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आरम्भिक बातें – 64
हाथ रखना – 12
इब्रानियों 6:1-2 में दी गई छः आरम्भिक बातों में से चौथी बात, “हाथ रखना” पर ज़ारी हमारे इस अध्ययन में, हम किसी के द्वारा किसी पर हाथ रखे जाने, या किसी की ओर हाथ बढ़ाने के अर्थ और अभिप्रायों पर विचार कर रहे हैं, उन का विश्लेषण कर रहे हैं। हमने बाइबल के, तथा सामान्य दैनिक जीवन के उदाहरणों के द्वारा देखा है कि हाथ रखना व्यक्ति के प्रति एकता और मिलाप रखने, उस के साथ खड़े रहने, उसे शान्ति और सान्त्वना देने का भी सूचक है। एक गलत शिक्षा भी है, जिस का प्रचार कुछ समुदायों और डिनॉमिनेशनों के द्वारा बड़ा बल दे कर किया जाता है, कि पवित्र आत्मा प्रेरितों या कलीसिया के अगुवों के हाथ रखने के द्वारा दिया जाता है। ये समुदाय और डिनॉमिनेशन अपनी इस शिक्षा के लिए प्रेरितों 8:17; 9:17; 19:6 को आधार बनाते हैं। यद्यपि इन तीनों पदों में हम देखते हैं कि हाथ रखने के द्वारा पवित्र आत्मा दिया गया, परन्तु ये पद यह नहीं सिखाते हैं कि पवित्र आत्मा इस प्रकार से प्राप्त किया जाता है। पिछले दो लेखों में हमने अन्यजातियों के पवित्र आत्मा पाने (प्रेरितों 10 और 11 अध्याय) और सामरियों के पवित्र आत्मा पाने (प्रेरितों 8:17) से देखा था कि सब के सामने, खुले रूप में, यरूशलेम की कलीसिया के प्रेरितों की उपस्थिति में पवित्र आत्मा का दिया जाना, परमेश्वर की और से इस बात की पुष्टि थी कि एकमात्र सार्वभौमिक कलीसिया के लिए और आने वाले समयों तथा सदा काल के लिए, अन्यजाति तथा सामरी मसीही विश्वासी परमेश्वर के परिवार का अँग हैं, प्रभु यीशु की कलीसिया के सदस्य हैं, और उन के साथ किसी भी तरह का कोई भेद-भाव या भिन्नता नहीं है। आज हम इसी विषय को और आगे बढ़ाएंगे, और शेष दोनों पदों, प्रेरितों 9:17 और 19:6 पर विचार तथा विश्लेषण करेंगे।
इन पदों में लिखा है, “तब हनन्याह उठ कर उस घर में गया, और उस पर अपना हाथ रखकर कहा, हे भाई शाऊल, प्रभु, अर्थात यीशु, जो उस रास्ते में, जिस से तू आया तुझे दिखाई दिया था, उसी ने मुझे भेजा है, कि तू फिर दृष्टि पाए और पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो जाए” (प्रेरितों 9:17), और “और जब पौलुस ने उन पर हाथ रखे, तो उन पर पवित्र आत्मा उतरा, और वे भिन्न-भिन्न भाषा बोलने और भविष्यवाणी करने लगे” (प्रेरितों 19:6)। ये दोनों ही पद प्रेरित पौलुस की सेवकाई से सम्बन्धित हैं। पहला वाला उस के प्रभु यीशु से दमिश्क की मार्ग पर मिलने से सम्बन्धित है, और दूसरा वाला पवित्र आत्मा के निर्देशों के अनुसार अन्यजातियों के मध्य में उस की सेवकाई से सम्बन्धित है। जैसा कि हम जानते हैं, पौलुस, जिसे पहले शाऊल कहते थे, एक प्रशिक्षित फरीसी था, और प्रभु परमेश्वर की सेवा करने के लिए बहुत उत्साही था, परन्तु अधिकाँश अन्य फरीसियों के समान, वह भी यीशु को प्रतिज्ञा किया हुआ मसीह स्वीकार नहीं करता था; इसी लिए वह स्थान-स्थान पर जा कर मसीही विश्वासियों को सताता था, जब तक कि उस का सामना प्रभु से नहीं हो गया और उस का जीवन हमेशा के लिए बदल नहीं गया (प्रेरितों 26:4-19)।
क्योंकि पौलुस के द्वारा मसीही विश्वासियों का सताया जाना सभी को पता था, इस लिए, स्वाभाविक रीति से, जब परमेश्वर ने हनन्याह से जा कर पौलुस से बात करने के लिए कहा, तो वह तैयार नहीं हुआ, जा कर पौलुस से मिलने से बचने के लिए बातें बनाने लगा। लेकिन जब परमेश्वर ने उसे तैयार कर लिया, तो हनन्याह ने अपनी सारी आपत्तियों और पौलुस के विषय अपने प्रतिरोधों को छोड़ दिया, और खुले मन से उस से मिलने जाने के लिए तैयार हो गया। उस से मिलने पर हनन्याह ने उसे “हे भाई शाऊल” कह कर संबोधित किया, उस