ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें : rozkiroti@gmail.com / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

शनिवार, 29 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - चौथा स्तंभ; प्रार्थना


प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का चौथा स्तंभ, प्रार्थना  

प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा जोड़ दिए लोगों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ के समय से ही सात बातें देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में दिया गया है। इनमें से अंतिम चार, एक साथ, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और इन्हें मसीही जीवन तथा कलीसिया की स्थिरता के लिए चार स्तंभ भी कहा जाता है; तथा इनके लिए इसी पद में यह भी लिखा है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग इन बातों का पालन करने मेंलौलीन रहे। हमने इन चारों में से पहली तीन, और सातों में से पहली छः बातों को पिछले लेखों में देखा है। आज इन चार में से चौथी तथा सात में से सातवीं बात, प्रार्थना में लौलीन रहने के बारे में देखते हैं। 

यहाँ हम देखते हैं कि प्रभु यीशु के उन आरंभिक अनुयायियों के जीवन में, आरंभ से ही प्रार्थना करने का बहुत महत्व रहा है। सामान्यतः परमेश्वर से प्रार्थना करने को परमेश्वर से कुछ माँगने या उससे प्राप्त करने के प्रयास करने के अभिप्राय से देखा और समझा जाता है। किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार परमेश्वर से प्रार्थना का अभिप्राय होता है परमेश्वर से वार्तालाप करना, जैसा प्रभु यीशु मसीह बहुधा किया करते थे (मरकुस 1:35; मत्ती 14:23; लूका 5:16; 6:12-13)। यह वार्तालाप औपचारिकता का निर्वाह नहीं, अपितु, किसी अंतरंग मित्र के साथ दिल खोल कर बात करने के समान है। अपने मन की बात परमेश्वर से खुल कर कहना, और परमेश्वर के मन की बात को उससे सुनना। अर्थात, प्रार्थना करना, परमेश्वर से संगति करने के समान है, निरंतर हर बात के लिए उसके संपर्क में बने रहना, हर बात के लिए उसकी इच्छा जानकर उसके अनुसार कार्य करना। जब मसीही विश्वासी परमेश्वर के साथ ऐसे निकट संबंध और संपर्क में रहेगा, परमेश्वर की इच्छा के अनुसार अपना हर निर्णय और कार्य करेगा, तो स्वतः ही उसके जीवन में परमेश्वर की सामर्थ्य भी प्रकट रहेगी, उसके कार्य भी सफल होंगे, और वह परिस्थितियों द्वारा विचलित और निराश भी नहीं होगा, क्योंकि उसे विश्वास रहेगा के जो कुछ भी उसके जीवन में हो रहा है, वह परमेश्वर की इच्छा और योजना के अंतर्गत है, और अन्ततः उससे उसकी भलाई ही होगी (रोमियों 8:28) 

इसीलिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस द्वारा लिखवाया, “निरन्तर प्रार्थना में लगे रहो” (1 थिस्स्लुनीकियों 5:17)। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि सब कार्य छोड़कर किसी एकांत स्थान में आँख बंद करके और हाथ जोड़कर बैठे रहो और परमेश्वर से कुछ न कुछ कहते रहो। वरन यह कि हर समय, हर बात के लिए, परमेश्वर के साथ मन में एक मूक संवाद, एक वार्तालाप चलते रहना चाहिए, हर बात के लिए उसकी इच्छा जानते रहना चाहिए, उसकी इच्छा के अनुसार करते रहना चाहिए। जो इस प्रकार परमेश्वर के साथ अपना घनिष्ठ संबंध बनाए रखते हैं, वे प्रभु के इस वचन को भी समझ सकते हैं और उसके प्रति आश्वस्त रह सकते हैं कि समय और आवश्यकता के अनुसार उन्हें प्रभु से वचन और सहायता मिलती रहेगी (लूका 12:11-12); तथा इन अंत के दिनों की भयानक घटनाओं से बचने और शांति के साथ रहने वाले भी हो सकते हैं (लूका 21:34-36; प्रकाशितवाक्य 3:10)

मसीही विश्वासियों के लिए प्रार्थना करना कोई निर्धारित संख्या के अनुसार गिनकर करना नहीं है, जैसा हम पुराने नियम के कुछ संतों और परमेश्वर के भक्तों के साथ देखते हैं (भजन 55:17; भजन 119:164; दानिय्येल 6:10), वरन हर पल, हर समय परमेश्वर के साथ संपर्क में बने रहना, उससे हर बात के लिए वार्तालाप में बने रहना है। जो इस भाव में जीवन व्यतीत करेगा, फिर वह इस एहसास के साथ भी जीवन जीएगा कि मैं परमेश्वर के साथ, और परमेश्वर मेरे साथ निरंतर विद्यमान हैं। और ऐसी स्थिति में फिर उसके लिए किसी लोभ-लालच, बुरे विचार आदि में बहक कर पाप में गिरना कठिन हो जाएगा, वह शैतान के द्वारा सरलता से बहकाया-गिराया नहीं जाएगा। आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं कि जो इस प्रकार से प्रार्थना मेंलौलीनरहेगा, उसके  आत्मिक जीवन का स्तर कैसा होगा। साथ ही, परमेश्वर के साथ इस प्रकार से संगति और संपर्क वही बना कर रख सकता है, जो प्रभु द्वारा अपनाया गया हो, प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ा गया हो। किसी मानवीय या संस्थागत प्रक्रिया के निर्वाह के द्वाराकलीसियासे जुड़ने वाले व्यक्ति के लिए परमेश्वर के साथ इस प्रकार प्रार्थना में जुड़े रहना संभव ही नहीं होगा। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपका प्रार्थना का जीवन कैसा है? क्या आपके लिए प्रार्थना करना परमेश्वर से कुछ माँगना ही है, या एक अंतरंग मित्र के समान उससे अपने दिल की सभी बातें साझा करना, तथा उसके दिल की बातों को जानकर उनके अनुसार कार्य एवं व्यवहार करना है? आप का प्रार्थना का जीवन और प्रार्थना के प्रति आपका रवैया प्रकट करेगा कि आप वास्तव में प्रभु द्वारा उसकी कलीसिया से जोड़े गए जन हैं कि नहीं। यदि कहीं कोई कमी है, किसी सुधार की आवश्यकता है, तो अभी समय रहते जो भी ठीक करना है, वह कर लीजिए; कहीं बाद में समय और अवसर न मिले और कोई बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ जाए। 

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 21-22     
  • मत्ती 19 

शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - तीसरा स्तंभ; प्रभु की मेज़ में संभागी क्यों?

 प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का तीसरा स्तंभ, प्रभु की मेज़ का महत्व   

प्रभु की कलीसिया में, प्रभु द्वारा जोड़ दिए लोगों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ के समय से ही सात बातें देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में दिया गया है। इनमें से अंतिम चार, एक साथ, प्रेरितों 2:42 में दी गई हैं, और इन्हें मसीही जीवन तथा कलीसिया की स्थिरता के लिए चार स्तंभ भी कहा जाता है; तथा इनके लिए इसी पद में यह भी लिखा है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग इन बातों का पालन करने मेंलौलीन रहे। हमने इन चारों में से तीसरी, और सातों में से छठी बात, “रोटी तोड़नाया प्रभु के मेज़ में सम्मिलित होने के बारे में, पिछले लेख से देखना आरंभ किया है। पिछले लेख में हमने अपने शिष्यों के साथ फसह के पर्व का भोज खाने के दौरान प्रभु द्वारा अपनी इस मेज़ की स्थापना किए जाने के बारे में कुछ बातें और मसीही जीवन के लिए उनके अभिप्राय को देखा था। आज इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए प्रभु की मेज़ के महत्व के बारे में कुछ बातों को देखते हैं। 

