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बुधवार, 15 मार्च 2023

आराधना (11) / Understanding Worship (11)

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आराधना – प्रभावी सुसमाचार प्रचार के लिए


पिछले कुछ लेखों से हम परमेश्वर की आराधना करने के लाभ तथा प्राप्त होने वाले बातों के बारे में देखते आ रहे हैं, और यह भी देखा है कि परमेश्वर क्यों चाहता है कि उसके लोगों की प्राथमिकता आराधक बनना हो, न कि केवल प्रार्थना करने वाले ही बने रहना। पिछले दो लेखों में हमने देखा था कि किस प्रकार से आराधना हमारी प्रार्थनाओं को प्रभावी बनाती है तथा परमेश्वर में हमारे भरोसे को दृढ़ बनाए रखती है और उन्नत करती है, जिससे फिर हमारे शैतान द्वारा परमेश्वर, उसके वचन, और उसके कार्यों पर अविश्वास तथा संदेहों में फंसाए जाकर पाप में गिर जाने से बचे रहते हैं। आज हम एक और लाभ के बारे में देखेंगे, जो हमारे व्यावहारिक मसीही जीवन और प्रभु यीशु मसीह में विश्वास के जीवन के साथ संबंधित है; एक ऐसी बात के बारे में जो प्रभु यीशु के शिष्यों के लिए अनिवार्य है - प्रभु यीशु में विश्वास लाने के द्वारा उद्धार पाने के सुसमाचार को फैलाना, जो कि प्रभु यीशु मसीह की, उसके सभी शिष्यों के लिए दी गई आज्ञा है (मत्ती 28:19-20; प्रेरितों1:8)। इस आम धारणा के विपरीत, यह केवल पास्टर या सेमनरी से प्रशिक्षण पाए हुए लोगों के लिए ही नहीं है! जब प्रभु यीशु ने यह आज्ञा दी थी, उस समय न तो कोई सेमनरी थीं और न ही प्रशिक्षण के कोई पाठ्यक्रम, लेकिन फिर भी सभी लोगों को हर परिस्थिति में यह करना ही था (प्रेरितों 8:3-4)। यह प्रभु की आज्ञा है कि जो कोई भी विश्वास के द्वारा उसका शिष्य बने, वह सुसमाचार का प्रचारक भी हो। हम यह कार्य मात्र औपचारिकता पूरी करने के लिए, या एक काम करने भर के लिए कर सकते हैं, और तब यह अप्रभावी तथा व्यर्थ होगा; या हम इसे प्रभावी और सार्थक रीति से कर सकते हैं। जो लोग प्रभु यीशु के शिष्य बनते हैं, उनके द्वारा सुसमाचार प्रचार और प्रसार की यह सेवकाई केवल प्रार्थना ही के द्वारा नहीं, वरन साथ ही आराधना के द्वारा सार्थक और प्रभावी होती है।


प्रभु यीशु ने अपने क्रूस पर चढ़ाए जाने के सन्दर्भ में कहा था कि जब वह ऊंचे पर चढ़ाया जाएगा तब सभी लोगों को अपने पास खींचेगा (यूहन्ना 12:32); इस कथन का प्रतीकात्मक अर्थ एवं उपयोग भी है - जब हम प्रभु यीशु का गुणानुवाद करते हैं, उसे अपनी आराधना के द्वारा अपने जीवन और व्यवहार में ऊँचे पर उठाते हैं, तो यह लोगों को प्रभु की ओर आकर्षित करता है और सुसमाचार प्रचार को प्रभावी बना देता है।


हम प्रेरितों 16 अध्याय में पौलुस और सिलास के फिलिप्पी में जेल में डाले जाने की घटना से देखते हैं कि जब अपनी उस कष्टप्रद और दुखद विपरीत परिस्थिति - ऐसी स्थिति जिसमें सामान्यतः लोग असभ्य भाषा तथा परमेश्वर के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं, में भी उन्होंने प्रभु की स्तुति और आराधना की, भजन गाए, तो न केवल उनके बंधन खुल गए बल्कि वे वहाँ के दारोगा और उसके परिवार को भी प्रभु की ओर आकर्षित कर सके, उन्हें प्रभु में ला सके और फिलिप्पी की कलीसिया की स्थापना हो गई। यदि पौलुस और सिलास आराधना नहीं कर रहे होते, यदि वे शान्त ही पड़े रहते, तो अन्य बंदी तथा दारोगा प्रभु की ओर आकर्षित नहीं होते। यह आराधना ही थी जिसने न केवल उनके बंधन खोल दिए, वरन लोगों के हृदय भी खोल दिये कि वे यीशु को प्रभु ग्रहण कर सके - उनकी आराधना ने सुसमाचार को प्रभावी बना दिया।


प्रेरितों 2 अध्याय में, यहूदियों को प्रचार किए गए पतरस के पहले सुसमाचार सन्देश से 3000 लोगों ने उद्धार पाया; पतरस के इस प्रचार का पहला भाग पूर्णता आराधना है - पतरस पहले उन यहूदियों के पापों के बारे में नहीं बल्कि परमेश्वर के बारे में, उसके गुणों, चरित्र, वचन, भविष्यवाणियों के बारे में, प्रभु यीशु और प्रभु के क्रूस पर चढ़ाए जाने के बारे में बोलता है। पतरस द्वारा प्रभु परमेश्वर का यह गुणानुवाद उसके श्रोताओं के हृदयों को छेद देता है, वे उससे समाधान पूछते हैं, और वह उन लोगों से पापों के लिए पश्चाताप करके यीशु को प्रभु स्वीकार करने और बपतिस्मा लेने के लिए कहता है (प्रेरितों 2:37-38)। यदि उसने पहले प्रभु परमेश्वर की आराधना, उसका गुणानुवाद और स्तुति नहीं की होती, प्रभु यीशु को ऊंचे पर नहीं उठाया होता, तो लोगों के अन्दर पापों के लिए कायल होने का एहसास भी नहीं होता, वे पश्चाताप और उद्धार की बात तक पहुँच ही नहीं पाते।


