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गुरुवार, 18 जनवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 144 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 20

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कलीसिया का निर्माण – 11 – प्रभु यीशु मसीह पर – 4

 

    प्रत्येक भला भण्डारी, उसे सौंपी गई ज़िम्मेदारी के बारे में, उसके उद्देश्य एवं उपयोग के बारे में पता करता है, सीखता है, और फिर उस बात को, उसे सौंपी गई ज़िम्मेदारी को भली-भाँति निर्वाह करने के लिए, उचित रीति से उपयोग में लाता है। क्योंकि परमेश्वर ने प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को अपनी कलीसिया का अंग बनाया है और उसे अपनी अन्य सन्तानों के साथ सहभागिता में रखा है, इसलिए, परमेश्वर द्वारा हम मसीही विश्वासियों को दी गई बात के भण्डारी होने के नाते, हम परमेश्वर के वचन बाइबल में से कलीसिया तथा उसकी सन्तानों के साथ सहभागिता रखने के बारे में सीख रहे हैं।

    मसीही विश्वासियों की मण्डली, या प्रभु की कलीसिया के विषय इस अध्ययन में हम मत्ती 16:18 से, जहाँ “कलीसिया” शब्द बाइबल में सबसे पहले प्रयोग हुआ है, कलीसिया के विषय वचन में दी गई बातों को देखते आ रहे हैं। हमने देखा है कि प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली “इस पत्थर”, अर्थात मत्ती 16:16 में पतरस को परमेश्वर से मिले दर्शन “तू जीवते परमेश्वर का पुत्र मसीह है” पर आधारित है। हमने यह भी देखा कि पतरस को मिले इस ईश्वरीय दर्शन में संज्ञा “यीशु” की बजाए “मसीह”, अर्थात “परमेश्वर द्वारा नियुक्त और अभिषिक्त जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता” शब्द के प्रयोग का क्या तात्पर्य एवं महत्व है; और फिर हमने समझा था कि प्रभु यीशु मसीह के जगत का “एकमात्र उद्धारकर्ता” होने का क्या तात्पर्य है। संभव है कि कुछ लोगों को यह विश्लेषण नाहक ही ‘बाल की खाल निकालने’, शब्दों से खेलने, के समान लगता हो। किन्तु अनन्तकाल के दृष्टिकोण और मसीही विश्वासी होने के उद्देश्य की ठीक समझ रखने के लिए वास्तविक मसीही विश्वासी होने को जानना और समझना अत्यावश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है। 

    मत्ती 16:18 में लिखे प्रभु के कहे वाक्य पर ध्यान कीजिए - “...मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा...”; प्रभु के इस वाक्य में तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण हैं:

  • पहली, प्रभु स्वयं ही अपनी कलीसिया बनाएगा, अर्थात उसके बुलाए हुए लोगों को एकत्रित करेगा, उन्हें जो उसे जगत का एकमात्र उद्धारकर्ता मानने वालों के समूह को एकत्रित करेगा। वह यह कार्य किसी और से नहीं करवाएगा, यह ज़िम्मेदारी किसी और को नहीं सौंपेगा, वरन इस स्वयं ही पूरा करेगा। यही इस बात को दिखाता है कि यह कार्य कितना महत्वपूर्ण है, और इसे ठीक से करना कितना आवश्यक है; इसमें किसी भी प्रकार की कोई भी त्रुटि होने, कमी रहने का कोई स्थान, कोई गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए वह सिद्ध, सर्वज्ञानी, सर्वशक्तिमान, सार्वभौमिक प्रभु परमेश्वर इसे स्वयं ही पूरा करेगा।  

  • दूसरी, वह कलीसिया प्रभु यीशु की अपनी होगी; उसे किसी व्यक्ति या स्थान या डिनॉमिनेशन, या किसी अन्य भौतिक, नश्वर, नाशमान बात के नाम या गुण के आधार पर नहीं जानी जाएगी; वह केवल “प्रभु यीशु की कलीसिया” प्रभु यीशु द्वारा उसके लोग होने के लिए बुलाए और एकत्रित किए गए लोगों, और केवल उस ही के नाम से पहचाने जाने वाले लोगों का समूह होगा। 

