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शुक्रवार, 31 मई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 86

 

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आरम्भिक बातें – 47

बपतिस्मों – 27

पवित्र आत्मा का बपतिस्मा - (5) - दुष्प्रभाव (2)

 

    हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर के वचन बाइबल में, “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा”, तो लिखा है, जो मसीही विश्वासी द्वारा मसीही विश्वास में आते ही पवित्र आत्मा को प्राप्त करना है। किन्तु “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” वचन में कहीं नहीं दिया गया है; और यह पूर्णतः बाइबल के बाहर की बात है, जो बाइबल की शिक्षाओं के साथ कोई मेल नहीं रखती है, वरन उनके विरुद्ध है। इसी प्रकार से हमने यह भी देखा है कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” की गलत धारणा को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बाद एक अतिरिक्त या दूसरा अनुभव कह कर उसे सही ठहराने के प्रयास भी बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं। वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” और उससे संबंधित अन्य गलत शिक्षाओं को स्वीकार करने से मसीही विश्वासी के विश्वास और सेवकाई के जीवन में और भी दुष्प्रभाव आ जाते हैं। बाहरी रूप में धार्मिकता और भक्ति में लिपटी ये सभी गलत शिक्षाएँ चीनी में लिपटे कड़वे घातक जहर के समान हैं। बाइबल के विरुद्ध शिक्षाओं पर आधारित इस अनुचित धारणा पर थोड़ा गहराई और गंभीरता से विचार करने से इस विचारधारा में निहित दुष्प्रभावों को समझना कुछ कठिन नहीं है। पिछले लेख में हमने देखा था कि किस प्रकार से ये मसीही विश्वासियों में भिन्नता और मतभेद उत्पन्न करने का प्रयास है, उनकी मसीही सेवकाई को अप्रभावी करने की चाल है। आज हम इसी गलत शिक्षा के अन्य छिपे हुए दुष्प्रभावों को देखेंगे।

    जो अपने आप को अलग से पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए हुए समझते हैं, वे अपने आप को अन्य विश्वासियों से कुछ उच्च (superior) समझने तथा दिखाने लगते हैं; घमण्ड में आ जाते हैं। उन्हें लगता है, और वे जताते भी हैं कि उनमें कुछ विशेष योग्यताएँ हैं, जिन्हें परमेश्वर ने विशेष रीति से पहचाना है और उन्हें पुरस्कृत किया है। और यह उनकी मसीही सेवकाई, तथा संसार में मसीही गवाही और कलीसिया के काम के लिए घातक है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के घमण्ड के साथ कार्य नहीं कर सकता है, उसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। शैतान भी उन्हें गलत शिक्षाओं और बाइबल की गलत व्याख्याओं के द्वारा गलत मार्गों पर डालता और चलाता रहता है, उन से ऐसे व्यवहार करवाता रहता है जो बाइबल की शिक्षाओं के अनुरूप नहीं हैं। ऐसे लोग सामान्यतः मनुष्यों और मनुष्यों की शिक्षाओं का पालन करते हुए देखे जाते हैं, न कि परमेश्वर और उसके वचन का।

    ऐसे लोगों का मुख्य कार्य विचित्र शारीरिक गतिविधियों और हावभाव को करना तथा दर्शाना, तथा मुँह से विचित्र बारंबार दोहराई जाने वाली आवाजों - जिन्हें वे “आत्मिक भाषा” कहते हैं, को निकालना होता है - जब कि इनमें से किसी भी बात का बाइबल से कोई समर्थन नहीं है, केवल उनकी अपनी गढ़ी हुई व्याख्याओं का ही समर्थन है। पापों से पश्चाताप और उद्धार के बारे में बताने और सिखाने की बजाए, उनके प्रचार और शिक्षाओं का मुख्य विषय ये शारीरिक गतिविधियाँ, शारीरिक चंगाइयां, और भौतिक लाभ तथा सांसारिक सामग्री एकत्रित करना होता है। उन्हें उनकी गलती का एहसास करवाना, उन्हें दीन होकर अपने गलत कार्यों के लिए पश्चाताप करवाना, और जिन गलत गतिविधियों एवं व्यवहार में वे पड़ गए हैं उस से उन्हें पश्चाताप के साथ निकालना बहुत कठिन होता है। बल्कि, ये लोग औरों को भी अपने समान बाइबल से प्रतिकूल व्यवहार करने के लिए आकर्षित करने के प्रयास में लगे रहते हैं। 

