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गुरुवार, 16 मार्च 2023

आराधना (12) / Understanding Worship (12)

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आराधना – भ्रष्ट किए जाने से सुरक्षा के लिए


पिछले कुछ लेखों से हम परमेश्वर की आराधना करने के लाभ तथा प्राप्त होने वाली बातों के बारे में देखते आ रहे हैं, और यह भी देखा है कि परमेश्वर क्यों चाहता है कि उसके लोगों की प्राथमिकता आराधना करना हो, न कि केवल प्रार्थना करने वाले ही बने रहना। पिछले तीन लेखों में हमने देखा था कि किस प्रकार से आराधना हमारी प्रार्थनाओं को प्रभावी बनाती है, परमेश्वर में हमारे भरोसे को दृढ़ बनाए रखती है और उन्नत करती है, तथा हमें प्रभु द्वारा दी गई सुसमाचार प्रचार और प्रसार करने की ज़िम्मेदारी को प्रभावी तथा फलवन्त रीति से निर्वाह करने में सहायता करती है। इससे फिर हम शैतान द्वारा परमेश्वर, उसके वचन, और उसके कार्यों पर अविश्वास तथा संदेहों में फंसाए जाकर पाप में गिर जाने से बचे रहते हैं। शैतान मसीही विश्वासियों पर निरंतर हमले करता रहता है कि उन्हें किसी प्रकार से पाप में गिरा और फंसा दे। नया जन्म पाया हुआ मसीही विश्वासी अपना उद्धार तो कभी नहीं खोएगा, किन्तु पाप के कारण अपनी अनन्तकाल की आशीषों की घोर हानि अवश्य उठाएगा; और यदि वह बारंबार समझौते और पाप में पड़ते रहने की प्रवृत्ति रखेगा तो अपने इस ज़िद्दी और बिगड़े हुए व्यवहार के लिए उसे परमेश्वर से ताड़ना भी सहनी पड़ेगी। आज हम एक और लाभ के बारे में देखेंगे, जो हमारे व्यावहारिक मसीही जीवन और प्रभु यीशु मसीह में विश्वास के जीवन के साथ, तथा मसीही विश्वासी के बारंबार संसार के साथ समझौता करते रहने तथा पाप में गिरते रहने से संबंधित है; और जिस के कारण उसे गंभीर तथा स्थाई हानि उठानी पड़ती है। ऐसे में आराधना से मिलने वाला लाभ है कि आराधना हमें भ्रष्ट होने और संसार के साथ समझौता कर के पाप में गिरने से बचाए रखती है।


हम रोमियों 1:21-23 में लिखा हुआ पाते हैं कि “इस कारण कि परमेश्वर को जानने पर भी उन्होंने परमेश्वर के योग्य बड़ाई और धन्यवाद न किया, परन्तु व्यर्थ विचार करने लगे, यहां तक कि उन का निर्बुद्धि मन अन्धेरा हो गया। वे अपने आप को बुद्धिमान जताकर मूर्ख बन गए। और अविनाशी परमेश्वर की महिमा को नाशमान मनुष्य, और पक्षियों, और चौपायों, और रेंगने वाले जन्तुओं की मूरत की समानता में बदल डाला।” यहाँ पर, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, प्रेरित पौलुस एक से बदतर एक, तीन कदम के पतन और फिर उनके दुष्परिणामों (रोमियों 1:24-32) की रूपरेखा देता है। यहाँ पर जिन लोगों की बात हो रही है, यद्यपि वे परमेश्वर को जानते थे, परन्तु न तो उन्होंने उसकी योग्य बड़ाई की, और न ही परमेश्वर के प्रति धन्यवादी हुए। हम पहले देख चुके हैं कि धन्यवाद करना आराधना का सबसे बुनियादी, सबसे साधारण स्वरूप है, और परमेश्वर की बड़ाई या गुणानुवाद करना आराधना का उच्चतम स्वरूप है। इसलिए यह वाक्यांश, “उन्होंने परमेश्वर के योग्य बड़ाई और धन्यवाद न किया” की जा सकने वाली परमेश्वर की हर प्रकार की आराधना के स्वरूपों का सूचक है। किसी भी स्वरूप में परमेश्वर की आराधना न करने के कारण, उन लोगों में, अर्थात जो परमेश्वर को जानते थे किन्तु उसकी आराधना नहीं करते थे, एक के बाद एक तीन प्रकार के प्रभाव आए। ध्यान कीजिए, यहाँ यह नहीं लिखा गया है कि परमेश्वर ने उनके जीवन में कुछ किया; बल्कि पद 24-32 दिखाते हैं कि जो हुआ वह उनके परमेश्वर की आराधना न करने का स्वाभाविक परिणाम था; अर्थात, आराधना का अभाव जीवन में हानिकारक प्रवृत्तियाँ और प्रभाव ले आता है।