  • तीसरी, प्रभु ने कहा कि वह ही अपनी इस कलीसिया को ‘बनाएगा’ – उसने यहाँ पर भविष्य काल का उपयोग किया है; जब प्रभु ने यह बात कही कलीसिया उस समय वर्तमान नहीं थी, बनाई जानी थी। प्रभु द्वारा कही गई यह बात प्रेरितों 2 अध्याय में यरूशलेम में पतरस के प्रचार और उस प्रचार के प्रति वहाँ एकत्रित भक्त यहूदियों के द्वारा दी गई प्रतिक्रिया के साथ आरंभ हुई थी। किसी वस्तु को ‘बनाने’ में समय और प्रयास लगता है, उसे उसके पूर्ण होने और उसे अंतिम स्वरूप में लाने या ढालने के लिए एक प्रक्रिया से होकर निकलना पड़ता है। प्रभु की कलीसिया भी प्रभु के द्वारा ‘बनाई’ जा रही है, निर्माणाधीन है, उसमें अभी भी संसार भर से बुलाए हुए लोग जोड़े जा रहे हैं। अभी वह पूर्ण नहीं हुई है। प्रभु उसे बना भी रहा है और जितनी बन गई है, उसे प्रभु निष्कलंक, बेझुर्री भी बनाता जा रहा है, जिससे अन्ततः अपने पूर्ण स्वरूप में वह तेजस्वी, पवित्र और निर्दोष होकर उसके साथ खड़ी हो (इफिसियों 5:27)। अभी प्रभु उसे बनाने में कार्यरत है, कलीसिया ‘निर्माणाधीन’ है, इसीलिए आज हमें प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया में कुछ कमियाँ, दोष, अपूर्णता, और सुधार के योग्य बातें दिखती हैं, जिन्हें सुधारे जाने की आवश्यकता है, और कुछ बातें सही की भी जा रही हैं।

    अगले लेख से हम इन तीनों बातों को, परमेश्वर के वचन बाइबल के आधार पर, बारी-बारी से कुछ और विस्तार से देखेंगे। 

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation


Building the Church – 11 – On The Lord Jesus Christ – 4

 

A good steward finds out and learns about what has been entrusted to him, about its purpose and utility, and then puts that thing to use to worthily fulfil the responsibility given to him. Since God has made every Born-Again Christian Believer a member of His Church and put him in fellowship with His other children, therefore, as stewards of what God has given to us Christian Believers, we are learning about the Church and fellowshipping with God’s children from God’s Word the Bible.

    We have been looking at and considering various aspects from Matthew 16:18, where the word “Church” has been used for the very first time, for the Assembly or Church of the Lord Jesus Christ made up of the Christian Believers. We have seen that the Assembly or Church of the Lord Jesus Christ is built on “this rock” which is the revelation God gave to Peter about Lord Jesus, “You are the Christ, the Son of the living God” (Matthew 16:16). We also saw the significance and meaning of Peter, instead of using the proper noun “Jesus,” using the phrase “the Christ” here, i.e., the “one and only God anointed and appointed savior of the world;” and then we saw what it means to say that the Lord Jesus Christ is the “one and only savior” of the world. It is possible that some people may consider this analysis an attempt of going after the inconsequential nitty-gritty of the matter, merely playing with words. But from the perspective of eternity and of having a proper understanding of what it actually means to be a Christian Believer, it is not just important to know and understand these finer points; rather, they are essential.

    Take note of the sentence “...on this rock I will build My church…” said by the Lord Jesus in Matthew 16:18; there are three very important things in the Lord’s sentence:

  • First, the Lord Jesus Himself will build, i.e., gather together His called-out ones, the ones who accept Him as the “one and only God anointed and appointed savior of the world.” He is not giving this job, this responsibility to anyone else, but will complete it Himself. This by itself shows how important this work is, and how necessary it is to have it done properly; that there is no scope of any error or short-coming in its execution. That is why that perfect, omniscient, omnipotent, sovereign Lord God will do it Himself.

  • Second, that Church will be the Lord’s Church; it will not be known according to any person or place or denomination, or by any other physical, temporal, perishable name or characteristic. It will only be “The Church of the Lord Jesus Christ” made up of people called-out and gathered together by the Lord to be His people, those who will be known by His name.

  • Thirdly, the Lord said that He will ‘build’ His Church - He has used the future tense here; when the Lord said this, the Church was not present, but was to be built. The fulfilment of what the Lord had said here began in Acts 2 with the preaching of Peter and the response to his preaching by the audience, i.e., the devout Jews gathered in Jerusalem at that time. To build a thing takes time and effort; to complete it and give it the final form and shape requires a process to be entered into and completed. The Church of the Lord is also presently ‘under-construction,’ even today people called-out from the world are being added to it. It is not yet complete. The Lord not only is building it, but what has been built, the Lord is working on it to make it without spot or wrinkle, so that ultimately in its fully completed form, it would be a glorious, without any blemish, and holy Church that will stand by His side as His bride (Ephesians 5:27). Since the Lord is still engaged in building His Church, the Church is presently ‘under-construction,’ therefore today in the Church of the Lord Jesus Christ, we see many imperfections, incomplete things, places that need rectification, etc. and many things are in the process of being set-right.

    From the next article, we will look at these three things one by one from God’s Word, in some detail.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

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