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बुधवार, 13 नवंबर 2024

Growth through God’s Word / परमेश्वर के वचन से बढ़ोतरी – 250

 

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मसीही जीवन से सम्बन्धित बातें – 95


मसीही जीवन के चार स्तम्भ - 4 - प्रार्थना (37) 


व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित बातों के इस अध्ययन में, हमने देखा है कि प्रेरितों 2 अध्याय में से सात बातें दी गई हैं। पहली तीन बातें पतरस द्वारा भक्त यहूदियों को किए गए प्रचार के अन्त की ओर, प्रेरितों 2:38-41 में हैं, और मसीही विश्वास में आने से सम्बन्धित हैं। शेष चार, आरम्भिक मसीही विश्वासियों द्वारा लौलीन होकर पालन की जाने वाली बातें, जिन्हें “मसीही विश्वास के स्तम्भ” भी कहा जाता है, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं। इस समय हम इन चार में से चौथी बात, प्रार्थना करने, के बारे में सीखते आ रहे हैं। इस विषय के आरम्भिक लेखों में हमने देखा था कि प्रार्थना परमेश्वर से बातचीत करना है; अर्थात अपनी हर बात उससे कहना, और साथ ही उसकी बात को भी सुनना। हमें शैतान द्वारा बहकाए और भरमाए जाने से बचाने के लिए, परमेश्वर ने अपने वचन में कहा है कि उसके लोग हर बात के लिए उसके साथ निरन्तर प्रार्थना, या वार्तालाप करते रहें। फिर हमने प्रार्थना से सम्बन्धित कुछ आम गलतफहमियों के बारे में विचार किया था; और वचन के हवालों से देखा था कि परमेश्वर ने किन के द्वारा की गई, और किन बातों के बारे में की गई प्रार्थनाओं का सकारात्मक उत्तर देने की प्रतिज्ञा की है। एक बहुत आम गलतफहमी के सम्बन्ध में हमने देखा था कि परमेश्वर ने ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं की है कि कोई भी व्यक्ति, किसी भी बात के लिए यदि “विश्वास से” और “यीशु के नाम में” कुछ भी माँगेगा, तो परमेश्वर उसे पूरा कर देगा। इस सन्दर्भ में हमने “विश्वास से” माँगने, तथा “यीशु के नाम” में माँगने के बारे में वचन की बातों से समझा था। हमने यह भी देखा था कि ये गलतफहमियाँ वचन की गलत व्याख्या और समझ के कारण हैं, जो इन बातों से सम्बन्धित वचन के हवालों की, उनके सन्दर्भ का ध्यान रखे बिना, कर दी जाती हैं।

 