प्रभु की मेज़ में भाग लेने के विषय पवित्र आत्मा द्वारा 1 कुरिन्थियों 11:17-34 में, प्रेरित पौलुस में होकर लिखवाया गया है, क्योंकि उस मण्डली में प्रभु की मेज़ का निरादर हो रहा था, वे लोग उस मेज़ में भाग लेने की गंभीरता और महत्व को अनदेखा करने लग गए थे। इस खंड के 23 पद में पौलुस यह स्पष्ट बता देता है कि प्रभु की मेज़ का यह दर्शन उसे प्रभु से ही प्राप्त हुआ, और उसने उन्हें भी पहुँचा दिया। इस खंड में प्रभु की मेज़ के विषय जो अनुचित बातें उन में देखी जा रही थीं, संक्षिप्त में, वे हैं:

  • अनुचित रीति से भाग लेने के कारण प्रभु की मेज़ उनके लिए हानि का कारण बन गई थी (पद 17, 27-32)
  • उन लोगों में परस्पर फूट और मतभेद थे, और विधर्मी लोग भी थे जो उस मेज़ में सम्मिलित होते थे (पद 18, 19)
  • प्रभु की मेज़ उनके लिए साथ मिलकर बैठने का नहीं, वरन भेद-भाव का और एक दूसरे को ऊँचा-नीचा दिखाने का माध्यम बन गई थी (पद 20-22, 33-34)
  • इस अनुचित व्यवहार के कारण उन्हें प्रभु से ताड़ना का सामना करना पड़ रहा था, यहाँ तक कि कुछ कि मृत्यु भी हो गई थी (पद 9-32)

       प्रभु की मेज़ में उचित रीति से भाग लेते समय उन्हें भी, और आज हमें भी, उपरोक्त गलतियों को हटाना है। साथ ही इस खंड में दी गई मेज़ के उद्देश्य और महत्व की तीन बातों को भी ध्यान रखना है। ये तीन बातें हैं:

  1. प्रभु की मेज़ खाने-पीने का भोज मनाने के लिए नहीं, वरन प्रभु के द्वारा दिए गए अपने बलिदान को स्मरण करने का अवसर है (पद 24-25); प्रभु ने अपनी देह और लहू का बलिदान क्यों और कैसे दिया, क्या कुछ सहा। उचित गंभीरता, आदर, एवं श्रद्धा के साथ यह स्मरण करना प्रभु के दूसरे आगमन तक चलते रहना चाहिए। 
  2. प्रभु के मेज़ में भाग लेना, उसकी मृत्यु को प्रचार करने के लिए है (पद 26); अर्थात प्रभु के बलिदान के बारे में औरों को बताने, उन तक सुसमाचार पहुँचाने के लिए। मेज़ में भाग लेने के द्वारा भाग लेने वाला प्रभु की मृत्यु के प्रचार के प्रति अपने समर्पण और आज्ञाकारिता को स्मरण करता तथा दोहराता है। 
  3. प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले प्रत्येक व्यक्ति को अपने आप को जाँचना है कि वह उचित रीति से भाग ले रहा है कि नहीं; क्योंकि अनुचित रीति से भाग लेने वाला अपने ऊपर दण्ड को लाता है (पद 27-32)। अपने आप को जाँच कर, अपनी गलतियों और पापों को प्रभु के सामने मान कर, उनके लिए पश्चाताप करने और प्रभु से क्षमा माँगने के बाद ही मेज़ में भाग लेना उचित है।

प्रभु के द्वारा उसकी मेज में भाग लेने के औचित्य, उद्देश्य, और महत्व को समझने के द्वारा हम समझ सकते हैं कि प्रभु ने अपने लोगों को शैतान की चालाकियों और बातों से शुद्ध और पवित्र रखने के लिए, तथा अपने शिष्यों को उसके सुसमाचार प्रचार के प्रति समर्पित एवं आज्ञाकारी बनाए रखने के लिए इस मेज़ की स्थापना की, और उसमें नियमित भाग लेते रहने के लिए कहा। इससे हम यह भी समझ सकते हैं कि क्यों यहूदा इस्करियोती को मेज़ में भाग नहीं मिला - क्योंकि वह मेज़ के उद्देश्यों को पूरा ही नहीं करता था। साथ ही हम यह भी समझने पाते हैं कि क्यों जो लोग एक रस्म के समान इसमें भाग लेते हैं, वे अपने लिए कितना बड़ा दण्ड मोल ले रहे हैं; क्योंकि मेज़ में भाग लेने से कोई प्रभु की दृष्टि में धर्मी नहीं बनता है - प्रभु ने तो जो उसकी दृष्टि में धर्मी हैं, उन्हीं के लिए मेज़ को स्थापित किया था, अधर्मियों को धर्मी बनाने के लिए नहीं। किन्तु अनुचित रीति से भाग लेने, या किसी को भाग दिलवाने के द्वारा व्यक्ति अपने लिए प्रभु से दण्ड और ताड़ना का भागी अवश्य बन जाता है। उचित रीति से भाग लेना आशीष का कारण है, क्योंकि व्यक्ति अपने आप को जाँच और सुधार कर मसीही जीवन में आगे बढ़ सकता है; और अनुचित रीति से या रस्म के समान भाग लेने और देने से व्यक्ति स्वयं ही अपने लिए दण्ड कमा लेता है। 

क्योंकि प्रभु की मेज़ में भाग लेने से पहले, व्यक्ति को अपने आप को जाँचना है, अपने पाप और गलतियों को प्रभु के सामने स्वीकार करना है, इसलिए मेज़ में भाग लेना भी एक उचित समय-अवधि के अनुसार होना चाहिए, जिससे अपने पिछले दिनों के जीवन को सहजता से स्मरण और पुनःअवलोकन किया जा सके। आरंभिक कलीसिया के लोग इसमें लौलीन रहते थे, प्रतिदिन, घर-घर में प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होते थे (प्रेरितों 2:46); किन्तु कुछ समय के पश्चात, यह सामूहिक एकत्रित होना, और रोटी तोड़ना या प्रभु के मेज़ में भाग लेना, सप्ताह के पहले दिन की आराधना सभा (1 कुरिन्थियों 16:2) के साथ जुड़ गया (प्रेरितों 20:7)। सप्ताह भर की यह अवधि, मेज़ में भाग लेने से पहले अपने जीवन का पुनः अवलोकन करने और हफते भर में हुई किसी भी गलती, बुराई, या पाप को ध्यान करके प्रभु के सामने मानने के लिए सहज रहती है। महीने में एक बार, या अन्य किसी समय-अवधि के अनुसार मेज़ में भाग लेने का वचन में कोई समर्थन नहीं है। साथ ही यह कोई रस्म भी नहीं है, इसे भी हम देख चुके हैं।

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु की मेज़ में भाग लेने के महत्व के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है? ध्यान कीजिए, 1 कुरिन्थियों 11:17-32 के पदों में प्रभु और पवित्र आत्मा ने मेज़ में भाग लेने को वैकल्पिक, या, इच्छानुसार नहीं लिखा है, वरन अनिवार्य किया है। इन पदों में स्पष्ट आया है कि मण्डली के लोगों को भाग लेना था; किन्तु यह भी उतना ही स्पष्ट है कि उचित रीति से भाग लेना था। प्रभु की मेज़ में भाग न लेना, प्रभु की अनाज्ञाकारिता है, दण्डनीय है; और अनुचित रीति से भाग लेना भी दण्डनीय है। अर्थात, प्रभु ने अपने लोगों के लिए एक बहुत संकरा किन्तु बहुत उत्तम मार्ग दिया है, जिससे हम अपनी पिछली बुराइयों, गलतियों, पापों को लिए हुए मसीही जीवन में आगे न बढ़ें, वरन प्रभु से क्षमा और आशीष के साथ मसीही जीवन में उन्नत होते चले जाएं। 

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 19-20     
  • मत्ती 18:21-35

गुरुवार, 27 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - तीसरा स्तंभ; प्रभु की मेज़ में संभागी