    इसके विपरीत जिन्होंने यह तथाकथित बपतिस्मा या दूसरा अनुभव नहीं पाया है, और बहुत प्रयास करने के बाद भी उन्हें यह अनुभव नहीं मिला है, और न कभी मिलेगा क्योंकि वास्तविकता में ऐसा कुछ है ही नहीं, उनमें निराशा और हीन भावना आने लगती है; उन्हें अपने विश्वास की वास्तविकता पर और अपने मसीही विश्वासी होने पर संदेह होने लगता है, और वे अपनी सेवकाई में कमज़ोर पड़ने लगते हैं। उन्हें लगने लगता है कि वे परमेश्वर द्वारा पहचाने और पुरस्कृत किए हुए नहीं है। दोनों ही स्थितियों में हानि प्रभु के लोगों और उनकी सेवकाई ही की होती है, और लाभ शैतान को मिलता है। 

    इस विचारधारा से यह गलत समझ भी फैलती है कि अलग सेवकाइयों के लिए अलग वरदानों ही की नहीं वरन अलग या अतिरिक्त सामर्थ्य की भी आवश्यकता होती है। जिसका अभिप्राय यह निकलता है कि कुछ सेवकाई प्रमुख हैं, जिनके लिए विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, और शेष हलकी या गौण हैं, जिनके लिए किसी विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता नहीं है। यह फिर से मसीही सेवकों में दरार और ऊँच-नीच की भावना को जन्म देता है। यह सेवकाई के लिए दिए जाने वाले पवित्र आत्मा के वरदानों के समान होने के महत्व का होने की शिक्षा के बिल्कुल विरुद्ध है। वरदान कोई भी हो, सब मिलकर एक ही देह के अंग हैं, कोई बड़ा या छोटा, अथवा महत्वपूर्ण या गौण नहीं है (रोमियों 12:3-5; 1 कुरिन्थियों 12:4-11, 29-30)। परमेश्वर प्रत्येक को उसे सौंपी गई सेवकाई तथा उस से अपेक्षित कार्य के किए जाने के आधार पर प्रतिफल देगा, न कि वरदानों के अधिक अथवा कम महत्वपूर्ण होने की मन-गढ़ंत धारणा के अनुसार (मत्ती 20:9-15)। पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता के द्वारा ही उसकी सामर्थ्य सभी के लिए समान रीति से उपलब्ध होती है। 

    हम अगले लेख में देखेंगे कि किस प्रकार से एक अन्य आधार “कितने बपतिस्मे?” के अनुसार भी, “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” बाइबल की शिक्षाओं से कतई मेल नहीं रखता है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 47

Baptisms - 27

Baptism OF the Holy Spirit - (5) - Harmful Effects (2)

 


We have seen in previous articles that the Word of God, the Bible, speaks of the "Baptism with the Holy Spirit", which is the same as receiving the Holy Spirit on coming to Faith in the Lord Jesus. But the phrase “Baptism of the Holy Spirit” is nowhere mentioned; not only is it completely out of the Bible, but is also incompatible with, and against, the teachings of the Bible. Similarly, we have also seen that attempts to justify the wrong notion of "Baptism of the Holy Spirit" by calling it an additional or extra experience, after receiving the Holy Spirit is also not correct according to the teachings of the Bible. Accepting the phrase "Baptism of the Holy Spirit" and its related erroneous teachings brings other harmful effects for the Christian Believer in his life of faith and his ministry. All these wrong teachings are like a sugar-coated bitter, deadly, poisonous pill given with an outward appearance of reverence and spirituality. With a little serious consideration and analysis, it is not difficult to uncover and understand the ill effects of this wrong ideology, which is entirely based on unBiblical teachings. In the last article we have seen how it is an attempt to create differences and divisions among Christians to render their Christian life and ministry ineffective. Today we will see some more of these covert harmful effects of this wrong teaching.


