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बुधवार, 15 मई 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 70

 

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आरम्भिक बातें – 31

बपतिस्मों – 10

बपतिस्मा - किस को? (1)


बपतिस्मे पर अभी तक के हमारे अध्ययन में हमने बपतिस्मे के उद्देश्य को देखा है कि यह बाहरी और सार्वजनिक रीति से पापों के अंगीकार और पश्चाताप के द्वारा आए भीतरी परिवर्तन की गवाही देना है; यह बताना है कि उसने अपने आप को प्रभु के हाथों में सौंप दिया है जिससे कि उसे आने वाली जीवन की जवाबदेही और प्रतिफलों तथा परिणामों के न्याय के लिए तैयार करे; और यह व्यक्ति द्वारा परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी रहने की प्रतिबद्धता की अभिव्यक्ति है। यहाँ पर, यह ध्यान करना भी उचित होगा की बपतिस्मा क्या नहीं करता है, या, क्या करने के लिए नहीं है। यद्यपि यह बात इस शृंखला के पहले ही लेख, प्रस्तावना, में कही गई थी, फिर भी, पाठकों के लिए ठीक रहेगा कि यह ध्यान रखें कि लोगों में सामान्यतः देखी जाने वाली धारणा, कि बपतिस्मे से व्यक्ति “ईसाई” या “मसीही” बन जाता है, परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाता है, और स्वर्ग में प्रवेश करने के योग्य हो जाता है, की परमेश्वर के वचन बाइबल से कोई पुष्टि अथवा समर्थन नहीं है, यह एक सर्वथा गलत और अनुचित धारणा है। इसी प्रकार की एक और गलत और निराधार धारणा है कि उद्धार प्राप्त करने के लिए बपतिस्मे की आवश्यकता है, बपतिस्मा लेने से व्यक्ति परमेश्वर के परिवार का अंग हो जाता है, और स्वर्ग में उसका प्रवेश निश्चित हो जाता है। आने वाले दिनों में हम उन बाइबल के पदों को भी देखेंगे जिनके अनुचित प्रयोग और गलत व्याख्या के द्वारा इस झूठी धारणा को सही ठहराए जाने के प्रयास किए जाते हैं। आज हम देखेंगे की बपतिस्मा किसे लेना चाहिए, किस का बपतिस्मा होना चाहिए।


सुसमाचारों के वृतांतों में, हम बपतिस्मे को इन वृतांतों के आरंभ में देखते हैं, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के साथ; अर्थात, प्रभु यीशु मसीह की सेवकाई के आरंभ से पहले। प्रभु यीशु के बपतिस्मे के तुरन्त बाद, प्रेरित यूहन्ना यह उल्लेख करता है कि प्रभु यीशु के शिष्य भी बपतिस्मा देते थे (यूहन्ना 4:1-2)। किन्तु फिर, इसके बाद से बपतिस्मे का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। प्रभु यीशु की पृथ्वी की सेवकाई के अन्त में, उसके द्वारा शिष्यों को दी गई महान आज्ञा में, प्रभु ने शिष्यों को सारे संसार में सुसमाचार सुनाने और जो प्रभु के अनुयायी बनते हैं, उन्हें बपतिस्मा देने के लिए कहा (मत्ती 28:19; मरकुस 16:16)। इसके अतिरिक्त, पृथ्वी पर प्रभु यीशु की सेवकाई के दौरान, उनके पुनरुत्थान के बाद भी, ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि किसी का भी बपतिस्मा हुआ हो, न तो प्रभु के द्वारा और न ही उसके शिष्यों के द्वारा। जब प्रभु ने प्रेरितों और अन्य शिष्यों को सेवकाई के लिए भेजा, उन्हें पश्चाताप और परमेश्वर का राज्य निकट होने के संदेश के प्रचार के लिए कहा (मत्ती 10:5-15; मरकुस 6:7-13; लूका 10:1-17), उन्हें बताया की उन्हें किन और कैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा और उन्हें यह कैसे करना होगा। प्रभु ने उन्हें बीमारों को चंगा करने, कोढ़ियों को शुद्ध करने, दुष्टात्माओं को निकालने, और मुरदों तक को जिलाने का अधिकार दिया (मत्ती 10:7); और जब शिष्य वापस लौट कर आए, तब उन्होंने बताया कि वे ये सब कर सके (मरकुस 6:30; लूका 9:10; 10:17)। लेकिन कहीं पर ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि प्रभु ने किसी को बपतिस्मा देने के लिए कहा, या जब प्रभु उनके साथ पृथ्वी पर था, तब शिष्यों ने प्रचार और आश्चर्यकर्म करते समय किसी को बपतिस्मा दिया हो। किन्तु महान आज्ञा में दिए गए निर्देशों के क्रम में, प्रभु ने बपतिस्मे को सुसमाचार प्रचार के तुरंत बाद (मत्ती 28:19), आश्चर्यकर्मों से पहले (मरकुस 16:16-18) रखा है।