प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का तीसरा स्तंभ

प्रभु की मेज़ की स्थापना से शिक्षाएँ     

    इस श्रृंखला में हम देखते आ रहे हैं कि अपने पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु पर लाए गए विश्वास द्वारा पापों की क्षमा तथा उद्धार प्राप्त करने पर प्रभु व्यक्ति को अपनी कलीसिया, अपने लोगों के समूह के साथ जोड़ देता है। प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ दिए जाने वाले व्यक्तियों के जीवनों में, कलीसिया के आरंभ से ही, सात बातें भी देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में बताया गया है। इन सात में से चार बातें, प्रेरितों 2:42 में लिखी गई हैं, और इन चारों के लिए यह भी कहा गया है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग उन मेंलौलीन रहे। इन चार बातों को मसीही जीवन तथा कलीसिया को स्थिर और दृढ़ बनाए रखने वाले चार स्तंभ भी कहा जाता है। पिछले लेखों में हम सात में से पाँच बातें देख चुके हैं। आज हम छठी बात, जो 2:42 की तीसरी बात, और कलीसिया तथा मसीही जीवन का तीसरा स्तंभ है, ‘रोटी तोड़नाके बारे में कुछ बातें देखेंगे, और इन्हें अगले लेख में पूरा करने का प्रयास करेंगे

जब परमेश्वर ने इस्राएलियों को मूसा के द्वारा मिस्र के दासत्व से छुड़ाया था, तो उनके छुटकारे की रात को उन्हेंफसह का पर्वयालाँघन पर्वमनाने की विधि भी दी थी, जिसका वर्णन निर्गमन 12 अध्याय में दिया गया है। इस पर्व को, व्यवस्था के दिए जाने के समय, इस्राएल के वार्षिक पर्वों में सम्मिलित किया गया (लैव्यव्यवस्था 23:5-8)। निर्गमन 12 में दिए गए विवरण के अनुसार, फसह का यह पर्व परिवार जनों के द्वारा साथ मिलकर मनाया जाना था, और यदि परिवार छोटा हो, तो किसी अन्य निकट के छोटे परिवार के साथ सम्मिलित होकर मनाया जाना था (निर्गमन 12:3-4)। यह पर्व पापों से और शैतान के दासत्व से प्रभु यीशु के बलिदान के द्वारा छुटकारे का प्रतीक था। इस प्रतीकात्मक पर्व को वास्तविक करने से ठीक पहले, प्रभु यीशु मसीह ने यह पर्व अपने शिष्यों के साथ मनाया था (मत्ती 26:17-19)। इस पर्व को मनाते समय, पर्व की रीति के अनुसार शिष्यों के साथ भोजन करते समय, प्रभु ने एक और कार्य भी किया - जो पर्व की विधि से कुछ भिन्न था - प्रभु ने रोटी और कटोरे को लेकर उन्हें अपनी देह और लहू का चिह्न बताया और उसे शिष्यों में वितरित किया। इस पर्व के मनाए जाने और प्रभु द्वारा इस प्रकार से रोटी और कटोरे को अपनी देह और लहू का चिह्न बताने का उल्लेख चारों सुसमाचारों में किया गया है।

इस पर्व के मनाए जाने और प्रभु द्वारा रोटी और कटोरा दिए जाने के चारों सुसमाचारों के वर्णनों को साथ मिलाकर ध्यान से तथा क्रमवार देखने से स्पष्ट हो जाता है कि प्रभु ने फसह के पर्व का भोजन बारहों शिष्यों के साथ आरंभ किया, अर्थात फसह के भोज के समय यहूदा इस्करियोती भी उनके साथ था, और जब प्रभु ने शिष्यों के पाँव धोए, तो यहूदा के भी धोए थे (यूहन्ना 13:4-25)। और फसह के भोज का पहला टुकड़ा, प्रभु ने यहूदा इस्करियोती को दिया, जिसने उसके साथ थाली में हाथ डाला था (मत्ती 26:23, मरकुस 14:20; लूका 22:21; यूहन्ना 13:26), और उससे कहा कि जो तुझे करना है सो कर (यूहन्ना 13:27)। फसह के पर्व का वह पहला टुकड़ा दिए जाने के साथ भोज को खाना आरंभ हो गया, प्रभु और शिष्य फसह के भोज को खाने लगे, और प्रभु से वह टुकड़ा लेते ही यहूदा तुरंत बाहर चला गया (यूहन्ना 13:30); किन्तु यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह कहीं नहीं लिखा है कि यहूदा ने उस टुकड़े को लेकर खाया भी। यहूदा के चले जाने के बाद, जब वे खा रहे थे, तब प्रभु यीशु ने भोज में से उठकर रोटी और कटोरे को उन्हें अपनी देह और लहू के चिह्न के रूप में दिया, और उनसे यह करते रहने के लिए कहा (मत्ती 26:26-28; मरकुस 14:22-25; लूका 22:19-20)। अर्थात, शैतान का वह जन, यहूदा इस्करियोती फसह के पर्व की आरंभिक प्रक्रियाओं में तो था, और प्रभु ने उसे बदलने का मौका भी दिया, उसके पाँव धोए, उससे प्रेम दिखाया, उसे सब के सामने प्रकट और शर्मिंदा नहीं किया, और भोज का पहला टुकड़ा भी उसे ही दिया, जो पारंपरिक रीति से प्रिय जन को दिया जाता था। किन्तु न तो वह बदला, और न उसने फसह का भोज खाया और न ही प्रभु द्वारा रोटी और लहू का चिह्न स्थापित किए जाने के समय वह उनके मध्य में उपस्थित था। 

प्रभु की मेज़, प्रभु भोज का यह दर्शन कुछ बहुत गंभीर तथ्य हमारे सामने रखता है। न ही प्रभु यीशु ने, और न ही उनके उन शिष्यों ने यह पर्व अपने निज परिवारों के साथ मनाया, वरन एक साथ मिलकर मनाया - प्रभु में लाए गए विश्वास और समर्पण के द्वारा अब प्रभु और उसके अन्य विश्वासी ही उनकापरिवारथे, जो यूहन्ना 1:12-13 में प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास के द्वारा परमेश्वर की संतान, प्रभु की कलीसिया और परमेश्वर के घराने के लोग (इफिसियों 2:19) होने की पुष्टि करता है। फिर, प्रभु की मेज़, प्रभु के सच्चे समर्पित लोगों के लिए है, सार्वजनिक निर्वाह के लिए कोई प्रथा या परंपरा नहीं है। प्रभु ने इसमें भाग लेने के लिए केवल अपने साथ रहने वाले उन शिष्यों को ही आमंत्रित किया, सर्व-साधारण को नहीं; और फिर शिष्यों में से भी जब शैतान का जन चला गया, तब ही प्रभु ने इसे स्थापित किया। निःसंदेह, इसमें भाग लेने वाले शिष्य सिद्ध नहीं थे - थोड़ी ही देर बाद सब के सब प्रभु को छोड़ कर भाग गए, और पतरस ने तो तीन बार प्रभु का इनकार भी किया। किन्तु पुनरुत्थान के बाद प्रभु ने इन्हीं शिष्यों को फिर से दृढ़ और स्थापित कर के कलीसिया का आरंभ किया, सारे संसार में सुसमाचार को पहुँचाया, और उन्हीं के द्वारा संसार भर में कलीसिया का दर्शन गया, कलीसिया स्थापित हुईं। प्रभु की मेज़ से संबंधित कुछ अन्य तथ्य हम आगे अगले लेख में देखेंगे। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके मसीही जीवन को स्थिर और दृढ़ रखने में, आपको प्रभु के लिए उपयोगी बनाने में, प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होने की एक बहुत प्रमुख और महत्वपूर्ण भूमिका है। किन्तु ध्यान रखिए कि यह कोई रस्म या परंपरा नहीं है, जिसमें भाग लेने के द्वारा आप परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी हो जाते हैं। वरन, अनुचित रीति से भाग लेने के द्वारा, व्यक्ति दंड के भागी हो जाते हैं। इसलिए प्रभु की मेज़ में, प्रभु भोज में सम्मिलित होने से पहले इसके अर्थ और दर्शन को भली भांति समझकर, तब उचित रीति से इसमें सम्मिलित हों, अन्यथा अनुचित रीति से भाग लेना बहुत भारी पड़ जाएगा। 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।



एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 16-18     
  • मत्ती 18:1-20 

बुधवार, 26 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - दूसरा स्तंभ; संगति रखना


प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का दूसरा स्तंभ, संगति में साथ      

       अपने पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु पर लाए गए विश्वास द्वारा पापों की क्षमा तथा उद्धार प्राप्त करने पर प्रभु व्यक्ति को अपनी कलीसिया, अपने लोगों के समूह के साथ जोड़ देता है। प्रभु की कलीसिया के साथ जोड़ दिए जाने वाले व्यक्तियों के जीवनों में आरंभ से ही सात बातें भी देखी जाती रही हैं, जिन्हें प्रेरितों 2:38-42 में बताया गया है। इन सात में से चार बातें, प्रेरितों 2:42 में लिखी गई हैं, और उनके लिए यह भी कहा गया है कि उस आरंभिक कलीसिया के लोग उन मेंलौलीन रहे। इन चार बातों को मसीही जीवन तथा कलीसिया को स्थिर और दृढ़ बनाए रखने वाले चार स्तंभ भी कहा जाता है। पिछले लेखों में हम सात में से चार बातें देख चुके हैं। आज हम पाँचवीं बात, जो 2:42 की दूसरी बात, और कलीसिया तथा मसीही जीवन का दूसरा स्तंभ है, ‘संगति रखनाके बारे में देखेंगे। 

       सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य का अकेले रहना परमेश्वर को पसंद नहीं था; वह आदम को एक ऐसा सहायक देना चाहता था जो उससे मेल खाता हो (उत्पत्ति 2:18)। इसलिए परमेश्वर पहले पृथ्वी के सभी जीव-जंतुओं को आदम के पास लाया, आदम ने उन सभी के नाम रखे, किन्तु उनमें से कोई भी आदम से मेल रखने वाला, उसका सहायक बन सकने वाला नहीं मिला (उत्पत्ति 2:19-20)। आदम को यह एहसास दिलाने के बाद कि वह सारी सृष्टि के सभी जीवों से भिन्न है, परमेश्वर ने उसके समान एक सहायक की रचना करके उसे आदम के साथ रख दिया (उत्पत्ति 2:21-22)। अर्थात, सृष्टि के आरंभ से ही न केवल मनुष्य परस्पर संगति में रहते थे, वरन परमेश्वर भी उनके साथ संगति करता था, उनसे मिलने आता था (उत्पत्ति 3:8)। साथ ही, शैतान हव्वा को तब ही बहका कर पाप में गिराने पाया जब वह अकेली थी (उत्पत्ति 3:1-2); अकेली स्त्री पाप में गिरी, फिर उसने आदम को भी पाप गिराया (उत्पत्ति 3:6), और उस पाप के कारण वे दोनों परमेश्वर की संगति से भी दूर हो गए। परस्पर संगति में तथा परमेश्वर के साथ संगति में बने रहने में बहुत सामर्थ्य है; पाप में पतित और पाप के कारण भ्रष्ट बुद्धि वाले हम मनुष्य इसे नहीं समझते हैं, किन्तु शैतान इस जानता और समझता है; इसीलिए वह हमें भी एक-दूसरे से दूर रखने तथा हमें परमेश्वर से दूर रखने के विभिन्न उपाय कार्यान्वित करता रहता है, कि कहीं हम परस्पर और परमेश्वर के साथ संगति की सामर्थ्य को पहचान कर, एक-मनता के साथ रहें और उसके लिए परेशानी का कारण न बन जाएं। 

राजा सुलैमान ने लिखा, “एक से दो अच्छे हैं, क्योंकि उनके परिश्रम का अच्छा फल मिलता है। क्योंकि यदि उन में से एक गिरे, तो दूसरा उसको उठाएगा; परन्तु हाय उस पर जो अकेला हो कर गिरे और उसका कोई उठाने वाला न हो। फिर यदि दो जन एक संग सोए तो वे गर्म रहेंगे, परन्तु कोई अकेला क्योंकर गर्म हो सकता है? यदि कोई अकेले पर प्रबल हो तो हो, परन्तु दो उसका सामना कर सकेंगे। जो डोरी तीन तागे से बटी हो वह जल्दी नहीं टूटती” (सभोपदेशक 4:9-12)। प्रभु यीशु मसीह ने भी अपने शिष्यों से उनकी एक-मनता की सामर्थ्य के विषय में कहा, “फिर मैं तुम से कहता हूं, यदि तुम में से दो जन पृथ्वी पर किसी बात के लिये जिसे वे मांगें, एक मन के हों, तो वह मेरे पिता की ओर से स्वर्ग में है उन के लिये हो जाएगी। क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं वहां मैं उन के बीच में होता हूं” (मत्ती 18:19-20)। अर्थात, जहाँ भी प्रभु के लोग एक मन होकर साथ हैं, सहमत हैं, वहाँ प्रभु परमेश्वर भी उनके साथ उस बात में सहमत है, उनके साथ विद्यमान है; वे चाहे संख्या में दो या तीन ही क्यों न हों! प्रभु यीशु ने हमारे पापों की क्षमा और उद्धार के लिए किए गए कार्य के द्वारा न केवल हमारे बीच के विभाजनों की दीवार को हटा दिया और हम सभी मनुष्यों को एक साथ जोड़ दिया, वरन साथ ही हमें एक साथ मिलाकर परमेश्वर का निवास-स्थान भी बना दिया, और परमेश्वर के साथ संगति में भी बहाल कर दिया (इफिसियों 2:11-22), हमारा मेल-मिलाप पिता परमेश्वर के साथ भी करवा दिया (रोमियों 5:1, 10-11) 

क्योंकि हमारा यह साथ मिलकर रहना और परमेश्वर की संगति में रहना हमारे व्यक्तिगत मसीही जीवन और कलीसिया की सामर्थ्य के लिए, तथा प्रभु के लिए उपयोगी एवं प्रभावी होने का कारगर उपाय है, इसीलिए शैतान हमें परस्पर एक-मनता में नहीं रहने देता है, और परमेश्वर के साथ भी हमारी संगति को बाधित करता रहता है। उसने विभाजित रखने का यह षड्यंत्र कलीसिया के आरंभ से कार्यान्वित कर दिया था (रोमियों 15:5-6; 1 कुरिन्थियों 1:10-13; 11:18; 2 कुरिन्थियों 12:20; गलातियों 5:15; याकूब 4:1-2; आदि), और आज भी प्रभु के लोगों को एक मन होकर साथ रहने से रोकने के उपाय करता रहता है। यह एक दुख भरा कटु सत्य है कि आज हम प्रभु के लोग, एक ही प्रभु, एक ही कलीसिया के सदस्य होते हुए भी, साथ मिलकर रहने और कार्य करने के उपाय नहीं ढूँढ़ते हैं, वरन एक दूसरे से अलग रहने, अलग-अलग रहकर कार्य करने के कारण और तरीके ढूँढ़ते, और निभाते रहते हैं। जबकि होना इसका विपरीत चाहिए (इफिसियों 4:1-6)। इसीलिए हमारे व्यक्तिगत मसीही जीवन और हमारी कलीसिया के जीवनों और गवाहियों में इतनी दुर्बलता है; शैतान इतनी सरलता से संसार में हमें प्रभु के लिए निष्क्रिय, निष्फल, और जगत में उपहास का विषय बनाए रखता है। आरंभिक कलीसिया के लोग परस्पर संगति रखने में भी लौलीन रहते थे, इसीलिए परमेश्वर की सामर्थ्य उनमें रहती थी, उनके द्वारा कार्य करती थी, “निदान, हे भाइयो, आनन्दित रहो; सिद्ध बनते जाओ; ढाढ़स रखो; एक ही मन रखो; मेल से रहो, और प्रेम और शान्ति का दाता परमेश्वर तुम्हारे साथ होगा” (2 कुरिन्थियों 13:11)