Those who believe that they have received an additional “baptism of the Holy Spirit” begin to consider and show themselves off as superior to other believers; develop a sense of pride about their capabilities, that they are specially acknowledged and approved by God and rewarded. Because God cannot work with man's pride, cannot compromise with it, therefore, this attitude of pride becomes very detrimental to their Christian ministry, life and witnessing, and Church work in the world. Satan too continues to mislead them through various wrong interpretations of the Scriptures and having them behave in a manner not consistent with Biblical teachings. Such people are more often seen to be following men and teachings of men, rather than God and His Word. 


The main emphasis of such people is on showing odd physical activities and behavior, and making strange incomprehensible repetitive sounds which they call a “spiritual language” - neither of which has any Biblical support, other than from their own interpretations of the Bible. Instead of teaching and emphasizing about repentance and salvation, the main theme of their preaching and teachings are these physical activities, physical healings, and gaining of material possessions and wealth. It becomes very difficult to have them realize their error, humble themselves, and repent of the wrong practices they have gotten themselves into.  Rather, they try to attract others into doing the same unBiblical things that they are doing. 


On the other hand, those who have not received this so-called baptism or second experience, even after many efforts; and will never have it either, because actually it is non-existent, they begin to feel depressed and develop an inferiority complex. They begin to doubt the genuineness of their faith and their actually being Christian Believers, and thereby they begin to fall short in their spiritual life and Christian ministry, considering themselves as not favored or approved by God. In both cases, the loss is of the Lord's people and His ministry, and the benefit goes to Satan.


This ideology also spreads the misconception that separate ministries require not only separate gifts but also separate or additional powers. Which implies that some ministries are major, requiring special powers, and the rest are minor or secondary, requiring no special powers. This again gives rise to rifts and inferiority complexes among Christian ministers. This is quite contrary to the teaching of the equal importance of the gifts of the Holy Spirit given for the ministry. Whatever be anyone’s individual gift, they are all part of the same body, no one is big or small, neither more important or less important (Romans 12:3-5; 1 Corinthians 12:4-11, 29-30). God will reward each on the basis of the ministry entrusted to him and work expected from him; and not according to the assumption that their gifts are more important or less important (Matthew 20:9-15). It is through obedience to the Holy Spirit that His power is equally available to all.

    We will see in the next article, on another parameter, “how many baptisms?” how “the Baptism of the Holy Spirit” does not match the teachings of the Bible at all.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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गुरुवार, 30 मई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 85

 

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आरम्भिक बातें – 46

बपतिस्मों – 26

पवित्र आत्मा का बपतिस्मा - (4) - दुष्प्रभाव (1)

 

हम पिछले लेखों में परमेश्वर के वचन बाइबल से देख चुके हैं कि बाइबल में हमेशा ही वाक्यांश “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा” तो लिखा गया है। इस वाक्यांश का अर्थ होता है मसीही विश्वासी का पवित्र-आत्मा में डुबो दिया जाना, यानि कि उसे अंदर-बाहर से परमेश्वर पवित्र-आत्मा से ओतप्रोत कर दिया जाना। किन्तु सामान्यतः प्रयोग किया जाने वाला वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” वचन में कहीं नहीं दिया गया है। न केवल यह पूर्णतः बाइबल के बाहर की बात है, जो बाइबल की शिक्षाओं के साथ कोई मेल नहीं रखती है, वरन बाइबल की शिक्षाओं के विरुद्ध भी है। इसी प्रकार से हमने पिछले लेख में यह भी देखा है कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” की गलत धारणा को पवित्र आत्मा प्राप्त करने के बाद एक अतिरिक्त या दूसरा अनुभव कह कर उसे सही ठहराने के प्रयास भी बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार सही नहीं हैं, वरन इसमें मनुष्य द्वारा परमेश्वर को नियंत्रण कर पाने की अनुचित और ओछी धारणा निहित है, जो एक बार फिर बाइबल की शिक्षाओं के विरुद्ध है। 


