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रविवार, 2 जनवरी 2022

मसीह यीशु की कलीसिया या मण्डली - कलीसिया


शब्दकलीसियाको समझना

मसीही जीवन और सेवकाई को तब ही उचित रीति से समझा और किया जा सकता है, जबमसीहीहोने के तात्पर्य और उद्देश्य को ठीक से समझ लिया जाए। अन्यथा, शैतान हमें अनेकों गलत धारणाओं, शिक्षाओं, और मन-गढ़न्त बातों में फंसा कर परमेश्वर के मार्गों से भटका देगा, और हम इसी भ्रम में पड़े रह जाएंगे कि हम परमेश्वर को स्वीकार्य, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार कार्य कर रहे हैं, और जीवन जी रहे हैं, जब कि वास्तविकता में हम शैतान के बताए और सिखाए अनुसार कर रहे होंगे। हम पहले के लेखों में देख चुके हैं कि बाइबल के अनुसारमसीहीहोने का अर्थ है प्रभु यीशु मसीह का शिष्य होना (प्रेरितों 11:26)। शब्दार्थ एवं पहचान के रूप मेंमसीही” होने की यही सही परिभाषा है, और इसी के अनुसार मसीही या प्रभु यीशु के शिष्य होने को समझा जाना चाहिए, शिष्यता के कर्तव्यों का निर्वाह किया जाना चाहिए। किन्तु इसके साथ ही यह भी जानना और समझना आवश्यक है कि प्रभु यीशु ने संसार में से लोगों कोमसीहीया अपने शिष्य होने के लिए क्यों बुलाया; क्यों उन्हें यह आदर और ज़िम्मेदारी प्रदान की? मसीही जीवन और सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा तथा आत्मिक वरदानों की भूमिका के अध्ययन में हम देख चुके हैं कि परमेश्वर ने अपने प्रत्येक जन के लिए कोई न कोई भला कार्य पहले से निर्धारित कर रखा है (इफिसियों 2:10), और परमेश्वर द्वारा सौंपे गए इस कार्य को करने में सहायता के लिए, उसे सुचारु रीति से करवाने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रत्येक मसीही विश्वासी को उस की सेवकाई के लिए उपयुक्त आत्मिक वरदान निर्धारित करता एवं प्रदान करता है। मण्डली, या मसीही विश्वासियों के समूह में सब की भिन्न सेवाकाइयाँ और वरदान हैं, किन्तु सभी फिर भी एक ही नाममसीहीके द्वारा जाने, पहचाने, और संबोधित किए जाते हैं। अर्थात, मसीही होना, मसीहियों के अपने समूह में सेवकाई एवं वरदानों के प्रयोग के उन दायित्वों और कार्यों के निर्वाह से बढ़कर या ऊपर के स्तर के बात है; और जो मसीही है, वही परमेश्वर द्वारा सेवकाई और वरदानों के सौंपे जाने का हकदार है। सेवकाई और वरदान उसे मसीही नहीं बनाते हैं, वरन, उसके मसीही होने के द्वारा उस पर आई ज़िम्मेदारियाँ, उससे परमेश्वर की अपेक्षाएं और उद्देश्य, उसे वह सेवकाई और संबंधित वरदान दिए जाने के लिए योग्य ठहराते हैं। मसीहियों से परमेश्वर की अपेक्षाएं और उद्देश्य जानने और समझने के लिए यहकलीसियायामण्डलीके दर्शन को समझना बहुत आवश्यक है। 

जैसा हमने पिछले लेख में देखा है, “कलीसियाशब्द का परमेश्वर के वचन बाइबल में सर्वप्रथम प्रयोग, प्रभु यीशु मसीह द्वारा मत्ती 16:18 में हुआ है -और मैं भी तुझ से कहता हूं, कि तू पतरस है; और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा: और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगेआज सामान्यतःकलीसियाशब्द से लोग एक विशेष भवन या इमारत या बिल्डिंग की कल्पना करते हैं, जहाँ पर ईसाई या मसीही धर्म को मानने वाले अपनी पूजा-अर्चना, आराधना, रीति-रिवाजों के पालन, आदि के लिए एकत्रित होते हैं। और साथ ही इस सामान्य धारणा के अनुसार उनके ध्यान में उस विशेष भवन या इमारत या बिल्डिंग का एक विशिष्ट स्वरूप भी आ जाता है। किन्तु मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवादकलीसियाया मण्डली किया गया है, वह है “ekklesia, एक्कलेसियाजिसका शब्दार्थ होता है, “व्यक्तियों का एकत्रित होना”, याव्यक्तियों का समूहयाव्यक्तियों की सभा”; और प्रेरितों 19:32, 39 में “ekklesia, एक्कलेसियाशब्द का अनुवादसभाकिया गया है। 

मसीही विश्वास के प्रारंभिक दिनों में लोग घरों में (रोमियों 16:5; 1 कुरिन्थियों 16:19; कुलुस्सियों 4:15; फिलेमोन 1:2), खुले स्थानों पर, जैसे कि नदी के किनारे (प्रेरितों 16:13), आदि स्थानों पर आराधना के लिए एकत्रित हुआ करते थे। घरों में आराधना, उपासना के लिए एकत्रित होने की सभा के लिए उपरोक्त सभी  हवालों में “ekklesia, एक्कलेसियाप्रयोग किया गया है।  इसमें किसी भी विशिष्ट प्रयोग के लिए किसी वस्तु के द्वारा बनाए गए किसी विशेष भवन या इमारत का कोई अभिप्राय ही नहीं है। इसलिए, जब प्रभु यीशु ने पतरस से उपरोक्त वाक्य कहा, तो उसने तथा उसके साथ के अन्य शिष्यों ने भी इसी शब्दार्थ के साथ प्रभु के इस वाक्य को कुछ इस प्रकार से समझा होगा, “...और मैं [इस पत्थर पर] अपने लोगों को एकत्रित करूंगा...। जैसे ही हमकलीसियाशब्द के मूल अर्थ के साथ प्रभु के इस वाक्य और अन्य स्थानों पर इस शब्द के प्रयोग को देखते हैं, तो स्वतः हीकलीसियाशब्द के साथ जुड़ी अनेकों भ्रांतियों और गलत समझ एवं अनुचित शिक्षाओं का आधार समाप्त हो जाता है; उन बातों के मिथ्या एवं व्यर्थ होने की बात प्रकट हो जाती है, जैसे हम आने वाले दिनों के लेखों में देखेंगे। 

इसकी तुलना में, अंग्रेज़ी शब्द Church यूनानी भाषा के शब्दकुरियाकॉनसे आया है, जिसका अर्थ होता हैउपासना या आराधना का स्थान”; किन्तु नए नियम की मूल यूनानी भाषा का यह शब्द पूरे नए नियम में कहीं पर भी प्रयोग नहीं किया गया है। तो फिर “ekklesia, एक्कलेसियासे “Church, चर्चकैसे आ गया? इसे हम प्रभु यीशु के शिष्यों के समूह को बाइबल में जिन विभिन्न रूपकों या उपनामों से संबोधित किया गया है उसे देखते समय समझेंगे। अभी के लिए हम यही ध्यान रखते हैं कि नए नियम में मसीही विश्वास एवं शिक्षाओं के संदर्भ में, मूल यूनानी भाषा में “ekklesia, एक्कलेसियाशब्द न तो किसी भौतिक भवन या आराधना स्थल के लिए, और न ही ईसाई लोगों की किसी संस्था के लिए प्रयोग किया गया है। वरन, नए नियम में मसीही विश्वास एवं शिक्षाओं के संदर्भ में, यह शब्द प्रभु यीशु मसीह के शिष्यों के समूह या समुदाय के लिए ही विभिन्न अभिप्रायों के साथ प्रयोग किया गया है, जिन्हें हम आगे के लेखों में देखेंगे।