यदि हम मसीही विश्वासियों को, प्रभु की कलीसिया के सदस्यों को, इन अंत के दिनों में अपने मसीही विश्वास में स्थिर और दृढ़ रहना है, और प्रभु के लिए उपयोगी एवं प्रभावी होना है, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा द्वारा पौलुस प्रेरित में होकर फिलिप्पी की कलीसिया को लिखे गए आग्रह को पूरा करना होगा, “सो यदि मसीह में कुछ शान्ति और प्रेम से ढाढ़स और आत्मा की सहभागिता, और कुछ करुणा और दया है। तो मेरा यह आनन्द पूरा करो कि एक मन रहो और एक ही प्रेम, एक ही चित्त, और एक ही मनसा रखो। विरोध या झूठी बड़ाई के लिये कुछ न करो पर दीनता से एक दूसरे को अपने से अच्छा समझो। हर एक अपनी ही हित की नहीं, वरन दूसरों की हित की भी चिन्ता करे। जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो” (फिलिप्पियों 2:1-5)। इसलिए, यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु के भय में होकर इस आग्रह के निर्वाह का प्रयास करते रहें; कलीसिया में कभी मतभेद और विभाजनों का नहीं, अपितु प्रेम और मेल-मिलाप का कारण बनें, तब ही आप परमेश्वर की संतान कहलाएंगे (मत्ती 5:9)  

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 14-15     
  • मत्ती 17

मंगलवार, 25 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली – पहला स्तंभ; वचन की शिक्षा

      

प्रभु यीशु में स्थिरता और दृढ़ता का पहला स्तंभ, वचन में स्थापित      

पिछले कुछ लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि प्रभु की कलीसिया के साथ प्रभु द्वारा जोड़ दिए जाने वाले उसके जन, एक वास्तविक मसीही विश्वासी के जीवन में, कलीसिया से जुड़ने के साथ ही सात बातें भी जुड़ जाती हैं, उसके जीवन में दिखने लगती हैं। ये सातों बातें प्रेरितों 2:38-42 में दी गई हैं, और प्रत्येक मसीही विश्वासी के जीवन में इनका विद्यमान होना कलीसिया के आरंभ से ही देखा जा रहा है। आज भी व्यक्ति के जीवन में इन बातों की सत्यनिष्ठ उपस्थिति यह दिखाती है कि वह व्यक्ति प्रभु का जन है, उसकी कलीसिया के साथ जोड़ दिया गया है। इनमें से पहली तीन को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं। प्रेरितों 2:42 में शेष चार बातें दी गई हैं, जिनमें उस प्रथम कलीसिया के सभी लोगलौलीन रहे। ये चारों बातें साथ मिलकर मसीही जीवन और कलीसिया के लिए चार स्तंभ का कार्य करती हैं, जिससे व्यक्ति का मसीही जीवन और कलीसिया स्थिर और दृढ़ बने रह सकें। आज से हम इन चारों बातों को अलग-अलग देखना आरंभ करेंगे। 

प्रेरितों 2:42 में दी गई पहली बात हैप्रेरितों से शिक्षा पाना। जिस समय प्रेरितों 2 अध्याय की घटना घटित हुई, और प्रथम कलीसिया की स्थापना हुई, उस समय परमेश्वर का वचन जो लोगों के पास था, वह हमारी वर्तमान बाइबल कापुराना नियमखंड था; और वह भी फरीसियों, शास्त्रियों, सदूकियों के नियंत्रण में था। ये लोग उस वचन को अपनी सुविधा के अनुसार तोड़-मरोड़ कर अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग किया करते थे (मत्ती 15:1-9)। साथ ही उन्होंने उस वचन की बहुत सी गलत व्याख्याएं भी लोगों में फैला रखी थीं; इसीलिए प्रभु यीशु के पहाड़ी उपदेश (मत्ती 5-7 अध्याय) में हम बारंबार प्रभु को यह कहते पाते हैं, “तुम सुन चुके हो”, “तुम्हें कहा गया है”, आदि, और फिरपरंतु मैं तुम से कहता हूँ” - अर्थात प्रभु ने वचन की गलत शिक्षाओं को उनके वास्तविक और सही रूप में लोगों के सामने रखा। उस समय के यहूदी समाज के ये धर्म के अगुवे प्रभु यीशु के विरोधी थे, और प्रभु की शिक्षाओं तथा प्रभु यीशु में पापों की क्षमा एवं उद्धार के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार का विरोध करते थे। इसलिए इन धर्म के अगुवों के विरोध और उनके परमेश्वर के वचन की उनकी गलत समझ एवं जानकारी के कारण यह संभव ही नहीं था कि प्रभु की सही शिक्षाएं जन-सामान्य तक पहुंचाई जातीं। इसीलिए प्रभु ने यह दायित्व अपने चुने हुए लोगों, अपने प्रेरितों को, अपने स्वर्गारोहण के समय सौंपा था (मत्ती 28:18-20)। प्रभु ने अपनी शिक्षाओं का भण्डारी अपने इन प्रेरितों को बनाया था, और उनकी ज़िम्मेदारी थी कि वे लोगों को प्रभु की शिक्षाएं सिखाएं। जैसे-जैसे मण्डली या कलीसिया बढ़ने लगी, शैतान ने भी वचन की सही शिक्षा को लोगों तक पहुँचने से रोकने के प्रयास किए (प्रेरितों 6:1-7) किन्तु उन प्रेरितों ने प्रार्थना और वचन की सेवकाई के प्रति अपने दायित्व की प्राथमिकता को नहीं छोड़ा (6:4), परिणामस्वरूप, वचन का प्रसार हुआ, शिष्यों की संख्या भी बढ़ी, और यहूदी याजकों का भी एक बड़ा समुदाय प्रभु के शिष्यों के साथ जुड़ गया (6:7) 

जब वचन सभी स्थानों पर फैलने लगा, प्रभु यीशु के अनुयायी बढ़ने लगे, तो प्रभु ने वचन की इस सेवकाई, वचन की शिक्षा उसके लोगों तक पहुँचाने के लिए और लोगों को भी कलीसिया में नियुक्त किया (1 कुरिन्थियों 12:28; इफिसियों 4:11-12)। पौलुस प्रेरित में होकर कलीसिया की देखभाल करने वालों को वचन की सही शिक्षा देने (2 तिमुथियुस 3:16-17) का दायित्व सौंपा गया, तथा उन्हें इस बात का ध्यान रखने को कहा गया कि वे भविष्य के लिए वचन की सही शिक्षा देने वालों को भी तैयार करें (2 तिमुथियुस 2:1-2)। और तब से लेकर आज तक यह सिलसिला इसी प्रकार चलता चला आ रहा है - प्रभु के समर्पित और आज्ञाकारी सेवक, जिन्हें प्रभु ने वचन की इस सेवकाई के लिए नियुक्त किया है, वे प्रार्थना और वचन के अध्ययन में प्रभु के साथ समय बिताते हैं, प्रभु से सीखते हैं, और फिर उन शिक्षाओं को प्रभु के लोगों तक पहुँचा देते हैं, तथा भावी पीढ़ी में इसी सेवकाई के लिए प्रभु और लोगों को उन से सीखने तथा औरों को सिखाने के लिए उनमें जोड़ता चला जाता है। 