आज से हम मसीही विश्वासियों द्वारा, धार्मिकता और भक्ति के आवरण में लिपटे हुए वाक्यांश “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” से संबंधित शिक्षाओं को स्वीकार करने और उस में विश्वास करने के साथ जुड़े हुए दुष्प्रभावों पर विचार करना आरंभ करेंगे। ये सभी दुष्प्रभाव चीनी में लिपटे कड़वे घातक जहर के समान हैं जो मसीही विश्वासी के जीवन, कलीसिया, और मसीही सेवकाई को गंभीर एवं हानिकारक रीति से प्रभावित करते हैं। यदि बाइबल की शिक्षाओं के विरुद्ध गढ़ी गई इस अनुचित धारणा पर थोड़ा गहराई और गंभीरता से विचार किया जाए तो इस विचारधारा में निहित दुष्प्रभावों को समझना कुछ कठिन नहीं है। तब यह विदित हो जाता है कि भक्ति और धार्मिकता के नाम पर यह मसीही विश्वासियों में भिन्नता और मतभेद उत्पन्न करने का शैतानी प्रयास है; उनकी मसीही सेवकाई को अप्रभावी करने की चाल है।


इस का पहला दुष्प्रभाव है कि यह धारणा मसीही विश्वासियों को दो समूहों में विभाजित कर देती है “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” पाए हुए, और न पाए हुए में बाँट देती है। वचन स्पष्ट दिखाता है कि जब भी किसी भी आधार पर मसीही विश्वासियों ने अपने आप को परस्पर भिन्न दिखाने, पृथक करने का प्रयास किया है, तो कलीसिया में परेशानियाँ ही आई हैं, फूट ही पड़ी है, कभी कोई उन्नति नहीं हुई वरन नुकसान ही हुआ है। बाइबल से कुछ उदाहरणों को देखिए:

(i) अगुवों के नाम और अनुसरण के आधार पर अपने आप को चलाने के कारण कुरिन्थुस की मंडली में फूट पड़ी, समस्याएँ उत्पन्न हुईं (1 कुरिन्थियों 1:11-13)। 

(ii) अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार अपने आप को इब्रानी और यूनानी विश्वासी कहने से कलीसिया में फूट और बैर आया, जिसका दुष्प्रभाव प्रथम कलीसिया में भोजन वितरित करने जैसी सामान्य बातों पर भी पड़ा, और इस बुरे प्रभाव के द्वारा शैतान ने प्रेरितों के प्रार्थना और वचन के अध्ययन एवं सेवा को बाधित करने का प्रयास किया (प्रेरितों 6:1-4); जिससे फिर मसीही विश्वास का प्रसार और विस्तार रुक सके। 

(iii) यहूदी और गैर-यहूदी मसीही विश्वासियों के मध्य खींच-तान और अलगाव से सभी प्रेरितों और पौलुस को भी, जूझते ही रहना पड़ा; क्योंकि लोग अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार बने रहना चाहते थे; और यहूदी विश्वासी अपने आप को अन्य-जातियों की अपेक्षा “उच्च कोटि” का जताने का प्रयास करते थे (प्रेरितों 15:1-2, 5, 10-11; इफिसियों 2:17-22)।

 