इसी प्रकार से मसीहियों में बहुत प्रचलित एक और गलतफहमी भी है, तथा-कथित “प्रभु की प्रार्थना” के बारे में। पिछले कुछ लेखों से हम इसी पर विचार करते आ रहे हैं। हमने देखा है कि पूरे नए नियम में, इस “प्रार्थना” का केवल दो बार उल्लेख है, दोनों ही तब, जब प्रभु ने इसे अपने शिष्यों को सिखाया (मत्ती 6:9-13; लूका 11:1-4)। इन दो हवालों के अतिरिक्त, न तो प्रभु के शिष्यों ने, और न ही मसीही विश्वास में आने वाले आरम्भिक मसीही विश्वासियों ने कभी इसे कहीं पर भी, किसी भी बात के लिए बोला या उपयोग किया। न ही कभी किसी भी पत्री में, प्रभु के लोगों से इस “प्रार्थना” को बोलने, उपयोग करने की कोई शिक्षा दी, और न कभी किसी से पूछा कि उन्होंने यह “प्रभु की प्रार्थना” का प्रयोग क्यों नहीं किया, अथवा क्यों किया। अपने विश्लेषण में हमने देखा है कि यह प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई कोई “प्रार्थना” नहीं है; वरन यह एक रूपरेखा, एक ढाँचा है, जिसके अनुसार उन्हें अपनी व्यक्तिगत प्रार्थनाएं बनानी हैं, ताकि वे परमेश्वर को स्वीकार्य हों, और उनके सकारात्मक उत्तर मिलें। यह रट कर, हर अवसर पर, हर बात के लिए, बिना उसके बारे में जाने, या सोचे-समझे, औपचारिकता पूरी करने के लिए यूँ ही बोल देने वाली बात नहीं है। साथ ही हमने देखा है कि प्रभु द्वारा सिखाई गई इस रूपरेखा में परमेश्वर से माँगने के लिए तीन महत्वपूर्ण बातें दी गई हैं। ये तीन बातें हैं, परमेश्वर पर निर्भर रहना, क्षमाशील और धीरजवन्त बनना, और परमेश्वर द्वारा परीक्षाओं में डाले जाने से बचाए रखना तथा बुराई में न जाने देना। आज शायद ही कोई मसीही होगा जो सच्चे मन से, वास्तविकता में, अपने लिए परमेश्वर से इन तीनों बातों को माँगता होगा। किन्तु इसके विपरीत, लगभग सभी, परमेश्वर से मत्ती 6:19-34 में दी गई उन बातों को प्रार्थना में माँगते हैं, जिनके लिए परमेश्वर ने कहा है कि वह उन्हें उन लोगों को स्वतः ही प्रदान कर देगा जो उसे और उसके राज्य की खोज करने को अपने जीवनों में प्राथमिकता देते हैं। अर्थात, जो माँगना चाहिए, जिसे माँगने के लिए कहा है, वह नहीं माँगते हैं; और जिसे नहीं माँगना है, जो माँगने से नहीं आज्ञाकारिता के परिणामस्वरूप स्वतः ही मिलेगा, उसे माँगते रहते हैं, और फिर अपनी प्रार्थनाओं के निष्फल रहने के लिए निराश होते हैं।

 

प्रेरितों 15 अध्याय में व्यावहारिक मसीही जीवन से सम्बन्धित कुछ और बातें दी गई हैं, जिन पर हम विचार करेंगे। वहाँ जाने से पहले, एक स्पष्टीकरण शेष है, विश्वास से माँगी गई प्रार्थनाओं के सन्दर्भ में। इस बारे में सीखते हुए हमने देखा था कि परमेश्वर के वचन की यह शिक्षा है कि उसके सच्चे, समर्पित, आज्ञाकारी शिष्यों की वे प्रार्थनाएं, जो परमेश्वर के वचन से सुसंगत, तथा उसकी इच्छा के अनुसार होती हैं, परमेश्वर ने केवल उन्हीं का सकारात्मक रीति से उत्तर देने की प्रतिज्ञा की है। किन्तु वचन में हम यह भी देखते हैं कि प्रभु यीशु ने अनेकों बार ऐसे लोगों को चंगा किया, ऐसे लोगों की प्रार्थनाओं का उत्तर दिया, जो उसके शिष्य नहीं थे, केवल अपनी आवश्यकता के लिए उसके पास आए थे, और प्रभु द्वारा आवश्यकता पूरी करने के बाद वे अपने स्थानों को लौट गए, और उनकी प्रभु के शिष्य होने का कोई उल्लेख वचन में नहीं है। और उन्हें चंगा करते समय या उनकी आवश्यकता को पूरा करते समय, प्रभु ने उनसे यही कहा कि उनके विश्वास ने उन्हें चंगा, या उनकी बात को सार्थक किया है। तो फिर क्या ये घटनाएं और उदाहरण प्रार्थनाओं का उत्तर दिए जाने से सम्बन्धित उपरोक्त बात को असत्य प्रमाणित नहीं करती हैं? तर्क और उदाहरण बिलकुल सही हैं, किन्तु एक बार फिर, हमें सन्दर्भ का ध्यान करना चाहिए - तात्कालिक और दूरस्थ, दोनों संदर्भों का, बात तभी स्पष्ट होगी।


