभु द्वारा पूरे नए नियम में केवल दो बार उल्लेख हुआ है। पहली बार हम प्रभु द्वारा इसे मत्ती 6:9-13 में देखते हैं, जहाँ पहाड़ी उपदेश में प्रभु अपने शिष्यों को प्रार्थना के बारे में सिखा रहा है (मत्ती 6:5-15); और यह ‘प्रभु की प्रार्थना,’ प्रभु द्वारा दी गई प्रार्थना से सम्बन्धित शिक्षाओं का एक भाग है। दूसरी बार हम इसका उल्लेख लूका 11:1-4 में मिलता है, जब शिष्यों ने प्रभु से निवेदन किया कि वह उन्हें प्रार्थना करना सिखाए, और प्रभु ने उन्हें इस ‘प्रार्थना’ को सिखाया। इन दोनों उल्लेखों के अतिरिक्त, न तो प्रभु ने फिर कभी इस ‘प्रार्थना’ को स्वयं बोला, और न ही कहीं लिखा है कि प्रभु के शिष्यों ने प्रार्थना के इन शब्दों को कहीं पर किसी बात के लिए प्रयोग किया। प्रेरितों के काम और पत्रियों में भी कहीं पर इस प्रार्थना का कहीं कोई उल्लेख नहीं है।

 

नए नियम की सभी पत्रियाँ, चाहे वे किसी कलीसिया को लिखी गई हों, अथवा किसी व्यक्ति को, उन्हें वचन की सही शिक्षा देने, और उनकी गलतियों को सुधारने के लिए लिखी गई थीं। इन सभी में इस ‘प्रभु की प्रार्थना’ का कोई उल्लेख न होना ध्यान देने और विचार करने योग्य बात है। आज जिन मसीहियों को प्रार्थना करनी नहीं आती है, वे प्रार्थना करने की औपचारिकता का निर्वाह करने के लिए केवल इस ‘प्रार्थना’ को दोहरा लेते हैं; जब मसीही किसी चिन्ता या परेशानी में होते हैं, तब वे इसे ‘मन्त्र’ के समान जपते रहते हैं; जब भी किसी भी बात के लिए, किसी मसीही कार्यक्रम आयोजन होता है तो उसमें इसे सामूहिक रीति से बोला जाता है; इसे स्मरण रखना और इसे बोल पाना एक तरह से ‘मसीही’ होने की पहचान के समान देखा और समझा जाता है; आदि। किन्तु आज पाई जाने वाली इन बातों की तुलना में, आरम्भिक मसीही विश्वासियों, कलीसियाओं, और प्रेरितों तथा मसीही अगुवों एवं प्रचारकों में इस प्रार्थना से सम्बन्धित इनमें से एक भी बात का न होना हमारे सामने यह बात लाता है कि या तो इस ‘प्रार्थना’ का आज के समान यह प्रयोग वचन से सुसंगत नहीं है, वचन की शिक्षा नहीं है, एक बाद में डाली गई बात है; या फिर परमेश्वर के वचन के लिखे जाने में कुछ कमी रह गई और इस ‘प्रार्थना’, उसके महत्व, और उसके उपयोग से सम्बन्धित बातें लिखी जाने से रह गईं। क्योंकि परमेश्वर का वचन सिद्ध है, बिना किसी त्रुटि का है, अपरिवर्तनीय है, और इसमें किसी सुधार अथवा कुछ भी जोड़े जाने की कोई सम्भावना नहीं है, इसलिए सम्भव निष्कर्ष केवल यही है कि इस ‘प्रभु की प्रार्थना’ का वर्तमान स्वरूप और निर्वाह, इसका आज का यह प्रयोग, प्रभु अथवा पवित्र आत्मा द्वारा सिखाई बात नहीं है, वरन मनुष्यों द्वारा बाद में जोड़ी गई, डाली गई बात है। 


हम अगले लेख में भी इसी विषय पर आगे विचार करेंगे, और ‘प्रभु की प्रार्थना’ के बारे में कुछ और बातों को सीखेंगे।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 79