इसी प्रकार से प्रेरितों 17 अध्याय में, पौलुस अथेने के लोगों को सुसमाचार प्रचार करते हुए, पहले उनके समक्ष प्रभु परमेश्वर का गुणानुवाद करता है - उनके सामने परमेश्वर के गुणों, चरित्र, और व्यवहार का वर्णन करता है, और वहां से उन्हें प्रभु यीशु की ओर ले कर आता है जो उनका सृष्टिकर्ता है और एक दिन न्यायी भी होगा। तब पौलुस उन से आग्रह करता है, और उन्हें यह निर्णय करने तक लेकर आता है कि या तो अभी यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार कर के बच जाएँ, अन्यथा उन्हें एक न्याय के रूप में उसका सामना करना ही पड़ेगा।


प्रभावी सुसमाचार प्रचार केवल आराधना के द्वारा ही संभव है; यीशु नाम को ऊँचे पर उठाने, उसका गुणानुवाद करने के द्वारा। और क्योंकि सुसमाचार प्रचार एवं प्रसार प्रत्येक मसीही विश्वासी की ज़िम्मेदारी है, वे इस से बच नहीं सकते हैं, इसलिए कोई भी मसीही विश्वासी सच्चा आराधक हुए बिना कार्यकारी और प्रभावी नहीं हो सकता है।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • व्यवस्थाविवरण 26-27           

  • मरकुस 14:27-53      


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English Translation


Worship - For Effective Gospel Preaching


For the past few articles, we have been looking at the benefits and gains of worshipping God, and why God wants His people to primarily be worshippers, and not just “pray-ers.” In the last two articles we have seen how worshipping makes our prayers effective and also helps in developing and maintaining our trust in God; which, in turn, makes us far less vulnerable to Satan’s ploys of making us fall through doubts and unbelief about God, His Word, and His works. Today we will look at another benefit related to our practical Christian life of faith in the Lord Jesus; about something mandatory for the disciples of the Lord Jesus - spreading the Gospel of salvation through faith in the Lord Jesus, which is the Lord’s commandment for all of His disciples (Matthew 28:19-20; Acts 1:8). Contrary to the quite commonly held belief, this is not just for the Pastors or those with Seminary training! When the Lord Jesus gave this commandment, there were no Seminaries or training courses, but everybody had to do it anyways (Acts 8:3-4). It was the Lord’s commandment that all those who become His disciples by faith, should also spread the good news of salvation. We can do this as a merely fulfilling a formality, i.e., simply as a duty to be fulfilled, therefore ineffectively and vainly; or we can do it meaningfully and effectively. For those who become the Lord’s disciples, this ministry of preaching and spreading the Gospel is made effective through not just praying, but also through worshipping God.


The Lord Jesus, in context of His crucifixion said that when He is lifted up, He will draw people to Him (John 12:32); but this also has a figurative implication – when we exalt the Lord, when we lift Him up on high in and through our lives, behavior, and words, that will attract the people to Him and the Gospel preaching becomes effective.


We see in the instance of Paul and Silas in jail in Philippi, in Acts 16 – when they sang, praised and worshipped the Lord in their painful and adverse situation - a situation in which people usually use foul language and derogatory expressions against God, not only were they set free from their own bonds, but they could draw the jailor and his family to the Lord, and the Church in Philippi started off. Had Paul and Silas not been worshipping, even if they had just remained silent in their pain and discomfort, the Jailor and the prisoners would not have got attracted to the Lord. It was worship that not only set them free from their bonds, but also opened the hearts of the hearers, to receive Jesus as Lord - worship made the gospel effective.


Peter’s first sermon to the Jews in Jerusalem, in Acts 2, where 3000 people were saved, the first part of the sermon is all worship – Peter first talks not about the sins of those Jews but about God, His attributes, His Word and prophecies, the Lord Jesus and His crucifixion; and then when this exaltation and praise leads the audience to being convicted, he asks them to repent, believe in the Lord Jesus, and be baptized in His name (Acts 2:37-38). If he had not first exalted and praised the Lord, and had not through worship lifted up the Lord Jesus on high, the people would not have come around to being convicted, they would not have come around to repentance and salvation either.


Similarly, in Acts 17, Paul preaching to the Athenians, first exalts the Lord before them – speaking about God’s attributes and qualities, and then leads them to the Lord Jesus as the God he was talking to them about; the One, who not only is their creator, but will also be their judge, and then exhorts them and brings them to the point of their deciding to either repent and be saved now by accepting Jesus as their Savior, or else eventually face Him as their Judge.


 Effective Gospel preaching is only through worship; through exalting and lifting on high the name of Jesus, which then draws people to Him. And since no Believer can escape the responsibility of preaching the gospel; therefore, no Believer can avoid being a worshipper.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.  


Through the Bible in a Year: 

  • Deuteronomy 26-27

  • Mark 14:27-53



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