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आरम्भिक बातें – 47
बपतिस्मों – 27
पवित्र आत्मा का बपतिस्मा - (5) - दुष्प्रभाव (2)
हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर के वचन बाइबल में, “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा”, तो लिखा है, जो मसीही विश्वासी द्वारा मसीही विश्वास में आते ही पवित्र आत्मा को प्राप्त करना है। किन्तु “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” वचन में कहीं नहीं दिया गया है; और यह पूर्णतः बाइबल के बाहर की बात है, जो बाइबल की शिक्षाओं के साथ कोई मेल नहीं रखती है, वरन उनके विरुद्ध है। इसी प्रकार से हमने यह भी देखा है कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” की गलत धारणा को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बाद एक अतिरिक्त या दूसरा अनुभव कह कर उसे सही ठहराने के प्रयास भी बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं। वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” और उससे संबंधित अन्य गलत शिक्षाओं को स्वीकार करने से मसीही विश्वासी के विश्वास और सेवकाई के जीवन में और भी दुष्प्रभाव आ जाते हैं। बाहरी रूप में धार्मिकता और भक्ति में लिपटी ये सभी गलत शिक्षाएँ चीनी में लिपटे कड़वे घातक जहर के समान हैं। बाइबल के विरुद्ध शिक्षाओं पर आधारित इस अनुचित धारणा पर थोड़ा गहराई और गंभीरता से विचार करने से इस विचारधारा में निहित दुष्प्रभावों को समझना कुछ कठिन नहीं है। पिछले लेख में हमने देखा था कि किस प्रकार से ये मसीही विश्वासियों में भिन्नता और मतभेद उत्पन्न करने का प्रयास है, उनकी मसीही सेवकाई को अप्रभावी करने की चाल है। आज हम इसी गलत शिक्षा के अन्य छिपे हुए दुष्प्रभावों को देखेंगे।
जो अपने आप को अलग से पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए हुए समझते हैं, वे अपने आप को अन्य विश्वासियों से कुछ उच्च (superior) समझने तथा दिखाने लगते हैं; घमण्ड में आ जाते हैं। उन्हें लगता है, और वे जताते भी हैं कि उनमें कुछ विशेष योग्यताएँ हैं, जिन्हें परमेश्वर ने विशेष रीति से पहचाना है और उन्हें पुरस्कृत किया है। और यह उनकी मसीही सेवकाई, तथा संसार में मसीही गवाही और कलीसिया के काम के लिए घातक है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के घमण्ड के साथ कार्य नहीं कर सकता है, उसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। शैतान भी उन्हें गलत शिक्षाओं और बाइबल की गलत व्याख्याओं के द्वारा गलत मार्गों पर डालता और चलाता रहता है, उन से ऐसे व्यवहार करवाता रहता है जो बाइबल की शिक्षाओं के अनुरूप नहीं हैं। ऐसे लोग सामान्यतः मनुष्यों और मनुष्यों की शिक्षाओं का पालन करते हुए देखे जाते हैं, न कि परमेश्वर और उसके वचन का।
ऐसे लोगों का मुख्य कार्य विचित्र शारीरिक गतिविधियों और हावभाव को करना तथा दर्शाना, तथा मुँह से विचित्र बारंबार दोहराई जाने वाली आवाजों - जिन्हें वे “आत्मिक भाषा” कहते हैं, को निकालना होता है - जब कि इनमें से किसी भी बात का बाइबल से कोई समर्थन नहीं है, केवल उनकी अपनी गढ़ी हुई व्याख्याओं का ही समर्थन है। पापों से पश्चाताप और उद्धार के बारे में बताने और सिखाने की बजाए, उनके प्रचार और शिक्षाओं का मुख्य विषय ये शारीरिक गतिविधियाँ, शारीरिक चंगाइयां, और भौतिक लाभ तथा सांसारिक सामग्री एकत्रित करना होता है। उन्हें उनकी गलती का एहसास करवाना, उन्हें दीन होकर अपने गलत कार्यों के लिए पश्चाताप करवाना, और जिन गलत गतिविधियों एवं व्यवहार में वे पड़ गए हैं उस से उन्हें पश्चाताप के साथ निकालना बहुत कठिन होता है। बल्कि, ये लोग औरों को भी अपने समान बाइबल से प्रतिकूल व्यवहार करने के लिए आकर्षित करने के प्रयास में लगे रहते हैं।
इसके विपरीत जिन्होंने यह तथाकथित बपतिस्मा या दूसरा अनुभव नहीं पाया है, और बहुत प्रयास करने के बाद भी उन्हें यह अनुभव नहीं मिला है, और न कभी मिलेगा क्योंकि वास्तविकता में ऐसा कुछ है ही नहीं, उनमें निराशा और हीन भावना आने लगती है; उन्हें अपने विश्वास की वास्तविकता पर और अपने मसीही विश्वासी होने पर संदेह होने लगता है, और वे अपनी सेवकाई में कमज़ोर पड़ने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि वे परमेश्वर द्वारा पहचाने और पुरस्कृत किए हुए नहीं है। दोनों ही स्थितियों में हानि प्रभु के लोगों और उनकी सेवकाई ही की होती है, और लाभ शैतान को मिलता है।
इस विचारधारा से यह गलत समझ भी फैलती है कि अलग सेवकाइयों के लिए अलग वरदानों ही की नहीं वरन अलग या अतिरिक्त सामर्थ्य की भी आवश्यकता होती है। जिसका अभिप्राय यह निकलता है कि कुछ सेवकाई प्रमुख हैं, जिनके लिए विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, और शेष हलकी या गौण हैं, जिनके लिए किसी विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता नहीं है। यह फिर से मसीही सेवकों में दरार और ऊँच-नीच की भावना को जन्म देता है। यह सेवकाई के लिए दिए जाने वाले पवित्र आत्मा के वरदानों के समान होने के महत्व का होने की शिक्षा के बिल्कुल विरुद्ध है। वरदान कोई भी हो, सब मिलकर एक ही देह के अंग हैं, कोई बड़ा या छोटा, अथवा महत्वपूर्ण या गौण नहीं है (रोमियों 12:3-5; 1 कुरिन्थियों 12:4-11, 29-30)। परमेश्वर प्रत्येक को उसे सौंपी गई सेवकाई तथा उस से अपेक्षित कार्य के किए जाने के आधार पर प्रतिफल देगा, न कि वरदानों के अधिक अथवा कम महत्वपूर्ण होने की मन-गढ़ंत धारणा के अनुसार (मत्ती 20:9-15)। पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता के द्वारा ही उसकी सामर्थ्य सभी के लिए समान रीति से उपलब्ध होती है।