पर हाथ रखे, सप्रेम उसे परमेश्वर का सन्देश दिया, और विश्वासियों की सहभागिता में उस का स्वागत किया (प्रेरितों 9:10-17)। जब हम केवल एक ही पद, पद 17 को नहीं, वरन पूरी घटना, और इस पद के सन्दर्भ को देखते हैं, तो यह प्रकट है कि हनन्याह वहाँ पौलुस के पास परमेश्वर का सन्देश पहुँचाने और विश्वासियों की सहभागिता में उस का स्वागत करने के लिए आया था, जिस का प्रमाण उसे पवित्र आत्मा दिया जाना था। इसलिए पौलुस के साथ एकता और मिलाप को व्यक्त करने के लिए, उस के साथ खड़े होने और उसे कलीसिया का एक अँग स्वीकार करने को व्यक्त करने के लिए, हनन्याह ने पौलुस पर हाथ रखा। पौलुस पहले ही मसीही विश्वास में आ चुका था, जो उस के द्वारा यीशु से साक्षात्कार होने के बाद यीशु को प्रभु कह कर संबोधित करने, उस की आज्ञा का पालन करने, और प्रभु द्वारा उसे आगे के निर्देश दिए जाने के लिए प्रतीक्षा करने को राज़ी होने (प्रेरितों 9:4-6), आदि से पता चलता है। लेकिन एक बार फिर, जैसा कि हमने पिछले लेख में देखा था, विश्वास में आने पर भी उसे पवित्र आत्मा का नहीं दिया जाना, परमेश्वर द्वारा संभवतः एक उद्देश्य से किया गया था। जब हनन्याह ने, कलीसिया की ओर से, पौलुस के प्रति एकता, मिलाप, और सहभागिता को प्रदर्शित किया, और कलीसिया में उस का स्वागत किया, उसी समय परमेश्वर ने पौलुस को पवित्र आत्मा भी दे दिया, जिसका प्रमाण था पौलुस का विश्वासियों के साथ संगति करना, उस का जीवन परिवर्तित हो जाना, और उसके द्वारा तुरन्त ही प्रभु यीशु के परमेश्वर का पुत्र होने का प्रचार करना आरम्भ करना (प्रेरितों 9:19-20), और यरूशलेम में प्रेरितों द्वारा उसे और उस की सेवकाई को स्वीकार करना (प्रेरितों 9:27-29) था।
पौलुस को कलीसिया में प्रेरित स्वीकार किया गया (प्रेरितों 14:14; 1 कुरिन्थियों 9:1-2)। और परमेश्वर ने उसे अन्यजातियों में सुसमाचार ले जाने की सेवकाई सौंपी (प्रेरितों 9:15; गलतियों 1:16)। अपनी सेवकाई की एक यात्रा में, इफिसुस के क्षेत्र में, पौलुस की भेंट बारह लोगों के एक समूह से हुई, जो अभी भी यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के अनुयायी थे (प्रेरितों 19:1-7)। पौलुस के उन से हुए वार्तालाप (पद 2-5) से यह प्रकट है कि ये नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी नहीं थे, केवल यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्य थे। उन के मध्य पौलुस की सेवकाई से, उन्होंने प्रभु यीशु में विश्वास किया, और उन्हें प्रभु के नाम से बपतिस्मा दिया गया, और तब, जब पौलुस ने उन पर हाथ रखे, अर्थात उन के प्रति एकता, मिलाप, और सहभागिता को प्रदर्शित किया, उन्हें भी पवित्र आत्मा दे दिया गया। एक बार फिर से परमेश्वर ने सब के सामने उन्हें पवित्र आत्मा देने के द्वारा यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्यों के विषय यह प्रकट कर दिया कि जैसे औरों के लिए है, उसी प्रकार से उन के लिए भी परमेश्वर के परिवार में सम्मिलित होने, प्रभु यीशु की कलीसिया का एक अँग बनने के लिए उन्हें कोई रोक नहीं है, उन का स्वागत है, और उन के साथ किसी प्रकार की कोई भिन्नता नहीं की जाएगी।
जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, प्रेरितों के काम पुस्तक के ये तीन पद, अर्थात, प्रेरितों 8:17; 9:17; 19:6, सभी ‘एक-ही-बार’ किये गए काम के उदाहरण हैं, जो पूरे नए नियम में फिर कभी नहीं दोहराए गए; और न ही पूरे नए नियम में उन का उपयोग किया गया, या उदाहरण दिया गया, यह बताने और सिखाने के लिए कि पवित्र आत्मा हाथ रखने के द्वारा दिया जाता है। ये सभी, आरम्भिक कलीसिया में प्रेरितों और कलीसिया के अगुवों के लिए प्रतीकात्मक उदाहरण थे, यह दिखाने के लिए कि सभी कलीसियाओं में यह बात पहुँचा दी जाए कि जो कोई भी अपने पापों से पश्चाताप करता है, और यीशु को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता स्वीकार करता है, वह परमेश्वर के परिवार का एक अँग बन जाता है, और बिना किसी भिन्नता के उसे सब के समान स्वीकार किया जाता है। यह बात कि पवित्र आत्मा प्रभु यीशु में विश्वास में आने पर दिया जाता है, कलीसिया के आरम्भ के समय पतरस द्वारा भक्त यहूदियों को किए गए प्रचार (प्रेरितों 2:5, 38) में बता दी गई थी, और फिर इस की पुष्टि अन्यजातियों के मध्य पतरस की सेवकाई (प्रेरितों 11:17) में भी की गई थी, और फिर इसे नए नियम में अन्य स्थानों पर भी सिखाया गया (प्रेरितों 19:2; रोमियों 8:9; 1 कुरिन्थियों 12;3; गलतियों 3:2; इफिसियों 1:13-14)। पवित्र आत्मा के दिए जाने से सम्बन्धित ऐसा कोई भी प्रचार या शिक्षा जो परमेश्वर के वचन की इस स्पष्ट शिक्षा का विरोध करती है, वह गलत व्याख्या और गलत समझ के कारण है, और उसे तुरन्त ही उचित सुधार कर के परमेश्वर के वचन के अनुरूप किया जाना चाहिए, न कि उस के आधार पर कोई बाइबल से बाहर का सिद्धान्त खड़ा किया जाना चाहिए, और प्रचार किया जाना चाहिए।
हाथ रखने से सम्बन्धित इस श्रृंखला के आरंभ में, हमने उल्लेख किया था कि कुछ समुदायों और डिनॉमिनेशनों के लिए, वाक्यांश “हाथ रखना” का अर्थ केवल नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को बपतिस्मा देने के बाद की गई एक रस्म होता है, और वे इसे अनिवार्य तथा बपतिस्मे को पूरा करने वाली प्रक्रिया मानते हैं। अगले लेख में हम देखेंगे कि परमेश्वर का वचन इस के बारे में क्या कहता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 64
Laying on of Hands - 12
In our ongoing study on the “Laying on of hands,” which is the fourth of the six elementary principles given in Hebrews 6:1-2, we are analyzing and pondering upon the meaning and implications related to the act of laying on of hands, or, extending a hand, by someone towards another. We have seen from Biblical usage as well as in day-to-day life activities that this can also mean or convey being in unity and solidarity with that person, as well as assuring him of standing with him, and comforting him for anything that may be disturbing him. There is also a false teaching, quite emphatically given by some sects and denominations, that the Holy Spirit is given through the laying on of hands by the Apostles or Church Elders. These sects and denominations base their teaching on Acts 8:17; 9:17; 19:6. In these three verses, though we do find the Holy Spirit being given by the laying on of hands, but these verses do not teach that this is how the Holy Spirit is received. In the previous two articles we have seen, through the example of the Gentiles receiving the Holy Spirit (Acts chapters 10 and 11) and the Samaritans receiving the Holy Spirit (Acts 18:17), that giving of the Holy Spirit, publicly, and in presence of the Apostles from the Church in Jerusalem, was an acknowledgement from God, for the whole universal Church and for all times to come, that the Gentile and the Samaritan Believers are also part of God’s family, members of the Church of the Lord Jesus, without any differentiation of any kind. Today we will carry on, on this same theme, and analyze the other two verses, i.e., Acts 9:17 and 19:6.