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (21)


At the beginning of this series on Growth through God’s Word, we had seen that every Christian Believer should learn and obey the whole of God’s Word. We had also seen that of the various teachings of God’s Word, the proper observance of three kinds of teachings has been associated with increase in the number of Christian Believers, growth of the churches, and spiritual edification of the Christian Believers. These three kinds of teachings are, teachings related to the gospel, the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, and teachings related to practical Christian living, which are mainly found in Acts chapter 2 and 15. Seven of these teachings are given in Acts chapter 2. Of these seven the first three are related to coming into the Christina faith and are found towards the end of Peter’s sermon, in Acts 2:38-41. Then, in Acts 2:42, four things are given, which the initial Christian Believers used to observe steadfastly. Of these four, as we have done about the initial three teachings, we are learning about the fourth one, praying, through the examples and references given in the Bible. We have seen that the Christians today observe them more as a ritual, to fulfill a formality, and therefore remain lacking in the blessings, are not edified in their spiritual lives, and the churches do not grow. In the previous few articles, we have learnt what prayer is, and then based on the Bible had considered some misconceptions rampant amongst the Christians related to prayer. We have also seen and learnt about the common and popular misconceptions related to God answering the prayers made to Him in the affirmative. Today we will begin considering about another misconception - ‘The Lord’s Prayer’ very briefly.


Amongst the prayers said by the Christians, a very commonly said prayer is ‘The Lord’s Prayer’ without which hardly any Christian function or occasion is considered complete. This ‘prayer’ is memorized in childhood, and then throughout the lifetime, without knowing, learning, or understanding its meaning, implications, and utility, it is spoken out by rote, in every Christian program. If it is not said, then the people attending the function have a feeling of things being incomplete, and that God’s blessings will not come since it was missed out. We see this prayer was first given by the Lord in His Sermon on the Mount in Matthew 6:9-13, where, when the Lord is teaching His disciples about prayers (Matthew 6:5-15), a part of those teachings is this ‘prayer.’ The second mention of this prayer is in Luke 11:1-4, when the disciples requested the Lord to teach them to pray, and the Lord taught this ‘prayer’ to them. Other than these two instances, neither did the Lord speak this prayer at any time or any place else; nor is it written that the disciples ever used these words, at any time, place or occasion. There is no mention or reference to this prayer, anywhere in the book of Acts or in any of the letters.


All the letters of the New Testament, whether they were written to the churches or to any person, were written to give the right teachings and to correct the wrong teachings amongst them. That this ‘prayer’ is not mentioned in any of them, is something worthy of being taken note of and pondered over. Today, the Christians who do not know how to pray, they merely speak it out by rote to fulfill the formality of having “prayed;” if the Christians get caught in any trouble or problem, they start reciting this prayer like a “chant” or a “mantra;” at all Christian programs, this ‘prayer’ is spoken by rote by the people gathered there; the ability to remember and recite this ‘prayer’ is considered a kind of ‘proof’ of the person being a “Christian,” etc. But in contrast to these things that are seen today related to this ‘prayer,’ not even one of these things were seen or done amongst the initial Christian Believers, churches, Apostles and other Church Elders. This brings a point to ponder over before us, that either this use (rather misuse) of this ‘prayer’ is not consistent with the teachings of God’s Word, is something that was added later. Else, it implies that there was something lacking in the initial writing of God’s Word; the things related to this ‘prayer,’ its importance, its utility, etc. somehow got missed out and were then added in later on. Since God’s Word is perfect, inerrant, unchanging, and there is no scope or possibility of any modification or of adding anything to it; therefore, the only possible conclusion is that the present-day form and observance of this ‘Lord’s Prayer,’ the way it is used today, are not things taught by the Lord or the Holy Spirit, but something that has been added later on by men.


In the next article we will consider further about this topic, and learn some more things related to the ‘Lord’s Prayer.’


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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