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो ध्यान कीजिए कि किसी भी शिक्षा या शब्द को उसके मूल और वास्तविक प्रयोग के अनुसार समझना कितना आवश्यक है। जब इस बात का ध्यान नहीं किया जाता है, तो शैतान को कैसे अपनी गलत शिक्षाएं ले आने और फैलाने का खुला अवसर मिल जाता है। इसलिए बाइबल में दिए गए बेरिया एवं थिस्सलुनीकिया के विश्वासियों के उदाहरणों (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21) के समान, गलत शिक्षाओं को सीखने और सिखाने से बचे रहने के लिए, हर बात को परमेश्वर के वचन से परखने और जाँचने के बाद ही स्वीकार करने की आदत बना लें। इसे कठिन या सामान्य लोगों के लिए न मानी जा सकने वाली बात न समझें -  बेरिया एवं थिस्सलुनीकिया के ये विश्वासी न तो कोई वचन के ज्ञानी और विद्वान थे, और न ही किसी बाइबल कॉलेज या सेमनरी के छात्र। ये सभी मेरे और आपके समान साधारण लोग थे, अधिक पढ़े लिखे भी नहीं थे - शिक्षा उन दिनों दुर्लभ हुआ करती थी, इनके हाथों में केवल पुराना नियम ही था, इनके पास पुराने नियम की व्याख्या करने वाली कोई पुस्तकें नहीं थीं, मसीही विश्वासी होने के कारण ये उस समय के वचन के विद्वानों - फरीसियों, सदूकियों, और शास्त्रियों, द्वारा तिरस्कार किए हुए थे, उन से पूछ और सीख नहीं सकते थे - यदि उन्हें यह सुविधा उपलब्ध भी होती, तो केवल उन प्रभु यीशु के विरोधियों की गलतियों को ही सीखते परमेश्वर के वचन की सच्चाइयों को नहीं। ये केवल परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा सिखाए जाने पर निर्भर थे। और जब उन्होंने सच्चे मन और विश्वास से पवित्र आत्मा से सीखने के लिए अपने हाथ फैलाए, तो पवित्र आत्मा ने उन्हें सिखाया भी, जैसा आज मुझे सिखा रहा है, और वह आपको भी सिखाने के लिए तत्पर और तैयार है; और उनका उल्लेख सदा काल के लिए परमेश्वर के वचन में भले उदाहरण के रूप में आदर के साथ लिखवा दिया।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 4-6     
  • मत्ती 2

शनिवार, 1 जनवरी 2022

मसीह यीशु की कलीसिया या मण्डली - परिचय


परिचय 

आज ईसाई या मसीही होना, एक धर्म का निर्वाह करने वाला होना मान लिया जाता है, जो परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार सही समझ नहीं है। इस ईसाई धर्म में भी ईसाई या मसीही कहलाने वाले लोग एक साथ और एक जुट रहकर एक उद्देश्य के लिए कार्य करने वाले नहीं, वरन अनेकों डिनॉमिनेशंस, अर्थात, गुटों और समुदायों में बंटे हुए और विभिन्न उद्देश्यों के लिए कार्य करने वाले दिखाई देते हैं। उन डिनॉमिनेशंस, अर्थात, गुट या समुदायों के अनुसार, उनके ईसाई या मसीही होने के विषय उनकी मान्यताओं में बहुत भिन्नताएं देखी जाती हैं, इन भिन्न मान्यताओं को लेकर उनमें बहुत से मतभेद देखे जाते हैं, तथा इस भिन्नता के कारण कभी-कभी परस्पर कटुता, बैर, एवं एक-दूसरे का विरोध भी देखा जाता है। इन बातों के कारण यह मानना कठिन हो जाता है कि वे सभी एक ही प्रभु - यीशु मसीह, को मानने वाले लोग हैं। जो लोग प्रभु यीशु मसीह के नाम में संसार को प्रेम, बलिदान, सहनशीलता, सहयोग, नम्रता, औरों की सहायता करने, आदि बातों की शिक्षाएं देते हैं, उनके अपने जीवनों में, तथा परस्पर व्यवहार में, विशेषकर किसी दूसरे डिनॉमिनेशन, अर्थात, गुट या समुदाय के लोगों के प्रति इन्हीं बातों के पालन की बहुत कमी देखी जाती है। इस विरोधाभास के दो मुख्य कारण हैं; दोनों ही प्रभु यीशु द्वारा अपने आरंभिक शिष्यों को जाकर संसार के लोगों को शिष्य बनाने की सौंपी गई ज़िम्मेदारी (मत्ती 28:18-1-20) के पालन न करने के कारण हैं। पहला कारण है कि हर कोई जो अपने आप को मसीही अर्थात मसीह यीशु का अनुयायी कहता है, वह वास्तव में मसीही अर्थात मसीह यीशु का सच्चा और समर्पित शिष्य नहीं होता है। और इस कारण जो वास्तविक और सच्चे समर्पित शिष्य नहीं होते हैं, वे मसीह यीशु की नहीं अपने मन की, या अपने डिनॉमिनेशन के अगुवों की, यानि कि किसी-न-किसी मनुष्य की इच्छा के अनुसार चलते हैं, और उस इच्छा को पूरा करना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। दूसरा कारण है कि जो अपने आप को मसीही या मसीह यीशु के अनुयायी कहते हैं, जिन्होंने मसीह यीशु की शिष्यता स्वेच्छा से निर्णय लेकर स्वीकार की है, उन्हें भी उनके मसीही होने, मसीह यीशु द्वारा उसका अनुयायी होने के लिए उन्हें बुलाए जाने के उद्देश्य का या तो पता नहीं है, अथवा उसका ध्यान नहीं है। वे भी प्रभु और उसके वचन की आज्ञाकारिता में चलने को वह महत्व नहीं देते हैं, जो उन्हें देना चाहिए। इसलिए प्रभु और उसके वचन की अधूरी आज्ञाकारिता के कारण उनके जीवन भी मसीह यीशु में लाए गए विश्वास की वास्तविकता को व्यावहारिक जीवन में पूर्णतः प्रकट नहीं करते हैं। 

पहले कारण, वास्तव में मसीही न होने के बारे में विस्तार से पहले के लेखों में देख चुके हैं। संक्षेप में, प्रेरितों 11:26 में दी गई बाइबल की परिभाषा के अनुसार, मसीही वह है जो प्रभु यीशु मसीह का शिष्य है। किसी का शिष्य होने का अर्थ है अपने आप को उसके प्रति समर्पित कर देना और उसके कहे, उसकी शिक्षाओं के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना। यह एक स्वाभाविक और सर्वमान्य तथ्य है कि किसी की भी शिष्यता प्रत्येक व्यक्ति के द्वारा स्वेच्छा से धारण की जाती है। व्यक्ति किसी का आदर कर सकता है, उसकी शिक्षाओं और जीवन को भला और अनुसरणीय मान सकता है, किन्तु यह करने से वह उसका शिष्य नहीं हो जाता है। शिष्य बनने के लिए स्वेच्छा से और समझते-बूझते हुए निर्णय लेना पड़ता है। न तो कोई वंशागत रीति से शिष्यता प्राप्त करता है, और न ही किसी को बलपूर्वक, या किसी लोभ-लालच में एक वास्तविक, सच्चा और समर्पित शिष्य बनाया जा सकता है। और यदि कोई इस प्रकार अनुचित रीति से मसीह यीशु का शिष्य बन भी जाए, तो भी उसके जीवन से मसीही विश्वास की बातें और व्यवहार दिखाई नहीं देगा। वह मसीही होने के प्रभु यीशु के उद्देश्यों को कभी निभा नहीं सकेगा, कभी पूरा नहीं कर सकेगा। वह केवल नाम ही का मसीही होगा, किसी काम का या वास्तविक मसीही नहीं। 