ध्यान कीजिए, यह बात केवल प्रभु यीशु मसीह ने सुसमाचारों में कही है। पूरे नए नियम में किसी को भी चंगाई देते समय प्रभु के शिष्यों ने कभी यह नहीं कहा। जैसे हमने प्रेरितों 3 में, पतरस और यूहन्ना के द्वारा जन्म के लँगड़े के चंगे किए जाने के बारे में देखा था, शिष्य हमेशा उनके द्वारा होने वाले आश्चर्यकर्मों का, उन्हें करने की उनमें विद्यमान सामर्थ्य का श्रेय, हमेशा ही परमेश्वर को देते थे; अपनी इस योग्यता का स्त्रोत वे परमेश्वर को ही बताते थे। हमने यूहन्ना 2:24-25 से देखा है, तथा सुसमाचारों की अन्य घटनाओं से भी जानते हैं कि प्रभु यीशु हर एक के मन की बात को जानते थे, किस के मन में क्या है, और क्यों है, उनसे कुछ छिपा नहीं था। साथ ही प्रभु द्वारा इस तरह से जितने भी आश्चर्यकर्म हुए, वे व्यक्ति के प्रभु द्वारा कही गई बात का पालन करने के कारण हुए। व्यक्ति का प्रभु के पास अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आना, प्रभु के प्रति उसके समर्पण का सूचक है; व्यक्ति द्वारा प्रभु के कहे को करने के कारण मिली चंगाई, उसकी प्रभु के प्रति आज्ञाकारिता का सूचक है, और प्रभु का उसे चंगाई देना, उसके विश्वास की सराहना करना, उसे वह चंगाई देना प्रभु की इच्छा में होने का सूचक है। और यही शिष्यों के साथ भी था; जो भी शिष्यों के पास आया, वह विश्वास से आया, शिष्यों ने उसकी चंगाई या आश्चर्यकर्म होने को परमेश्वर के हाथों में सौंपा, और जो किया वह परमेश्वर ने किया, उस व्यक्ति के विश्वास और आज्ञाकारिता कि दशा को जानते हुए किया। अर्थात, व्यक्ति का विश्वास और परमेश्वर की इच्छा दोनों कार्यकारी थे; किसी को भी अपने विश्वास को प्रमाणित करने या उसका दावा करने की आवश्यकता नहीं थी, परमेश्वर स्वतः ही उनके मन की, उनके विश्वास की दशा को जानता था। साथ ही हम यह भी देखते हैं कि न तो प्रभु द्वारा और न ही शिष्यों द्वारा कभी कोई ऐसा आश्चर्यकर्म किया गया या किसी ऐसी प्रार्थना का उत्तर दिया गया जो अनुचित या ओछी हो, अर्थात परमेश्वर के वचन और शिक्षाओं से असंगत हो। इसलिए, जब सन्दर्भ से सम्बन्धित बातों के साथ देखते हैं, तो कहीं को विरोधाभास नहीं मिलता है, बल्कि वचन की सच्चाई और खराई ही प्रमाणित होती है।


अगले लेख से हम प्रेरितों 15 में दी गई व्यावहारिक मसीही जीवन की बातों पर विचार करना आरम्भ करेंगे।

  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु  के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।


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English Translation


Things Related to Christian Living – 95


The Four Pillars of Christian Living - 4 - Prayer (37)


In this study on things related to practical Christian living, we have seen that there are seven things given in Acts chapter 2. The first three are given towards the end of Peter’s sermon to the devout Jews, in Acts 2:38-41, and are related to coming into Christian Faith. The remaining four, the things that the initial Christian Believers observed steadfastly, which are also known as the “Pillars of Christian Faith,” are given in Acts 2:42. Presently, we have been learning about the fourth of these four, i.e., praying. In the initial articles on this topic, we had seen that to pray is to converse with God; i.e., to share with Him about ourselves, and to listen to what He has to say to us. To keep us safe from being misled and deceived by Satan, God has had it written in His Word that His people should continually be praying to Him, i.e., be conversing with Him about everything. Then we had considered about some common misunderstandings related to prayer; and through the references in God's Word, we had seen whose prayers, and prayers about what, God has promised to answer affirmatively. We had considered about a very common misunderstanding about answers to prayers. We saw tthat God has not made any such promise that if anyone prays to Him and asks for anything “in faith” and “in the name of Jesus” then He will fulfill it. In this context we had seen from the Word what it means to ask “in faith” and “in the name of Jesus.” We had also seen that these misunderstandings are because of misinterpreting and misunderstanding the Word, done without keeping the context in mind.