These verses state: “And Ananias went his way and entered the house; and laying his hands on him he said, ‘Brother Saul, the Lord Jesus, who appeared to you on the road as you came, has sent me that you may receive your sight and be filled with the Holy Spirit.” (Acts 9:17) and “And when Paul had laid hands on them, the Holy Spirit came upon them, and they spoke with tongues and prophesied” (Acts 19:6). Both these verses are related to the ministry of the Apostle Paul; the first one is related to the time of his conversion after his meeting the Lord Jesus on the road to Damascus; and the second one is related to Paul’s ministry amongst the Gentiles, under the directions of the Holy Spirit. As we know, Paul, initially known as Saul, was a learned Pharisee and very zealous for serving the Lord God, but like most of the other Pharisees, he too did not accept Jesus as the promised Messiah; therefore, he went around persecuting the followers of the Lord Jesus, till the Lord met him and his life changed forever (Acts 26:4-19).
Since Paul’s persecution of the followers of the Lord Jesus was well known, therefore, quite naturally, when God had asked Ananias to go and speak to Paul, he was unwilling and had tried to wriggle out of going and meeting Paul. But when convinced by God, Ananias dropped all his objections and apprehensions about Paul, and went to meet him with open arms. On meeting Paul, Ananias addressed him as “Brother Saul,” laid hands on him, lovingly conveyed God’s message to him, and accepted him into the fellowship of the Believers (Acts 9:10-17). As we look at not just the single verse, i.e., verse 17, but the whole episode, and the context of the verse, it is quite evident that Ananias had come to Paul to convey God’s message and welcome him into the fellowship of Believers, which would be evidenced by his receiving the Holy Spirit. So, as an expression of unity and solidarity with Paul, of standing with him and accepting him as part of the Church of the Lord, Ananias had placed his hands on him. Paul had already come into faith, having addressed Jesus as Lord after his encounter with Him, and being willing to obey Him, wait for the Lord to convey further instructions to him after some time (Acts 9:4-6). But once again, as we saw in the last episode, the granting of the Holy Spirit to Him on coming into faith was held back by God, for a purpose. As Ananias conveyed unity and solidarity with Paul on behalf of the church, and welcomed him into the Church, that is when God also gave the Holy Spirit to Paul, which was evidenced by Pauls’ fellowshipping with the Believers, his changed life, and his immediately starting to preach that Jesus is the Son of God (Acts 9:19-20), and the Apostles in Jerusalem also welcoming and accepting him and his ministry (Acts 9:27-29).
Paul was accepted in the Church as an Apostle (Acts 14:14; 1 Corinthians 9:1-2), and God gave him the ministry of taking the gospel to the Gentiles (Acts 9:15; Galatians 1:16). During one of his missionary journeys, in the region of Ephesus, Paul came across was a small group of twelve disciples, who were still the followers of John the Baptist (Acts 19:1-7). From Paul’s conversation with them (verses 2-5), it is evident that these were not Born-Again Christian Believers, but just the disciples of John. Through Paul’s ministering to them, they believed in the Lord Jesus, and were baptized in the Lord’s name, and then when Paul laid his hands on them, i.e. expressed unity and solidarity with them, they received the Holy Spirit. Once again, God made it evident through publicly giving the Holy Spirit to the followers of John the Baptist, that they too are welcome to join the family of God, the Church of the Lord Jesus, in the same manner as others are doing; and they too will be accepted without any differentiation of any kind.
As stated earlier, these three verse from Acts, i.e., Acts 8:17; 9:17; 19:6, are all ‘one-of-a-kind’ examples; never repeated in the whole of the New Testament, never used in the whole of the New Testament to preach, or illustrate that the Holy Spirit is received by the laying on of hands. These were just representative examples for the Apostles, and the Church Elders in the initial Church, to spread the word to other Churches to not differentiate any person in the Church of Christ because of his background. God taught and established to the initial Church and its leaders that in His eyes, everyone who repents of his sins and accepts Jesus as Lord and savior, becomes a member of God’s family, and is treated the same as everyone else. That the Holy Spirit is given on coming into faith in the Lord Jesus, was stated at the beginning of the Church in Peter’s sermon to the devout Jews (Acts 2:5, 38), then affirmed in Peter’s ministry to the Gentiles (Acts 11:17), and taught in the New Testament (Acts 19:2; Romans 8:9; 1 Corinthians 12;3; Galatians 3:2; Ephesians 1:13-14). Any preaching or teaching that contradicts this clear teaching of God’s Word regarding the giving of the Holy Spirit, is because of misinterpretation and misunderstanding the Word of God, and must be appropriately rectified to bring it in line with God’s word, instead of misusing it to give some unBiblical doctrine and preach it.
At the beginning of this series on the laying on of hands, we had mentioned that for some sects and denominations, the term “laying on of hands” only means something that is done after baptizing a Born-Again Christian Believer, and they consider doing this as the necessary and concluding part of baptism. In the next article we will see what God’s Word has to say about this practice.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.