दूसरा कारण, मसीह यीशु के प्रति अपूर्ण समर्पण और अधूरी आज्ञाकारिता, के बारे में समझने के लिए प्रभु यीशु द्वारा अपनी कलीसिया या मण्डली या “Church” बनाने की बात को देखना, जानना, और समझना होगा। जो प्रभु के साथ वास्तविकता में जुड़ गए हैं, वे स्वतः ही प्रभु की मण्डली या कलीसिया के साथ भी जुड़ गए हैं। इस मण्डली या कलीसिया के लिए प्रभु की एक योजना है, प्रयोजन है, और अन्ततः मनुष्य की कल्पना से भी बढ़कर प्रतिफल भी हैं। जो मसीही विश्वासी अपने आप को प्रभु की मण्डली या कलीसिया का एक अभिन्न एवं महत्वपूर्ण अंग होने, और उसमें अपनी ज़िम्मेदारी को ठीक से समझ लेगा, फिर वह अपने मसीही जीवन को प्रभु की इच्छा के अनुसार और प्रभु की महिमा के लिए व्यतीत करेगा। आज से आरंभ होने वाली इस श्रृंखला में हम प्रभु की इस कलीसिया या मण्डली के बारे में अध्ययन आरंभ करेंगे। कलीसिया के विषय जानकारी और समझ-बूझ लेने के लिए हम बाइबल मेंकलीसियाया “Church” शब्द के प्रथम प्रयोग के पद, प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्य पतरस से कही गई बात, “और मैं भी तुझ से कहता हूं, कि तू पतरस है; और मैं इस पत्थर पर अपनी कलीसिया बनाऊंगा: और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे” (मत्ती 16:18) से आरंभ करेंगे। इस पद में निहित कलीसिया के विभिन्न पहलुओं को देखने के बाद, फिर हम बाइबल में अन्य स्थानों से प्रभु की कलीसिया के विषय और बातों को देखेंगे, सीखेंगे। 

 यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • उत्पत्ति 1-3     
  • मत्ती 1

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान - 29


उपसंहार  

पिछले लगभग एक महीने से हम मसीही विश्वासी के जीवन और सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका, उनके द्वारा दिए गए वरदानों के, और उन वरदानों के उपयोग, तथा पवित्र आत्मा तथा आत्मिक वरदानों के साथ जुड़ी अनेकों भ्रांतियों के बारे में परमेश्वर के वचन बाइबल से देखते आ रहे हैं, और सीखते आ रहे हैं कि उन गलत शिक्षाओं की तुलना में वचन में दी गई सही बातें क्या हैं, वचन की उन बातों के अभिप्राय क्या हैं, और कैसे उन बातों को उनके संदर्भ, तात्कालिक पाठक या श्रोताओं के लिए अर्थ, प्रयोग किए गए शब्दों के मूल भाषा के शब्दार्थ, और वचन में उन से संबंधित अन्य शिक्षाओं एवं बातों के साथ मिलाकर, परमेश्वर पवित्र आत्मा के अगुवाई में किए गए अध्ययन से ये गलत शिक्षाएं पहचानी जा सकती हैं, और इनसे बचा जा सकता है, बाहर निकला जा सकता है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को, उनके जीवन और सेवकाई में परमेश्वर पवित्र आत्मा की भूमिका और कार्य के बारे में कुछ बहुत महत्वपूर्ण शिक्षाएं यूहन्ना 14 और 16 अध्याय में दी हैं। मसीही विश्वासी के जीवन और सेवकाई में पवित्र आत्मा और आत्मिक वरदानों के संदर्भ में प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए इन शिक्षाओं को जानना और समझना, और फिर इनके अनुसार लोगों द्वारा दी जा रही शिक्षाओं का आँकलन करना बहुत आवश्यक है, क्योंकि ये शिक्षाएं प्रभु ने इसी उद्देश्य से अपने शिष्यों को दी थीं।

प्रभु यीशु ने शिष्यों से कहा, “मैं अब से तुम्हारे साथ और बहुत बातें न करूंगा, क्योंकि इस संसार का सरदार आता है, और मुझ में उसका कुछ नहीं” (यूहन्ना 14:30)। प्रभु जानता था कि उनके स्वर्गारोहण के पश्चात, शैतान उनके कार्य को बिगाड़ने और शिष्यों द्वारा सुसमाचार की सेवकाई को बाधित या निष्फल करने के लिए उन शिष्यों पर और उनकी सेवकाई पर हमला करेगा। क्योंकि शैतान एक बहुत प्रबल शत्रु है, और अनेकों युक्तियों तथा धार्मिक और सही प्रतीत होने वाली बातों एवं व्यवहार के द्वारा प्रभु के शिष्यों और सेवकाई के कार्यों में बाधा डालेगा (2 कुरिन्थियों 11:3, 13-15, इसी लिए शिष्यों की सहायता के लिए प्रभु ने अपने पवित्र आत्मा को उनमें और उनके साथ रहने के लिए भेजा। हम देख चुके हैं कि जैसे ही कोई व्यक्ति पापों से पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु यीशु से क्षमा माँगता है, प्रभु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करता है और अपना जीवन उसे समर्पित कर देता है, उसी पल से तुरंत ही परमेश्वर पवित्र आत्मा उसके जीवन में आकर, उसके मसीही जीवन और सेवकाई में उसका सहायक और मार्गदर्शक होने के लिए, उसके अन्दर सर्वदा के लिए निवास करने लगता है (यूहन्ना 14:16-17; 1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19)। साथ ही परमेश्वर पिता ने जो भी सेवकाई उस व्यक्ति के लिए निर्धारित की है (इफिसियों 2:10) उसे भली-भांति निभाने के लिए उस व्यक्ति को उपयुक्त आत्मिक वरदान भी प्रदान करता है, तथा उन वरदानों का प्रयोग करना सिखाता है। प्रभु यीशु के विश्वासी की आशीष और आत्मिक जीवन में उन्नति, उसके द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को ठीक से करने में ही है; इसी उद्देश्य से परमेश्वर पवित्र आत्मा उसके अन्दर रहता है।

परमेश्वर पवित्र आत्मा अपनी सम्पूर्ण सामर्थ्य के साथ प्रत्येक मसीही विश्वासी में उसके उद्धार पाने के क्षण से ही विद्यमान है; किन्तु जब तक वह विश्वासी पवित्र आत्मा के कहे के अनुसार न करे, उसके चलाए न चले (गलातियों 5:16, 18, 26), तो फिर उसके जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति और सामर्थ्य कैसे प्रकट होगी? अदन की वाटिका में पहला पाप करवाने के लिए शैतान ने अपनी जिस युक्ति का प्रयोग किया था, उसे ही आज भी वह उतनी ही कारगर रीति से प्रयोग करता है। उसकी यह युक्ति है परमेश्वर के वचन पर संदेह उत्पन्न करके, उसके विरुद्ध मन में प्रश्न उठाकर, मनुष्य द्वारा अपनी दृष्टि और समझ के अनुसार अच्छी, लुभावनी, और मन-भावनी प्रतीत होने वाली बात को ही सही मानना, और परमेश्वर के वचन के विरुद्ध, अपनी दृष्टि और समझ में सही बात का पालन करना। इसी युक्ति के अन्तर्गत शैतान ने परमेश्वर पवित्र आत्मा, उनके कार्य, और उनके द्वारा दिए जाने वाले आत्मिक वरदानों के बारे में बहुत सी गलत शिक्षाएं बहुत धार्मिक और लुभावनी लगने वाली बातों के रूप में मसीही या ईसाई कहलाए जाने वाले लोगों में फैला रखी हैं, यहाँ तक कि अनेकों वास्तविक मसीही विश्वासियों को भी उन बातों के भ्रम में फंसा रखा है। 