इसी प्रकार पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए और न पाए हुओं के मध्य, यही स्थिति उत्पन्न करवा कर, शैतान प्रभु के लोगों में परस्पर फूट और मतभेद उत्पन्न करता है। मसीही विश्वासियों के लिए बाइबल की शिक्षा और बुलाहट आरंभ से ही एकता में बने रहने की रही है (प्रेरितों 2:42-47; रोमियों 12:16; 15:5; 1 कुरिन्थियों 1:10; 1 कुरिन्थियों 11:17-20; फिलिप्पियों 2:1-2; 1 पतरस 3:8)। लेकिन इस गलत शिक्षा और उससे संबंधित अन्य गलत बातों के द्वारा मसीहियों तथा कलीसिया के मध्य विभाजन और झगड़े के बीज बोए जाते हैं, जिनसे मसीही सेवकाई पर गंभीर दुष्प्रभाव पड़ता है। बाइबल के विपरीत एवं अनुचित इस शिक्षा के कुछ अन्य दुष्प्रभाव हम अगले लेख में देखेंगे।

    यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 46

Baptisms - 26

Baptism OF the Holy Spirit - (4) - Harmful Effects (1)


    We have seen in previous articles from the Word of God, that it is the phrase "Baptism with the Holy Spirit", that has always been written in the Bible. This phrase implies a Christian Believer’s being immersed into or permeated with the Holy Spirit. But the commonly used phrase “Baptism of the Holy Spirit” is nowhere mentioned in God’s Word. Not only is it completely unBiblical, but it also goes against the teachings of the Bible, and it creates problems with many things in God’s Word. We have also seen in the previous articles that attempts to justify the wrong teachings related to the use of the phrase "Baptism of the Holy Spirit" by calling it an additional second or extra experience, after the first experience of receiving the Holy Spirit is also not correct according to the teachings of the Bible. Rather, it implies the wrong, petty, and unBiblical notion of man being able to manipulate God.

    Today we will begin to consider some of the harmful effects for the Christian Believer of believing in and accepting the phrase "Baptism of the Holy Spirit", that is often presented and taught in the garb of religiosity and reverence. These serious and harmful effects for the Christian Believer, the Church, and Christian Ministry are like deadly, poison that is presented and fed to gullible people as a sugar-coated bitter pill. With a little serious consideration and analysis in some depth, it is not difficult to uncover and understand the ill effects of this wrong and unBiblical notion; and to see that it actually is a satanic attempt to create differences and divisions among Christians in the name of reverence and spirituality; a trick to render their Christian ministry ineffective.

    The first harmful effect is that it divides Christian Believers into two groups - the “haves” and the “have nots”. The “haves” are those who supposedly have received the "baptism of the Holy Spirit"; and the “have nots” are those who have not received it. The Bible, as well as the history of Christianity clearly shows that whenever Christians have tried to differentiate and segregate themselves on any ground, then Christianity has always been in trouble, the Church has split, and has never progressed. Consider some Biblical examples:

    (i) Segregation on the basis of names of the Church leaders and because of following men instead of Christ, led to divisions and problems in the Corinthian Assembly (1 Corinthians 1:11-13). 

    (ii) Because of segregation based on ethnicity, i.e., by calling themselves Hebrew and Greek Believers, serious discord and divisions happened in the first Church, which upset even the basic things like distribution of food, and through this Satan tried to adversely affect the Apostles' ministry of prayer and of studying and teaching God’s Word (Acts 6:1–4); and thereby the growth and spread of Christianity. 

    (iii) All the Apostles and even Paul had to contend with the strife and separation between Jewish and Gentile Christians because of their insistence on maintaining their ethnic individuality; and the Jews unfairly trying to present and project themselves as “superior” than the Gentiles Believers (Acts 15:1-2, 5, 10-11; Ephesians 2:17-22). 