यहाँ पर उन विनाशकारी परिणामों तक पहुँचने के, पद 21-23 में दिए गए तीन कदम हैं: पहला, व्यर्थ विचार करने लगना, अर्थात मूर्खता और दुष्टता के विचार मन में उत्पन्न होना; फिर, दूसरा कदम है उनका निर्बुद्धि मन अँधेरा हो गया, अर्थात वे बेपरवाह और बिना समझ-बूझ के कार्य करने लग गए; और तीसरा है, वे अपनी दृष्टि में तो बुद्धिमान किन्तु परमेश्वर की दृष्टि में मूर्ख हो गए, और अपनी ‘बुद्धिमानी’ में उन्होंने परमेंश्वर के स्वरूप और महिमा को ही बदल डाला - वे सच्चे जीवते परमेश्वर से दूर हो गए और उसके स्थान पर अपने लिए अपनी कल्पना और इच्छा के अनुसार ईश्वर बना लिए। परिणाम यह हुआ कि परमेश्वर भी उन से दूर हो गया, और उन्हें उनकी इच्छानुसार करते रहने के लिए छोड़ दिया (पद 24); और फिर यहाँ से लेकर इस अध्याय के अन्त तक एक निरंतर पतन और दुराचार का वर्णन है जिसका अन्त विनाश में होता है। जहाँ आशीष हो सकती थी, वहाँ विनाश आ गया।


यह हमें निर्गमन 32 अध्याय में दिए गए इस्राएलियों के व्यवहार के बारे में ध्यान दिलाता है। उन इस्राएलियों ने परमेश्वर से याचना की थी कि उन्हें मिस्र के दासत्व से छुड़ाए, उन्होंने परमेश्वर के आश्चर्यकर्मों को देखा और अनुभव किया था जिनमें लाल-सागर का दो भाग होना भी सम्मिलित है, उन्होंने उनके प्रति परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा को जाना और अनुभव किया था - वे प्रतिदिन परमेश्वर का दिया हुआ मन्ना खाते थे, उसके द्वारा उपलब्ध करवाया गया पानी पीते थे, उनके समक्ष वह आग के खम्भे और उन पर छाया बनाए रखने वाले बादल के रूप में विद्यमान रहता था। किन्तु फिर भी, जब मूसा परमेश्वर से व्यवस्था और निर्देश लेने के लिए पर्वत पर गया, तो बजाए परमेश्वर द्वारा उन्हें प्रतिदिन उपलब्ध करवाई जा रही आवश्यकताओं की पूर्ति एवं सुरक्षा के लिए उसका धन्यवादी और कृतज्ञ होने के, वे अपने मनों में व्यर्थ विचार करने लगे, जिस परमेश्वर की छाया में वे जी रहे थे, जिसका मन्ना खा रहे थे और पानी पी रहे थे, उन्होंने उसे ही भुला दिया, उससे दूर हो गए, और उपासना करने लिए एक सोने का बछड़ा बना लिया। मूसा के हस्तक्षेप और मध्यस्थता के कारण वे परमेश्वर के प्रकोप से तो बच गए, किन्तु भारी ताड़ना फिर भी सहनी पड़ी।


प्रभु यीशु मसीह ने मत्ती 12:43-45, तथा लूका 11:24-26, में कहा है कि एक बार जब व्यक्ति के हृदय को दुष्टात्मा और उसके प्रभावों से स्वच्छ कर दिया जाता है, तो यदि वह व्यक्ति अपने हृदय को परमेश्वर की भक्ति के विचार और व्यवहार से भरा हुआ और व्यस्त न रखे, तो फिर और दुष्टात्माएं उसमें लौट कर आ जाती हैं, और उसकी दशा पहली वाली से भी बदतर हो जाती है। प्रभु यीशु ने यह भी कहा है कि प्रत्येक बुरी बात मनुष्य के मन ही में से निकल कर आती है (मरकुस 7:18-23)। इसीलिए सुलैमान ने लिखा है कि “सब से अधिक अपने मन की रक्षा कर; क्योंकि जीवन का मूल स्रोत वही है” (नीतिवचन 4:23); तथा पौलुस कहता है कि हम सदा सद्गुण और भक्ति के विचारों को अपने में बनाए रखें (फिलिप्पियों 4:8-9)। यदि हमारे मन परमेश्वर और उसके वचन की बातों से भरे हुए नहीं होंगे; यदि हम परमेश्वर पर, उसके वचन पर, निरंतर विचार और मनन नहीं करते रहेंगे, यदि हम किसी न किसी प्रकार से परमेश्वर की आराधना में लगे नहीं रहेंगे, तो अवश्य ही शैतान को समय और अवसर मिल जाएगा कि वह अपने विचार, अपनी बातों के बीज हमारे मनों में बो दे; और फिर देर-सवेर उनके विनाशकारी परिणाम हमारे जीवनों में दिखने भी लग जाएँगे। निरंतर आराधना करते रहने की प्रवृत्ति, आराधना का जीवन, आराधना करते रहने का अभ्यास हमें शैतान द्वारा भ्रष्ट करने और विनाश में ले जाने से बचाए रखेगा।