जब तक मसीही विश्वासी उन गलत शिक्षाओं से बाहर आकर वचन की सच्चाई और खराई को समझकर, उसका पालन करना आरंभ नहीं करेगा, वह शैतान द्वारा खड़े किए गए एक काल्पनिकमसीहीविश्वास तथा धार्मिकता की चकाचौंध, आकर्षण, शारीरिक उन्माद और लुभावने अनुभव उत्पन्न करने वाली बातों में, तथा उसके अनुसार किए गए कार्यों के धोखे में फंसा रहेगा। अन्ततः जब ऐसेमसीही विश्वासियोंकी आँख खुलेगी, और वे सच्चाई को जानेंगे, पहचानेंगे, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी, और उन पाँच मूर्ख कुँवारियों के समान उनके वापस परमेश्वर के पास लौटने के द्वारा हमेशा के लिए बंद हो चुके होंगे। एक बहुत साधारण और सीधी सी बात है, जो कुछ वचन में दिया गया नहीं है, वचन के अनुसार नहीं है, जो कुछ भी वचन के बाहर से है, जो कुछ भी वचन में जोड़ कर या उसमें से घटा कर बताया और सिखाया जा रहा है, वह सत्य नहीं है, शैतान की ओर से है, और कदापि उसका पालन नहीं करना है - वह चाहे मानवीय बुद्धि और तर्क के अनुसार कितना भी ठीक, आकर्षक, धार्मिक, और उचित क्यों न लगे; चाहे कितने भी और कैसे भी लोग उसके पक्ष में क्यों न बोलें। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो अभी समय रहते 2 कुरिन्थियों 13:5 के अनुसार अपने आप को जाँच कर देख लें कि आप सही विश्वास में हैं कि नहीं। परमेश्वर पवित्र आत्मा के द्वारा, परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार चलाए ही चलें, अन्य हर बात से बाहर हो जाएं। चाहे ऐसा करने के लिए कैसी भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े, क्योंकि आज की थोड़ी सी हानि, कल की अनन्त आशीष और भलाई बन जाएगी। किन्तु यदि आप सच्चाई के लिए आज यह थोड़ी सी हानि उठाने, यह कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं होंगे, तो कल यह आपके लिए अनन्त हानि और पीड़ा का कारण बन जाएगी। इसलिए सही निर्णय लेकर, और उसके अनुसार उचित कार्य कर लें।  

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।   

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • मलाकी 1-4     
  • प्रकाशितवाक्य 22

गुरुवार, 30 दिसंबर 2021

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान - 28


वरदानों का प्रयोग - रोमियों 12:6-8 - सौंपी गई सेवकाई के अनुसार 

परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा प्रत्येक मसीही विश्वासी को सभी के भलाई और उन्नति के लिए उसे मिली उसकी सेवकाई के अनुसार दिए गए वरदानों के प्रयोग के लिए व्यक्तिगत रीति से तैयार होने को सिखाने के बाद, पवित्र आत्मा उसके द्वारा दिए गए वरदानों के व्यावहारिक प्रयोग के बारे में बताता है। इस अध्याय के पद 6-8 एक बार फिर हमारे सामने आत्मिक वरदानों से संबंधित सदा ध्यान रखने और पालन करने वाले तथ्यों को दोहराता है। यह पद स्मरण दिलाते हैं कि:

  • सभी मसीही विश्वासियों को भिन्न-भिन्न वरदान दिए गए हैं; सभी को एक ही वरदान नहीं दिया गया है, और न ही किसी एक को सभी या अधिकांश वरदान दिए गए हैं। इसलिए किसी एक वरदान के सभी में विद्यमान होने की इच्छा रखना और परमेश्वर से यह माँग करने की शिक्षा वचन के अनुसार सही नहीं है। क्योंकि न तो हर किसी की एक ही सेवकाई है, और न ही हर किसी को एक ही, या समान वरदान दिया गया है।
  • यहाँ पर किसी सेवकाई अथवा वरदान को किसी अन्य की तुलना में बड़ा या छोटा, अथवा कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं कहा गया है। मसीही सेवकाई और उनके निर्वाह के लिए दिए गए आत्मिक वरदानों के विषय इस प्रकार की कोई धारणा रखना और सिखाना, वचन के अनुसार सही नहीं है। 
  • प्रत्येक मसीही विश्वासी को ये वरदान परमेश्वर द्वारा उसके अनुग्रह में होकर दिए गए हैं। किसे कौन सी सेवकाई देनी है, और फिर उस सेवकाई के अनुसार किसे कौन सा वरदान देना है, यह परमेश्वर ही निर्धारित करता है। सेवकाई और वरदानों के दिए जाने में किसी मनुष्य की किसी भी प्रकार की कोई भी भूमिका नहीं है। किसी को भी कोई भी वरदान, उसकी किसी योग्यता अथवा गुण के अनुसार नहीं दिए गए हैं। इसका एक उत्तम उदाहरण है प्रेरित पतरस और पौलुस को सौंपी गई सुसमाचार प्रचार की सेवकाइयां। वचन बताता है कि पतरस एकअनपढ़ और साधारणमनुष्य था (प्रेरितों 4:13), और पौलुस, उद्धार से पहले, परमेश्वर के वचन की उच्च शिक्षा पाया हुआ एक फरीसी था (प्रेरितों 22:3; 26:5)। दोनों को ही परमेश्वर ने सुसमाचार प्रचार के लिए नियुक्त किया था। मानवीय बुद्धि और समझ, तथा उन दोनों की योग्यताओं के अनुसार, उपयुक्त होता कि पतरस को अन्यजातियों में भेजा जाए, जो परमेश्वर के वचन और व्यवस्था के बारे में नहीं जानते थे; और पौलुस को जो व्यवस्था और वचन का विद्वान था, यहूदियों के मध्य सेवकाई के लिए भेज जाए। किन्तु परमेश्वर ने पतरस को यहूदियों के मध्य, और पौलुस को अन्यजातियों में सुसमाचार प्रचार की सेवकाई के लिए नियुक्त किया (रोमियों 11:13; गलातीयों 2:7), जो उनकी व्यक्तिगत योग्यता के अनुसार कदापि नहीं था, किन्तु परमेश्वर ने अपने अनुग्रह और योजना में अपनी इच्छा के अनुसार ठहराया था। साथ ही इस बात का भी ध्यान करें कि न तो पतरस ने, और न ही पौलुस ने परमेश्वर से कभी अपनी योग्यता और प्रशिक्षण के अनुसार अपनी सेवकाई या सेवकाई के लोगों को बदलने की कोई प्रार्थना की। जैसा परमेश्वर ने जिसे सौंपा, उसने वह वैसा परमेश्वर की आज्ञाकारिता और इच्छा के अनुसार, उसके लिए परमेश्वर द्वारा दी गई सामर्थ्य और सद्बुद्धि के अनुसार किया। यही बात हम वचन के अन्य भागों में भी देखते हैं।
  • प्रत्येक विश्वासी को परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को ज़िम्मेदारी और वफादारी से निभाना है। इन तीन पदों में पवित्र आत्मा पौलुस द्वारा मसीही विश्वासियों को लिखवा रहा है कि जिसे जो सेवकाई सौंपी गई है, उसे उसी सेवकाई को अपनी भरसक सामर्थ्य के अनुसार करना है। पूरे वचन में कहीं कोई उदाहरण नहीं है कि परमेश्वर के किसी प्रेरित अथवा सेवक ने उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित सेवकाई के बदले कोई अन्य सेवकाई प्राप्त की हो। कुछ लोगों ने, जैसे कि योना नबी ने, और आरंभ में मूसा ने और यिर्मयाह ने अपनी सेवकाई को लेकर अप्रसन्नता अवश्य व्यक्त की, उससे बचना चाहा, किन्तु बच कोई नहीं सका; अन्ततः उन्हें जाकर वही करना पड़ा जो परमेश्वर ने उनके लिए ठहराया था।  
  • साथ ही इन पदों तथा शेष पदों में लिखे गए निर्देश की वाक्य-रचना पर भी ध्यान कीजिए - परमेश्वर द्वारा सौंपे गए सभी कार्यों को निरंतर चलते रहने, उन्हें लगातार किए जाते रहने वाले भाव में कहा गया है। कहीं यह नहीं लिखा है, अथवा ऐसा कोई संकेत दिया गया है कि उसके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई सेवकाई समाप्त होने वाली या कुछ समय तक की ही है। अर्थात, जब तक परमेश्वर स्वयं किसी कारण उस सेवकाई में कोई परिवर्तन न करे, तब तक मसीही सेवक को उसे सौंपे गए कार्य को करते ही चले जाना है। पौलुस जीवन भर सुसमाचार प्रचार में ही लगा रहा। जब उसे बंदी बनाया गया, तो उसने पत्रियाँ लिख कर इस सेवा को किया; जब वह बंदी नहीं था, तो एक से दूसरे स्थान पर जाकर, हर सताव, कठिनाई, दुख, तिरस्कार, उत्पीड़न, आदि को सहते हुए भी, वह अपनी सेवकाई को करता ही रहा; एक के बाद एक अन्य स्थानों पर जाकर सुसमाचार प्रचार के अवसर तलाशता रहा, उन अवसरों का प्रयोग करता रहा। और यही बात अन्य प्रेरितों और सेवकों के जीवनों में भी देखी जाती है। परमेश्वर के पूरे वचन में ऐसा कोई नहीं है जिसे उसकी परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई सेवकाई से कभीसेवा-निवृत्ति (retirement)” मिली हो। उनका देहांत ही उनकी सेवकाई से सेवा-निवृत्ति थी, और जब तक वे पृथ्वी पर रहे, परमेश्वर उन्हें सामर्थ्य, बुद्धि और बल देता रहा कि वे अपने कार्य को करते रहें, परमेश्वर के लिए उपयोगी बने रहें।