There is another very popular and prevalent misunderstanding amongst Christians, about the so-called “Lord’s Prayer.” For the past few articles, we have been considering about it. We have seen that in the whole of the New Testament, the “prayer” has been mentioned only twice, and both times, it was when the Lord was teaching the disciples about prayer (Matthew 6:9-13; Luke 11:1-4). Except for these two references, there is no mention of either the Lord’s disciples, or the initial Christian Believers ever using it or speaking it. Nor did the people of the Lord, in their letters ever teach the initial Believers this prayer, or to use it, to speak it; neither did anyone ask someone why they did not use or speak this prayer, nor, why did they use or speak it. In our analysis we have seen that this is not a “prayer” that has been given by the Lord to His disciples; rather, it is an outline, a framework, on which they have to build their individual prayers, for them to be acceptable to God and be answered in the affirmative. It is not something meant to be memorized, and then spoken by rote to fulfill a formality on every occasion, for everything, without knowing anything about it or understanding it. We have also seen that in this outline, there are three important things that the Lord has said should be asked from God. These three things are, to be dependent upon God, to be forgiving and patient, to ask that God not lead them into temptation and keep them from evil. Today, hardly any Christian Believer asks God these three things for themselves. But on the contrary, practically everyone asks God for the things given in Matthew 6:19-34; things about which God has said that He will automatically give to those who make seeking Him and His Kingdom the priority in their lives. In other words, that which has been instructed to be asked, is never asked; and that which is not to be asked, for it is meant to be given by God not as an answer to prayer, but automatically as an answer to obedience, is asked for in prayer. And then people become discouraged because of not receiving answers to their prayers.


In Acts chapter 15, there are some other things given that are related to practical Christian living and we will consider them also. But before going there, there is one clarification that remains to be given, regarding the prayers made “in faith.” While learning about this we had seen that God’s Word teaches us that He will answer in affirmative those prayers that are made to Him by His true, surrendered, obedient disciples, and which are in His will and consistent with His Word. But we also see in the Word that the Lord Jesus on many occasions has healed many people, and has answered the prayers of many people who were not His disciples. They had come to Him for their needs, and once the Lord fulfilled their needs, they returned to their places, and there is no mention of them ever having become the disciples of the Lord in the Word. And while healing them or fulfilling their requests, the Lord said to them that their faith had healed them or fulfilled their desire. So, don’t these incidents disprove the above-mentioned statement about God’s answering prayers in the affirmative? The logic and argument, and the examples are very correct, but once again, we should interpret the matter in context - immediate as well the remote, both contexts, only then will we be able to correctly understand the matter.


Take note, it is only the Lord Jesus who has said this thing in the Gospels. In the whole of the New Testament, while healing anyone, none of the Lord’s disciples have ever said this. As we have seen from the incidence of the healing of the man lame since birth by Peter and John, in Acts chapter 3, the disciples always ascribed the power in them and the miracles done through them to God, they always said that the source of their power was God. We have seen from John 2:24-25, and other places in the gospels that the Lord Jesus knew everything about everyone, whatever was in anyone’s heart, and there was nothing that was ever hidden from Him. Moreover, the miracles that happened through the Lord, happened because the concerned person obeyed what the Lord told him to do. The person’s coming to the Lord for his need, shows his surrender to the Lord, the person doing what the Lord said and receiving the healing shows his obedience to the Lord, and the Lord healing him, appreciating, and commending his faith shows that the miracle was done in the will of the Lord. And the same was applicable to the disciples as well; whoever came to the disciples, came in faith, the disciples placed his healing or required miracle into the hands of God, and whatever God did, He did it knowing the state of that person’s faith and obedience. In other words, the person’s faith as well God’s willingness, both were simultaneously at work; and no one had to make any claims about their faith, or prove their faith in any manner; God automatically knew about what was in their hearts and the state of their faith. We also see that in the healings and miracles done by the Lord and by the disciples, there was nothing that was done in answer to any inappropriate or frivolous prayer, i.e., a prayer that was inconsistent with the teachings of God’s Word. Therefore, when the matters are considered in their context, along with the related things, then we do not see any contradiction; rather the truth and integrity of God’s Word is proven and affirmed.


From the next article we will start considering the things related to practical Christian living in Acts chapter 15.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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