    Similarly, by creating a similar situation, between the allegedly baptized of the Holy Spirit and those unbaptized, Satan creates mutual divisions and differences among the people of the Lord. The Biblical teaching and call for the Christian Believers has always been for unity amongst them, right from the very beginning (Acts 2:42-47; Romans 12:16; 15:5; 1 Corinthians 1:10; 1 Corinthians 11:17-20; Philippians 2:1-2; 1 Peter 3:8). But through this and its associated wrong teachings, seeds of divisions and strife are sown amongst Christians and the Church, seriously affecting the Christian Ministry. We will consider some more ill-effects of this unBiblical ideology in the next article.

    If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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बुधवार, 29 मई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 84

 

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आरम्भिक बातें – 45

बपतिस्मों – 25

पवित्र आत्मा से बपतिस्मा - (3) - पृथक अनुभव? - 2

 

वर्तमान में हम “बपतिस्मों” के बारे में अध्ययन कर रहे हैं, जो इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरंभिक बातों में से तीसरी बात है। हम बपतिस्मे से संबंधित एक बहुत उत्सुकता जागृत करने वाले और काफी प्रचार किए जाने वाले विषय - “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” पर वचन से देख रहे हैं। हमने बाइबल में प्रयोग किए गए संबंधित पदों से देखा था कि बाइबल में कहीं पर भी, कभी भी, “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” वाक्यांश का प्रयोग नहीं किया गया है। जब भी, और जहाँ भी प्रयोग हुआ है, “पवित्र आत्मा से बपतिस्मा” वाक्यांश का प्रयोग हुआ है। हमने वचन के उदाहरणों से यह भी देखा था कि “से” और “का” में कितना अन्तर है; और एक छोटे से शब्द के परिवर्तन के द्वारा कैसे सारा अर्थ बदल जाता है। पिछले लेख से हमने इस शब्दों की हेरा-फेरी और गलत शिक्षा के साथ जुड़ी हुई एक और गलत धारणा के बारे में देखना आरंभ किया है, कि तथाकथित “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा”, कुछ लोगों के कहे के अनुसार एक “दूसरा अनुभव” है, अर्थात, पवित्र आत्मा के द्वारा एक भिन्न सामर्थ्य प्रदान करना है। उन लोगों के अनुसार इसकी आवश्यकता लोगों को मसीही सेवकाई के लिए अधिक सामर्थी और प्रभावी करने के लिए होती है। पिछले लेख में हमने देखा है कि इस मन-गढ़न्त शिक्षा का बाइबल से कोई आधार अथवा समर्थन नहीं है। आज हम इस गलत शिक्षा से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों पर विचार करेंगे, और फिर आगे चलकर इन गलत शिक्षाओं के दुष्प्रभावों को देखेंगे।


इससे पहले के लेखों में हम देख चुके हैं, कि बाइबल में, प्रेरितों 1:4-5, 8 में यह स्पष्ट लिखा हुआ है, और इसकी पुष्टि प्रेरितों 11:15-16 में भी की गई है कि पवित्र आत्मा पाना और पवित्र आत्मा से बपतिस्मा एक ही बात को कहने के दो भिन्न तरीके हैं। फिर भी पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाओं को सिखाने और फैलाने वाले, ‘से’ के स्थान पर ‘का’ लगाकर, और इस प्रकार से वाक्यांश के अर्थ को बदलकर, यही सिखाने और दिखाने का प्रयास करते हैं कि न केवल यह एक अलग बात है, वरन यह होना केवल मनुष्य के अपने प्रयासों के द्वारा ही संभव है। फिर अपने इस मन-गढ़ंत आधार पर वे यह प्रचार करते, सिखाते और बल देते हैं कि मसीही सेवकाई में लगे मसीही विश्वासियों को अवश्य ही इस तथाकथित “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” के लिए प्रयास और प्रार्थना करनी चाहिए। यह न केवल विश्वासियों का ध्यान और समय उनकी सेवकाई से हटाकर व्यर्थ बाइबल से बाहर की बात में फंसाना और उन्हें प्रभु के लिए उपयोगी होने से बाधित करना, सेवकाई और प्रभु के लिए उपयोगिता में व्यर्थ का विलंब करवाना है; वरन उनके मनों में यह बात डालना भी है कि वे परमेश्वर को बाध्य कर सकते हैं कि वह उनके लिए उनकी लालसा और इच्छा के अनुसार करें। 