ध्यान कीजिए, प्रभु ने कभी भी, कहीं भी, अपने शिष्यों से यह नहीं कहा कि भले बनो, भलाई करो, भलाई की बातें सिखाओ, और परमेश्वर तुम्हारे साथ रहेगा। प्रभु ने अपने शिष्यों से सुसमाचार प्रचार करने के लिए कहा, उसकी बातें संसार के लोगों को सिखाने के लिए कहा (प्रेरितों 1:8)। लोगों को परमेश्वर और उसके वचन से भटकाने और उन्हें उनके पापों में फँसाए रखने के लिए शैतान ने ही यह प्रभु के वचन और प्रभु की आज्ञाकारिता मेंलौलीन रहनेके स्थान परभले बनो, भला करोकामंत्रलोगों में डाला है। भले बनना और भला करना अच्छा है, किन्तु इसे परमेश्वर के वचन और उसकी आज्ञाकारिता के स्थान पर रखना अच्छा नहीं, घातक है। जो प्रभु परमेश्वर के वचन के आज्ञाकारी रहेंगे, वे स्वतः ही भले भी हो जाएंगे, और भलाई भी करेंगे। किन्तु भले बनने और भलाई करने से कोई प्रभु के वचन को नहीं सीख अथवा सिखा सकता है। ध्यान कीजिए, संसार का पहला पाप था परमेश्वर के वचन, उसके द्वारा दिए गए निर्देश की अनाज्ञाकारिता करना; और हव्वा से यह पाप करवाने के लिए शैतान ने उसके मन में परमेश्वर के वचन, उसके निर्देशों की सार्वभौमिकता और भलाई के प्रति संदेह उत्पन्न किया। आज भी शैतान इसी कुटिलता का ऐसे ही प्रयोग करता है - परमेश्वर के वचन और आज्ञाकारिता से ध्यान भटका कर, उनके प्रति संदेह उत्पन्न कर के, अपनी बातों में फँसा लेता है, पाप में गिरा देता है।

कनान देश में प्रवेश करने से ठीक पहले परमेश्वर ने यहोशू से कहा, “इतना हो कि तू हियाव बान्धकर और बहुत दृढ़ हो कर जो व्यवस्था मेरे दास मूसा ने तुझे दी है उन सब के अनुसार करने में चौकसी करना; और उस से न तो दाहिने मुड़ना और न बांए, तब जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा काम सफल होगा। व्यवस्था की यह पुस्तक तेरे चित्त से कभी न उतरने पाए, इसी में दिन रात ध्यान दिए रहना, इसलिये कि जो कुछ उस में लिखा है उसके अनुसार करने की तू चौकसी करे; क्योंकि ऐसा ही करने से तेरे सब काम सफल होंगे, और तू प्रभावशाली होगा। क्या मैं ने तुझे आज्ञा नहीं दी? हियाव बान्धकर दृढ़ हो जा; भय न खा, और तेरा मन कच्चा न हो; क्योंकि जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा परमेश्वर यहोवा तेरे संग रहेगा” (यहोशू 1:7-9)। और कनान देश में इस्राएलियों को बसाने के बाद यहोशू ने अंत में आकर लोगों से कहा, “इसलिये अब यहोवा का भय मानकर उसकी सेवा खराई और सच्चाई से करो; और जिन देवताओं की सेवा तुम्हारे पुरखा महानद के उस पार और मिस्र में करते थे, उन्हें दूर कर के यहोवा की सेवा करो। और यदि यहोवा की सेवा करनी तुम्हें बुरी लगे, तो आज चुन लो कि तुम किस की सेवा करोगे, चाहे उन देवताओं की जिनकी सेवा तुम्हारे पुरखा महानद के उस पार करते थे, और चाहे एमोरियों के देवताओं की सेवा करो जिनके देश में तुम रहते हो; परन्तु मैं तो अपने घराने समेत यहोवा की सेवा नित करूंगा” (यहोशू 24:14-15)

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं तो ध्यान रखिए कि आत्मिककनान देश’ - प्रभु की आशीषों, सुरक्षा, और संगति में प्रवेश करने वाले प्रत्येकइस्राएलीअर्थात प्रभु के जन के लिए इसी प्रकार से प्रभु के वचन में स्थिर और दृढ़ बने रहना अनिवार्य है। ऐसा करने से, जैसा यहोवा ने यहोशू को प्रतिज्ञा दी, वैसे ही मसीही विश्वासी के लिए भी, “तब जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा काम सफल होगा”; “ऐसा ही करने से तेरे सब काम सफल होंगे, और तू प्रभावशाली होगा”; “जहां जहां तू जाएगा वहां वहां तेरा परमेश्वर यहोवा तेरे संग रहेगा। प्रभु यीशु मसीह ने कहा है कि उसके वचन से व्यक्ति का प्रेम और आज्ञाकारिता ही व्यक्ति के प्रभु से प्रेम का माप है, वास्तविक सूचक है (यूहन्ना 14:21, 23)। प्रभु द्वारा दिए गए इस माप-दण्ड के आधार पर आज आप वचन की शिक्षा के संदर्भ में कहाँ खड़े हैं? अभी समय और अवसर है, जो आवश्यक हैं, अपने जीवन में वे सुधार कर लीजिए, जिससे कल की किसी बड़ी हानि की संभावना से बच सकें।   

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 12-13     
  • मत्ती 16 

सोमवार, 24 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - चार स्तंभ

 

प्रभु यीशु की कलीसिया - स्थिरता और दृढ़ता का उपाय  

प्रभु यीशु की कलीसिया में जुड़ने के साथ ही, सच्चे मसीही विश्वासी में, वास्तविकता में प्रभु के जन बन जाने वाले व्यक्ति में सात बातें देखी जाती हैं, जो प्रेरितों 2:38-42 में दी गई हैं, और जिन्हें हम पिछले कुछ लेखों में क्रमवार देखते आ रहे हैं। अभी तक हम पहली तीन बातें - अपने पापों के लिए पश्चाताप और उनके लिए प्रभु यीशु से क्षमा माँगने के साथ यीशु को प्रभु स्वीकार करना, प्रभु द्वारा किए गए भीतरी परिवर्तन की बपतिस्मे के द्वारा सार्वजनिक गवाही देना, और प्रभु के प्रति पूर्णतः समर्पित एवं आज्ञाकारी होकर, अपने आप को संसार तथा सांसारिक लालसाओं से पृथक करना और प्रभु के कार्य में संलग्न रहना, चाहे इसके लिए कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। प्रकट है कि प्रभु के प्रति सच्चे और वास्तविक समर्पण के बिना यह कर पाना संभव नहीं है, क्योंकि सताव और विपरीत परिस्थितियों में भी प्रभु के प्रति प्रतिबद्ध और आज्ञाकारी बने रहना परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के बिना संभव नहीं है; और पवित्र आत्मा की सामर्थ्य केवल प्रभु यीशु के वास्तविक शिष्यों के साथ ही होगी, किसी मानवीय अथवा संस्थागत रीति से, अपनी ही ओर सेकलीसियासे जुड़ जाने वालों के साथ नहीं। यहीं पर प्रभु के सच्चे और समर्पित लोगों तथा दिखाने भर के लिएकलीसियासे जुड़ने वालों के मध्य अंतर प्रकट हो जाता है।

 प्रेरितों 2:41 में एक परिवर्तन दिखाया गया है, पतरस द्वारा किए गए उस प्रचार के फलस्वरूप, “सो जिन्होंने उसका वचन ग्रहण किया उन्होंने बपतिस्मा लिया; और उसी दिन तीन हजार मनुष्यों के लगभग उन में मिल गएसात में से शेष चार बातें उन लोगों के प्रभु के शिष्यों के साथ जुड़ जाने के बाद उनके जीवन में निरंतर पाई जाने वाली बातें थीं; इन चार बातों के लिए प्रेरितों 2:42 में लिखा है कि ये नए मसीही विश्वासी इसके बाद से इन मेंलौलीन रहे”, अर्थात, ये बातें उनके जीवन का अभिन्न अंग, उनके लिए प्राथमिकता से निर्वाह का विषय बन गईं। ये चार बातें हैं प्रेरितों से शिक्षा पाना, अर्थात प्रभु के वचन की शिक्षा और अध्ययन, प्रभु के लोगों के साथ संगति में बने रहना, प्रभु के नाम से रोटी तोड़ना या प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ में सम्मिलित होते रहना, और प्रार्थना करना। ये चार बातें कलीसिया के लिए, मसीही विश्वासी के मसीही जीवन के लिए स्थिरता और दृढ़ता देने वाले चारों कोनों के चार स्तंभ हैं। जिस भी मसीही विश्वासी के जीवन में इनमें से एक भी स्तंभ कमजोर पड़ेगा, या हट जाएगा, उसका मसीही विश्वास का जीवन तुरंत कमजोर पड़ जाएगा। जिस स्थानीय कलीसिया में ये बातें नहीं होंगी, या इनकी प्राथमिकता नहीं होगी, वह स्थानीय कलीसिया दुर्बल पड़ जाएगी, प्रभु के लिए अप्रभावी हो जाएगी, और शैतान को उस कलीसिया में अपने कार्य करने के लिए प्रचुर अवसर मिलने लगेंगे। इन चारों बातों के एक साथ निर्वाह करने और इनके सामूहिक महत्व को दिखाने के लिए ही इन्हें एक साथ, एक ही वाक्य में लिखवाया गया है, और साथ ही यह भी लिखवाया गया है कि वे आरंभिक विश्वासी इन चारों में “लौलीन रहे 