हम अगले लेख में देखेंगे कि किस प्रकार से एक अन्य आधार “कितने बपतिस्मे?” के अनुसार भी, “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” बाइबल की शिक्षाओं से कतई मेल नहीं रखता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 47
Baptisms - 27
Baptism OF the Holy Spirit - (5) - Harmful Effects (2)
We have seen in previous articles that the Word of God, the Bible, speaks of the "Baptism with the Holy Spirit", which is the same as receiving the Holy Spirit on coming to Faith in the Lord Jesus. But the phrase “Baptism of the Holy Spirit” is nowhere mentioned; not only is it completely out of the Bible, but is also incompatible with, and against, the teachings of the Bible. Similarly, we have also seen that attempts to justify the wrong notion of "Baptism of the Holy Spirit" by calling it an additional or extra experience, after receiving the Holy Spirit is also not correct according to the teachings of the Bible. Accepting the phrase "Baptism of the Holy Spirit" and its related erroneous teachings brings other harmful effects for the Christian Believer in his life of faith and his ministry. All these wrong teachings are like a sugar-coated bitter, deadly, poisonous pill given with an outward appearance of reverence and spirituality. With a little serious consideration and analysis, it is not difficult to uncover and understand the ill effects of this wrong ideology, which is entirely based on unBiblical teachings. In the last article we have seen how it is an attempt to create differences and divisions among Christians to render their Christian life and ministry ineffective. Today we will see some more of these covert harmful effects of this wrong teaching.
Those who believe that they have received an additional “baptism of the Holy Spirit” begin to consider and show themselves off as superior to other believers; develop a sense of pride about their capabilities, that they are specially acknowledged and approved by God and rewarded. Because God cannot work with man's pride, cannot compromise with it, therefore, this attitude of pride becomes very detrimental to their Christian ministry, life and witnessing, and Church work in the world. Satan too continues to mislead them through various wrong interpretations of the Scriptures and having them behave in a manner not consistent with Biblical teachings. Such people are more often seen to be following men and teachings of men, rather than God and His Word.
The main emphasis of such people is on showing odd physical activities and behavior, and making strange incomprehensible repetitive sounds which they call a “spiritual language” - neither of which has any Biblical support, other than from their own interpretations of the Bible. Instead of teaching and emphasizing about repentance and salvation, the main theme of their preaching and teachings are these physical activities, physical healings, and gaining of material possessions and wealth. It becomes very difficult to have them realize their error, humble themselves, and repent of the wrong practices they have gotten themselves into. Rather, they try to attract others into doing the same unBiblical things that they are doing.
On the other hand, those who have not received this so-called baptism or second experience, even after many efforts; and will never have it either, because actually it is non-existent, they begin to feel depressed and develop an inferiority complex. They begin to doubt the genuineness of their faith and their actually being Christian Believers, and thereby they begin to fall short in their spiritual life and Christian ministry, considering themselves as not favored or approved by God. In both cases, the loss is of the Lord's people and His ministry, and the benefit goes to Satan.
This ideology also spreads the misconception that separate ministries require not only separate gifts but also separate or additional powers. Which implies that some ministries are major, requiring special powers, and the rest are minor or secondary, requiring no special powers. This again gives rise to rifts and inferiority complexes among Christian ministers. This is quite contrary to the teaching of the equal importance of the gifts of the Holy Spirit given for the ministry. Whatever be anyone’s individual gift, they are all part of the same body, no one is big or small, neither more important or less important (Romans 12:3-5; 1 Corinthians 12:4-11, 29-30). God will reward each on the basis of the ministry entrusted to him and work expected from him; and not according to the assumption that their gifts are more important or less important (Matthew 20:9-15). It is through obedience to the Holy Spirit that His power is equally available to all.
We will see in the next article, on another parameter, “how many baptisms?” how “the Baptism of the Holy Spirit” does not match the teachings of the Bible at all.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.