उन लोगों का कहना है कि “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” विश्वासी के अंदर बसे हुए पवित्र आत्मा को सक्रिय कर देता है। इस से यह अभिप्राय हो जाता है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो पश्चाताप और प्रभु में विश्वास करने के साथ ही विश्वासी को परमेश्वर की ओर से दे दिया गया (इफिसियों 1:13-14), वह आकर विश्वासी के अंदर शांत और निष्क्रिय बैठा हुआ होता है, और तब तक इस स्थिति में रहेगा, जब तक कि विश्वासी उसे जागृत कर के सक्रिय और कार्यकारी न कर दे। अर्थात, परमेश्वर पवित्र आत्मा को नियंत्रित करने वाला वह मनुष्य है, जिसमें पवित्र आत्मा विद्यमान है; और मानो परमेश्वर में कोई स्विच लगा हुआ है जिससे उसे चालू किया जा सकता है। जबकि ऐसी कोई शिक्षा पवित्र आत्मा के बारे में प्रभु यीशु ने, न तो यूहन्ना 14 और 16 अध्यायों में अथवा कहीं और, न ही पत्रियाँ लिखने वाले प्रेरितों और शिष्यों ने किसी अन्य स्थान पर कभी भी, कहीं पर भी दी; न ही बाइबल में किसी भी अन्य स्थान पर ऐसी कोई बात कही गई है। यह केवल शैतान के बहकावे में आकर मनुष्य द्वारा अपनी इच्छा पूरी करवाने के लिए परमेश्वर पर हावी होने का प्रयास करना है। 


यदि यह तर्क कि पवित्र आत्मा मिलता तो सभी विश्वासियों को है, जैसा प्रेरितों 2:3-4 में हुआ भी, किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें उनकी सेवकाई के लिए कुछ अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, इसलिए उन्हें एक और अनुभव, “पवित्र आत्मा का बपतिस्मा” प्राप्त करने की आवश्यकता होती है को स्वीकार कर भी लिया जाए, तो यह भी वचन की किसी भी शिक्षा के साथ मेल नहीं खाता है। परमेश्वर पवित्र आत्मा एक ही है; उसकी सामर्थ्य और कार्य सभी में एक ही हैं; परमेश्वर के लोगों के प्रति उसका व्यवहार, उनकी देखभाल, और उनके प्रति ज़िम्मेदारी एक समान ही है; उसके द्वारा सभी मसीही विश्वासियों को दिए गए सभी वरदान एवं सेवाकाइयां सभी के लाभ ही के लिए हैं (1 कुरिन्थियों 12:4-11), बिना किसी भिन्नता या पक्षपात के। तो फिर कुछ लोगों के लिए आवश्यक और अन्यों के लिए आवश्यक नहीं होने की इस एक अतिरिक्त या भिन्न अनुभव की आवश्यकता की धारणा का क्या आधार है? वह भी तब, जब ऐसी कोई शिक्षा बाइबल में कहीं पर नहीं दी गई है।

    इन गलत शिक्षाओं और धारणाओं के दुष्प्रभाव हम अगले लेख में देखेंगे। हम मसीहियों के लिए यह अनिवार्य है कि हम ऐसी गलत शिक्षाओं के प्रति सचेत रहें, और मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः हमारा न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए हमें मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने और उसके वचन का पालन करने वाला बनना अनिवार्य है, न कि मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला और मनुष्यों के शब्दों और गढ़ी हुई शिक्षाओं का पालन करने वाला।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 45

Baptisms - 25

Baptism With the Holy Spirit - (3); A Second Experience? - 2

 