    प्रभु यीशु के क्रूस पर अपना बलिदान देने से पहले, उसके अपने जीवन के द्वारा समस्त मानवजाति के पापों की कीमत चुकाने, तीसरे दिन मृतकों में से जी उठने, और इसके द्वारा सारे संसार के सभी लोगों के लिए उद्धार का मार्ग बनाकर उपलब्ध कर देने से पहले, उसने शिष्यों में से किसी को बपतिस्मा देने के लिए नहीं कहा, क्योंकि यह सब होने तक बपतिस्मे का कोई महत्व, कोई औचित्य नहीं था। प्रभु यीशु के अनुयायियों द्वारा बपतिस्मा लेने का महत्व, और उनके जीवनों में ऊपर दिए गए बपतिस्मे के उद्देश्यों का निर्वाह करना तब ही उपयुक्त और प्रभावी हो सका जब समस्त मानवजाति के लिए उद्धार का मार्ग तैयार होकर उपलब्ध हो गया। यह उद्धार और बपतिस्मे को निकट और दृढ़ता से संबंधित तो करता है, किन्तु किसी भी रीति से बपतिस्मे को उद्धार के लिए अनिवार्य शर्त नहीं बनाता है - जैसा की बहुधा गलत समझा, सिखाया, और माना जाता है। महान आज्ञा से संबंधित मत्ती और मरकुस के उपरोक्त दोनों हवालों पर ध्यान कीजिए। दोनों ही हवालों में प्राथमिकता प्रभु यीशु के शिष्य बनाने की है; और फिर, जो शिष्य बन जाए, उसे बपतिस्मा दिया जाना है। प्रभु यीशु का शिष्य होने का दर्जा व्यक्ति को सुसमाचार के संदेश को स्वीकार कर लेने से प्राप्त होता है, उसके बपतिस्मा लेने से नहीं। जो इस प्रकार से शिष्य बन जाते हैं, फिर उन्हें बपतिस्मा दिया जाना है। न कि इसके विपरीत; बपतिस्मा लेने से कोई प्रभु यीशु का शिष्य नहीं बन जाता है, न ही उद्धार प्राप्त करता है। अगले लेख में हम इसे और आगे देखेंगे, परमेश्वर के वचन में दिए गए उदाहरणों की सहायता से।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


The Elementary Principles – 31

Baptisms - 10

Baptism - For Whom? (1)

   

    In our study on baptism so far, we have seen the purpose of baptism is to externally and publicly witness about inner change that has come into a person by his confession and repentance for sins; it is to tell that he has submitted himself into the Lord’s hands, to prepare him for the inevitable accounting of his life and judgment for his rewards and consequences; and is an expression of the person’s commitment to be obedient to God. Here, it would be appropriate to also recall what baptism does not do, or, is not meant to do. Though this had already been stated in the very first article on this series, i.e., in the Prologue, but still, the readers would do well to remember that despite the very common notion amongst the people, that baptism makes one a ‘Christian’, acceptable to God, and worthy of gaining entry into heaven; but Biblically speaking, this is a patently false notion that has no support or affirmation of any kind from God’s Word the Bible. Another similarly false and baseless notion is that baptism is required for salvation, by baptism the baptized person becomes a member of God’s family, and his entry into heaven is guaranteed. In the days to come will also be looking into the various Biblical verses that are misinterpreted and misused in support of this false concept. Today, we will be considering who should take baptism, be baptized. 

    In the Gospel accounts, baptism is seen being given at the beginning of the accounts, by John the Baptist, i.e., prior to the beginning of the ministry of the Lord Jesus. Soon after the Lord’s baptism the Apostle John mentions that the disciples of the Lord Jesus also baptized (John 4:1-2). Then, from there onwards, there is no mention of any baptism. At the end of the earthly ministry of the Lord Jesus, in His Great Commission to the disciples, the Lord asked them to evangelize the world and to baptize those who accepted the Gospel and became His disciples (Matthew 28:19; Mark 16:16). Other than this, in between, i.e., during the time of the Lord’s ministry on earth, and even after His resurrection, there is no mention of anyone being baptized either by Him or His disciples. When the Lord sent the Apostles and other disciples for ministry and preaching the message of repentance and the Kingdom of God being at hand (Matthew 10:5-15; Mark 6:7-13; Luke 10:1-17), He gave them various instructions about what they will face and how to handle situations. He even gave them the power to heal the sick, cleanse the lepers, cast out demons and even raise the dead (Matthew 10:7); and when they came back, they reported that they could do all these things (Mark 6:30; Luke 9:10; 10:17). But there is no mention of the Lord asking the disciples to be baptizing people also, while they preached and worked miracles, when the Lord had sent them out while He was with them on earth; neither did the disciples report about baptizing anyone. But in the sequence of instructions given in the Great Commission, the Lord placed baptism immediately after the Gospel preaching (Matthew 28:19), and before miracles (Mark 16:16-18).

    Before the Lord sacrificed Himself on the Cross of Calvary, paid through His life for the sins of entire mankind, was resurrected the third day, and thereby made available the way to salvation for all people of the whole world, He did not ask the disciples to baptize, since till then it had no significance. The significance of the Lord’s followers taking baptism, the application of the afore-mentioned purposes of baptism in the lives of the followers of the Lord became relevant and effective only after the way for salvation had become ready and available for mankind. This does closely and strongly associate salvation and baptism, but by no stretch of imagination does it make baptism a condition for salvation - as is often misconstrued and wrongly taught. Consider the above-mentioned references of the Great Commission from Matthew and Mark. In both the references the first thing is make followers of Christ Jesus; and then those who become the followers, they are to be baptized. It is the person’s accepting the Gospel message, not his baptism, that grants him this status of being a follower of the Lord Jesus. It is these followers of the Lord Jesus who are to be baptized, and not vice-versa; i.e., baptism does not make anyone a follower of the Lord, nor does it save anyone. In the next article, we will consider this further through the examples given in God’s Word the Bible.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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