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप अपनी निर्धारित सेवकाई को पहचानें, और अपने आप को तैयार कर के उस सेवकाई को परमेश्वर द्वारा दिए गए आत्मिक वरदानों की सहायता से पूरा करें। जब तक परमेश्वर आपको किसी अन्य कार्य के लिए न कहे, जो उसने सौंपा है, उसे ही करते रहें। औरों की सेवकाइयों को लेकर शैतान के किसी भ्रम या बहकावे में न पड़ें; और न ही पवित्र आत्मा के नाम से इस संबंध में 1 कुरिन्थियों 12:31 के आधार पर गलत शिक्षाएं देने वालों की भ्रामक बातों में, जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं, आएं। आप परमेश्वर के प्रति वफादार बने रहिए, और वह आपके प्रति वफादार रहेगा, आपको आपके अनन्त जीवन के लिए सुरक्षित एवं आशीषित रखेगा।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।   

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • ज़कर्याह 13-14     
  • प्रकाशितवाक्य 21

बुधवार, 29 दिसंबर 2021

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान - 27


वरदानों का प्रयोग - रोमियों 12:4-5 - मण्डली के एक अभिन्न एवं उपयोगी अंग के समान 

 रोमियों 12 अध्याय हमें अपनी मसीही सेवकाई और उसके अनुसार हमें प्रदान किए गए आत्मिक वरदानों के प्रयोग की तैयारी के बारे में सिखाता है। इस अध्याय के पहले तीन पदों से हम देख चुके हैं कि इन दायित्वों के खराई से निर्वाह के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी में कुछ बातों का होना अनिवार्य है, तब ही वह परमेश्वर द्वारा उसे दी गई सेवकाई का भली-भांति निर्वाह करने पाएगा। पहले तीन पदों की ये अनिवार्य बातें हैं वेदी पर चढ़ाए गए बलिदान के समान परमेश्वर को एक पूर्णतः समर्पित जीवन, जो मनुष्यों तथा मनुष्यों के द्वारा गढ़े गए रीति-रिवाजों, प्रथाओं, परंपराओं एवं नियमों के पालन के लिए नहीं, वरन परमेश्वर और उसके वचन के आदर और आज्ञाकारिता में जिया जाता है। ऐसे समर्पित और आज्ञाकारी जीवन की एक अन्य पहचान है कि पापों की क्षमा और उद्धार पाने के द्वारा उस व्यक्ति के अन्दर आया हुआ परिवर्तन उसके बदले हुए व्यवहार, चाल-चलन, जीवन के उद्देश्यों, और उस व्यक्ति की प्रभु और उसके वचन के प्रति प्राथमिकताओं, आदि में दिखता है, और उसके जीवन में हुए उद्धार के कार्य को प्रमाणित भी करता है। सच्चा मसीही विश्वासी और सेवक अपने इन गुणों के द्वारा पहचाना जाता है। इसलिए जो मसीही सेवकाई में संलग्न हैं, या होना चाहते हैं, उन्हें अपने आप को इन गुणों के लिए जाँचना चाहिए, अपना स्व-आँकलन करना चाहिए, और जहाँ जो सुधार आवश्यक हैं उन बातों को परमेश्वर के समक्ष रख कर, परमेश्वर द्वारा बताए गए आवश्यक सुधारों को अपने जीवन में लागू भी करना चाहिए। 

रोमियों के इस अध्याय में मसीही जीवन और सेवकाई से संबंधित अगली शिक्षा हम 4 और 5 पद में पाते हैं। ये पद वास्तविक, सच्चे, मसीही विश्वासियों को उनके उद्धार और पाप-क्षमा के साथ जुड़े एक आधारभूत तथ्य को स्मरण करवाता है। प्रभु यीशु पर विश्वास लाने, उसे पूर्णतः समर्पित होकर उसे अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करने के द्वारा नया जन्म या उद्धार पाए हुए लोगों के विषय यूहन्ना 1:12-13 में लिखा हैपरन्तु जितनों ने उसे ग्रहण किया, उसने उन्हें परमेश्वर के सन्तान होने का अधिकार दिया, अर्थात उन्हें जो उसके नाम पर विश्वास रखते हैं। वे न तो लहू से, न शरीर की इच्छा से, न मनुष्य की इच्छा से, परन्तु परमेश्वर से उत्पन्न हुए हैंअर्थात, वास्तविकता में उद्धार पाए हुए सभी मसीही विश्वासी, एक ही परिवार - परमेश्वर के परिवार, के सदस्य हैं। मसीही मण्डलियों में बहुत से ऐसे भी घुस आते हैं जो व्यवहार तो उद्धार पाने वालों के समान करते हैं, किन्तु वास्तव में उद्धार पाए हुए नहीं हैं, जैसे प्रेरितों 8:9-24 में शमौन टोन्हा करने वाले के विषय लिखा है (साथ ही प्रेरितों 20:29-30; 1 यूहन्ना 2:18-19 भी देखिए)। शैतान द्वारा मण्डलियों में लाए गए ऐसे लोग मसीही विश्वासियों और मसीही सेवकाई की बहुत हानि का, तथा समाज में प्रभु यीशु मसीह में पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार के गलत समझे जाने और विरोध होने का कारण ठहरते हैं। इसीलिए हमें उपरोक्त गुणों के अनुसार, तथा 1 यूहन्ना 2:3-6; 4:1-6, आदि के अनुसार लोगों को देख-परख कर, उनकी वास्तविकता को पहचान कर ही उन्हें मसीही मण्डलियों में आदर या स्थान देना चाहिए। विशेषकर वचन की सेवकाई और मण्डली के संचालन आदि की ज़िम्मेदारियाँ देने से पहले लोगों को बारीकी से जाँच-परख लेना चाहिए, अन्यथा उनके द्वारा बोए गए कड़वे बीज और गलत शिक्षाएं आगे चलकर बहुत हानि का कारण ठहरेंगे।  

जो प्रभु परमेश्वर के परिवार का सदस्य है, वह अपने परिवार के लोगों के साथ मेल-मिलाप रखेगा, उनकी भलाई की सोचेगा (गलातियों 6:10; 1 तिमुथियुस 5:8), उनके हित में होकर कार्य करेगा; तथा परमेश्वर के वचन के निर्देश के अनुसार (1 कुरिन्थियों 12:7)), अपने आत्मिक वरदानों को अपनी नहीं वरन सभी की भलाई के लिए प्रयोग करेगा। वह इस एहसास के साथ जीता और कार्य करता है कि परमेश्वर के परिवार में, प्रभु की मण्डली - उसकी देह (इफिसियों 5:25-30) में वह एक आवश्यक, उपयोगी, और अभिन्न अंग है। इसलिए किसी भी मसीही विश्वासी का कैसा भी अनुचित जीवन, व्यवहार, और कार्य, परमेश्वर के पूरे परिवार, प्रभु की पूरी मण्डली पर दुष्प्रभाव लाता है, उनके लिए दुख का कारण होता है और उनकी सेवकाई के कार्यों को सुचारु रीति से करने में बाधा बनता है।