    Presently, we are studying about “Baptisms,” the third of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2. We have been by looking at a very "in demand" and widely preached topic related to baptism - "the baptism of the Holy Spirit." We have seen from the related verses from the Bible that the phrase "baptism of the Holy Spirit" has never ever been used in the Bible. Whenever, and wherever it is used, the phrase "baptism with the Holy Spirit" has been used. We also saw from the examples of Scripture the difference between "with" and "of"; and how a change of a small word changes the whole meaning. Since the previous article we have taken up a misconception associated with this wrong teaching and misuse of words, that the so called "baptism of the Holy Spirit" is allegedly a “second experience”, i.e., a supposedly “another empowering” by the Holy Spirit. This is supposed to be necessary to make people more effective and useful for Christian Ministry. In the last article we have seen that this contrived teaching has no support, no basis from the Bible. Today we will look at some more points related to this wrong teaching; and subsequently we will look at the harmful effects of these wrong teachings.

    In earlier articles, we have seen clearly written in the Bible in Acts 1:4-5, 8 and then affirmed in Acts 11:15-16, that receiving the Holy Spirit and being baptized with the Holy Spirit are two different ways of saying the same thing. Yet those who teach and spread these wrong teachings related to the Holy Spirit, they not only try to teach and show that this "baptism of the Holy Spirit" is a different thing altogether, but also that it is accomplished only through man's own efforts. They do this by substituting the word ‘with' written in this phrase in the Bible with another word 'of', and thereby change the meaning and implication of the phrase. They then teach, preach, and emphasize that all Christians engaged in the ministry must strive and pray for receiving this contrived "baptism of the Holy Spirit." This not only diverts the Believer’s attention and time from their ministry, but also engages them in vain, unBiblical efforts. Thereby, instead of being involved in their Holy Spirit assigned ministry and service for the Lord, by causing them to be involved in unnecessary and unfruitful efforts related to receiving a non-existent thing, they are distracted away from being useful for the Lord. Moreover, it also puts the idea in their minds that they can compel God to do for them according to their own desire and will.

    They say that the “baptism of the Holy Spirit” is the activation of the indwelling Holy Spirit within the Christian Believer. This implies that God's Holy Spirit, which was given by God to the believer at the time of his salvation (Ephesians 1:13-14) by repentance and coming to faith in the Lord, comes and sits quietly and passively inside the believer, and then remains in this dormant non-functional state until the Believer awakens it and makes it active and functional. That is, the Believer in whom the Holy Spirit resides, he has the ability to activate the Holy Spirit, through his efforts; as if God has a switch on Him through which man can turn Him on. Whereas no such teaching implying the “activating” the Holy Spirit by the Lord’s disciples was ever given, at anytime, anywhere in God’s Word. Neither by the Lord Jesus in John chapters 14 and 16 or anywhere else, nor by the apostles and disciples who wrote the epistles; nor is such a thing said anywhere else in the Bible. It is simply man's attempt to dominate God under the guise of spirituality through Satan’s deviousness.

    If the argument that though the Holy Spirit is received by all the Believers, as happened in Acts 2:3-4, but there are some who need some more power for their ministry, so they need a second, or another experience of the Holy Spirit is accepted; i.e., they need the “baptism of the Holy Spirit”, even then this argument too does not go along with any teaching of the Word of God. There is one Holy Spirit; His power and work are one; His behavior, care, and responsibility toward all of God's people is the same; all His gifts and ministry given to the Believers are for the benefit of all (1 Corinthians 12:4-11), without any differentiation or partiality. What then is the basis for this wrong teaching of the requirement of an additional or different experience by some, but not by the others? That too when no such teaching is given anywhere in the Bible.

    We will see the harmful effects of these misconceptions and beliefs in the next article. It is essential for us to be wary of such wrong teachings, and to carefully follow only the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, we will neither be judged by any man, nor on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which not only are vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But every one of us will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), and only on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for us to be pleasing to God, and be obedient to His Word, instead of striving to please men and obeying their word and contrived teachings.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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