अपने आप को ईसाई या मसीही कहने वाले अधिकांश लोगों में, उनके व्यक्तिगत जीवन में तथा उनकीकलीसियाकी सामूहिक जीवन में भी, इन चारों बातों का महत्व और निर्वाह आज देखने को या मिलता ही नहीं है, या इनमें से किसी एक या दो का पालन करना एक औपचारिकता मात्र बन कर रह गया है। यही इस बात का एक बड़ा प्रमाण है कि उनका जीवन वास्तव में प्रभु के साथ जुड़ा हुआ नहीं है; वे केवल ऊपरी रीति से, दिखाने भर के लिए प्रभु की कलीसिया से जुड़े हैं, वास्तविकता में नहीं। वास्तविकता में वे अभी भी संसार के साथ ही जुड़े हुए हैं, संसार ही के जन हैं, इसीलिए संसार और सांसारिकता की बातें उनके लिए अधिक महत्व रखती हैं और उन्हीं बातों का पालन करना उनकी प्राथमिकता है। यदि वे नश्वर संसार की नाशमान बातों से कुछ समय निकालने पाते हैं, तो प्रभु के प्रति अपने दायित्व के लिए, दिखाने भर का औपचारिकता का हल्का सा प्रयास कर लेते हैं। यदि इन सातों बातों के क्रम के अनुसार देखें, तो जो वास्तव में सच्चा पश्चाताप करेगा, मन फिराएगा, और अपने इस मन फिराव की वास्तविकता की सार्वजनिक गवाही देगा, और अपने आप को संसार तथा सांसारिकता की बातों से अलग करेगा, उसके अन्दर स्वतः ही इन शेष चार बातों के लिए भी स्वाभाविक लालसा बनी रहेगी, और वे इनमें लौलीन भी रहेंगे। हम अगले लेख से इन चारों बातों को एक-एक करके कुछ विस्तार से देखेंगे। 

अपने आप को ईसाई या मसीही कहने वाले लोगों में इन चारों बातों को पूरा न करने को लेकर एक बहुत सामान्य धारणा पाई जाती है - समय ही नहीं होता है, कैसे करें? संसार और सांसारिकता की बातों के बाद उनके पास समय ही नहीं बचता है कि वे प्रभु के साथ समय बिताएं, प्रभु के लिए कुछ करें। फिर इसके साथ एक दूसरा बहाना भी जोड़ दिया जाता है, “प्रभु हमारे दिल और जीवन के हाल तो जानता है; उसे पता है कि हम उससे प्रेम करते हैं, बस उपयुक्त समय नहीं देने पाते हैं। वह हमारी स्थिति समझता है, दयालु और करुणामय है, और अपनी दया और करुणा में होकर हमसे व्यवहार करेगा।लेकिन ये लोग इस बात पर बिलकुल विचार नहीं करते हैं कि क्या होगा जब न्याय के दिन प्रभु उनसे कहेगा, “हाँ, मैं दयालु और करुणामय हूँ, और इसीलिए मैं, इतने सालों तक, बारंबार, तुम्हारे पास संगति के लिए, तुम्हें विश्राम और आशीष देने के लिए, तुम्हारी सहायता और मार्गदर्शन करने के लिए प्रतिदिन आता रहा और तुमसे समय माँगता रहा, अपने लोगों के द्वारा तुम्हें संदेश भेजता रहा, तुम्हें अपनी प्राथमिकताएं सही करने की शिक्षाएं देता रहा, किन्तु तुमने हर बार नश्वर संसार की नाशमान बातों को मुझ अविनाशी परमेश्वर और उसकी अनन्तकालीन आशीषों से अधिक महत्वपूर्ण समझा, संसार को ही प्राथमिकता दी। तुम जानते थे कि मुझे छोड़कर तुम जिसके लिए परिश्रम और प्रयास करने में लगे हुए हो, एक दिन वह सब नष्ट हो जाएगा, तुम्हारे साथ उसका कुछ अंश भी नहीं जाएगा। तुम ये भी जानते थे कि तुम्हें प्रतिफल तुम्हारे कार्यों के अनुसार दिए जाएंगे; लेकिन फिर भी तुमने संसार को ही प्राथमिकता दी, उसी के लिए उपयोगी बने रहे, मेरे लिए नहीं। आज, यह मेरे उस सच्चे और खरे न्याय का दिन है, जिसके विषय तुम्हें मैं चिताता रहा, किन्तु तुम नहीं चेते; इसलिए आज, तुम्हारे द्वारा जानते-बुझते-समझते हुए किए गए निर्णय के अनुसार ही तुम वही फसल पाओगे, जिसके बीज तुमने अपने लिए स्वेच्छा से अपने जीवन में बोए हैं। नाशमान बातों को अपने जीवन में बोया है, विनाश की कटनी ही काटने को मिलेगी।” 

प्रभु यीशु के लिए समय, प्रयास, और परिश्रम व्यर्थ या निष्फल नहीं है, वरन ऐसे निवेश (investment) के समान है, जिसका कम-से-कम सौ-गुना प्रतिफल, और अनन्तकालीन आशीषें बिलकुल निश्चित हैं (मरकुस 10:29, 30)। जो अपना पहला समय, परिश्रम, प्राथमिकता प्रभु को देते हैं, प्रभु उन्हें शेष कार्य करने के लिए उपयुक्त समय, परिश्रम और प्रतिफल भी देता रहता है, जिससे वे अपने सांसारिक कार्यों में भी सफल रहते हैं, और प्रभु के लिए भी उपयोगी होकर आशीषित बने रहते हैं। आवश्यकता प्रभु पर भरोसा रखते हुए विश्वास के साथ सही दिशा में कदम बढ़ाने की है। 

यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो अभी समय और अवसर रहते अपने जीवन को जाँच-परख कर देख लीजिए कि आप इन सातों बातों के संदर्भ में, कहाँ खड़े हैं? प्रभु की बातें और आज्ञाकारिता आपके जीवन में क्या स्थान पाती हैं? यदि प्रभु यीशु, उसका वचन, और उसकी आज्ञाकारिता आपके जीवन की प्राथमिकता नहीं है, तो आपको बहुत गंभीरता से अपने जीवन का पुनःअवलोकन और आँकलन (review and re-assessment) करने की तथा आवश्यक सुधारों को लाने की आवश्यकता है। 

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 9-11     
  • मत्ती 15:21-39  

रविवार, 23 जनवरी 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - अलगाव का जीवन

 

प्रभु यीशु की कलीसिया - प्रभु की आज्ञाकारी   

प्रभु यीशु की कलीसिया में, प्रभु यीशु द्वारा व्यक्ति के जोड़े जाने साथ ही, उस सच्चे और वास्तविक मसीही विश्वासी के जीवन में कुछ बातों की उपस्थिति भी अनिवार्य और आवश्यक हो जाती है। प्रभु का जन कहलाए जाने वाले व्यक्ति के जीवन में इन बातों की उपस्थिति यह दिखाती और प्रमाणित करती है कि वह प्रभु का जन है, प्रभु की कलीसिया में प्रभु द्वारा जोड़ा गया है। इन बातों के द्वारा वह जन अपने मसीही जीवन में बढ़ता जाता है, प्रभु की कलीसिया के लिए उपयोगी बना रहता है, और उसके द्वारा अन्य लोग भी प्रभु की निकटता में आने लगते हैं। प्रेरितों 2 अध्याय में प्रथम कलीसिया स्थापित हो जाने के साथ ही उन प्रथम विश्वासियों के जीवनों में भी ये सात बातें दिखने लगीं थीं, और तब से लेकर आज तक संसार के हर स्थान में प्रभु की कलीसिया के प्रत्येक सच्चे सदस्य में ये सात बातें होना ही उसके वास्तविक मसीही विश्वासी होने का प्रमाण रही हैं (प्रेरितों 2:39)। ये सात बातें हमें प्रेरितों 2:38-42 में मिलती है, और इनमें से पद 38 में दी गई पहली दो, पापों के लिए पश्चाताप और बपतिस्मे द्वारा मसीही विश्वास में आ जाने की सार्वजनिक गवाही देने से संबंधित कुछ बातों को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं।

