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आरम्भिक बातें – 61
हाथ रखना – 9
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों में से चौथी, “हाथ रखने” पर ज़ारी हमारे इस अध्ययन में हम कुछ समुदायों और डिनॉमिनेशंस द्वारा प्रचार की जाने वाली तथा बल दे कर सिखाई जाने वाली एक लोकप्रिय किन्तु झूठी शिक्षा, कि पवित्र आत्मा कलीसिया के अगुवे के द्वारा व्यक्ति पर हाथ रखने से प्राप्त होता है, का विश्लेषण करने और उसे जाँचने की स्थिति पर पहुँचे हैं। यह धारणा बाइबल की इस स्पष्ट शिक्षा के विरोध में है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी में उस के उद्धार पाने के क्षण से ही, उसे स्वतः ही परमेश्वर द्वारा प्रदान कर दिया जाता है, और उस में आ कर निवास करने लगता है। पवित्र आत्मा न तो किसी व्यक्ति के किसी भी प्रकार के कार्य के प्रत्युत्तर में दिया जाता है, और न ही वह किसी मनुष्य की मध्यस्थता के द्वारा दिया जाता है। पवित्र आत्मा प्राप्त करने के लिए किसी को भी और कुछ करने की कोई आवश्यकता नहीं है, सिवाए इस के कि अपने पापों से पश्चाताप करे, प्रभु यीशु के उद्धारकर्ता होने में विश्वास करे और अपने आप को उस की तथा उस के वचन की आज्ञाकारिता में बने रहने के लिए उसे समर्पित कर दे। इसलिए, पवित्र आत्मा प्राप्त करने या करवाने के लिए किसी पर भी हाथ रखने या किसी से हाथ रखवाने की कोई आवश्यकता नहीं है।
जो लोग इस झूठी शिक्षा और गलत सिद्धान्त को प्रचार करते और सिखाते हैं, वे अपनी बात को प्रेरितों के काम पुस्तक में से तीन पदों, प्रेरितों 8:17; 9:17; 19:6 के आधार पर ऐसा करते हैं। यद्यपि अवश्य ही ये तीन पद यह उल्लेख करते हैं कि जिन लोगों पर प्रेरितों ने या कलीसिया के अगुवे ने हाथ रखा, उन्हें पवित्र आत्मा प्राप्त हुआ, परन्तु इन घटनाओं का वास्तविक अर्थ और अभिप्राय यह दिखाना नहीं था कि पवित्र आत्मा को प्राप्त करने के लिए क्या करना है, वरन कुछ भिन्न था। वास्तविक अर्थ को समझने के लिए, हमें बाइबल की कुछ शिक्षाओं और तथ्यों को अच्छे से समझना और ध्यान में रखना पड़ेगा, क्योंकि इन पदों की सही व्याख्या करने पर उन बातों का सीधा प्रभाव और महत्व है। इसीलिए पिछले लेखों में लिखी गई बातों को दोहराते रहना आवश्यक है ताकि उन महत्वपूर्ण बातों के बारे में हमारी याददाश्त ताज़ा और साफ रहे।
हमने पिछले लेखों में “हाथ रखने” के बारे में जो सीखा है उसे और उन बातों के अभिप्रायों को हम संक्षेप में दोहरा लेते हैं। किसी के द्वारा, किसी अन्य पर हाथ रखना, या किसी की ओर हाथ को बढ़ाना, बाइबल में भी, तथा दैनिक व्यवहारिक जीवन में उस व्यक्ति के साथ एकता और मिलाप होने का सूचक है, उसे आश्वस्त करता है कि उस व्यक्ति के साथ समर्थन में खड़े है, और उस के भय एवं आशंकाओं को शान्त करने में सहायक होता है। यद्यपि प्रेरितों के काम पुस्तक में तीन घटनाएं दी गई हैं जहाँ हाथ रखने के द्वारा पवित्र आत्मा दिया गया, किन्तु इन के अतिरिक्त, नए नियम में और कहीं पर भी यह फिर नहीं हुआ है; और न ही पूरे नए नियम में ऐसा करने के द्वारा पवित्र आत्मा प्राप्त करने की कोई शिक्षा दी गई है, इन तीनों घटनाओं के साथ भी ऐसी कोई शिक्षा नहीं दी गई है कि पवित्र आत्मा प्राप्त करने की यही विधि है। हमने, पहली कलीसिया के प्रारम्भ के समय से सम्बन्धित एक अन्य महत्वपूर्ण सामाजिक स्थिति को भी देखा और समझा था, कि उस समय के यहूदियों के दृष्टिकोण से सँसार भर के लोगों की तीन श्रेणियाँ थीं, यहूदी, अन्य जाति, और सामरी; और फिर कुछ ऐसे लोग भी थे जो अभी भी यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अनुयायी थे, यद्यपि यूहन्ना बहुत पहले शहीद हो चुका था। मसीही विश्वास का एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि कलीसिया, अर्थात, वास्तव में नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों का विश्व-व्यापी समूह, जो प्रभु यीशु की दुल्हन और देह भी है (इफिसियों 5:25-30), वह एक सार्वभौमिक इकाई है (इफिसियों 2:13-22); उस में न तो कोई विभाजन अथवा मत-समुदाय हैं (1 कुरिन्थियों 12:13; गलतियों 3:28; इफिसियों 2:11-18; कुलुस्सियों 3:11), और न ही कभी हो सकते हैं। प्रेरितों के काम से लिए गए उपरोक्त तीनों पदों की सही व्याख्या करने के लिए हमें इन सभी बातों को भी ध्यान में रखना होगा।