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • व्यवस्थाविवरण 28-29           

  • मरकुस 14:54-72      


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English Translation


Worship - For Safety from Corruption


For the past few articles, we have been looking at the benefits and gains of worshipping God, and why God wants His people to primarily be worshippers, and not just “pray-ers.” In the last three articles we have seen how worshipping makes our prayers effective, helps in developing and maintaining our trust in God, and also makes us more effective and fruitful in our Lord assigned responsibility of preaching and spreading the gospel These, in turn, make us far less vulnerable to Satan’s ploys of making us fall through doubts and unbelief about God, His Word, and His works. Satan continually keeps attacking and trying to make the Christian Believers fall into sin. A Born-Again Christian Believer will never loose his salvation, but because of sin will suffer serious harm to his eternal blessings; and a tendency to repeatedly compromise and fall into sin will also result in chastisement from the Lord for this stubbornness and wayward behavior. Today we will look at another benefit related to our practical Christian life of faith in the Lord Jesus, which is related to a Christian Believer’s repeatedly falling into sin and compromising with the world, and thereby suffering irreparable loss. This benefit through worship is that Worship keeps us safe from getting corrupted and drawn away into the ways of the world.


We see written in Romans 1:21-23,because, although they knew God, they did not glorify Him as God, nor were thankful, but became futile in their thoughts, and their foolish hearts were darkened. Professing to be wise, they became fools, and changed the glory of the incorruptible God into an image made like corruptible man--and birds and four-footed animals and creeping things.” Here, by the Holy Spirit through the Apostle Paul, a three-step decline, followed by the consequences of their lives taking a downhill course from bad to worse (Romans 1:24-32) has been outlined. The people being talked about are those who knew God, but they did not glorify Him, nor were they thankful to God. We have seen earlier that being thankful is the most basic, most simple form of worshipping God, whereas glorifying God is exalting Him, the highest form of worship. So, this phrase “they did not glorify Him as God, nor were thankful” in this verse, covers the whole range of various forms and expressions of worship that people can offer to God. The very lack of worshipping God in any manner, brought three successive changes within them, i.e., the people, who knew God, but did not exercise any form of worship, at all. Please note, it is not that God is doing something to them; rather, verses 24-32 outline the natural consequence of their not worshipping God - lack of worship automatically causes these detrimental things to come in.

 

The three steps to disastrous consequences mentioned in verses 21-23 are: First, their thoughts became futile, i.e., vain and foolish, given to wickedness; Then, Secondly, their foolish or wicked hearts were darkened, i.e., became undiscerning and uncaring; followed by, Thirdly, though they were wise in their own eyes, they became fools before God, and in their own ‘wisdom’, they changed the very form and glory of God - they moved away from the true and living God, and replaced Him with someone of their own imaginations. The consequence was that God too moved away from them, and left them to do what they felt like (verse 24); and from here to the end of the chapter is a steady downhill slide into disaster. What could have been a blessed life, became a disastrous life.


This reminds us of the behavior of the Israelites, in Exodus chapter 32. They had petitioned God for deliverance from the bondage of Egyptians, had seen and experienced God’s various miracles in Egypt as well as the parting of the Red Sea, had seen and experienced His care for them - they were daily eating of the manna and drinking the water He gave, and had the Pillar of Fire and Covering Cloud over them, as visible presence of God with them. But yet, when Moses went up to receive God’s Law and instructions, instead of continuing to trust and thank God for His daily provisions, presence, and security for them, they became futile in their thoughts, denied the God whose cloud was covering them and whose manna they were eating, water they were drinking, moved away from Him and made a golden calf to worship instead. Because of the intervention and pleading by Moses, they could escape God’s wrath, but they had to undergo a severe chastisement.


The Lord Jesus said in Matthew 12:43-45, and Luke 11:24-26, that after a person’s heart is cleansed from evil spirits and their influences, if he does not keep it occupied with godly thoughts and behavior, the evils spirits return back, and the end condition of the person is far worse than the first one. The Lord also said that all evil things, everything that corrupts a man comes from the heart (Mark 7:18-23). Therefore, Solomon exhorts  “Keep your heart with all diligence, For out of it spring the issues of life” (Proverbs 4:23); and Paul says to keep thinking and pondering over virtuous and godly things (Philippians 4:8-9). If our hearts are not filled with God and His Word; if we are not meditating or thinking about God and His Word all the time; if we are not constantly worshipping God in some manner or the other, Satan will find time and opportunity to plant his thoughts, his ideas into our hearts and draw us to corruption and its deleterious consequences. But if our hearts are full of God’s Word and His worship all the time, Satan will not find place or occasion to plant his seeds of corruption and disaster in our lives. An attitude, life, and continual practice of worship will keep us safe from being enticed away by Satan into corruption and disaster.

 

If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.  


Through the Bible in a Year: 

  • Deuteronomy 28-29

  • Mark 14:54-72



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