तीसरी बात प्रेरितों 2:40 में दी गई है -उसने बहुत ओर बातों में भी गवाही दे देकर समझाया कि अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ; अर्थात, बुरे और प्रभु विरोधी लोगों ही अलग होकर प्रभु के साथ और उसकी आज्ञाकारिता में बने रहो। एक सच्चे मसीही विश्वासी का जीवन, संसार और सांसारिकता से बच कर रहने, संसार की नश्वर बातों से हटकर परमेश्वर के वचन के अनुसार चलने का जीवन होता है। मसीही विश्वासी हर परिस्थिति में प्रभु को महिमा देता है, उसके कार्य को, सुसमाचार को औरों तक पहुँचाने में संलग्न रहता है। इस संदर्भ में बाइबल के कुछ पद देखते हैं:

  • जब पतरस और यूहन्ना को यहूदी धर्म के अगुवों ने प्रभु यीशु के बारे में कुछ भी कहने से मना किया, तब उनकी प्रतिक्रिया:तब उन्हें बुलाया और चितौनी देकर यह कहा, कि यीशु के नाम से कुछ भी न बोलना और न सिखलाना। परन्तु पतरस और यूहन्ना ने उन को उत्तर दिया, कि तुम ही न्याय करो, कि क्या यह परमेश्वर के निकट भला है, कि हम परमेश्वर की बात से बढ़कर तुम्हारी बात मानें। क्योंकि यह तो हम से हो नहीं सकता, कि जो हम ने देखा और सुना है, वह न कहें” (प्रेरितों 4:18-20)
  • जब उनसे फिर भी प्रभु यीशु के सुसमाचार का प्रचार करते रहने के विषय पूछा गया, तो उनका उत्तर:क्या हम ने तुम्हें चिताकर आज्ञा न दी थी, कि तुम इस नाम से उपदेश न करना? तौभी देखो, तुम ने सारे यरूशलेम को अपने उपदेश से भर दिया है और उस व्यक्ति का लहू हमारी गर्दन पर लाना चाहते हो। ​तब पतरस और, और प्रेरितों ने उत्तर दिया, कि मनुष्यों की आज्ञा से बढ़कर परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना ही कर्तव्य कर्म है” (प्रेरितों के काम 5:28-29)
  • और जब अपने इस उत्तर के लिए वे पीटे गए, तो उनकी प्रतिक्रिया:तब उन्होंने उस की बात मान ली; और प्रेरितों को बुलाकर पिटवाया; और यह आज्ञा देकर छोड़ दिया, कि यीशु के नाम से फिर बातें न करना। वे इस बात से आनन्दित हो कर महासभा के सामने से चले गए, कि हम उसके नाम के लिये निरादर होने के योग्य तो ठहरे। और प्रति दिन मन्दिर में और घर घर में उपदेश करने, और इस बात का सुसमाचार सुनाने से, कि यीशु ही मसीह है न रुके” (प्रेरितों के काम 5:40-42)
  • स्तिफनुस के मारे जाने के बाद उस प्रथम कलीसिया पर भारी क्लेश आया, और उन सताए गए मसीही विश्वासियों की प्रतिक्रिया थी, “उसी दिन यरूशलेम की कलीसिया पर बड़ा उपद्रव होने लगा और प्रेरितों को छोड़ सब के सब यहूदिया और सामरिया देशों में तित्तर बित्तर हो गए” “जो तित्तर बित्तर हुए थे, वे सुसमाचार सुनाते हुए फिरे” (प्रेरितों 8:1, 4) - जिस बात के लिए वे सताए और बेघर किए गए, तित्तर बित्तर हो गए, वे उस बात से - अपने मसीही विश्वास और उसके दायित्व से पीछे नहीं हटे, वरन जहाँ भी गए, सुसमाचार सुनाते हुए ही गए।

हम उपरोक्त उदाहरणों से देखते हैं कि उन प्राथमिक मसीही विश्वासियों के अन्दर तुरंत ही कितना भारी परिवर्तन, और अपने मसीही विश्वास के दायित्व के प्रति कितना गहरा समर्पण आ गया था। वे हर हाल, हर परिस्थिति में, सताव सह कर भी, संसार और संसार के लोगों के साथ समझौते का नहीं, वरन विपरीत हालात में भी प्रभु की आज्ञाकारिता का जीवन जीते थे; उसके लिए सब कुछ सहने के लिए तैयार थे। परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इसके विषय मसीही विश्वासियों के लिए लिखवाया है:

  • और वह इस निमित्त सब के लिये मरा, कि जो जीवित हैं, वे आगे को अपने लिये न जीएं परन्तु उसके लिये जो उन के लिये मरा और फिर जी उठा” (2 कुरिन्थियों 5:15) 
  • तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है। क्योंकि जो कुछ संसार में है, अर्थात शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है। और संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा” (1 यूहन्ना 2:15-17)
  • हे व्यभिचारिणयों, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है” (याकूब 4:4)

       इसीलिए प्रभु यीशु मसीह ने कहा था, “उसने सब से कहा, यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप से इनकार करे और प्रति दिन अपना क्रूस उठाए हुए मेरे पीछे हो ले” (लूका 9:23)। आज प्रभु की खेती में शैतान द्वारा बोए गए झूठेमसीहीतरह-तरह की गलत शिक्षाओं का प्रचार और संसार के साथ समझौते का जीवन जीने की बातों को सिखाते और दिखाते हैं। जैसे जब इस्राएली मिस्र के दासत्व से छुड़ाए गए, तो उनके साथ एक मिली-जुली भीड़ भी निकल आई (निर्गमन 12:38)। ये भीड़ इस्राएलियों के साथ ही रहती और चलती थी; उन्हें भी मन्ना मिलता था, परमेश्वर की देखभाल और सुरक्षा उन पर भी रहती थी। किन्तु यह मिली-जुली भीड़ इस्राएलियों के लिए दुख और पतन का कारण बन गई, उसने इस्राएलियों को परमेश्वर के कोप का भागी बना दिया (गिनती 11:4-6, 10, 33), और अन्ततः कनान में प्रवेश के समय उस मिली-जुली भीड़ का इस्राएलियों के साथ होने का कोई उल्लेख नहीं है; बलवाई इस्राएलियों के साथ वे भी जंगल में नाश हो गए, आशीष की भूमि तक नहीं पहुँच सके। 

       यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो हर परिस्थिति में प्रभु और उसके निर्देशों के प्रति सच्चे और आज्ञाकारी बने रहने में ही आपकी आशीष और सुरक्षित भविष्य है। आज के ईसाई या मसीही समाज में शैतान के द्वारा कलीसिया में घुसाए गए झूठेविश्वासियोंकी कमी नहीं है। ये झूठे विश्वासी हमेशा संसार के समान कार्य और व्यवहार करने, संसार के लोगों के साथ समझौते करने, परमेश्वर के वचन की अनदेखी और अनाज्ञाकारिता करने के लिए ही उकसाते रहते हैं, विश्वासियों के मसीही विश्वास और जीवन में अग्रसर होने को बाधित करते रहते हैं। प्रत्येक सच्चे मसीही विश्वासी के लिए प्रभु का निर्देश है, “अपने आप को इस टेढ़ी जाति से बचाओ” (प्रेरितों 2:40)  

       यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • निर्गमन 7-8     
  • मत्ती 15:1-20