ध्यान में रखने की एक और महत्वपूर्ण बात है कि, क्रूस पास चढ़ाए जाने से पहले प्रभु यीशु ने अपने अनुयायियों से वायदा किया था कि वह परमेश्वर पिता से कह कर उन्हें पवित्र आत्मा प्रदान करवाएगा, जो हमेशा उन में रहेगा, और मसीही जीवन और सेवकाई से सम्बन्धित सभी बातें उन्हें सिखाएगा (यूहन्ना 14:16, 26)। अपने पुनरुत्थान के बाद, और स्वर्गारोहण के समय, न केवल प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को सारे सँसार के सभी जातियों और लोगों में सुसमाचार ले जाने की महान आज्ञा दी, वरन उन से वायदा भी किया कि वे पवित्र आत्मा प्राप्त करेंगे, उस की सामर्थ्य से परिपूर्ण होंगे, और उस के बाद ही वे सँसार भर में सुसमाचार प्रचार की सेवकाई के लिए निकलें (प्रेरितों 1:5, 8)। पवित्र आत्मा से सम्बन्धित ये वायदे प्रभु यीशु ने अपने अनुयायियों से किए थे, उन से जो उस के प्रति प्रतिबद्ध और समर्पित थे, अर्थात मसीही विश्वासी थे। और परमेश्वर का वचन यह दिखाता है कि जो प्रभु यीशु पर विश्वास लाता है, वह परमेश्वर की सन्तान, उस के परिवार का एक अंग बन जाता है (यूहन्ना 1:12-13)। दूसरे शब्दों में, परमेश्वर द्वारा किसी व्यक्ति को पवित्र आत्मा प्रदान करना, उस व्यक्ति का परमेश्वर की सन्तान होने, परमेश्वर के परिवार का एक अंग होने और प्रभु यीशु मसीह का विश्वासी होने का सूचक है। यह इसे भी दिखाता है कि व्यक्ति प्रभु यीशु की कलीसिया का, प्रभु की दुल्हन और देह का एक भाग है। अर्थात, परमेश्वर से पवित्र आत्मा प्राप्त करना, किसी व्यक्ति में पवित्र आत्मा की उपस्थिति होना, परमेश्वर की ओर से इस बात की पुष्टि करता है कि वह व्यक्ति परमेश्वर के परिवार का सदस्य है, सार्वभौमिक विश्व-व्यापी कलीसिया का एक अंग है, प्रभु यीशु की दुल्हन और देह है; उसे अन्य विश्वासियों से अलग नहीं रखा या देखा जा सकता है।
अगले लेख में, इन सभी बातों को ध्यान में रखते और साथ लेकर चलते हुए, तथा जो कुछ हमने हाथ रखने के बारे में सीखा है, हम उन बातों के अनुसार प्रेरितों के काम के उन तीन पदों का विश्लेषण करेंगे कि हाथ रखने के द्वारा पवित्र आत्मा प्राप्त करने का सही अर्थ क्या है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 61
Laying on of Hands - 9
In our study of the fourth elementary principle, “laying on of hands” given in Hebrews 6:1-2, we are at the point of analyzing and checking out a popular but false teaching associated with the “laying on of hands” emphatically preached and taught by some sects and denominations; i.e., the Holy Spirit is given by the laying on of hands by the Church Elders on to a person. This notion contradicts the clear Bible teaching that the Holy Spirit is automatically given by God to every truly Born-Again Christian Believer at the moment of his salvation. The Holy Spirit is neither given because of any works done by someone, nor through the mediation of any other human being. To receive the Holy Spirit, no one needs to do anything other than repent of sins, believe in the Lord Jesus being the savior, and submit themselves to Him to live in obedience to Him and His Word. Therefore, there is no need or necessity of the laying on of hands by anyone upon others to have them receive the Holy Spirit.