रोमियों 12:4 यह बिल्कुल स्पष्ट बता रहा है कि जैसे देह के सभी अंगों का एक ही, या समान ही कार्य नहीं होता है, वैसे ही प्रत्येक मसीही विश्वासी की भी मण्डली में अपनी-अपनी, औरों से भिन्न सेवकाई है, भिन्न दायित्व हैं, जो उनके लिए परमेश्वर द्वारा निर्धारित किए गए हैं। इसलिए सभी को अपनी-अपनी सेवकाई, अपने-अपने दायित्वों का सही रीति से निर्वाह करना है। किसी दूसरे की सेवकाई या दायित्वों को लेकर ईर्ष्या नहीं करनी है, उसकी सेवकाई को अपने लिए लेने और करने के प्रयास नहीं करने हैं, और न ही अपनी सेवकाई के कारण अपने आप को उच्च या महान समझने, घमण्ड करने की प्रवृत्ति रखनी है। देह के सभी अंग अपने-अपने स्थान और कार्य के लिए महत्वपूर्ण हैं; कोई भी अंग अथवा उसका कार्य देह के लिए कम या अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, सभी का समान महत्व और उपयोग है। जैसे किसी एक अंग के न होने के कारण, या सुचारु रीति से कार्य न करने के कारण सारी देह अपनी रचना में अपूर्ण हो जाती है, या कार्य में अधूरी या अथवा कार्य-कुशल हो जाती है, वैसे ही किसी भी मसीही विश्वासी के द्वारा मण्डली में ठीक से कार्य न करने अथवा मण्डली की परिस्थितियों के कारण चाहते हुए भी ठीक से नहीं कर पाने के द्वारा मण्डली के साथ भी होता है। इसीलिए रोमियों 12:5 मसीही विश्वासियों को न केवल प्रभु की देह का अंग, वरन एक-दूसरे का अंग भी बताता है, जो मण्डली के लिए भी तथा एक-दूसरे के लिए भी सहायक और उपयोगी हों 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो अपनी सेवकाई को ठीक से, प्रभु की इच्छानुसार, तथा अपने आत्मिक वरदानों का उपयुक्त उपयोग मण्डली की भलाई और उन्नति के लिए कर पाने के लिए, आपके लिए यह आवश्यक है कि अपने आप को, औरों के समान ही, परमेश्वर के परिवार का तथा प्रभु की देह, उसकी मण्डली का एक अभिन्न एवं उपयोगी अंग समझ कर कार्य करें। न अपने आप को किसी से गौण या छोटा अथवा कम उपयोगी समझें, और न ही किसी प्रकार से विशिष्ट और उच्च होने की भावना अपने में उत्पन्न होने दें। अन्यथा शैतान आपको हीन भावना अथवा घमण्ड से ग्रसित करके, अपने या मण्डली के, या मण्डली के किसी सदस्य के विरुद्ध किसी-न-किसी पाप में उलझा और फंसा देगा, प्रभु के लिए आपके कार्य और उपयोगिता की हानि करवा देगा। प्रभु परमेश्वर ने जो सेवकाई और वरदान आपको दिया है, उसे ही प्रभु की महिमा कि लिए योग्य रीति से प्रयोग करें। तब आप भी उन्हीं तथा वैसे ही आशीषों के पात्र होंगे जैसे कोई अन्य प्रभु द्वारा उसे दी गई सेवकाई को सुचारु रीति से करने के द्वारा होगा। 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • ज़कर्याह 9-12     
  • प्रकाशितवाक्य 20 

मंगलवार, 28 दिसंबर 2021

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान - 26


वरदानों का प्रयोग - रोमियों 12:3 - स्व-आँकलन के साथ 

परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस में होकर रोमियों 12 अध्याय के पहले दो पदों में मसीही सेवकाई के लिए अनिवार्य मसीही विश्वासी की सही मानसिकता के बारे में लिखवाया।  इन दोनों पदों से हमने देखा था कि मसीही सेवकाई के लिए मसीही विश्वासी को परमेश्वर के प्रति पूर्णतः समर्पित, और आज्ञाकारी होना चाहिए, साथ ही पापों की क्षमा और उद्धार के द्वारा उसके जीवन में आए भीतरी परिवर्तन को व्यावहारिक जीवन में भी प्रकट होना चाहिए। यह व्यावहारिक परिवर्तन ही उसके जीवन में उद्धार और पवित्र आत्मा के कार्य को प्रमाणित करता है; परमेश्वर के वचन बाइबल में इसका और कोई प्रमाण नहीं दिया गया है। सही मानसिकता और वास्तविक समर्पण तथा पूर्ण आज्ञाकारिता के बाद, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य एक और बात के लिए कहता है - स्वयं का आँकलन करना। 

पौलुस यह स्पष्ट कर देता है कि यह बात कहने का अधिकार उसे उसकी सेवकाई की नियुक्ति के द्वारा, परमेश्वर से मिला है। वह कहता है, “क्योंकि मैं उस अनुग्रह के कारण जो मुझ को मिला है, तुम में से हर एक से कहता हूं...”; और 1 कुरिन्थियों 15:9-10 में वह इसअनुग्रहके विषय बताता है कि यह उसका परमेश्वर द्वारा प्रेरित नियुक्त करके सुसमाचार की सेवकाई के लिए ठहराया जाना है, जिसकी पुष्टि फिर वह रोमियों 1:1 और अपनी सभी पत्रियों के आरंभ में करता है। अर्थात, परमेश्वर के द्वारा उसे सौंपे गए दायित्व के निर्वाह के लिए वह मसीही विश्वासियों को मसीही विश्वास और जीवन से संबंधित उन शिक्षाओं से अवगत करवाता था, जो परमेश्वर उसे औरों के लिए बताता था। यह मसीही सेवकाई के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण शिक्षा है, जिसका निर्वाह करना बहुत से लोगों को कठिन लगता है। आज प्रचारकों और उपदेशकों को लोगों की प्रशंसा करने, उन से लुभावनी बातें कहने में कोई संकोच नहीं होता है; किन्तु खरी और सही शिक्षा देने में उन्हें संकोच होता है कि कहीं लोगों को बुरा न लग जाए (जो अन्त के दिनों का एक चिह्न है - 2 तिमुथियुस 4:1-5) - चाहे उनके सच्चाई न बताने के कारण परमेश्वर को बुरा लगता रहे। हर मसीही सेवक को गलातियों 1:10 “यदि मैं अब तक मनुष्यों को ही प्रसन्न करता रहता, तो मसीह का दास न होताहमेशा स्मरण रखना चाहिए, और उसके अनुसार अपनी सेवकाई का निर्वाह करना चाहिए।

रोमियों 12:3 में कही गई अगली बात है कि यह शिक्षाहर एकके लिए है। यह केवल उनके लिए नहीं है जो प्रचार करने या शिक्षा देने, अथवा मण्डली की देख-भाल और संचालन के कार्य में लगे हैं। मसीही सेवकाई से संबंधित ये शिक्षाएं मण्डली के हर एक सदस्य, प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए हैं, क्योंकि परमेश्वर ने सभी के लिए कुछ भले कार्य निर्धारित किए हैं (इफिसियों 2:10), और परमेश्वर पवित्र आत्मा ने सभी की भलाई के लिए मण्डली के सभी सदस्यों को उनकी सेवकाई के अनुसार वरदान दे दिए हैं (1 कुरिन्थियों 12:7, 11)। इसलिए इस सेवकाई को सुचारु रीति से करना और वरदानों का सदुपयोग करना भी सभी मसीही विश्वासियों को आना चाहिए। इस कार्य के लिए, पद 1 और 2 के समर्पण, आज्ञाकारिता, और व्यावहारिक जीवन में प्रकट होने वाले भीतरी परिवर्तन के बाद, अगला कदम है अपने विषय सही आँकलन करना और सही दृष्टिकोण रखना। 

एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है कि जब किसी को कोई विशेष ज़िम्मेदारी दी जाती है, तो उसमें इस बात को लेकर विशिष्ट होने का विचार भी आ जाता है, जिसे फिर शैतान उकसा कर अपने आप को औरों से उच्च समझने की मानसिकता और घमण्ड में परिवर्तित करके उस व्यक्ति को पाप में फंसा देता है, परमेश्वर की सेवकाई के लिए उसे अप्रभावी बना देता है। शैतान की इस युक्ति में फँसने से बचने के लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी को पौलुस के समानपरन्तु मैं जो कुछ भी हूं, परमेश्वर के अनुग्रह से हूं: और उसका अनुग्रह जो मुझ पर हुआ, वह व्यर्थ नहीं हुआ परन्तु मैं ने उन सब से बढ़कर परिश्रम भी किया: तौभी यह मेरी ओर से नहीं हुआ परन्तु परमेश्वर के अनुग्रह से जो मुझ पर था” (1 कुरिन्थियों 15:10) की मानसिकता के साथ कार्य करना चाहिए। अर्थात, अपने मसीही विश्वासी होने को, या अपने प्रभु के लिए किसी रीति से और किसी कार्य के उपयोगी होने को, अपनी किसी योग्यता अथवा गुण के कारण न समझे, वरन, केवल और केवल परमेश्वर के अनुग्रह में उसे दी गई ऐसी ज़िम्मेदारी, जिसे उसे परमेश्वर की इच्छा के अनुसार, उसी के दिए वरदान के द्वारा निभाना है, समझे।

पौलुस इस बात को और स्पष्ट करते हुए कहता है कि जैसा और जितना परमेश्वर ने बनाया और दिया है, उस से बढ़कर कोई अपने आप को न समझे। इसके लिए प्रत्येक मसीही विश्वासी कोसुबुद्धिके साथ अपने आप को जाँचने, अपना आँकलन करने वाला होना चाहिए। औरों को जाँचना, उनकी आलोचना करना, उनके स्तर को समझना और पहचानना तथा लोगों के सामने औरों के बारे में अपने आँकलन का बयान करना तो बहुत सहज होता है। किन्तु इसी माप-दण्ड को अपने ऊपर लागू करके, इसी के अनुसार अपना सही आँकलन करना बहुत कठिन होता है। और इससे भी कठिन होता है खराई से यह स्व-आँकलन करने के पश्चात, परमेश्वर के समक्ष उसका अंगीकार करके, अपने आप को उसके अनुसार सुधारना, या सुधारे जाने के लिए अपने आप को परमेश्वर के हाथों में सौंप देना। परमेश्वर का वचन हमें दोनों ही बातों की शिक्षा और उदाहरण प्रदान करता है। पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस 1 कुरिन्थियों 11:27-32 में बलपूर्वक यह निर्देश देता है कि प्रत्येक मसीही विश्वासी को, प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले, अपने आप को जाँच लेना चाहिए। जो ऐसा करता है, वह फिर परमेश्वर से दण्ड पाने से बच जाता है, वरन उसकी आशीषों का संभागी हो जाता है। इसी प्रकार से स्व-आँकलन का एक लिखित प्रमाण दाऊद द्वारा लिखा गया भजन 51 है, जो उसने बतशेबा तथा उसके पति ऊरिय्याह के साथ किए गए पाप के लिए नातान द्वारा उसे बताए जाने के बाद लिखा था। इस भजन में दाऊद न केवल अपने पाप का अंगीकार कर रहा है, वरन अपने आप को शुद्धि के लिए परमेश्वर के हाथों में भी छोड़ दे रहा है।  खराई से अपने स्व-आँकलन करने, पाप मान लेने, और अपने आप को परमेश्वर के हाथों में छोड़ देने की इसी प्रवृत्ति के कारण दाऊद को बाइबल मेंपरमेश्वर के मन के अनुसार” (प्रेरितों 13:22) व्यक्ति कहा गया है।

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो यह स्व-आँकलन करने की व्यावहारिक मानसिकता आप के लिए भी अनिवार्य है। परमेश्वर किसी में विद्यमान किसी भी घमण्ड के साथ कार्य नहीं कर सकता है। आप परमेश्वर के लिए तब ही उपयोगी होंगे, आप परमेश्वर से तब ही आशीषें प्राप्त करेंगे, जब आप अपने अंदर झांक कर, अपने मन की वास्तविक स्थिति को परमेश्वर के सामने मान लेने वाले और उसके सुधार के लिए उसके हाथों में अपने आप को छोड़ देने वाले बनेंगे। वह आपकी वास्तविकता आप से पहले, आप से अधिक गहराई से, और आप से बेहतर जानता है (1 इतिहास 28:9)। किन्तु वह चाहता है कि आप भी अपनी वास्तविकता को जानें और मानें, जिससे वह आपको अपनी सामर्थ्य से परिपूर्ण करके अपने लिए उपयोगी, अपनी मण्डली के लिए उन्नति का कारण, स्वयं आपके लिए आशीषें अर्जित करने वाला बना सके।

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • ज़कर्याह 5-8     
  • प्रकाशितवाक्य 19 

सोमवार, 27 दिसंबर 2021

मसीही सेवकाई और पवित्र आत्मा के वरदान - 25


वरदानों का प्रयोग - रोमियों 12   

पिछले लेखों में हमने 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय से देखा है कि मसीही विश्वासियों को, परमेश्वर द्वारा उनकी निर्धारित सेवकाई को सुचारु रीति से करने के लिए परमेश्वर पवित्र आत्मा विभिन्न आत्मिक वरदान देता है। सभी को एक ही वरदान नहीं दिया जाता है, और न ही किसी एक को सभी वरदान दिए जाते हैं। प्रत्येक को उनकी सेवकाई के अनुसार, तथा सभी की भलाई एवं मण्डली की उन्नति के लिए वरदान दिया जाता है। किस को क्या वरदान दिया जाना है यह निर्णय परमेश्वर पवित्र आत्मा का है; इसमें किसी मनुष्य का किसी भी प्रकार का कोई भी हस्तक्षेप नहीं है। सभी सेवकाई और वरदान परमेश्वर की दृष्टि में समान महत्व के हैं, किसी के भी औरों की तुलना में बड़े-छोटे होने की, या कम अथवा अधिक महत्व का होने की कोई बात नहीं है। किन्तु मसीही मण्डलियों या कलीसिया के कार्यों में, कौन सी सेवकाई एवं वरदान अधिकांशतः प्रयोग किए जाते हैं, और किन के प्रयोग की आवश्यकता, तुलनात्मक रीति से, अन्य से कम होती है, उसके अनुसार 1 कुरिन्थियों 12:28 में एक क्रम दिया गया है, जिसमें सबसे पहले वचन की सेवकाइयों से संबंधित सेवकाइयों और वरदानों को लिखा गया है, और सबसे अंत में अन्य भाषाओं से संबंधित सेवकाई एवं वरदानों को लिखा गया है। साथ ही फिर 31 पद में प्रोत्साहित किया गया है कि मण्डली के लोगों को मण्डली में अधिक से अधिक उपयोगी होने की ‘धुन’ में रहना चाहिए; यद्यपि इस पद का दुरुपयोग यह दिखाने के लिए किया जाता है कि विश्वासी अपनी इच्छा के अनुसार अपने लिए वरदान माँग सकते हैं - जो इस पद की अनुचित व्याख्या और गलत प्रयोग है।