Those who preach and teach this wrong doctrine, base their contention on three verses from the book of Acts, i.e. Acts 8:17; 9:17; 19:6. Although these three verses do mention the Holy Spirit being received by those upon whom the Apostles and Church Elder had placed their hands, but the actual meaning and implication of this happening was not to show how to receive the Holy Spirit, but something quite different. To understand the actual meaning, we need to well understand keep in mind some important Biblical teachings and facts that have a direct bearing on interpreting these verses. Hence the necessity of restating what we have stated before in the earlier articles, to keep the memory about these important things fresh.
Let us recapitulate, what we have learnt about the implications of laying on of hands in the recent articles: the act of someone laying on of hands on another, or extending hands towards another, in the Bible, as well as in our day-to-day life implies conveying a sense of unity and solidarity with the person, of assuring him of standing with him to support him, and helps to comfort people facing fearful or apprehensive situations. While three instances of the Holy Spirit being given by the placing of hands re given in the book of Acts, but this has never been repeated anywhere else in the rest of the New Testament, nor has doing this for receiving the Holy Spirt been taught at any place in the New Testament; not even at the three places in Acts, which mentions this happening. We had seen another important thing about the social situation at the initial time of the first Church, that from the perspective of the Jews, there were three categories of people, the Jews, the Gentiles, and the Samaritans; and then there were also some who were still the followers of John the Baptist, even though John had been martyred quite some time back. Another basic principle of the Christian Faith is that the Church, the world-wide congregation of the truly Born-Again Christian Believers, is the Bride, and the Body of Christ (Ephesians 5:25-30) and is one universal unit (Ephesians 2:13-22); there are no divisions and sects in it (1 Corinthians 12:13; Galatians 3:28; Ephesians 2:11-18; Colossians 3:11), and never can be. We need to keep all of these in mind in when coming to a proper understanding of the above mentioned three verses from Acts.
Another important thing to keep in mind is that before His crucifixion, the Lord Jesus had promised His disciples that He will ask God the Father to give them the Holy Spirit, who would permanently reside in them and would teach them all things pertaining to Christian living and ministry (John 14:16, 26). After His resurrection, and at the time of His ascension, the Lord Jesus had not only given His disciples the Great Commission of taking the gospel to all the nations of whole world, but had also promised to them that they would receive the Holy Spirit, be empowered by Him, and only then were they to go out into the world preaching the gospel (Acts 1:5, 8). These promises related to the Holy Spirit were made by the Lord Jesus to His disciples, to those who were committed to Him, i.e., to the Believers in the Lord Jesus. And God’s Word shows that those who believe in the Lord Jesus, become the children of God, part of His family (John 1:12-13). In other words, the giving of the Holy Spirit by God to a person, signified his being a child of God, a part of God’s family, being one in the fellowship of God’s children, and being a Believer in the Lord Jesus. This also signified being part of the Church of the Lord Jesus, the Bride and Body of the Lord Jesus. Thus, the receiving of the Holy Spirit from God, or the presence of the Holy Spirit in a person was an affirmation by God of the person being a member of His family, of being a part of the Universal Church, of the Bride and Body of the Lord Jesus; he cannot be seen as different from other Believers or kept away from the other Believers.
In the next article we will begin to build up to what the actual meaning of the three verses from Acts is, by analyzing them in light of what we have learnt about the implications of laying on of hands and about receiving the Holy Spirit.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.