बाइबल में 1 कुरिन्थियों 12 अध्याय के अतिरिक्त भी आत्मिक वरदानों के बारे में लिखा गया है। ऐसा ही एक वचन-भाग है रोमियों 12 अध्याय; इस अध्याय में भी परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा आत्मिक वरदानों के बारे में कुछ भिन्न दृष्टिकोण से लिखवाया है। रोमियों के इस अध्याय में 1 कुरिन्थियों 12 के समान ही, न केवल वरदानों का उल्लेख और मसीही मण्डली को एक देह के समान दिखाकर सभी सदस्यों को साथ मिलकर कार्य करने और अपने वरदानों का प्रयोग करने का आह्वान है, वरन उनके प्रयोग के विषय कुछ अनिवार्य आत्मिक बातें और दृष्टिकोण भी बताए गए हैं। मानव देह को रूपक के समान प्रयोग करने और आत्मिक वरदानों के प्रयोग पर आने से पहले, पवित्र आत्मा ने इस अध्याय के आरंभिक पदों में इन दोनों बातों के सही निर्वाह के लिए एक आत्मिक दृष्टिकोण अपनाने और बनाए रखने की बात की है। स्वाभाविक है कि शारीरिक एवं सांसारिक विचारों तथा दृष्टिकोण को रखते हुए आत्मिक सेवकाई कर पाना संभव नहीं है। यदि परमेश्वर को प्रसन्न करना है, उससे आशीषें प्राप्त करनी हैं, तो शारीरिक एवं सांसारिक प्रवृत्ति से उठकर आत्मिक और परमेश्वर के अनुसार स्थिति में आना और रहना पड़ेगा। तब ही हम परमेश्वर की बात को समझने और निभाने पाएंगे, जिससे हमारे कार्य उसे स्वीकार्य हों, और वह उन कार्यों से प्रसन्न हो। इसीलिए पौलुस में होकर पवित्र आत्मा द्वारा इस अध्याय का आरंभ, इस आह्वान के साथ होता है:इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को भावता हुआ बलिदान कर के चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:1-2) 

इन दो पदों में ध्यान देने वाली कुछ बातें हैं:

  • पद 1 का आरंभ मसीही विश्वासी को उसके प्रति परमेश्वर की दया का स्मरण दिलाने के साथ होता है। इसे बेहतर समझने के लिए इसे इसके संदर्भ में, इससे पहले के पदों के साथ देखिए। अध्याय 11, विशेषकर उसके अंत में, प्रभु परमेश्वर की महानता तथा सार्वभौमिकता का वर्णन, और उसकी महिमा का उल्लेख किया गया है। परमेश्वर की इस हस्ती, उसके सर्वोच्च, सर्वसामर्थी, एवं सर्वज्ञानी होने, के सामने जब मनुष्य अपनी हस्ती, अपनी पापमय और परमेश्वर के लिए अस्वीकार्य स्थिति का ध्यान करता है, तो उसे बोध होता है कि उसमें ऐसा कुछ भी नहीं है कि परमेश्वर उसका ध्यान करे, उससे संपर्क या व्यवहार रखे। किन्तु फिर भी परमेश्वर संसार के सभी मनुष्यों से प्रेम करता है, उन्हें अपने साथ जोड़ना चाहता है, उन्हें अपनी संतान होने का आदर देना चाहता है (यूहन्ना 1:12-13)। इसीलिए इस अध्याय और पद का आरंभिक वाक्यांश है, “इसलिये हे भाइयों, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती करता हूं...। तात्पर्य यह कि आत्मिक सेवकाई और आत्मिक वरदानों के सही प्रयोग के लिए मनुष्य को अपनी किसी योग्यता अथवा शारीरिक सामर्थ्य अथवा गुण के आधार पर नहीं वरन अपनी अयोग्यता, अपनी वास्तविकता के बोध के साथ, परमेश्वर के प्रति दीन, नम्र, नतमस्तक, आज्ञाकारी, और पूर्णतः समर्पित होकर; हर बात में परमेश्वर से मिलने वाली उसकी दया, उसके अनुग्रह का ध्यान रखते और मानते हुए, कार्य करना चाहिए। 
  • फिर पद के दूसरे भाग में पवित्र आत्मा मसीही सेवक को अपने आप को परमेश्वर को स्वीकार्य बलिदान के समान अर्पित करने को कहता है, और इस ही उसकीआत्मिक सेवाकहता है। यहाँ पुराने नियम से परमेश्वर की आराधना और उपासना करने, उससे क्षमा प्राप्त करने और उसे स्वीकार्य होने के विधि - परमेश्वर को निर्धारित बलिदान चढ़ाने की बात को समक्ष लाया गया है। परमेश्वर द्वारा दी गई व्यवस्था में हर एक बलिदान का एक स्वरूप, एक विधि होती थी; और बलिदान कोई भी हो, किसी भी उद्देश्य से क्यों न चढ़ाया जाए,, उसे उस विधि के अनुसार चढ़ाना होता था। सभी बलिदानों के साथ एक बात सामान्य थी - जो वेदी पर परमेश्वर के सामने चढ़ा दिया गया, वह फिर लौट कर उस बलिदान चढ़ाने वाले मनुष्य के हाथ में वापस नहीं आता था! या तो वह चढ़ाया गया बलिदान जल कर राख हो जाता था, या फिर याजकों के उपयोग के लिए दे दिया जाता था। इसी प्रकार से जो जीवन परमेश्वर को अर्पित कर दिया गया है, उसे वापस लेकर फिर से संसार के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है, सांसारिकता की बातों के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है। यदि उसे वापस लिया जा रहा है, शारीरिक लालसाओं और सांसारिक बातों के लिए प्रयोग किया जा रहा है, तो इसका अर्थ है कि वह जीवन वास्तव में सही रीति से बलिदाननहीं किया गया है - पूर्णतः परमेश्वर को समर्पित नहीं किया गया है। इसलिए वह परमेश्वर के लिए उपयोगी और उसकी महिमा का कारण भी नहीं होगा। साथ ही यह संसार और शरीर के भी, तथा आत्मा के साथ भी निभाने की प्रवृत्ति उस व्यक्ति कीआत्मिक सेवाभी नहीं मानी जाएगी। 
  • फिर 2 पद मसीही सेवक के लिए कहता है कि उसके अंदर आया परिवर्तन, मसीही विश्वास में आने से उसकी बुद्धि के नए हो जाने का प्रमाण, उसके बदले हुए जीवन में, उसके परिवर्तित चाल-चलन के द्वारा दिखाई देना चाहिए। उसके अंदर हुए परिवर्तन का यही बाहरी प्रमाण है; इसके अतिरिक्त व्यक्ति के आत्मिक या परमेश्वर का जन हो जाने, उसके अंदर परमेश्वर पवित्र आत्मा के बस जाने का और कोई प्रमाण बाइबल में नहीं दिया गया है - मन का परिवर्तन, व्यवहार और जीवन के परिवर्तन से दिखाई देता है।
  • जिनके अन्दर यह परिवर्तन दिखाई देने लगता है, वे फिर परमेश्वर की इच्छा को जानने वाले भी बन जाते हैं; यह एक निरंतर होती रहने वाली, और भी उन्नत होती रहने वाली प्रक्रिया है। जैसे-जैसेबुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाएवैसे-वैसे व्यक्ति परमेश्वर की इच्छा को और अधिक जानता चला जाता है; और यह उसके परमेश्वर के साथ होते चले जाने वाले अनुभवों में होकर होता है। 

       यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, परमेश्वर के लिए उपयोगी होना चाहते हैं, तो उसको समर्पित और उसकी आज्ञाकारिता का जीवन भी जीना सीखिए। धार्मिक रीति-रिवाजों, कार्यों, और परंपराओं के निर्वाह से कोई परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सका है (प्रेरितों 15:10; 1 पतरस 1:18-19)। परमेश्वर ने आपको उद्धार देने के साथ ही आपके लिए कुछ भले कार्य निर्धारित कर रखे हैं (इफिसियों 2:10); आपकी सहायता तथा मार्गदर्शन के लिए अपना पवित्र आत्मा आप में बसा दिया है, जो सर्वदा आपके साथ रहता है; अपना जीवता वचन आपके हाथों में दे दिया है; और आपको अपने परिवार का, अपनी कलीसिया का एक अंग बना लिया है। अब आपको परमेश्वर द्वारा दिए गए इन संसाधनों एवं प्रयोजनों के उचित प्रयोग के द्वारा, रोमियों 12:1-2 का पालन करना है, जिससे आप तथा आपके कार्य उसे स्वीकार्य हो सकें, और आप उसकी आशीषों के संभागी हो सकें। परमेश्वर की आज्ञाकारिता के अतिरिक्त, उसे प्रसन्न करने, उसे आशीषें पाने का कोई अन्य मार्ग नहीं है (1 शमूएल 15:22) 

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • ज़कर्याह 1-4     
  • प्रकाशितवाक्य 18